संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 88 | प्रकाशक: सी बी टी प्रकाशन | संपादक: सुमन बाजपेयी
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
रवि की उद्दंडता दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही थी। पढ़ाई लिखाई में तो उसका ध्यान पहले ही नहीं था लेकिन वह अब आलसी, कामचोर, गुस्सैल और मुँह फट हो चला था। किसी से भी कुछ भी कह देना उसके लिए आम बात थी। माँ बाप के गुजरने के बाद उसे उसके दादा दादी ने पाला था लेकिन वह अब उनके साथ भी बद्दतमीजी करने लगा था। रवि के दादा ज्योति प्रकाश और दादी सावित्री दिन रात उसकी चिंता में घुले जा रहे थे।
ऐसे में जब रवि के दादाजी को उनकी पहचान के एक पुराने शिक्षक देवकांत मिले तो उन्होंने उनके सामने अपनी बात कही। देवकांत ने कभी रवि के पिता को भी पढ़ाया था।
देवकांत ने उनकी मदद करने का आश्वासन दिया और रवि को ट्यूशन पढ़ाने के लिए हामी भर दी।
क्या देवकांत रवि में कुछ सुधार ला पाए?
मुख्य किरदार
ज्योति प्रकाश – रवि के दादाजी
सावित्री – रवि की दादी
देवकांत – एक अध्यापक जिन्होंने कभी रवि के पिता ज्ञान प्रकाश को भी पढ़ाया था
रतन – गाँव का एक बच्चा जो कि रवि की उम्र का था
माधो – गाँव का एक बच्चा
विचार
‘पारस पत्थर’ उषा यादव का लिखा उपन्यास है जो कि सी बी टी प्रकाशन द्वारा प्रथम बार 1990 में प्रकाशित हुआ था।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
व्यक्ति के जीवन में एक गुरु की क्या महिमा होती है यह कबीर दास जी के ऊपर लिखे दोहे से ही साफ हो जाता है। एक अच्छा गुरु न केवल आपको किताबों से जुड़ी शिक्षा देता हैं लेकिन कई बार आपको सही मार्ग बतलाकर अपने जीवन की दिशा और भाग्य को बदल देता है। यही कारण है कि कबीर दास जी ने उन्हें भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया है। उषा यादव का बाल उपन्यास पारस पत्थर भी एक ऐसे पंद्रह वर्षीय किशोर रवि और उसके गुरुजी देवकांत की कहानी आपको बताता है।
एक गुरु किस तरह से एक उद्दंड और बिगड़ैल किशोर को एक संवेदनशील मनुष्य में बदल देते हैं यह इस उपन्यास को पढ़कर देखा जा सकता है। जब व्यक्ति किशोरावस्था में कदम रखता है तो न वो बच्चा ही रह जाता है और न पूरी तरह से वयस्क ही रहता है। वह एक त्रिशंकु के समान किसी बीच की परिस्थिति में रहता है। ऐसी परिस्थिति जहाँ उसके अभिभावक एक पल को तो किसी वयस्क के समान आचरण करने की उससे अपेक्षा रखते हैं लेकिन कई बार उससे बच्चे की तरह भी बर्ताव करते हैं। यह वह समय होता है जब बच्चे या तो बनते हैं या वो राह भटक जाते हैं। ऐसे समय में एक उचित मार्गदर्शन करने वाला व्यक्ति न हो तो वह उतनी ही आसानी से गलत रास्ते पर निकल पड़ते हैं जितना कि अच्छे रास्ते पर जा सकते थे। चूँकि इस समय किशोर के मन और शरीर में भी कई तरह के बदलाव हो रहे होते हैं तो वह भी घर वालों से उस तरह से सहज नहीं हो पाते हैं। वहीं घर वाले भी इस पशोपेश में रहते हैं कि वह किस तरह से बच्चे को सही राह पर लाए। यह समस्या उन परिवारों में अधिक होती है जो धन संपत्ति के मामले में समृद्ध होते हैं क्योंकि तब किशोर यह नहीं समझ पाते हैं कि जो चीजें उन्हें आसानी से उपलब्ध है वह किसी और के लिए कितनी परेशानी भरी है। ऐसे में जब वह अपने आस पास के लोगों को अपने से इन मामलों में कम पाते हैं तो उनके अंदर उस चीज को लेकर दंभ होने लगता है जिसे हासिल उन्होंने नहीं किया है।वहीं वह अपने परिवार के कारण मिलने वाली सुविधाओं के सही मूल्य को भी नहीं पहचान पाते हैं।
प्रस्तुत बाल उपन्यास में रवि भी ऐसा ही किरदार है। वह एक अमीर घर का लड़का है और अब बिगड़ चुका है। वह पंद्रह साल का है और अपनी बात के अलावा उसके लिए किसी और चीज का महत्व नहीं रहता है। वहीं अपने घर में काम करने वाले लोगों को भी वह अपने से नीचे समझता है और उन पर हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता है।
उसके दादाजी शहर के मशहूर जाैहरी हैं पर वह एक सज्जन आदमी हैं जो कि अपने पोते की बिगड़ती हुई आदतों से परेशान हैं। वह उसे सुधारने की कोशिश करते हैं लेकिन समझ नहीं पाते हैं कि वह किस तरह से उसके अंदर बदलाव लाएँ।
ऐसे में देवकांत, जो कि रवि के पिता के भी शिक्षक थे, किस तरह से सही राह पर रवि को लाते हैं यह उपन्यास का कथानक बनता है। वह किस तरह रवि की प्रतिभा को पहचानते हैं बल्कि उसके मन की संवेदनाओं को जागृत करते हैं यह देखना पाठक के मन को छू सा जाता है।
देवकांत एक प्रेरक किरदार हैं जिन्हें बाल मन की अच्छे से समझ है। जिस तरह से वह कुम्हार की तरह रवि के मन को एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में गढ़ते हैं यह लेखिका ने बखूबी दर्शाया है। अक्सर माँ-बाप अपने किशोरवय बच्चों से बर्ताव करने में क्या गलती करते हैं यह भी लेखिका ने अच्छे से दर्शाया है।
वहीं यह भी दिखता है कि कई बार बच्चे जैसे बिगड़ैल दिखते हैं वैसे होते नहीं है। उन्हें बस कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए जो कि उन्हें समझ सके। अक्सर अभिभावक उन्हें समझ नहीं पाते हैं और बच्चे अपनी इस झुँझलाहट को बाहर शैतानियों में निकालते हैं।
उपन्यास में रवि अपने गुरुजी देवकांत के साथ उनके गाँव भी जाता है। रवि के ये अनुभव पठनीय बन पड़े हैं। फिर वह रेल यात्रा में गुरुजी द्वारा दबंगों के दिमाग ठिकाने का अनुभव हो या गाँव में गाँव वालों के साथ हुए रवि के अनुभव हों। यह सभी अनुभव रोचक बन पड़े हैं। किस तरह से कई बार शहरों में सब कुछ होने के बाद भी हमारे मन संकुचित हो जाते हैं और वहीं गाँव में इतना कुछ न होते हूए भी किस तरह लोगों के मन खुले रहते हैं यह इधर दिखता है। कई बार धनाढ्य परिवार के लोग आम ज़िंदगी से कटे कटे रहते हैं जो कि उनकी संवेदना को भी धीरे धीरे मार देता है। ऐसे में कैसे ऐसा सफर या ऐसी ज़िंदगी का अनुभव किसी को संवेदनशील बना सकता है यह भी इधर दिखता है।
उपन्यास छोटे छोटे अध्यायों में विभाजित है जो कि इसे पढ़ना सहज और सरल बनाता है। हाँ, जहाँ पर एक अध्याय खत्म होता है उसी पृष्ठ से दूसरा शुरू हो जाता है जो कि पठनीयता को थोड़ा प्रभावित करता है। नया अध्याय अलग पृष्ठ से शुरू करते तो बेहतर होता। इसके अतिरिक्त उपन्यास में चित्र नहीं है। यह बात समझ में आती है कि किशोर पाठकों के लिए उपन्यास है तो इसलिए चित्र की इतनी आवश्यकता नहीं है लेकिन फिर भी थोड़े चित्र होते तो उपन्यास और आकर्षक बन सकता था।
उपन्यास में कथानक में किशोर पाठकों के हिसाब से कोई ऐसी कोई विशेष कमी नहीं दिखी। एक बात जो खटकी वह माधो और रवि के बीच के टकराव का अंत जल्दी होना था। यह टकराव जैसे शुरू हुआ था और जिस तरह का चरित्र माधव का बतया गया था वैसे में माधो और रवि के बीच जितनी जल्दी सुलह हो गई वह थोड़ा माधो के चरित्र के अनुरूप नहीं लगा। अगर इस टकराव को सुलझने में थोड़ा और समय लगता और दो तीन मुठभेड़ों के बाद ये सुलझता तो शायद ज्यादा सही होता। अभी लगता है कि जल्दबाजी में लेखिका ने इसे खत्म कर दिया।
एक वयस्क पाठक की दृष्टि से देखूँ तो मुझे लगता है निम्न बातें ऐसी थीं जो या तो मुझे खटकी या मुझे लगा कि उस विषय पर अधिक जानकारी पाठक के साथ साझा होनी चाहिए थी।
उपन्यास की शुरुआत में रवि पंद्रह वर्षीय किशोर है और बहुत उद्दंड है। वह बचपन से ही ऐसा था या बड़ा होते होते ऐसा हुआ है। यह एक बात है जिस पर अधिक बात नहीं होती है। हमें बस बताया जाता है कि यह एक उद्दंड बालक है। अगर यह दर्शाया जाता कि वह क्या परिस्थितियाँ थीं जिनके चलते ऐसा हुआ तो अच्छा रहता। क्या शुरुआत में दादा दादी के अत्यधिक लाड़ ने इस स्थिति तक उसे पहुँचाया? या कोई ऐसा समय था जब रवि के भीतर ये बदलाव आया? अगर रवि के दादाजी और मास्टर देवकांत की वार्तालाप में ये बात उजागर होती तो बेहतर रहता।
इसके अलावा उपन्यास में रवि द्वारा अपने घरेलू नौकरों पर हाथ छोड़ने के दृश्य हैं। जिस तरह के किरदार रवि के दादा दादी दिखा रखे हैं उसके हिसाब से उनका ये सब देखकर भी चुप रहना थोड़ा अटपटा लगता है। वह न तो उसे टोकते हैं और न ही उसे कोई ऐसी सजा देते हैं कि वो आगे से ये काम करे। यह उनके चरित्र के अनुरूप नहीं लगता है। हाँ, रवि चोरी छुपे अपने दादा दादी की नज़रों में आये बिना ये काम करता तो अलग बात थी लेकिन उनका जानकर भी अनजान बनना अजीब लगता है।
इसके अलावा जिस चीज पर और अधिक रोशनी डालने की आवश्यकता थी वह मास्टर देवकांत के गाँव में रहने की बात थी। कहानी में बताया जाता है कि देवकांत ने कई वर्षों तक रवि के स्वर्गीय पिता ज्ञान प्रकाश को भी पढ़ाया था। यानी पहले वो शहर ही रहते थे। ऐसे में वो गाँव क्यों गए और उनके परिवार का क्या हुआ? यह ऐसे प्रश्न हैं जिन पर और रोशनी डाली जा सकती थी। यह बात रवि गाँव वालों से पूछकर जान सकता था या अपने गुरुजी देवकांत से भी पूछकर जान सकता था।
उपन्यास का शीर्षक ‘पारस पत्थर’ है। कहा जाता है पारस पत्थर के अंदर वह खूबी होती है जो कि बेमोल धातु के टुकड़े को भी सोने का बना देता है। इस उपन्यास में मास्टर देवकांत को ऐसे ही पारस पत्थर की संज्ञा दी गई है जो कि किसी काम काज के न समझे जाने वाले बच्चों को काम का बना देते थे। ऐसे में यह शीर्षक कथानक में फिट बैठता है।
अंत में यही कहूँगा कि अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा तो आपको इसे पढ़कर देखना चाहिए। भले ही यह प्रथम बार 1990 में प्रकाशित हुआ था फिर भी यह आज भी प्रासंगिक है। वयस्क और किशोरों दोनों तरह के पाठकों के पढ़ने के लिए यह उपन्यास उपयुक्त है।
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