संस्करण विवरण
फॉर्मैट: ईबुक | पृष्ठ संख्या: 227 | प्रकाशन: बुक कैफै
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
25 वर्षीय देवधर पंजाब में आतंकवाद के माहौल से तंग आकर मुंबई आया था। जूडो कराटे का एक्सपर्ट देवधर का लक्ष्य मुंबई में जाकर मेहनत करना और अपनी मेहनत के बल पर अमन की जिंदगी गुजारना था।
लेकिन फिर उसकी जिंदगी ने ऐसा पलटा खाया कि वह मुंबई अंडरवर्ल्ड का केंद्र बन गया। मुंबई अंडरवर्ल्ड की सिंडिकेट नामक सबसे बड़ी संस्था का बॉस बन गया। एक अन्डरवर्ल्ड डॉन बन गया।
आखिर कैसे एक मामूली सा इंसान शहर के अंडरवर्ल्ड की सबसे बड़ी संस्था का बॉस बन गया?
अपनी किस्मत की खाई इस पलटी के कारण देवधर की जिंदगी में क्या क्या बदलाव आया?
क्या देवधर को वह शांति मिली जिसकी तलाश में वह आया था?
मुख्य किरदार
देवधर – एक 25 वर्षीय युवक जो पंजाब से मुंबई आया था
बंता सिंह – एक चाय की दुकान वाला जिसकी दुकान के सामने देवधर रह रहा था
ओबेरॉय – मुंबई अंडर वर्ल्ड की संस्था सिंडिकेट का सदस्य
टीना – ओबोरॉय की 21 वर्षीय बेटी
जोजफ ब्रिगेंजा – एक शराबी जो देवधर को मिला
नागप्पा मुदिलियार – मुंबई अंडर वर्ल्ड का दूसरे नंबर का गैंगस्टर
पालकीवाला – ओबेरॉय का दोस्त और सिंडिकेट का बड़ा ओहदेदार
पीतांबर – सिंडिट का गुंडा
जगन – पीतांबर का चेला
शांता – एक डांसर जो सिंडिकेट की सदस्य थी और 10 रॉयल स्ट्रीट में डांसर थी
आत्माराम भिड़े उर्फ पोपला – वो व्यक्ति जिसने ओबेरॉय को मारा था
दशरथ बिलिमोरिया – पोपला का दोस्त
अब्बास अली – नागप्पा का खास आदमी
लालचंद – 10 रॉयल स्ट्रीट का रसोइया
डोंगरे – नागप्पा का एक साथी
विचार
अमित खान (Amit Khan) का प्रस्तुत उपन्यास बॉस (Boss) एक थ्रिलर उपन्यास है जो कि पहली दफा 1 जून 1996 में प्रकाशित हुआ था। लेखक लेखकीय में यह भी बताते हैं कि चकमे में चकमा (Chakme mein Chakma) (13 अप्रैल 1994 में प्रकाशित), बिच्छू का खेल (Bicchu Ka Khel) (23 जुलाई 1994 में प्रकाशित) के पश्चात प्रकाशित हुआ बॉस (Boss ) उनका तीसरा थ्रिलर उपन्यास था। अब यह उपन्यास नवीन साज सज्जा के साथ लेखक के प्रकाशन बुक कैफै (Book Cafe) द्वारा पुनः प्रकाशित किया गया है।
‘किस्मत’ एक ऐसी चीज है जिस पर या तो व्यक्ति विश्वास करता है या नहीं करता है। मनुष्य के हाथ में वैसे तो कर्म करना ही होता है लेकिन कई बार देखा गया है कि अगर किस्मत हो तो रंक भी राजा बन जाता है और राजा भी रंक बन जाता है। आप भले ही किस्मत को माने न माने लेकिन इसके खेल आस-पास घटित होते दिख ही जाते हैं। अमित खान (Amit Khan) का प्रस्तुत उपन्यास बॉस (Boss) भी किस्मत की एक ऐसी ही उठा पटक की कहानी है।
बॉस (Boss) के केंद्र में एक पच्चीस वर्षीय युवक देवधर है जो कि अमन और ईमानदारी की ज़िंदगी बिताने मुंबई आया था। लेकिन उसके जीवन में किस्मत के चलते ऐसी उठापटक होती है कि वह मुंबई के सबसे बड़ी आपराधिक संस्था सिंडिकेट का बॉस बन जाता है। यह सब 227 पृष्ठों के इस उपन्यास के शुरुआती 49 पृष्ठों में ही हो जाता है। लेकिन वो अंग्रेजी की मसल है न ‘अनईजी लाइस द हेड दैट वियर्स द क्राउन (Uneasy Lies the Head that wears the Crown)’ यानि जिसके सिर पर ताज रहता है वह बैचेन ही रहता है। यही मसल देवधर पर लागू होने लगती है। सिंडिकेट का बॉस वह बनना नहीं चाहता था क्योंकि वह ईमानदारी का जीवन जीना चाहता है लेकिन उसे बनना पड़ता है। बॉस बनने के बाद उसे अपने सिंडिकेट के दुश्मन नागप्पा मुदलियार से तो जूझना ही पड़ता है साथ ही सिंडिकेट में मौजूद उसके ऐसे रहस्यमय दुश्मन से भी जूझना पड़ता है जो तब तक नहीं रुकेगा जब तक उसकी जान न ले ले। यह दोनों दुश्मन उसको रास्ते से हटाने की क्या कोशिश करते हैं और अपने इन दोनों दुश्मनों से वो कैसे पार पाता है? यह सब उपन्यास का कथानक बनता है। वहीं एक ईमानदार व्यक्ति ना चाहते हुए भी हालात के हाथों मजबूर होकर कैसे अपराधी बनने पर मजबूर हो जाता है ये भी इधर दिखता है।
उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो यह उपन्यास 1996 में लिखा गया था और इसलिए वह छाप इस पर दिखती है। जहाँ एक तरफ पंजाब में फैला आंतकवाद इसके मुख्य किरदार को मुंबई आने के लिए विवश करता है वहीं उपन्यास पढ़ते वक्त 90 के दशक की फिल्मों का अक्स भी जेहन में उठता रहता है। कहानी भी फिल्मी है और इसका ट्रीटमेंट भी वैसे ही किया गया है। उपन्यास में चालें चलते किरदार हैं, भरपूर मारधाड़ है और यह सब ऐसी हैं जिन्हें ओवर द टॉप यानी अतिनाटकीय ही कहा जाएगा। यानी मुंबई की सड़कों पर गोलियाँ बरसाई जा रही हैं, पेट्रोल पंप उड़ाये जा रहे हैं, दस बारह लोगों को एक बंगले में जाकर मार दिया जाता है, बस्ती में गुंडे कई लोगों की हत्या कर देते हैं, शराब के अड्डे बमों से उड़ा दिए जाते हैं, अपराधी संगठन हेलिकाप्टर और पनडुब्बियों का इस्तेमाल अपने दुश्मनों के खात्मे के लिए कर रहे हैं और इस सबके बीच से पुलिस, सरकार, मीडिया सभी नदारद हैं। अब आपके ऊपर है कि आप इस एक्शन को कैसे लें। व्यक्तिगत तौर पर मैं इन चीजों का लुत्फ ले लेता हूँ।
उपन्यास के दूसरे किरदारो पर आऊँ तो वह कथानक के अनुरूप हैं। पुरानी फिल्मों में नायक, खलनायक के अलावा एक किरदार एक गलेमरस वैम्प यानि खलनायिका का भी होता था। यह ऐसी स्त्री होती थी जो कि बेहद खूबसूरत और सजी धजी रहती थी और खलनायक के साथ रहती थी। ऐसा किरदार भी इधर शांता के रूप में मौजूद है। जब भी वह उपन्यास में आती थी तो मेरे दिमाग में हेलन या बिन्दु जैसी अदाकाराओं के चित्र उभरते थे। पुरानी फिल्मों की तरह इस उपन्यास की वैम्प भी एक डान्सर है जो कि अपने जलवों से हीरो की आँख में धूल झोंकने में कामयाब होती है।
उपन्यास के रोचक किरदारों की बात करूँ तो पालकीवाला का किरदार मुझे सबसे ज्यादा रोचक लगा है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो कि सिंडिकेट के टॉप बॉस का दोस्त है लेकिन अपराधी नहीं लगता है। वह अपराध जगत की हर चीज से वाकिफ है और किस चीज को कैसे करना है यह उसे आता है लेकिन फिर भी वह किनारे पर एक गाइड की भूमिका में ही दिखता है। उपन्यास पढ़ते हुए मुझे यही लग रहा था कि ऐसे किरदार वाला आदमी ओबेरॉय जैसे अपराधी का दोस्त कैसे बन गया? या उसके किरदार में आयी इस तबदीली की वजह उसके साथ घटित हुआ कुछ था। ऐसी बात का इशारा एक बार उपन्यास में होता भी है लेकिन मुझे लगता है विस्तृत तौर पर उसे बताना चाहिए था।
उपन्यास में नागप्पा मुदिलियार भी एक खलनायक है। लेखक ने इसे एक खास आदत दी है कि यह अंग्रेजी के मुहावरे परिस्थिति के हिसाब से बोलता रहता है। इसका यह अंदाज मुझे पसंद आया। वैसे पुरानी फिल्मों में खलनायकों को ऐसी चीजें दी जाती थी जो कि उन्हें खास बनाती थी। ओम शिवपुरी, कुलभूषण खरबन्दा, जीवन जैसे खलनायक अक्सर ऐसी आदतें लिए होते थे। नागप्पा की यह आदत मुझे ऐसे ही फिल्मी खलनायकों की याद दिला रही थी।
उपन्यास में किस्मत भी एक किरदार के ऊपर में दिखती है। इसका भी उपन्यास के कथानक को आगे बढ़ाने में काफी सहयोग रहता है। उपन्यास में देवधर के साथ जो कुछ घटित होता है वह उसके पास एक पुरानी घड़ी आने के बाद होता है। कई लोग जो सफल होते हैं वह ऐसी चीजों को मानते हैं जिन्हें आम व्यक्ति अंधविश्वास कह कर दरकिनार कर सकते है लेकिन जो मानता है वो इन पर पूर्ण विश्वास करते हैं। देवधर और उस घड़ी का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है। लेखक ने इस चीज को कहानी के प्लॉट को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है और पाठक के तौर पर यह आप निर्भर करता है कि आप इसे कैसे लेते हैं।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास में सबसे बड़ी कमी प्रूफ रीडिंग की है। लेखक कहते हैं उन्होंने उपन्यास को संशोधित किया है लेकिन मुझे लगता संशोधन के बाद इसको प्रूफरीड नहीं करवाया है क्योंकि उपन्यास में काफी कुछ ऐसा है जो सुधारा जाना चाहिए था। मसलन लेखकीय में ही लेखक ने कोशिश को कौशिश लिखा है। इसके बाद उपन्यास में कई जगह डायलॉग विशेषकर वो जो पंजाबी और मुंबइया में बोले गए थे वो ऐसे लिखे हैं जैसे किसी नौसीखिए ने लिखे हों। मुझे लगता है जब लेखक इस उपन्यास को संशोधित कर रहे थे तो उन्होंने इन डायलॉग्स को किसी ऐसे बंदे की मदद लेकर ठीक करवाना चाहिए था जिसकी पंजाबी या मुंबइया ठीक हो। उदाहरण के लिए कुछ डायलॉग हैं:
“कहिये, मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ।” (पृष्ठ 8)
कहिये के साथ आप होना चाहिए कायदे से। कहिये के साथ तुम्हारी मुझे तो अटपटा लगता है।
दो दिन – सिर्फ दो पहले हो वो पंजाब से मुंबई आया था। (पृष्ठ 11)
“और की गल है, बादशाह, तुसी चंगा तो है?” (पृष्ठ 12)
तुसी यह कमजोर मरदां वाली बात मत किया कर, मैनूँ एकदम खून फुँक जाता है।” बंता सिंह भड़का – “तू यह काहे को भूल जाता है, तू लोहा है, अगर तू ही ऐसी गिरती पड़ती बात करने लगेगा, तो बाकी के मुल्क का क्या होगा, प्यारयो!” (पृष्ठ 13)
तुसी देखना, तैनूँ किस्मत भी ऐसे ही चमकेगी (पृष्ठ 19)
“मैनूँ सुना कि रात एक शराबी तुसी चैन छीनकर भाग गया और सामने वाले बार में जा घुसा?” (पृष्ठ 19)
“कमाल है! जब तुसी मालूम था कि चेन सनेचर सामने बार में है, तो तैनूँ उससे जाकर अपनी चेन हासिल क्यों नहीं की।” (पृष्ठ 19)
इस बार उसके सामने एक साफ सड़क घड़ी थी और कोई उसे रोकने वाला नहीं था। (पृष्ठ 35)
“ऐइसी तू कौन सी खबर सुनाएला है हलकट,जो पीताम्बर के भी घंटे-घड़ियाल बज जाएँ।” (पृष्ठ 70)
ऊपर वाले पंजाबी के सारे डायलॉग एक बंता सिंह नाम के किरदार ने कहे हैं। ऐसे कई डायलॉग उपन्यास में मौजूद हैं। मैं पंजाबी नहीं हूँ लेकिन फिर मुझे इतना पता है कि डायलॉग सही नहीं है। इससे बेहतर तो यही होता कि लेखक इन्हें हिंदी में ही लिख देते। इस पंजाबी के डायलॉग को लेकर एक और बात मुझे खटकी थी। वह यह थी कि उपन्यास में देवधर जो कि पंजाब से आता है वह तो पंजाबी नहीं बोलता है लेकिन बंता सिंह उससे पंजाबी में गलत सलत बोलता रहता है। जबकि कायदे से देवधर को पंजाबी में कही गई बात का जवाब भी पंजाबी में ही देना चाहिए था।
इसके अलावा कुछ बातें जो मुझे खटकी वह निम्न थीं:
सिंडिकेट के नेता ओबेरॉय का दायाँ हाथ पालकीवाला था लेकिन जब बॉस बनाने की बारी आती है तो वह पालकीवाला को न चुनकर देवधर को चुनता है। वह ऐसा क्यों करता है? पालकीवाला की इज्जत सभी लोग करते थे ऐसे में उसे न चुनकर देवधर को चुनना अजीब लगता है। कम से कम देवधर को पालकीवाला से यह सवाल करना चाहिए था जिसका उत्तर पालकीवाला देकर इस कन्फ्यूजन को पाठकों के लिए दूर कर सकता था।
ओबेरॉय एक जाना माना अपराधी रहता है जिसकी लाश जब जाती है तो जन सैलाब उमड़ पड़ता है। एक अपराधी के लिए यह जन सैलाब क्यों उमड़ा यह बात कुछ जमती नहीं है। अगर इसके कारण पर और रोशनी डाली होती तो बेहतर होता।
उपन्यास में एक प्रसंग है जब देवधर मुंबई के ऊंचे ओहदे वाले सरकारी असफ़रों को चेक से पैसे बांटता है। यह मुझे थोड़ा सा खटका। माना बियरर चेक को कोई ट्रेस नहीं कर सकता है लेकिन फिर भी सरकारी मुलाजिम इतनी तो सावधानी बरतेंगे कि वो घूस चेक के बजाए कैश से लें। अगर चेक की जगह कैश उस प्रसंग में इस्तेमाल होता तो शायद बेहतर होता।
वहीं जैसे मैंने बताया है कि उपन्यास का एक्शन ओवर द टॉप है तो कुछ बातें ऐसे पाठकों को पचानी मुश्किल हो सकती हैं जो कि यथार्थ के निकट रची गई अपराध कथा पढ़ना चाहते हैं। हाँ, उन आपराधिक घटनाओं के होने के बाद कुछ मीडिया या सरकार की प्रतिक्रिया बताई जाती तो बेहतर होता। अभी यह चीज नदारद है और आखिर में एक अदालत वाले सीन में ही दर्शाया गया है कि सिंडिकेट को लेकर सरकार क्या सोचती थी।
तो यह कुछ छोटी छोटी बातें थीं जिस पर ध्यान देना चाहिए था। अंत में यही कहूँगा कि ऊपर लिखी कमियों विशेषकर प्रूफरीडिंग की कमियों में सुधार किया जाता तो यह और अधिक मनोरंजक उपन्यास बन सकता था। अभी भी एक पठनीय उपन्यास है। कहानी कहीं-कहीं पर अतिनाटकीय हो जाती है तो अगर ऐसे ओवर द टॉप एक्शन और फिल्मी कथानक आपको पसंद आता है तो आपका इसका आनंद उठा पाओगे लेकिन अगर पसंद नहीं आता है तो आपके लिए इससे दूर रहना ही बेहतर हो।
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बेहतरीन समीक्षा!
ये उपन्यास कुछ कुछ वैसा जान पड़ता है जो हम बहुत सालों पहले पढ़ा करते थे।
जी रिप्रिन्ट है। पहली बार 1996 में प्रकाशित हुआ था तो उस दौर के उपन्यासों की याद दिलाता है। हाँ, बेहतर सम्पादन से और अच्छा बन सकता था।