संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स | प्लैटफॉर्म: डेलीहंट
पहला वाक्य :
मेरे प्यारे पापा,
सादर नमस्ते!
सुची की चिट्ठी जब उसके माता पिता को मिली तो घबराहट से उनके होश फाख्ता हो गये। पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं आया कि चिट्ठी असली है। लेकिन जब सुची ने खुद आकर इस बात पुष्टि की कि चिट्ठी उसने ही लिखी है तो यकीन करने के सिवाय कोई चारा भी नहीं बचा था। जिन लोगों की शराफत का मुरीद होकर उन्होंने अपनी लड़की दी थी वो इंसान के खाल में भेड़िये होंगे ये उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। सारे बुलन्दशहर में रिटायर्ड जज बिशम्भर गुप्ता अपनी ईमानदार छवि के लिए जाने जाते थे। कहते थे उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी। तभी तो दीनदयाल ने अपनी बेटी को उनके यहाँ ब्याहा था। लेकिन अब सुची के अनुसार वो उसे दहेज़ के लिए उत्पीड़ित कर रहे थे।और फिर एक दिन सुची गायब हो गयी।
जब बिशम्बर का छोटा लड़का अमित अपनी भाभी सुची को खोजते हुए दीनदयाल के घर गया तो उस वक्त हैरत में पड़ गया जब उसके और उसके परिवार वालों के ऊपर सुची के माता पिता ने सुची को दहेज के लिए गायब करने का आरोप लगाया।
उसे पीटा गया लेकिन वो किसी तरह अपनी जान बचाने में कामयाब हो गया। जब अमित ने ये बात अपने परिवार को बताई तो उनके पैरों से जमीन खिसक गयी। उनकी माने तो सुची से ऐसी मांग उन्होंने कभी की ही नहीं थी।
क्या गुप्ता परिवार सच बोल रहा था? क्या उन्होंने दहेज नहीं माँगा था? फिर सुची ने अपने माता-पिता से झूठ क्यों बोला था? या सुची सच कह रही थी और गुप्ता परिवार झूठ?
सुची किधर चली गयी थी? उसे किसने गायब किया था?
इनके जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़ने के पश्चात ही मिलेंगे।
दुल्हन माँगे दहेज वेद जी का एक सामाजिक उपन्यास है। दहेज प्रथा हमारे समाज में लगा एक ऐसा कोढ़ है जिसके कारण हर साल कई औरतों के ऊपर जुल्म होता है और कई बार तो उन्हें अपनी जान से हाथ भी धो लेना पड़ता है। इस बात में कोई दो राय नही है कई लड़कियों की ज़िन्दगी इस कारण जहन्नुम बन चुकी है। परन्तु दुनिया में हर बात के दो पहलू होते हैं और अक्सर हम एक ही पहलू देखते हैं। जब हम किसी दहेज़ के मामले से जुड़ी खबर सुनते हैं तो ससुराल वालों के खिलाफ पहले ही अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन इस बात में भी सच्चाई है कि कई बार दहेज उत्पीड़न के ये मामले झूठे भी होते हैं।
उपन्यास की शुरुआत में ही वेद जी बता देते हैं कि एक व्यक्ति ने जब उनका उपन्यास बहू माँगे इंसाफ पढ़ा तो उसे पढने के बाद उनसे संपर्क स्थापित किया। फिर उसने उन्हें अपनी कहानी बताई जो कि दहेज उत्पीड़न का दूसरा पहलू है। जहाँ उत्पीड़न बहु का नहीं बल्कि ससुराल वालों का होता है। और उसी व्यक्ति की कहानी से प्रेरित होकर वेद जी ने ये उपन्यास लिखा। उनके अनुसार मूल कहानी और पात्रों के नाम सच हैं बस वेद जी ने इस पर थोड़ा तड़का इसको ज्यादा रुचिकर करने के लिए बनाया है। अब इस बात में कितनी सच्चाई है(उपन्यास के सच्ची घटना से प्रेरित होने पे ) ये तो मैं नहीं कहता लेकिन हाँ दहेज के कई झूठे मामलों में निर्दोष ससुराल वालों को हर साल फंसाया जाता है।
अब आते हैं उपन्यास के ऊपर तो उपन्यास मुझे ठीक ठाक लगा। कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि ये सच्ची घटना है और किसी के साथ भी हो सकती है। इसके पात्र जीवंत लगते हैं। इसके पात्र क्योंकि आम लोग हैं तो वो कई जगह गलतियाँ करते हैं और ये गलतियाँ उन्हें यथार्थ के अधिक नज़दीक ले जाती हैं। कहानी में मिस्ट्री है और ये रहस्य अंत तक बना रहता है कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है। रहस्य से पर्दा जिस तरीके से उठता है वो मुझे इतना अच्छा नहीं लगा। अगर हीरो वो खोजता तो ज्यादा सही रहता। उपन्यास का अंत भी मुझे अच्छा लगा।
हाँ,वेद जी के दो तीन एलिमेंट इसमें देखने को मिलते हैं। एक लड़की का हैण्डराइटिंग एक्सपर्ट होना, मकड़ा नाम का खलनायक जो कि किसी के घर पे भी जाता है तो टोपी और ओवर कोट पहन कर जाता है। अब इसमें ही वो एक मंजिल भी चढ़ता है। मेरे ख्याल से ये वस्त्र ऐसे कामों के लिए काफी अनुचित होंगे। अगर नोर्मल काली स्वेटर और चुस्त जीन्स वो पहने तो आसानी से काम को कर सकता था। इस उपन्यास में फेस मास्क की भी उपस्थिति है जो कि मुझे लगता है कि वेद जी के हर उपन्यास में होना जरूरी हो चुका है(क्या आप उनका लिखा कोई उपन्यास बता सकते है जिसमें फेस मास्क न आया हो?)। ये सब इसमें थोड़ा फिल्मिपना जोड़ते हैं लेकिन आप इन्हें भी एन्जॉय कर सकते हो। मैंने तो किया था।
मेरे हिसाब से उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।
ये तो हुई उपन्यास की कहानी के विषय में बातें। अब मैं किताब के संस्करण के ऊपर बात करना चाहूँगा। मैंने इस किताब को ई बुक संस्करण पढ़ा था जो कि डेली हंट के माध्यम से पढ़ा था। इस संस्करण ने किताब पढ़ने के मेरे अनुभव को काफी हद तक बेकार किया। इसमें टाइपिंग की इतनी गलतियाँ थी कि कई बार झुंझलाहट होती थी। ऐसा लग रहा था कि ओसीआर से किताब को बिना प्रूफ रीडिंग के बेचने के लिए डाल दिया था। किताब पढना एक अनुभव होता है जिसमे उपन्यास की कहानी के साथ उसे कैसे परोसा गया है उसका भी एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। अगर कहानी अच्छी भी है और उसमे कई वर्तनी की गलतियाँ हैं, पात्रों के नाम जगह जगह पे बदल जाते हैं, वाक्य अधूरे रह जाते हैं तो किताब पढने का अनुभव बेकार हो जाता है। इसलिए मेरी दरख्वास्त है कि अगर किताब प्रकाशित कर रहे हैं तो उन्हें एक बार प्रूफरीड अवश्य करें। वरना एक पाठक के तौर पर मैं अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता हूँ।
अगर आप इस किताब को पढना चाहते हैं तो इसका पेपरबैक संस्करण ढूँढे। ये निम्न लिंक्स से मिल जाएगा:
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