संस्करण विवरण :
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 285 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स
पहला वाक्य :
वह नये साल की शुरुआत का एक ठिठुरता हुआ दिन था।
कहानी
दुश्मन से एक बार डरो लेकिन औरत से हज़ार बार – क्योंकि औरत तलवार की धार जैसी होती है, जिसकी काट से न तो जान बचती है और न ही इंसान।
औरतें ऑक्टोपस की तरह होती हैं – जिसके शिकंजे में फंसकर मर्द सारी उम्र छटपटाता है और एक दिन जान दे देता है।
यही वजह है – औरत मेरी दुश्मन है।
ये उस ख़त का मजमून था जो दिल्ली की मश्हूर फैशन डिज़ाइनर अंजू मोदी को भेजा गया था। इसके साथ ही उसे अपना अगला शो स्थगित करने की धमकी भी दी गयी थी। अगर वो ऐसा नहीं करती तो उसे मौत के घाट उतारने का वादा इस खत के माध्यम से किया गया था।
कौन था ये औरत का दुश्मन? क्यों वो अंजू मोदी के पीछे पड़ा था? क्या ये कोई कारोबारी प्रतिद्वंदी था जो कि औरत के दुश्मन के भेष में अंजू की साख गिराना चाहता था?
सागर सरीन ‘द हॉक डिटेक्टिव प्राइवेट लिमेटेड कंपनी’ का एक पी डी था। ये कंपनी उसके पिता विक्रम सरीन की थी जो कि खुद एक माने हुए पी डी थे और अब सागर उनके व्यापार में हाथ बड़ा रहा था। सागर का भी दिल्ली में बड़ा नाम था। इसलिए अंजू मोदी ने इस केस को सागर के सुपुर्द करने का फैसला किया।
क्या सागर रहस्यों से पर्दा उठा पाया? इसके लिए उसे कितने पापड़ बेलने पड़े?
क्या औरत का दुश्मन अपनी धमकी को सच करने में कामयाब हो पाया? सागर से उसके टकराव का क्या नतीजा निकला?
सवाल तो कई हैं लेकिन जवाब केवल आपको इस उपन्यास को पढने के बाद ही मिल पायेंगे।
विचार
खैर, चूँकि ये एक डिटेक्टिव उपन्यास था तो मुझे इसको पढने की एक अलग तरीके से उत्सुकता थी। दूसरी बात ये थी कि मैंने अमित खान का अभी तक कोई भी उपन्यास नहीं पढ़ा था। मैं पढ़ना चाहता था लेकिन उनका केवल एक ही उपन्यास ऑनलाइन उपलब्ध था जो कि अपराध साहित्य नहीं था। इसलिए जब जयपुर जाना हुआ और उधर के बस अड्डे के एक शॉप पर ये उपन्यास दिखा तो उपन्यास मैंने बिना कुछ सोचे ले लिया।
उपन्यास की पृष्ठभूमि मूलतः दिल्ली है और संयोग से इसका कुछ हिस्सा जयपुर का भी है। उपन्यास एक डिटेक्टिव फिक्शन है। ये प्रथम ये पुरुष में लिखा गया उपन्यास है और उपन्यास की कहानी हमे सागर सरीन के माध्यम से पता चलती है।
सागर सरीन तीस साल का दिल्ली का एक माना हुआ जासूस है। इस पेशे में उसका अपना नाम है। उसके अनुसार उसके दो चेहरे हैं एक कठोर, बिना भावनाओं वाला चेहरा जो कि वो समाज के सामने पेश करता है ताकि उसका काम उस पर असर न डाल सके और दूसरा चेहरा असली चेहरा है जिसमे वो एक संवेदनशील इंसान है। वो वन वुमन मैन है और उसकी वुमन उसके साथ नहीं है। वो एकतरफा प्यार का मारा है। उपन्यास में इसका भी एक कोण है। इस विषय में आप उपन्यास में ही पढ़े तो बेहतर होगा। वो अपने घर अपने माँ के साथ रहता है। यानी उसके अन्दर वो कोई भी गुण नहीं है जो एक रन ऑफ़ द मिल पी डी में इस तरह के साहित्य में मिलते हैं। वो एक आम इंसान है जो कि पी डी है। वो कई जगह रूढ़ीवादी भी है। मैं कई दफा उसकी सोच से सहमत नहीं हुआ। जैसे वो मॉडलिंग को एक गिरा हुआ रोजगार समझता है, फिर उसे औरतों का गैर मर्दों से जिस्मानी रिश्ता बनाना (शादी से पहले) भी अच्छा नहीं लगता है और वो ये बातें उन औरतों को बोलने से भी नहीं कतराता है( हाँ, उपन्यास में जब भी ये बात उन औरतों से कही तो कई बार वो नशे में था।)। फिर सम्लेंगिगता पे भी उसके विचार काफी रूढ़ीवादी हैं। मुझे अक्सर लोगों की सोच से दिक्कत नही होती लेकिन जब वो अपनी सोच के हिसाब से दूसरों को चलाने की कोशिश करते हैं तो दिक्कत होती है। यही दिक्कत सागर से भी कई बार हुई और ये ही इसे ज्यादा जीवंत बनाता है। उसके अन्दर कई तरह की खामियाँ हैं लेकिन फिर भी वो बुरा इन्सान नहीं है। मैं उसके अन्य केसेज़ को भी पढ़ना चाहूँगा।
उपन्यास के बाकी किरदार उपन्यास के हिसाब से सही बने हैं।
उपन्यास मुझे पसंद आया। उपन्यास में कई मोड़ आते हैं। इसमें रहस्य और रोमांच प्रचुर मात्रा में है। कई जगह हमे सागर क्यों बेहतरीन पी डी है ये भी देखने का मौका मिलता है। लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती है जो कि लगता है कि बढ़ा चढ़ा कर लिखी गयी हैं। जैसे केवल कुछ फोटूओं के लिए एक घाघ व्यापारी का ब्लैक मेल होना तो जमा लेकिन क़त्ल होना नहीं जमा। उसके पास काफी स्रोत थे जिससे वो अपने ब्लैकमेलर से खुद को निजाद दिला सकता था क्योंकि वो जानता था कि ब्लैक मेलर कौन है। फिर आखिर में जिस तरह से केस की गुत्थी को एक प्रेस कांफ्रेंस में खोला गया वो भी मुझे इतना नहीं जचा। क्या अपराधियों से प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पत्रकारों से बात करवाई जा सकती है? मुझे इस विषय का नहीं पता लेकिन लगता ही नहीं कराई जाती होगी। कोई व्यक्ति क्यों प्रेस के सामने अपना गुनाह कबूल करेगा जबकि उसके पास कोर्ट का विकल्प है।
फिर लेखक ने सम्लेंगिगता के विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं वो ठीक से करने चाहिए थे। ये एक संवेदनशील मुद्दा है और इन्हें ढंग से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। एक किरदार इनके विषय में दकियानूसी सोच रख सकता है लेकिन उसके समक्ष ऐसे किरदार को रखें जो कि सही सोच रखता हो तो इस विषय के साथ न्याय होगा। जैसे औरतों वाले विषय में भले ही नायक की दकियानूसी सोच है लेकिन वो अपने ऐसे जूनियर से मिलता है जिसका चरित्र तो ठीक नहीं है लेकिन औरतों के विषय में उसके विचार नायक से ज्यादा अच्छे हैं। वो मानता है कि औरतों को कैसे जीना चाहिए ये उनका हक है और हमे उन पर अपनी मर्ज़ी नहीं थोपनी चाहिए।
कुल मिलाकर कहूँ तो ऊपर लिखी दो तीन बातों को छोड़ कर उपन्यास मुझे पसंद आया। इसने मेरा मनोरंजन किया और मैं लेखक द्वारा लिखे दूसरे उपन्यास जरूर पढ़ना चाहूँगा। अंत में ये ही कहूँगा कि इस उपन्यास को एक बार पढ़ा जा सकता है।
रेटिंग : 2.75/5
क्या आपने इस उपन्यास को पढ़ा है? अगर हाँ तो अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर दीजियेगा और अगर नहीं तो आप उपन्यास को निम्न लिंक से भी मंगवा सकते हैं।
अमेज़न
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
अभी तक अमित खान का कोई भी उपन्यास नहीं पढा।
मैंने भी इसी उपन्यास से उनको पढना शुरू किया है। अक्सर दिल्ली में उनके उपन्यास उपलब्ध नहीं होते हैं। ये तो मैं जब पुष्कर गया था तब इसे जयपुर बस स्टैंड से लिया था। इस बार दोबारा जयपुर जाना हुआ तो उनका एक और उपन्यास मिल गया। जल्द ही उसके विषय में पढ़कर इधर लिखूँगा।
बहुत बढ़िया सर
Samiksha के लये धन्यवाद
जी आभार।