साक्षात्कार: अनुवादक जयदीप शेखर से एक बातचीत

जयदीप शेखर  खुद को रेखाचित्र, छायाचित्र, शब्दचित्र का एक शौकिया चितेरा कहते हैं लेकिन  उनके पाठक उनको बांग्ला से हिंदी में किए गए उनके अनुवादों के माध्यम से जानते हैं। बांग्ला से किशोर साहित्य वह हिंदी में अनूदित करते रहे हैं और उनके इन अनुवादों को सराहा भी गया है। 
‘एक बुक जर्नल’ ने ईमेल के माध्यम से उनसे कुछ दिनों पूर्व एक बातचीत की है।  इस बातचीत में हमने उनके, उनके अनुवादों के और अनुवादों से इतर उनके अन्य कार्यों के विषय में जानने की कोशिश की है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी। 

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प्रश्न: नमस्कार जयदीप जी, एक बुक जर्नल पर आपका स्वागत है। सर्वप्रथम तो पाठकों को अपने विषय में कुछ बताएँ? आप कहाँ से हैं? शिक्षा दीक्षा कहाँ से हुई और फिलहाल कहाँ पर वास कर रहे हैं?

उत्तर: नमस्कार, जय हिन्द। मुझ नाचीज को ‘एक बुक जर्नल’ पर स्थान देने के लिए आभार।

झारखण्ड राज्य के 5 जिलों का इलाका ‘राजमहल की पहाड़ियों’ के आँचल में बसा है।  पूरा इलाका (कमिश्नरी) ‘सन्थाल परगना’ कहलाता है, जिसका पुराना नाम ‘दामिन-ए-कोह’ है। इन 5 में से एक जिले साहेबगंज के अन्तर्गत बरहरवा नामक कस्बे का मैं वासी हूँ। शिक्षा-दीक्षा स्थानीय विद्यालय, उच्च विद्यालय और महाविद्यालय में हुई, बाद में- पत्राचार द्वारा- अन्नामलाइ विश्वविद्यालय और ‘इग्नू’ से भी थोड़ी-बहुत पढ़ाई की। भारतीय वायु सेना में बीस वर्षों और भारतीय स्टेट बैंक में दस वर्षों की सेवा के उपरान्त मैं वर्तमान में अपने गृह कस्बे बरहरवा में ही रह रहा हूँ।

प्रश्न: साहित्य के प्रति आपका अनुराग कब विकसित हुआ? क्या आपको याद वह कौन से लेखक थे जिनकी लेखनी ने सर्वप्रथम आपको अपने मोहपाश में बाँधा था?

उत्तर: उन दिनों सभी बच्चे पत्र-पत्रिकाओं, कॉमिक्स और पॉकेट बुक्स के दीवाने हुआ करते थे, मैं भी था; लेकिन मुझे सौभाग्य से अतिरिक्त लाभ के रूप में घर में बँगला भाषा में सामग्रियाँ भी पढ़ने के लिए मिल गयीं- जैसे, बँगला की पत्र-पत्रिकाएँ, वार्षिक चयनिकाएँ, अखबार और पुस्तकें। सबसे पहले सोवियत-दूतावास की बाल-पत्रिका ‘बालस्पुत्निक’ ने मेरा एक पत्र प्रकाशित कर दिया- बेशक संशोधित करके। इससे मेरा उत्साह बढ़ा। कोलकाता से प्रकाशित ‘सन्मार्ग’ अखबार अपने सप्ताहिक ‘बाल-जगत’ में कहानी-कविता लिखने की प्रतियोगिता आयोजित करता था, उसमें तीन-चार बार मुझे पुरस्कार मिल गया- बाकायदे मनिऑर्डर द्वारा सात, पन्द्रह या इक्कीस रुपये की पुरस्कार राशि मुझे मिलती थी। फिर ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ ने मेरा एक पत्र प्रकाशित किया, जिसके एवज में मुझे ग्यारह रुपये का ‘गिफ्ट चेक’ मिला था। घर में बँगला लेखक ‘बनफूल’ की सौ कहानियों की एक बँगला पुस्तक थी, उसमें से एक कहानी का हिंदी अनुवाद कर मैंने एक मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में भेजा था, उन लोगों ने भी उसे प्रकाशित किया- पारिश्रमिक भी मिला। एक बँगला अखबार की साप्ताहिकी में प्रकाशित विज्ञान-विषयक लेख के आधार पर लेख लिखकर मैंने ‘विज्ञान प्रगति’ में भेजा था, वह भी छपा और पारिश्रमिक मिला। इस तरह से लिखने का- कह सकते हैं कि- चस्का लगा और इसी के साथ-साथ तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने की भी इच्छा जागी। यह मेरे बालपन का दौर था। उन दिनों- स्वाभाविक रूप से- ‘बनफूल’ की लेखनी ने ही मुझे मोहपाश में बाँधा था।    

प्रश्न: आपको व्यक्तिगत तौर पर किस तरह का लेखन पसंद है? क्या समय के साथ इस पसंद में बदलाव हुआ है?

उत्तर: एक समय में मुझे परमहँस योगानन्द की आत्मकथा ‘योगी कथामृत‘ अच्छी लगी थी, ‘बच्चन’ की आत्मकथा के दो खण्ड ‘बसेरे से दूर‘ और ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ‘ अच्छे लगे थे, राजेन्द्र माथुर के लेखों का संग्रह अच्छा लगा था, परसाई के लेखों का संकलन अच्छा लगा था, ओशो (तब रजनीश) के प्रवचनों का संग्रह ‘उत्सव आमार जाति आनन्द आमार गोत्र; अच्छा लगा था, जिम कॉर्बेट की शिकारगाथा ‘रूद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’ अच्छी लगी थी (यह गाथा अब भी अच्छी लगती है), कानन डायल और अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास अच्छे लगे थे, गाँधीजी की जीवनी पर आधारित उपन्यास का संक्षिप्त संस्करण ‘गिरमिटिया गाँधी’ अच्छा लगा था, तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जीवनी पर आधारित उपन्यास ‘रवि बाबू’ भी अच्छा लगा था, इनके अलावे, विश्वप्रसिद्ध रचनाएँ- चाहे वह ‘हैदी’ हो, या ‘थ्री मस्केटियर्स’ या कोई भी— सब अच्छी लगी थीं। यानि मेरी पसन्द इस मामले में बेतरतीब रही है और अब भी बेतरतीब ही है— किस तरह का लेखन मुझे पसन्द आ जायेगा, मैं खुद नहीं बता सकता। हाँ, रहस्य-रोमांच में मेरी रूचि सदाबहार है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि जिसे ‘समकालीन साहित्य’ कहा जाता है- इसमें मेरी कभी रुचि नहीं रही, हमेशा ‘क्लासिक’ किस्म की रचनाएँ ही मुझे पसन्द आयी हैं।

अगर आपका आशय मेरे खुद के लेखन से है, तो इसका उत्तर होगा: किशोरावस्था में मैं कविताएँ लिखता था- दो-चार कविताएँ अच्छी बन भी गयी थीं, जिनकी तारीफ कविता रचने/जानने वाले दो-एक सज्जनों ने की थी। किशोरावस्था बीतने के बाद यानि युवावस्था में मैं देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान पर लिखता रहा। बहुत लिखा और बहुत संशोधन किया। (जाहिर है, उम्र के लिहाज से न केवल देश, बल्कि दुनिया को बदलना चाहता था!) युवावस्था बीतने के बाद यानि वर्तमान में मेरी रुचि सिर्फ अनुवाद में है- बँगला से हिन्दी अनुवाद में; इसमें भी पता नहीं क्यों मुझे साहसिक गाथाएँ, जासूसी कहानियाँ, रहस्य-रोमांच वाली कहानियाँ ज्यादा पसन्द हैं और मेरी इच्छा है कि हिन्दी भाषी किशोर इनसे परिचित हों।

प्रसंगवश, मेरे द्वारा किये गये विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय की साहसिक एवं परालौकिक रचनाओं के अनुवाद को ‘साहित्य विमर्श’ ने पसन्द किया है और वे एक-एक कर इन्हें प्रकाशित भी कर रहे हैं।   

प्रश्न: अच्छा जयदीप जी, आप बांग्ला से हिंदी में रचनाओं का अनुवाद करते हैं। रचनाओं को अनुवाद करने का विचार आपके मन में कब उत्पन्न हुआ है? क्यों आपने अनुवाद की राह पकड़ी?

उत्तर: हुआ यह कि मैं अपने किशोर बेटे के लिए पुस्तकें मँगवा रहा था। विश्वप्रसिद्ध रचनाओं में से कुछ मूल अँग्रेजी में और कुछ हिन्दी में (अनुवाद) मैंने मँगवा दिये। इसी तरह सोचा कि बँगला की कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी मैं उसे मँगवा दूँ- क्योंकि उसने बँगला नहीं सीखा था। मैं यह देखकर दंग रह गया कि मेरी पसन्दीदा प्रसिद्ध बँगला रचनाओं का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध ही नहीं था, जबकि उन्हीं का अँग्रेजी अनुवाद उपलब्ध था! खैर, बेटे को अँग्रेजी अनुवाद तो मैंने मँगवा दिये, लेकिन साथ ही सोचा कि बँगला में उपलब्ध ‘किशोर साहित्य’ में से कुछ का अनुवाद क्यों न मैं ही कर दूँ? बेशक, इसी बहाने मैंने बँगला ‘किशोर साहित्य’ की कुछ ऐसी रचनाओं को पढ़ना भी शुरू कर दिया, जिन्हें अपनी किशोरावस्था में मैं नहीं पढ़ पाया था। 

अनुवाद की राह पकड़ने का एक दूसरा कारण भी है। मैं बँगला कथाकार ‘बनफूल’ को अपने इलाके का लेखक मानता हूँ (उन्होंने हमारे जिला-शहर साहेबगंज से मैट्रिक उत्तीर्ण किया था और उनकी कई रचनाओं में हमारे आस-पास के शहरों-कस्बों के नाम का जिक्र आता है, एक रचना में मेरे कस्बे बरहरवा का भी जिक्र है) और यह मानता हूँ कि विलक्षण प्रतिभा के धनी इस कथाकार को जो सम्मान और लोकप्रियता मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली है। अतः उनकी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद कर मैं ज्यादा-से-ज्यादा साहित्यरसिकों को उनसे परिचित कराना चाहता हूँ।     

प्रश्न:  भारत में अनुवाद को इतना महत्व अक्सर नहीं मिलता है। आप अनुवाद को किस तरह देखते हैं? आपकी प्रक्रिया क्या रहती है?

उत्तर: इसके उत्तर में अपनी ओर से कुछ न कहकर मैं डॉ. कृष्ण गोपाल राय (जो कि एक अवकाशप्राप्त प्राध्यापक हैं, बँगला साहित्य के समालोचक हैं और कोलकाता में रहने के साथ-साथ कुछ समय हमारे बरहरवा में भी रहते हैं) की कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूँगा। दरअसल, “बनफूल” के वृहत् उपन्यास ‘डाना’ का हिन्दी अनुवाद करने के बाद इसे मैंने उन्हें पढ़ने के लिए दिया था और एक ‘प्रस्तावना’ लिख देने का अनुरोध किया था। अनुवाद उन्हें पसन्द आया था और उन्होंने प्रस्तावना भी लिखी थी। ये पंक्तियाँ उसी प्रस्तावना का प्रारम्भिक अंश है:

“अनुवाद कोई आसान काम नहीं है। न ही कम है इसका उत्तरदायित्व। ऐसे हमारे बीच आज भी कुछ लोग रह गये हैं, जो अनुवाद को हेय दृष्टि से देखते हैं; सोचते हैं, कोई भी इन्सान इसे आसानी से कर सकता है और चूँकि यह मौलिक कृति या शोध नहीं है, इसलिए इसका कोई खास महत्व भी नहीं है।

बात दरअसल विपरीत है। हमारे रामायण-महाभारत अबुल फजल द्वारा, या उपनिषद शाहजहाँ-सुपुत्र दारा शिकोह द्वारा फारसी भाषा में अनूदित होकर फ्राँस होते हुए अगर यूरोप न पहुँचते, अभिज्ञान शकुन्तलम से लेकर संस्कृत ध्रुपद साहित्यकृतियाँ अगर अनुवाद के माध्यम से नहीं पहुँचती विश्व के कोने-कोने में, अथवा अरस्तू की कृतियाँ विलियम ऑफ मोयेरबेक द्वारा लैटिन में और फिर लैटिन से बायवाटर आदि अनुवादकों के द्वारा अँग्रेजी में अनूदित न होतीं, बेंजामिन जोवेट अगर प्लेटो का अनुवाद नहीं करते अँग्रेजी भाषा में, तो इन किताबों में छिपी सम्पदा से हम अधिकांश विश्ववासी वंचित ही रह जाते आज तक। अतः अनुवाद का कोई विकल्प नहीं है। यह अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है।”

जाहिर है कि उक्त उद्धरण को पढ़ने के बाद मुझे ‘अनुवाद’ के सम्बन्ध में अपनी ओर से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।

जहाँ तक अनुवाद की प्रक्रिया (मेरी अपनी) की बात है, शुरुआती दिनों में पहले लिखता था, बाद में टाईप करता था; अब लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। पहले मूल रचना को पढ़ लिया, फिर (बँगला में) पढ़ते हुए (हिन्दी में) टायपिंग शुरू कर दिया। जहाँ लगता है कि बाद में कुछ संशोधन-सम्पादन करना होगा, वहाँ शब्दों को ‘हाइलाइट’ कर देता हूँ और बाद में उसे संशोधित-सम्पादित करता हूँ।

प्रश्न: अच्छा, आपने अधिकतर किशोर साहित्य अनुवाद किया है। क्या आपने प्रौढ़ साहित्य भी अनुवाद किया है? दोनों तरह के अनुवादों में आप क्या फर्क महसूस करते हैं?

उत्तर: ऊपर ‘बनफूल’ के एक उपन्यास ‘डाना’ का जिक्र आया है, यह न केवल एक प्रौढ़ साहित्य है, बल्कि इसे मैं पक्षी-परिचय पर आधारित एक विलक्षण औपन्यासिक कृति मानता हूँ— लगता नहीं है कि भारत में किसी अन्य लेखक ने पक्षी-परिचय या पक्षी-प्रेक्षण की पृष्ठभूमि पर किसी उपन्यास की रचना की है। यह देश में अपने ढंग की इकलौती साहित्यिक कृति है और इसे जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला है।  ‘बनफूल’ के ही एक लघु उपन्यास ‘भुवन सोम’ का भी मैंने अनुवाद किया है, जिस पर मृणाल सेन ने- इसी नाम से- फिल्म बनायी थी। भविष्य में ‘बनफूल’ के हास्य उपन्यास ‘भीमपलासी’ (भीमपलश्री) का अनुवाद करने की इच्छा है। शंकु महाराज का एक यात्रा-वृत्तान्त बँगला में बहुत प्रसिद्ध है— ‘विगलित करूणा जाह्नवी जमुना।’ यात्रा-वृत्तान्त के रुप में यह भी एक औपन्यासिक कृति है; इसका भी मैं अनुवाद करना चाहूँगा।

प्रश्न: अनुवाद के अतिरिक्त आप लेखन भी करते हैं? नाज़ ए हिन्द आपकी एक पुस्तक है। कुछ इसके विषय में बताएँ?

उत्तर: जब किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखा, तब मैंने किशोरावस्था में लिखी गयी अपनी कविताओं का संग्रह ‘कारवाँ’ नाम से प्रकाशित करवाया था; इसी प्रकार, युवावस्था के दिनों में देश की विभिन्न समस्यायों के लिए जो समाधान मैंने सोचे थे, उन्हें ‘घोषणापत्र’ के रुप में प्रकाशित करवाया था। एक यात्रा-वृत्तान्त भी मैंने लिखा था— ग्वालियर से खजुराहो तक की साइकिल-यात्रा पर। लौटते समय ओरछा और दतिया भी गया था। यह वृत्तान्त दरअसल उसी यात्रा की ‘डायरी’ है। 8 दिनों में कुल 564 किमी की यात्रा मैंने साइकिल से की थी।

बात ‘नाज़-ए-हिन्द सुभाष’ की। बचपन से ही मुझे यह बात चुभती थी कि नेताजी की अन्तरराष्ट्रीय गतिविधियों, इम्फाल-कोहिमा युद्ध तथा उनके अन्तर्धान-रहस्य से जुड़ी बातें हमें विस्तार से नहीं पढ़ाई/बतायी जातीं। इसलिए 2009 में इण्टरनेट से जुड़ने के बाद नेताजी से जुड़ी सामग्रियों को मैंने खोज-खोज कर पढ़ना शुरू किया। फिर, इन जानकारियों में से जरूरी चीजें लेकर अपनी एक प्रवाहमयी शैली में- ताकि पढ़ते समय कोई बोरियत न महसूस करे- मैंने एक ब्लॉग पर हिन्दी में लिखना शुरू किया। उन दिनों वह ब्लॉग लोकप्रिय हुआ था। बाद में गाजियाबाद के एक प्रकाशक ने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी किया था। इसके बाद भी मैंने दो-तीन बार इस रचना को सम्पादित-संशोधित किया है और सैकड़ों चित्र इसमें शामिल किये हैं। कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाष से जुड़े 1941 से 1945 तक और उसके बाद के सम्भावित घटनाक्रमों को इस रचना में पिरोया गया है और इसकी लेखन शैली ऐसी रखी गयी है (‘थ्रिलर’ वाली) कि वह किशोर एवं युवा पीढ़ी को पसन्द आये।

प्रश्न: क्या आपने गल्प लेखन भी किया है या करने का विचार रखते हैं?

उत्तर: मैंने कहानी नहीं लिखी है और कहानी लिखने के बारे मैं सोचता भी नहीं हूँ। हाँ, बच्चों के लिए एक छोटी कहानी लिखी है, वह भी एक देखे गये सपने पर आधारित है।

प्रसंगवश, मैं ‘बनफूल’ की ‘विनेट’ श्रेणी की कहानियों को चूँकि बचपन से पसन्द करता हूँ, इसलिए उनकी 60 कहानियों का अनुवाद कर चुका हूँ। इच्छा है कि उनके सभी 586 कहानियों का मैं अनुवाद करूँ— बेशक, इनमें सभी ‘विनेट’ श्रेणी की नहीं हैं, थोड़ी बड़ी कहानियाँ भी हैं।


प्रश्न: आप लेखन और अनुवाद के अतिरिक्त ब्लॉग भी लिखते हैं। आपके एक से अधिक ब्लॉग हैं? कुछ अपने ब्लॉग के विषय में बताएँ?

उत्तर: मेरा ‘कभी-कभार’ नाम से एक ब्लॉग है, जिस पर मैं कभी-कभार ही लिखता हूँ। क्या लिखता हूँ— इसका अनुमान इसकी ‘टैग-लाईन’ से लगाया जा सकता है— ‘अपनी, अपनों तथा अपने आस-पास की बातें।’ दूसरे ब्लॉग ‘देश-दुनिया’ की टैग-लाईन है— ‘देश, दुनिया और समाज की बातें,’ जिस पर कुछ कारणों से मैंने लिखना छोड़ रखा है। सोशल-मीडिया ‘फेसबुक’ पर जब कोई रोचक संस्मरण नजर आता है, तो उसे साभार एक ब्लॉग ‘आरामकुर्सी से’ पर उद्धृत करता हूँ, जिसकी टैग-लाईन है— ‘उस जमाने के शब्दचित्र, जब मोबाइल-इण्टरनेट नहीं हुआ करते थे।’ वायु सेना में रहने के दौरान उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम और मध्य भारत के कुछ शहरों में रहने का अवसर मिला था, तब जिन जगहों पर घूमने गया था, उनकी तस्वीरों का ब्लॉग है— ‘आमी यायावर।’ सोचा था, पहले तस्वीरें डाल दूँ, बाद में कुछ-कुछ लिखूँगा, लेकिन वह लिखने का काम कभी नहीं हो पाया। कुछ और भी ब्लॉग बनाये थे, सभी बन्द ही हैं, कुछ को अप्रकाशित कर दिया है।

प्रश्न: आपके आने वाले प्रोजेक्ट कौन से हैं? क्या पाठकों को उनके विषय में बताना चाहेंगे?

उत्तर: सत्यजीत राय रचित फेलू’दा के (35 में से) 8 कारनामों, प्रोफेसर शंकु के (38 में से) 6 अभियानों और (26 में से) 3 रहस्यकथाओं का अनुवाद मैंने कर रखा है, पर लगता नहीं है कि इन अनुवादों को प्रकाशित करने की अनुमति कभी मिलेगी। ऐसे में, मेरे पास यही रास्ता बचता है कि मैं धीरे-धीरे अनुवाद करता रहूँ और 2053 के बाद मेरा पुत्र इन्हें प्रकाशित करे। पता चला है कि ब्योमकेश बक्शी की दर्जन भर कहानियों का हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। यह काम भी धीरे-धीरे करूँगा, अनुवाद की अनुमति न मिलने की दशा में 2030 के बाद इन्हें प्रकाशित करूँगा।

फिलहाल अपना ध्यान मैंने हेमेन्द्र कुमार राय की कहानियों के अनुवाद में लगा रखा है— इसी साल अप्रैल के बाद उनकी रचनाओं के अनुवाद के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं रह जायेगी (वे कॉपीराइट के दायरे से बाहर आ जायेंगे)। मुझे लगता है, एडवेंचर, डिटेक्टिव और सुपरनैचुरल- इन तीनों श्रेणियों में 20-20 करके पुस्तकें बनेंगी, यानि कुल 60 पुस्तकें।

जयदीप शेखर,

रेखाचित्र, छायाचित्र, शब्दचित्र का एक शौकिया चितेरा।

बरहरवा (साहेबगंज), झारखण्ड- 816101

30.1.2023

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तो यह थी जयदीप शेखर जी से हमारी बातचीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आयी होगी। बातचीत के विषय में अपनी राय से आप हमें टिप्पणियों के माध्यम से अवगत करवा सकते हैं। 

जयदीप शेखर जी के अनुवाद साहित्य विमर्श प्रकाशन और अमेज़न पर मौजूद हैं। आप उधर से उन्हें खरीद सकते हैं। 

साहित्य विमर्श प्रकाशन (सुंदरबन में सात साल | चाँद का पहाड़)| अमेज़न (चाँद का पहाड़ | सुंदरबन में सात साल)

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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