लेखिका दीप्ति मित्तल विगत पन्द्रह वर्षों से निरंतर लेखन कर रही हैं। अपने लेखन के सफर में उनकी लगभग 400 से ऊपर रचनाएँ विभिन्न राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं जैसे दैनिक भास्कर, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दिल्ली प्रेस, नई दुनिया, प्रभात खबर, हरिभूमि, मेरी सहेली, वनिता, फ़ेमिना, नंदन, बाल भास्कर, बालभूमि आदि में प्रकाशित होती रही हैं। हाल ही में उनका लघु-उपन्यास ओये! मास्टर के लौंडे किंडल में प्रकाशित हुआ है। इसी उपलक्ष में उन्होंने एक बुक जर्नल से बातचीत की है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
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प्रश्न: नमस्ते दीप्ति जी। एक बुक जर्नल में आपका स्वागत है। पाठकों को कुछ अपने विषय में बताइए। आप मूलतः कहाँ से हैं, आपकी शिक्षा दीक्षा कहाँ से हुई और फिलहाल आप कहाँ निवास कर रही हैं?
उत्तर: धन्यवाद। मैं मूलतः मुज़फ्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश से हूँ। मैंने वहीं से गणित में ग्रेजुएशन की। फ़िर के जी एम देहरादून से एम.सी.ए की। इसके बाद पाँच साल बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर नौकरी की। फिर पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते नौकरी छोड़ दी और लेखन को अपना लिया। इस बात को 15 साल हो गए हैं तब से लिख रही हूँ। आजकल पुणे में रहती हूँ।
प्रश्न:साहित्य के प्रति आपका रुझान कब हुआ? वह कौन सी रचनाएँ थी जिन्होंने शब्दों की दुनिया के प्रति आपका मोह जागृत किया? आपके पसंदीदा रचनाकार कौन रहे हैं?
उत्तर: पत्र-पत्रिकाएं, किस्से-कहानियाँ पढ़ने का शौक तो शुरू से ही था। दरअसल पापा भी पढ़ने के बहुत शौकीन थे। वे प्रोफ़ेसर थे और कॉलेज की लाइब्रेरी से बहुत साहित्यिक किताबें और पत्रिकाएँ जैसे सारिका, कादम्बिनी, धर्मयुग आदि लाया करते थे। मैं भी वे सब पढ़ा करती थी। ऐसा कभी सोचा नहीं था कि आगे चलकर मैं भी कहानियाँ लिखूँगी लेकिन एक बात है, मुझे हिंदी विषय में निबंध, भाषण, संदर्भ सहित व्याख्या आदि लिखने में बड़ा मजा आता था। यदि परीक्षा में मेरे पास समय होता तो मैं 10-12 पेज के निबंध लिख दिया करती। यह मैं हाईस्कूल की बात कर रही हूँ। शायद एक लेखक तभी से अंदर था पर पता नहीं था।
शब्दों की दुनिया में मेरा मोह जागृत हुआ हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की हिंदी गद्य संकलन किताबों को पढ़ते हुए जहाँ श्रेष्ठ रचनाकारों की रचनाएँ संकलित थी। इसके अलावा मुझे प्रेमचंद की कहानियाँ बहुत पसंद थी। एक-एक कहानी कई बार पढ़ा करती थी। स्कूल के दिनों में तो पसंदीदा रचनाकार प्रेमचंद ही थे और आज भी हैं, इसके अलावा मुझे नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने बहुत प्रभावित किया था विशेषकर ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ ने।
प्रश्न: लेखन की शुरुआत कब हुई? क्या आपको याद है आपकी पहली रचना कौन सी थी और वह कब प्रकाशित हुई थी? यह अनुभव कैसा था?
उत्तर: स्कूल पास करने के बाद कैरियर बनाने की धुन सवार हो गई थी। साहित्यिक किताबें पत्रिकाएं पढ़ना और कुछ भी लिखना एकदम से छूट गया और सालों तक छूट आ रहा। भीतर दबा यह शौक तब वापस उभरा जब मैंने नौकरी छोड़ी और फिर वापस से कहानियाँ पढ़नी शुरू की। मैंने 2005 में अपनी पहली कहानी लिखी जो ‘सीख’ नाम से ‘मेरी सहेली’ पत्रिका में छपी। पहली ही कहानी को बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला। इसे ‘मेरी सहेली’ पत्रिका की ओर से वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित किया गया। इस बात ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। फिर तो कहानियों का सिलसिला चल पड़ा। मेरी वह पहली कहानी ‘सीख’ आज भी बहुत से ब्लॉग पर, व्हाट्सएप ग्रुप्स में घूमती है। उसे लोग आज तक पसंद कर रहे हैं।
सच कहूँ तो मेरे लेखन को पत्र-पत्रिकाओं ने बहुत प्रोत्साहित किया। अलग-अलग विधाओं की प्रथम रचनाओं को शीर्ष पत्रिकाओं में स्थान मिला। पहली बालकहानी लिखी तो वह प्रसिद्ध बालपत्रिका ‘नंदन’ में प्रकाशित हुई। पहली लघुकथा ‘नई दुनिया’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुई। पहला लेख ‘सरिता’ में प्रकाशित हुआ और पहला व्यंग्य ‘वनिता’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। बस तब से ये सिलसिला यूँ ही चल रहा है।
प्रश्न: दीप्ति जी आपका नई किताब ‘ओय! मास्टर के लौंडे’ एक लघु उपन्यास है जो कि किंडल में हाल में ही प्रकाशित हुआ है। इस लघु-उपन्यास के विषय में पाठकों को कुछ बतायें?
उत्तर: सच कहूँ तो इस लघु उपन्यास का लिखा जाना और प्रकाशित होना मुझे एक अविश्वसनीय घटना लगती है या कह सकते हैं ईश्वरीय योजना लगती है। इसे लिखना शुरु करने से कुछ दिन पहले से ही भीतर से बहुत प्रबल विचार उठ रहे थे कि ‘यह कहानी लिखो’ लेकिन दिमाग़ कह रहा था लिख कर करूँगी क्या? इतनी लंबी कहानी किसी पत्र-पत्रिका में नहीं छपेगी और सेल्फ पब्लिशिंग कराने का कोई मूड नहीं था। यानि भीतर से कोई लिखने को फोर्स कर रहा था और सामने सोशल मीडिया पर बार-बार किंडल के ‘पेन-टू-पब्लिश कॉन्टेस्ट’ का विज्ञापन नज़र आता जो कहता- ‘पब्लिश योर स्टोरी…’। अंततः मैंने इसे ईश्वर का संकेत मानकर स्वीकार कर लिया और पाँच दिनों के अंदर यह कहानी लिख डाली। बाकी समय इसकी प्रूफरीडिंग और कवर पेज डिजाइनिंग में लगा जो मेरी बेटी ने बनाया। कुल मिलाकर दो हफ्तो के अंदर-अंदर यह लघु उपन्यास किंडल पर अपलोड हो गया।
खैर, एक बात जो इस दौरान मैंने प्रत्यक्ष महसूस की, वो ये कि कुदरत को हमसे जो करवाना होता है, वह करा ही लेती। भीतर से प्रबल विचार देती है और बाहर से सामने मौके परोसती है। हमें निमित्त बनाकर अपना काम कराती है वरना इस उपन्यास की कोई योजना ही नहीं थी मन में। ‘ओय! मास्टर के लौंडे’ कोई साहित्यिक कृति नहीं है, यह 12-13 साल के दो दोस्तों की हास्य से भरपूर मनोरंजक कहानी है। इसमें कुछ अनुभव हैं, कुछ कल्पनाएं हैं, दोनों के ताने-बाने से ‘ओय! मास्टर के लौंडे’ तैयार हुई।
प्रश्न: इस लघु-उपन्यास के मुख्य किरदार दो छोटे बालक हैं। क्या इसे बाल साहित्य कहा जा सकता है? अगर हाँ, तो क्या इसे लिखने का अनुभव कैसा था? क्या आपने पहले भी कोई बाल कहानियाँ लिखी हैं?
उत्तर:सच कहूँ तो मैं भी कंफ्यूज हूँ कि इसे बाल साहित्य कहा जा सकता है या नहीं? बाल साहित्य नहीं तो किशोर साहित्य तो कहा ही जा सकता है। यह किशोर होते दो लड़कों की कहानी है। इसे लिखने का अनुभव तो बहुत ही आनंदित करने वाला रहा। बहुत सी पुरानी खट्टी-मीठी यादें ताज़ा हो गई। ऐसे पुराने परिचित लोग आँखों के सामने आ खड़े हो गये जिन्हें मैं भूल ही चुकी थी।
इतनी लंबी कहानी पहली बार लिखी थी। लेखन की दृष्टि से उसकी रोचकता बनाए रखना और एक अच्छा क्लाइमेक्स देकर समाप्त करना चुनौतीपूर्ण था क्योंकि यह कहानी तो नदी की तरह प्रवाह में बहती ही जा रही थी। मुझे इसे एक खूबसूरत अंत देना था जो मेरे ख़्याल से दिया गया। पाठकों ने इसके अंत को लेकर बहुत सकारात्मक प्रतिक्रियाएं दी हैं। कुछ ने तो कहा है कि वे अंत में बहुत इमोशनल हो गए थे।
मैंने बाल कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं। पिछले 3-4 सालों में 17-18 बाल कहानियाँ लिखी हैं। वे सभी प्रमुख बाल पत्रिकाओं जैसे नंदन, बालभास्कर, बालभूमि रविवारी जनसत्ता, देवपुत्र आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रश्न: हाल ही में खबर आई कि कई बाल पत्रिकाओं को अपना प्रकाशन बंद करना पड़ा। आप इन खबरों को किस तरह देखती हैं? किन कारणों के चलते हिन्दी समाज अपनी भाषा से विमुख होता जा रहा है और इसे कैसे रोका जा सकता है? साहित्यकार के तौर पर आप क्या सोचती हैं?
उत्तर: जी हाँ, नंदन और कादम्बिनी बंद हुई। फेमिना हिंदी बंद हुई जो बहुत ही बेहतरीन महिला पत्रिका थी। इस बात का मुझे बेहद अफ़सोस है लेकिन यह कहना गलत है कि हिंदी समाज अपनी भाषा से विमुख होता जा रहा है। नंदन बंद हुई तो उसी के एडिटर श्री अनिल जायसवाल जी ने ‘पायस’ नाम से उतनी ही खूबसूरत ई- बाल पत्रिका लांच कर दी जिसने आते ही अपनी अलग पहचान बना ली।
बल्कि मैं तो देख रही हूँ कि हिंदी में पहले से ज्यादा किस्से-कहानियाँ, कविताएँ, ब्लॉग्स आदि लिखे, पढ़े और सुने जा रहे हैं। ऐसा नवांकुर लेखक जो बड़े बड़े साहित्यकारों के प्रभाव से दबा-छिपा बैठा रहता था वह भी मुखर हो कर लिख रहा है। आप खुद ही किंडल पर देख लीजिए बाढ़ आई हुई है नई रचनाओं की। उनमें से कुछ तो इतनी बेहतरीन हैं कि अगर आप लेखकों के नाम हटाकर पाठकों के सामने परोस दें तो वे उनकी तारीफ करने नहीं थकेंगे।
फ़र्क सिर्फ़ इतना ही आया है कि माध्यम बदल रहे हैं। लोग प्रिंट मीडिया से डिजिटल मीडिया की ओर जा रहे हैं क्योंकि वहाँ पब्लिश होने में कोई समस्या नहीं होती। वहाँ आपको पाठक भी सरलता से मिल जाते हैं। प्रिंट पत्रिकाए बंद हुई मगर ई.पत्रिकाओं की तो भरमार है। साहित्य की कितनी पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध है जहाँ स्तरीय कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। बहुत से हिंदी पॉडकास्ट उपलब्ध हैं। मेरा बारह साल का बेटा रोज़ पोडकास्ट पर विश्वप्रसिद्ध कहानियाँ हिंदी में सुनते हुए सोता है। लेकिन अगर मैं उसे हिंदी में कहानियाँ पढ़ने को कहूँगी तो वह नहीं पढ़ेगा। इसलिए मैं कहूंगी सिर्फ माध्यम बदल रहा है, हिंदी साहित्य पहले से ज्यादा देखा,पढ़ा और सुना जा रहा है। हाँ, जो सिर्फ प्रिंट पत्रिकाओं, कथासंग्रहों, उपन्यासों को देखकर ही हिंदी भाषा का भविष्य तय करते हैं वे निश्चित रूप से निराश होंगे। लेकिन यह तो कुदरत का नियम है। सब कुछ परिवर्तनशील है। पहले जैसा कभी कुछ नहीं रहता…लिखने-पढ़ने के माध्यम भी। कहने को मैं कहानीकार हूँ मगर मुझे हाथ में पेन उठाए मुद्दत हो जाती है। सीधे लैपटॉप पर लिखती हूँ, वह नहीं तो मोबाइल पर ही लिख लेती हूँ। सब कुछ डिजिटलाइज हो चुका है, लेखन भी।
प्रश्न: इस लघु-उपन्यास में मौजूद दीपेश और हरदीप के किरदारों को छोड़ कर ऐसा कौन सा किरदार है जो आपके काफी करीब है और जिसे लिखते हुए आपको सबसे ज्यादा मजा आया?
उत्तर: मुझे दीपेश की मम्मी का किरदार लिखते हुए बड़ा मज़ा आया। वह एक आम भारतीय मां का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने बच्चो को पिता के गुस्से से बचाने के लिए उनकी चोरी-छिपे मदद भी कर दिया करती है और जरूरत पड़ने पर बच्चों को चमका भी देती है। कभी वह बच्चो के आंसुओं से पिघल जाती है और कभी खरी-खोटी भी सुना देती है। मेरी मम्मी भी ऐसी ही थी और अब मैं खुद ऐसी ही हूँ।
प्रश्न: इस उपन्यास की पृष्ठ भूमि 1980 के दशक की है। क्या आपने इस उपन्यास के माध्यम से अपने बचपन को जिया है? क्या आपके बचपन से जुड़े कुछ किरदार भी यहाँ मौजूद हैं? अगर हाँ तो क्या आप पाठकों को उनके विषय में कुछ बताना चाहेंगी?
उत्तर: जी बिल्कुल। यह मेरे अपने बचपन के अनुभवों पर आधारित है जो मैंने मुज़फ्फ़रनगर में समेटे थे। इस कहानी के माध्यम से मैंने सच में अपना बचपन वापस जिया है। इसमें वही पृष्ठभूमि ली है जो मेरी थी। जैसे मेरे पापा डीएवी कॉलेज मुज़फ्फ़रनगर में गणित के प्रोफ़ेसर थे। वहाँ उनका बड़ा नाम है। हर कोई उन्हें जानता था और उनकी वज़ह से हमें। हम स्टाफ क्वार्टर्स में ही रहा करते थे। मेरी एक सहेली थी नीतू सिंह, जो स्कूल जाते हुए मेरे घर के पीछे से आते हुए मुझे आवाज़ लगाया करती थी। हरदीप को लिखते हुए मेरे दिमाग में नीतू सिंह की ही छवि रही। उसका परिवार विस्थापित परिवार ही था और उसके पापा की चाय की दुकान थी। उपन्यास का ‘गणित की इकाइयाँ’ वाला भाग भी हकीकत है। हमारे गणित के टीचर उत्तर में यूनिट(लीटर, मीटर, किलोग्राम आदि) ना लिखने पर बड़ी पिटाई किया करते थे। यह कहानी अनुभवों और कल्पनाओं का ताना-बाना है जो पाठकों को पसंद आया है।
प्रश्न: 1980 से 2020 तक आते आते काफी कुछ बदल गया है। काफी चीजें अच्छी हुई हैं और काफी चीजें बुरी भी हुई हैं। इन चालीस दशकों में हुए बदलावों में ऐसे कौन से बदलाव हैं जो कि आपके अनुसार अगर न हुए होते तो बेहतर होता। वहीं 2020 की ऐसी कौन सी चीजें हैं जो 1980 के दशक में होती तो बहुत अच्छा होता?
उत्तर: बच्चों के दृष्टिकोण से देखें तो सबसे बड़ा बदलाव स्मार्टफोन आने से हुआ है। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने बच्चों की जिंदगी सबसे ज्यादा बदली है। आज के बच्चों को पढ़ाई में कुछ भी समस्या आती है तो वे उसे समय देकर, दिमाग़ लगाकर सुलझाने के बजाय इंटरनेट पर सीधा उसका रेडी सोल्यूशन देख लेते हैं। कुछ जानकारी चाहिए, कोई प्रोजेक्ट वर्क बनाना है तो तुरंत इंटरनेट पर सर्च करते हैं और कोई आईडिया देख काम खत्म करते हैं। हमारे समय में प्रोजेक्ट वर्क पूरा करना, भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए राइटअप तैयार करना आदि एक खूबसूरत प्रक्रिया हुआ करती थी जिसके तहत हम बड़ों से बात करते थे, सहपाठियों से डिस्कशन होते थे, उन पर पूरा समय खर्च कर अपनी रचनात्मकता, कल्पनाशीलता से कुछ नया बनाने की कोशिश करते थे। आजकल के बच्चों को सब कुछ तैयार मिल जाता है बस उन्हें कॉपी पेस्ट करना होता है। मुझे आज भी यही लगता है स्मार्टफोन ने लोगों के जीवन, उनकी सोच पर नकारात्मक असर डाला है।
अगर आप आज के समय की अच्छाई की बात करेंगे तो हमारे बचपन में हमें इतने करियर ऑप्शन नहीं पता होते थे। साइंस साइड ली तो इंजीनियर या डॉक्टर बनना है, कॉमर्स लिया तो सीए और आर्ट्स लिया तो टीचर के अलावा और कुछ नहीं बन सकते, बस इतना ही पता था। लेकिन आजकल के बच्चों को इतने करियर विकल्प पता है, उन्हें इतना एक्स्पोज़र है कि वेह अपनी पसंद का फील्ड चुन कर उसमें आगे जा सकते हैं। मेरी अपनी बेटी मैथ और साइंस में बहुत अच्छी थी मगर उसने आर्टसाइड ली क्योंकि उसने नवीं कक्षा में ही तय कर लिया था कि उसे डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में जाना है। बेटा आठवीं में है और कहता है मुझे environmentalist यानि पर्यावरणविद् बनना है। हमारे समय में हमें 12वीं पास करने के बाद भी पता नहीं होता था कि हमें करना क्या है, या हम क्या-क्या कर सकते हैं?
प्रश्न: आप अब तक 400 से ऊपर कहानियाँ लिख चुकी हैं जो कि विभिन्न राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। यह आपका पहला लघु-उपन्यास आया है। क्या आगे भी बड़े कलेवर के साथ कुछ लिखने का विचार है? क्या आप किसी उपन्यास पर कार्य कर रही हैं?
उत्तर: लेखन के लिए कोई प्लानिंग करके नहीं चलती हूँ। यह डिपार्टमेंट मैंने ईश्वर के हाथ में छोड़ा हुआ है। उसको मुझसे जो लिखवाना होगा, जब लिखवाना होगा वह मुझे विचार देगा और मैं उसकी टाइपिस्ट बन लिख दूँगी। ‘ओय! मास्टर के लौंडे’ जिस दिन पूरा हुआ, उससे छ दिन पहले तक मुझे पता भी नहीं था कि मैं यह लिखने जा रही हूँ। जो भी आता है, अंदर से इंस्टेंट आता है और मैं लिख डालती हूँ।
हाँ, एक बात है, अगर एक बार निश्चय कर लिया तो ज़रूर लिखती हूँ, उसे टालती नहीं… और उसे पूरा किए बिना चैन से नहीं बैठ पाती। यहाँ तक कि मेरा बीपी भी बढ़ जाता है। सोते-जागते, खाते-पीते वहीं कहानी दिमाग़ में चलती है। एक तरह से वह मुझे ट्रैप कर लेती है। इसलिए मैं उसे ज़ल्दी खत्म करने की भी कोशिश करती हूँ। मेरी बहुत सी कहानियाँ एक या दो सिटिंग में पूरी हुई हैं।
प्रश्न: दीप्ति जी बातचीत यहीं पर समाप्त करते हैं। अंत में क्या आप पाठकों को कुछ संदेश देना चाहेंगी?
उत्तर: पाठकों को यही कहना चाहूँगी कि अब तक आपने मेरी कहानियों को जो प्रेम दिया है वह आगे भी देते रहें और मुझ तक अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य पहुँचाएं। एक बात और, हिंदी पाठक नये लेखकों को पढ़ने में घबरायें नहीं। मैंने देखा है कि सोशल मीडिया में किसी साहित्यिक ग्रुप पर आज भी उन्हीं किताबों का ज्यादा ज़िक्र रहता है जो मेरे बचपन में भी चर्चित थी। जब तक पाठक नये रचनाकारों को नहीं पढ़ेगें उन्हें यही लगेगा कि कुछ नया अच्छा आ ही नहीं रहा, हिंदी साहित्य का भविष्य खतरे में है…। आप थोड़ा दृष्टिकोण बढाएं, नये लेखको को भी पढ़ें, सराहें, प्रोत्साहित करें। किंडल पर तो कितनी अच्छी सुविधा है कि आप किसी किताब का थोड़ा सा सैंपल डाउनलोड़ कर सकते हैं जिससे किसी कहानी संग्रह की एक कहानी तो आराम से पढ़ी जा सकती है। उसे पढ़ कर ही तय करें कि पूरी किताब पढ़ना चाहेंगे या नहीं…बिना पढ़े रिजेक्ट न करें, यही प्रार्थना है।
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तो यह थी लघु-उपन्यास ‘ओये मास्टर के लौंडे’ की लेखिका दीप्ति मित्तल से एक बुक जर्नल की एक छोटी सी बातचीत। आपको यह बातचीत कैसी लगी यह हमें जरूर बताइयेगा।
ओये मास्टर के लौंडे लघु-उपन्यास किंडल पर आपके वाचन के लिए उपलब्ध है। अगर आपके पास किंडल अनलिमिटेड सेवा का उपयोग करते हैं तो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के इस उपन्यास को पढ़ सकते हैं।
‘ओये मास्टर के लौंडे’ का लिंक: किंडल
किताब का विस्तृत परिचय और इसका एक छोटा सा अंश आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं:
किताब परिचय: ओये! मास्टर के लौंडे….
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-03-2021) को "किरचें मन की" (चर्चा अंक- 3998) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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चर्चाअंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार,सर….
अच्छा साक्षात्कार
साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा…आभार…