गजानन रैना साहित्यानुरागी है और साहित्य के अलग अलग पहलुओं और साहित्यिक कृतियों पर बात करने का उनका अपना अलग अंदाज है। रैना उवाच के नाम से वह यह टिप्पणियाँ अपने सोशल मीडिया पर साझा करते रहते हैं। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए दूधनाथ सिंह की रचना धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे पर लिखी उनकी टिप्पणी।
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हिन्दी साहित्य के किस्सा साढ़े चार यार में जो चार अदद थे , ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया और दूधनाथ सिंह में हमें दूधनाथ सबसे कमजोर रचनाकार लगते थे।
ज्ञानरंजन में देवदत्त प्रतिभा थी, काशीनाथ उत्कृष्टता की कीमत पर भी पठनीय बने रहे, रवीन्द्र कालिया हँसमुख गद्य के ब्रांड एम्बेसडर थे, लेकिन दूधनाथ हमें कभी प्रभावित नहीं कर पाते थे।
उनकी कहानियाँ हमें कृत्रिम लगती थीं, मुहावरे अराजक और कथोपकथन असामान्य, बिखरा बिखरा सा।
इसलिए जब उनकी उपन्यासिका ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ हमारे हाथ आई तो हमें इसे पढने को ले कर कोई विशेष उत्साह नहीं हुआ ,
लेकिन दूधनाथ चौंकाते हैं पाठक को इस रचना के साथ उसकी यात्रा में ।
अद्भुत भाषा स्मृति है इस लेखक के पास। चोरों, सेंधकटों और दलालों की भाषा और अभिव्यक्तियों का वर्णन बताता है कि विलक्षण स्मृति है उनकी।
छोटे छोटे कोड्स, वाक्यांश, संबोधन, विशेषण सार्थ क्रियाओं की कथा में आवाजाही लेखक के अद्भुत शब्द विवेक को रेखांकित करती है ।
जरायम पर रची एक सार्थक कृति है ,’धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’। आज अपराध की जो दुनिया है, उसकी कोई पूर्ण विकसित निजी भाषा नहीं है, कोई कला प्रविधि नहीं है, यहाँ उस्ताद और शागिर्द की कोई परंपरा नहीं है ।
अपराध ,अपने देश में , कला, विद्या और इष्टसिद्धि से जुड़ा रहा आया है। इस देश में ही तो हुये थे दुनिया के सबसे जर्री कातिल, जिन्हें ‘ठग’ कहा जाता था और जो खुद को देवी भवानी की संतान मानते थे। यहाँ पिंडारी, मलंग, नट, कंजर और बावरिया हुये, जिन्होंने अपने पेशे को जोग, तंत्र, टोटके,जड़ी, मंत्र, भभूत आदि से जोड़ कर देखा। यहाँ अपराध और अभिचार एक दूसरे से जुड़ कर विकसित हुये।
अपराध और अभिचार के इस रहस्य संसार की एक झलक ले कर आये हैं दूधनाथ ।
इस समर्थ कहानी का खतरा यह है कि पाठक एक अनजाने, अदेखे संसार की शब्दावली में रमता रह जा सकते है।
रचना में प्रयुक्त हुई अनूठी अदा की शब्दावली मूल कथ्य को अपह्रत भी कर सकती है।
ये तब की कथा कही गयी है, जब गाँव के आसपास बँसवारी होती थी, गड़ही, पोखर, तलैया होते थे।
पीपर, पाकड़, गूलर, चिलबिल, बाँस, भटकटैया से बने बनकट होते थे, जंगल होते थे, इनमें कहीं कोई पीर, बीर, बरम,
दाई, सत्ती, बन्नी तो कहीं चोरों की देवी के ठीहे होते थे।
खर, पतवार, काँटे, कास, राढी से बनी एक भूगोल संपदा होती थी जिसके साथ सोते, कछार, नदी, घाटी, नाले को मिला कर दूधनाथ ने एक भौगोलिक दृश्य विधान रचा है।
कथा में शिव महतो है और पत्नी । और है, इन दोनों का एकमात्र पुत्र मरकटवा। शिव भूतपूर्व सेंधमार और वर्तमान औरतबेचवा है।
पति-पत्नी, दोनों इतने निर्मम हैं कि बच्चा न होने पर अपनी ही बहू को निस्संग भाव से बेच देते हैं ।
अब बेटे का घर बसाने के लिये शिव जो औरत खरीद कर लाता है , वह गर्भवती होती है।
शिव उसे लौटाना चाहता है लेकिन विक्रेता बिकी औरत वापस लेने से इनकार कर देता है ।
कथा गुरु,चेला, पिता,पुत्र, मरकटवा, उसके लिये खरीदी औरत, तीन स्तरों पर बढती है।
औरत जंगल में बच्चे को जन्म देती है जिसको शिव मारना चाहता है। मरकटवा किसी तल पर खुद को इस अनजान, असहाय औरत से जुड़ा पाता है।
इस नौजवान की पहचान तो उसकी बाँझ पत्नी के निर्वासन के समय ही हो जाती है,
उस उपेक्षिता, असहाय नारी के एक अनजाने, अंधेरे भविष्य की ओर धकेले जाने पर मरकटवा के मन में जो विरोध और विलाप उत्पन्न हुआ, उसे लेखक ने एक अद्भुत कविता की तरह रचा है ।
फिर एक अज्ञात कुलशील, कुछ ही घंटों के परिचित शिशु को बचाने के लिये वह जो कर जाता है, वह विलक्षण है।
एक अनजानी औरत की संतान को बचाने के लिये मरकटवा अपने पिता से भिड़ जाता है । इस मरणान्तक द्वंद्व में वह पिता को मार देता है और खुद भी मारा जाता है।
इस मारकाट के बाद जो उभर कर सामने आता है, वह है पितृ तत्व । एक बेहिस मुजरिम हार जाता है और एक पिता जीत जाता है ।
अमानवीयता के कमीने, क्रूर और दुर्जेय अंधकार में मरकटवा का बलिदान एक नन्हा सा दिया बनकर सामने आता है और बताता है कि अमानवीयता का अंधकार कितना ही गहन और विराट हो, मनुष्यता के एक नन्हे से दिये से हारने के लिये विवश है।
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किताब: धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे | लेखक: दूधनाथ सिंह | पुस्तक लिंक: अमेज़न
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जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०६-११-२०२१) को
'शुभ दीपावली'(चर्चा अंक -४२३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चाअंक में इस पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार मैम।
शुभ दिपावली
आपको भी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ….