संस्करण विवरण
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 96 | प्रकाशक: साहित्य विमर्श प्रकाशन | प्रथम प्रकाशन: 1972
पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श
कहानी
राजकुमारी शबनम इंग्लैंड से पढ़कर लौटी तो उसे लगा जैसे उसने बड़ी गलती कर दी हो। उसके पिता राजा विक्रम सिंह उसका विवाह जबरदस्ती कराने पर तुल गए थे। जब शबनम की बातों का भी कोई असर उन पर न हुआ तो वह अपने महल से भाग गई।
अनिल शहजादी शबनम से प्यार कर करता था। जब वह राज्य में लौटा तो उसने शबनम के गायब होने की खबर सुनी और उसको ढूंढने का मन बना लिया।
क्या अनिल शबनम को ढूँढ पाया?
आखिर शबनम भागकर कहाँ गई?
मुख्य किरदार
शबनम – एक शहजादी
विक्रम सिंह – रतनगढ़ के राजा
युद्धवीर सिंह – एक राजा जिसके साथ शबनम की शादी तय की गई थी
अनिल – रतनगढ़ का ही निवासी
जादूगर सरकार – एक जादूगर जिसकी मंडली में शबनम शामिल हो गई थी
जुमाला – आसाम के जंगल में रहने वाला एक आदिवासी जो कांबा गाँव का ओझा था
करीबो – अटवारी नामक गाँव में रहने वाला एक महंत
बेताल – आसाम के जंगल में रहने वाला व्यक्ति जिसे चलता फिरता प्रेत कहा जाता था
तूफान – बेताल का घोडा
शेरा – बेताल का कुत्ता
बान्दर बौने – जंगल में रहने वाले आदिवासी जो बेताल के रक्षक थे
दुर्जन सिंह – एक डाकू
मेरे विचार
बेताल और शहजादी लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक (Surender Mohan Pathak) का लिखा दूसरा बाल उपन्यास है। यह उपन्यास पहले उपन्यास कुबड़ी बुढ़िया की हवेली के एक साल बाद यानी 1972 में प्रकाशित हुआ था। अब यह उपन्यास साहित्य विमर्श प्रकाशन (साहित्य Vimarsh Prakashan) द्वारा पुनः प्रकाशित किया गया है।
उपन्यास की शुरुआत शहजादी शबनम के अपने राज्य से भागने की खबर के साथ होती है। पाठको को यह बताया जाता है कि वह अपने राज्य से क्यों भागी। इसी दौरान अनिल का परिचय, उसके लंदन से रियासत आने की बात और फिर शहजादी की तलाश का बीड़ा उठाने की बात भी पाठक को पता चलती है। अनिल किस तरह शहजादी की तलाश करता है और इसके लिए उसे किन किन चीजों से दो चार होना पड़ता है यही इस पुस्तक की कहानी बनती है।
वैसे तो इसे बाल उपन्यास कहा गया है लेकिन इसके सभी पात्र वयस्क हैं। हाँ, फंतासी के तत्व इधर जरूर मौजूद हैं और कहानी का ट्रीटमेंट एक बाल उपन्यास के जैसे ही किया गया है।
कथानक सरल है और सीधा सादा आगे बढ़ता है। अनिल कैसे अपनी प्रेमिका तक पहुँचेगा ये पढ़ने के लिए आप उपन्यास पढ़ते चले जाते हैं। कथानक का अधिकतर हिस्सा आसाम के जंगलों में कबीले वासियों के बीच में घटित होता है। बीच में कहानी में ट्विस्ट भी आते हैं जो कि कहानी को रोचकता प्रदान करते हैं।
उपन्यास में अनिल द्वारा शहजादी की खोज तो है ही साथ में जादू-टोना और सम्मोहन भी होता है जो कि कथानक को रोचकता प्रदान करता है।
उपन्यास का शीर्षक ‘बेताल और शहजादी’ है तो शहजादी के साथ साथ बेताल भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बेताल के रूप में यहां फैंटम से प्रेरित एक चरित्र है जो कि असम के जंगलों में रहता है और अनिल की मदद शहजादी को ढूँढने में करता है। यह चरित्र भी एक खोपड़ी नुमा गुफा में रहता है और एक घोड़े (तूफान) और एक कुत्ते (शेरा) को अपने साथ लेकर घूमता है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि उपन्यास में यह चरित्र न होकर भी कोई और चरित्र होता तो उपन्यास में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। लेखक एक खुद का चरित्र इसके बदले गढ़ते तो बेहतर होता। या फिर बेताल भारतीय मिथकों में जिस तरह का जीव होता है वैसा कोई किरदार अगर लेखक गढ़ते तो बेहतर होता।
वैसे तो शीर्षक पढ़कर शायद आपको लगे कि बेताल और शहजादी इसमें आमने-सामने खड़े होंगे लेकिन ऐसा इधर नहीं होता है। बेताल और शहजादी कुछ समय के लिए आमने सामने आते हैं लेकिन यह चंद पलों की ही बात होती है। मुझे लगता है चूँकि बेताल अनिल के कहने पर शहजादी को खोजने के काम में हाथ बँटाता है तो शीर्षक इतना उपयुक्त नहीं लगता है।
अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। चूँकि यह उपन्यास 1972 में लिखा गया था और बाल पाठकों के लिए लिखा गया था तो उपन्यास का कथानक थोड़ा सरल लग सकता है तो इस चीज का ध्यान में रखकर पढ़ेंगे तो उपन्यास का अच्छे से आनंद ले पाएँगे। बाल पाठकों की इसके प्रति क्या राय है यह मैं जरूर जानना चाहूँगा। अगर आप सुरेन्द्र मोहन पाठक के प्रशंसक हैं और उपन्यासों का संग्रह करते हैं तो बहुत वर्षों से आउट ऑफ प्रिन्ट चल रहे इस उपन्यास को संग्रहित कर सकते हैं।
पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श
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