उफ्फ़ कोलकाता – सत्य व्यास | हिंद युग्म

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 207 | प्रकाशक: हिंद युग्म

पुस्तक लिंक: अमेज़न

कहानी 

सिद्धार्थ जब अपने दोस्त चेतन के साथ घर से लौटकर अपने हॉस्टल आ रहे था तो क्या जानता था कि उनकी जिंदगी बदलने वाली है।

ट्रेन के उस सफर में रात को हुए एक हादसे ने सिद्धार्थ के होश उड़ा दिए थे और फिर उस परी चेहरा से हुई मुलाकात ने उसके दिल की घंटी को बजा दिया था। पर सफर खत्म हुआ तो परी चेहरा के साथ उसका साथ भी खत्म हो गया।

सिद्धार्थ का मन था कि ये परी चेहरा उसके साथ हमेशा रहे और अब वो उसकी तलाश में भटक रहा था।

वहीं सिद्धार्थ के दोस्त रुद्र और चेतन को यकीन था कि सिद्धार्थ जिस परी चेहरा के पीछे पागल है वो उनको किसी तगड़ी मुसीबत में डाल देगी। जब से सिद्धार्थ की जिंदगी में वो आई थी तब से उनके हॉस्टल में अजीबों गरीब घटनाएँ हो रही थीं। उसके दोस्तों का मानना था कि इन घटनाओ के पीछे वही परी चेहरा थी। जबकि कुछ घटनाएँ ऐसी हुई थी जिसके चलते सिद्धार्थ को लगता था कि ट्रेन में हुए हादसे से इसका संबंध था और वो जिसका आशिक था वो मासूम थी।

आखिर ये परी चेहरा कौन थी?

सिद्धार्थ के साथ कौन सा हादसा हुआ था?

हॉस्टल में ऐसा क्या हुआ था?

सिद्धार्थ और उसके दोस्तों में से कौन सही था?

किरदार 

सिद्धार्थ – एक लॉ स्टूडेंट
चेतन – सिद्धार्थ का दोस्त
रुद्र – सिद्धार्थ का दोस्त
पूजा – सिद्धार्थ की पूर्व प्रेमिका
दीपक – पूजा का पति
असगर अली – हॉस्टल का वार्डन
मोहिनी – सिद्धार्थ की प्रेमिका
मूसा बंगाली – एक तांत्रिक
यशरंजन, रवि, राजीव – लॉ स्टूडेंट

विचार 

हिंदी साहित्य की बात की जाए तो इसमें हॉरर के पाठकों के लिए काफी कम साहित्य रचा गया है। जब हिंदी लोकप्रिय साहित्य अपने उरूज पर था तब भी हॉरर विधा में लिखने वाले कम ही लेखक थे। अब भी गिने चुने लोग ही इस विधा में रचना कर रहे हैं। हॉरर कॉमेडी में तो यह संख्या नगण्य ही कही जा सकती है। ऐसे में जब स्थापित लेखक इस विधा में हाथ आजमाते हैं तो यह अपने आप में सराहनीय कदम हो जाता है। 
उफ्फ कोलकाता सत्य व्यास का ऐसा ही प्रयोग है। यह उनका  लिखा हॉरर कॉमेडी उपन्यास है जो कि हिंद युग्म द्वारा 2020 में प्रकाशित हुआ था। 
उपन्यास की शुरुआत किस्सा ए तोता मैना से होती है। किस्सा ए तोता मैना की बात की जाए तो इस उपन्यास को पढ़ने से पहले मैं बस यही जानता था कि यह कहानियों की एक शृंखला होती थी। इसके अतिरिक्त मुझे अधिक नहीं पता था। यह उपन्यास शुरु किया तो किस्सा तोता मैना दिखा तो मन में इनके प्रति उत्सुकता जागी। वैसे मुझे लगता है लेखक को इस विषय पर एक लेखकीय में या एक फुटनोट में बताना चाहिए था ताकि जो लोग इससे मेरी तरह अंजान हैं वो समझ पाते कि इसका क्या महत्व है। लेकिन चूँकि ऐसा नहीं हुआ तो संक्षेप में इतना बताना ही काफी होगा कि यह कहानियों की शृंखला है जिसमें पहले मैना तोता को कहानी सुनाती है और फिर तोता मैना को एक कहानी सुनाती है। तोता जिसे उसकी पत्नी ने धोखा दिया होता है उड़ते हुए एक ऐसी डाल में पहुंचता है जहाँ एक मैना रहती है। यह मैना मर्दों से नफरत करती है क्योंकि वो बेवफा होते हैं और अपनी बात को सही साबित करने के लिए वह एक बेवफा मर्द की कहानी सुनाती है। उसकी कहानी खत्म होती है तो तोता यह दर्शाने के लिए कि महिला बेवफा होती हैं एक बेवफा औरत की कहानी सुनाता है।
प्रस्तुत उपन्यास भी ऐसे ही कुछ शुरू होता है और मैना तोते को  सिद्धार्थ, चेतन और उसके दोस्तों की कहानी सुना रही होती है।
सिद्धार्थ और चेतना कोलागढ़ के कविगुरु भारती यूनिवर्सिटी में लॉ के छात्र हैं जिनका प्रथम वर्ष हाल ही में समाप्त हुआ है और वह द्वितीय वर्ष में दाखिल हुए है। कहानी सिद्धार्थ और चेतन के एक शादी में मौजूद होने से होती है।
इस शादी में कुछ ऐसा घटित होता है जो कि नायक के चरित्र को दर्शाता है जिसे मैना पहले ही नालायक कह चुकी होती है। कहानी आगे बढ़ती है ये नालायक अपने साथी चेतन के साथ ट्रेन से अपने हॉस्टल के लिए निकल पड़ता है। 
ट्रेन में इसके साथ दो घटनाएँ होती हैं जो कि न केवल नायक बल्कि उसके साथ-साथ उसके दोस्तों और उनके पूरे होस्टल के जीवन में हड़कंप ले आती हैं। यह घटनाएँ क्या होती हैं? नायक, उसके दोस्तों और हॉस्टल में क्या हड़कंप आता है? नायक और उसके दोस्त किस तरह की परेशानियाँ उठाते हुए इन समस्याओं को सुलझाते हैं? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर पाने की इच्छा आपसे उपन्यास के पृष्ठ पलटवाते चला लेती है। 
चूँकि यह हॉरर कॉमेडी है तो उपन्यास में हास्य भी है और भय का वातावरण भी स्थापित किया जाता है। हास्य रचना बहुत ही जटिल काम है। फिर हास्य वस्तुपरक न होकर व्यक्तिपरक भी होता है। ऐसे में उपन्यास में मौजूद हास्य कई जगह आपको हँसाता है और कई जगह आप किरदारों की प्रतिक्रिया देखकर ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि इसमें लोट पोट होने वाली क्या बात थी। हॉरर कॉमेडी का पहला हिस्सा हॉरर होता है। उपन्यास में कई दृश्य सचमुच भय पैदा करते हैं और कई बार पढ़ते हुए मैं तो एक पल को पढ़ना ये चेक करने के लिए छोड़ देता था कि कहीं पीछे से साँस लेने की कोई आवाज तो नहीं आ रही है। आप भी अगर ये लेख पढ़ रहे हैं तो एक पल को पढ़ना छोड़िए और जाँच लीजिए कि आपके पीछे कोई खड़ा तो नहीं है। 
उपन्यास का मुख्य घटनाक्रम एक लॉ कॉलेज के हॉस्टल में घटित होता है। बनारस टॉकीज में लेखक इस ज़िंदगी पर अपनी पकड़ दर्शा चुके हैं तो यहाँ वो होम ग्राउन्ड में ही देखते हैं। हॉस्टल, वहाँ की ज़िंदगी, वहाँ के झगड़े, राजनीति, शरारतें, बेवकूफियाँ, बकैतियाँ इत्यादि का उन्होंने बाखूबी चित्रण किया है। अगर आप कॉलेज में पढ़ते हैं तो आप अपने मौजूद जीवन का अक्स इसमें देख पाएँगे और अगर कॉलेज से निकले कई वर्ष आपको हो चुके हैं तो आपकी कई यादें आपको इधर मिल जाएँगी।  
उपन्यास में मूलतः दो कहानियाँ एक साथ चल रही होती हैं। हॉस्टल में होती घटनाएँ और सिद्धार्थ और उसकी रहस्यमय परिचेहरा की मुलाकातें या मुलाकातों की कोशिश। दोनों ही घटनाओं के बीच में क्या संबंध है? संबंध है भी या नहीं? यह प्रश्न एक तरह का रहस्य कथानक में बनाए रखते हैं जो कि आपसे उपन्यास पढ़वा जाता है। 
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो मुख्य किरदार सिद्धार्थ स्त्री द्वेषी है जो स्त्री को मुख्यतः भोग की वस्तु ही समझता है। वह कई लड़कियों को धोखा दे चुका होता है लेकिन जब एक लड़की अपनी मर्जी से किसी और से शादी कर रही होती है तो उसे यह बात पचती नहीं है। उसकी सोच ये है कि जिस स्त्री का वो सम्मान करे सब उसका सम्मान करें  लेकिन उसे खुद किसी अन्य स्त्री का सम्मान करना जमता नहीं है। 
सिद्धार्थ के बनिस्पत रुद्र और चेतन थोड़ा बेहतर हैं। उन्हें स्त्री के मामले में सही गलत का थोड़ा ज्यादा ख्याल रहता है और इस कारण उनसे जुड़ाव ज्यादा महसूस होता है। 
असगर अली का किरदार भी रोचक है और उसके साथ छात्रों के सीन्स मजेदार बन पड़े हैं।
मोहिनी का किरदार रहस्यमयी है और उसके बारे में और जानने की इच्छा आपको पृष्ठ पलटने पर मजबूर कर देती है। मोहनी को लेकर जो दृश्य लेखक ने लिखे हैं वो बड़े मजेदार बने हैं। 
मूसा बंगाली का किरदार भी रोचक बन पड़ा है और उसके सभी दृश्य हास्य पैदा कर मनोरंजन करने में सफल होते हैं।
बाकी के किरदार कथानक के अनुरूप हैं।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो जैसा कि ऊपर मैंने बताया है कि उपन्यास में हास्य और हास्य रचने की कोशिश कई जगह की है। ये कोशिश कई बार सफल होती है और कई बार मुँह के बल के गिरती है। अब यह उपन्यास आपको कैसा लगता है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपके लिए कितनी बार विफल हुई और कितने बार सफल। जहाँ तक मेरी बात थी मुझे लगता है कि मेरे विफलता और सफलता के बीच फर्क जरूर था लेकिन वो मामूली ही था। विफलता थोड़ी अधिक थी। व्यक्तिगत तौर पर् मुझे लगा कि इस कोशिश के विफल होने के पीछे एक कारण लेखक का किरदारों की प्रतिक्रिया के बारे में लिखना भी है। मसलन कई जगह लेखक दर्शाते हैं कि कोई बात होने या डायलॉग बोलने पर कोई किरदार हँस हँस कर लोटपोट हो रहा है जबकि पाठक के तौर पर मेरे  लिए वह चीज इतनी हास्यजनक नहीं थी  कि कोई उस पर लोटपोट हो। ऐसे में एक तरह का डिस्कनेक्ट आप महसूस करते हैं और हास्य फोर्सड लगने लगता है। 
उपन्यास में दूसरी बात जो मुझे खटकी वो उपन्यास की कमी तो नहीं कहलाएगी लेकिन क्योंकि उससे फर्क पड़ा तो उसके विषय में लिखना जरूरी है।  अगर आप किसी उपन्यास को पढ़ रहे हैं तो आप चाहते हैं कि मुख्य  किरदार ऐसा हो जिससे आप इतना जुड़ाव महसूस करें कि उसकी हार होती है या जीत इससे आपको कोई फर्क पड़े। लेकिन सिद्धार्थ ऐसा किरदार है जो व्यक्तिगत तौर पर मुझे पसंद नहीं आया। उसका मुख्य कारण उसका स्त्रियों के प्रति नजरिया ही था। ऐसे में उसके साथ कहानी मे क्या होता है इससे मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा था। इसके बजाय मुझे उसके दोस्तों कि ज्यादा चिंता थी। 
उपन्यास में एक और बात जो मुझे खटकी वो पारलौकिक शक्ति का नाम है। यहाँ पर पारलौकिक शक्ति का नाम बंशी दिया है और उसका एक विवरण दिया है। अब बंशी नाम स्थानीय है या बैनशी (banshee) का हिंदी करण है ये बात साफ नहीं होती है। ऐसा इसलिए भी अंग्रेजी वाली बैनशी के जो विशेषताएँ होती हैं वो इस बंशी से मिलती नहीं है। बस चीख ही एक बात है जो मिलती है उसके अलावा सब अलग है। ऐसे में लेखक इस पर और रोशनी डालते तो बेहतर होता। 
उपन्यास के शीर्षक की बात की जाए तो शीर्षक किस प्रकार इस कथानक पर फिट बैठता है यह भी मुझे समझ नहीं आया। उपन्यास का शीर्षक जब मैंने पढ़ा था तो लगा था कि कथानक का कोलकता से कोई गहरा नाता होगा या फिर कथानक कोलकता में ही घटित हो रहा होगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। कथानक का कोलकाता से बस इतना ही लेना देना है कि सिद्धार्थ और चेतन उधर रहते हैं और कथानक की शुरुआत उधर से होती है। मुख्य कथानक कोलाघाट में घटित होता है। अगर लेखक कथानक का कोलकता से कोई और मजबूत संबंध जोड़ देते या उपन्यास के घटनाक्रम का जरूरी हिस्सा उधर घटित होता दर्शाते तो शायद बेहतर होता। अभी तो यह आपके मन में गलत अपेक्षाएँ जगाता है और जब वो पूरी नहीं होती तो निराशा भी पैदा करता है। 
यह उपन्यास किस्सा ए तोता मैना के फॉर्मैट में लिखा गया है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर नहीं पता कि उन कहानियों में अंत में तोता और मैना आते थे या नहीं लेकिन अगर इस उपन्यास के अंत में वो आते तो अच्छा होता। उसके न आने से एक तरह का अधूरापन सा उपन्यास में मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगा। 
अंत में यही कहूँगा कि उफ्फ़ कोलकता लेखक एक सराहनीय प्रयास है। उपन्यास अभी औसत से अच्छा बन पड़ा है। हास्य लिखना कठिन कार्य है और उसमें सफल होने के बजाए असफल होने की संभावना अधिक रहती है। प्रस्तुत उपन्यास में मेरे लिए कई जगह ऐसा यह प्रयास सफल हुआ लेकिन कई जगह असफल भी हुआ है। भय के दृश्यों के मामलों में ज्यादातर जगहों में लेखक सफल ही हुए हैं। ऐसे में उपन्यास मेरा मनोरंजन करने में सफल ही होता है। मुझे लगता है कि लेखक को ऐसे प्रयास और करने चाहिए। मैं आगे भी इस विधा में लिखी उनकी रचनाएँ अवश्य पढ़ना चाहूँगा। साथ ही उन्हें कभी एक खालिस हॉरर उपन्यास भी लिखना चाहिए। मुझे उनके द्वारा लिखे हॉरर विधा के उपन्यास जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि हास्य व्यक्तिपरक होता है। अगर हास्य आपको जमा तो यह उपन्यास आपको पसंद आएगा और नहीं जमा तो शायद फिर उपन्यास उतना पसंद न आए। फिर भी एक बार पढ़कर देख सकते हैं। 

उपन्यास के कुछ चुनिंदा अंश 

हार का वार बड़ा घातक होता है और हार की मार बड़ी दर्दीली। (पृष्ठ 76)

बेपरवाहियाँ जवानी का पहला इशारा है और बदमाशियाँ नौ-उम्री जी पहली सीढ़ी। बाद के दिनों में जो सोचकर भी रूह काँप जाए वह इन दिनों की मौज होती है। (पृष्ठ 82)

रात। क्या अजाब है कि दिन-रात जैसी खगोलीय प्रक्रिया भी नेक और बद के मुताबिक बाँट दी गई। नेकी दिन के हिस्से आई और बदी रात के हिस्से। सो सारे बुरे, तामसिक और पैशाचिक काम रात ही संभालती है। (पृष्ठ 87)

आलसियों की नींद थकान और मकान का इंतजार नहीं करती। वह कहीं भीआ सकती है। (पृष्ठ 94)

प्रेम असंभव में भी संभावना तलाश लेने का योग है। अंधविश्वास मूर्खता है और प्रेम सबसे प्रगाढ़ अंधविश्वास। तर्कों पर नासमझी की जीत ही अंधविश्वास है और यही प्रेम का सूत्र भी है। तर्क लाख सीधी राह दिखाए, प्रेम नासमझी की ओर ही झुकता है और राह की प्रवाह ही नहीं करता। (पृष्ठ 102)

भय की जमीन बहुत उर्वर होती है। उसे संयोग का खाद पानी मिल जाए तो अंधविश्वास फौरन ही उग जाते हैं। तर्क और विज्ञान संयोगों को सिद्ध करने में अपना समय जमा लेते हैं और जब तक यह सिद्ध होते हैं तब तक अंधविश्वास अपनी जड़ें जमा चुका होता है। (पृष्ठ 109)

दिल साहूकार है जिसके हाथों मजबूर होकर आदमी हर वाजिब, गैर वाजिब काम करता है। (पृष्ठ 131)

मगर मनुष्य का निश्चय कठपुतलियों के गिरह की तरह होता है, जिसे लगता तो है कि वह उसके नियंत्रण में है मगर उस गिरह से लगे धागे किसी और के हाथ में होते हैं। (पृष्ठ 141)

सबसे बुरा डर होता है उस अनदेखे का डर जो दिखता तो नहीं पर महसूस होता हो। माहौल जिसके होने का अहसास कराता है। ऐसा कुछ गैरमामूली अहसास जो रीढ़ की हड्डियों तक में झुरझुरी पैदा कर दे। सबसे बुरा डर होता है उस अदेखे का डर जो महसूस हो रहा हो। (पृष्ठ 202)

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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