संस्करण विवरण
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 89 | प्लेटफॉर्म: डेलीहंट | शृंखला: सुनील #53 | प्रथम प्रकाशन: 1979
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
नैपियन हिल से सटे समुद्र तट में जब एक जवान लड़की की लाश पाई गई तो पुलिस ने उसकी पहचान को जाहिर होने से बचाने की पूरी कोशिश की।
लाश के इर्द गिर्द मौजूद इसी रहस्यमय आवरण ने ब्लास्ट (Blast) के एडिटर राय की उत्सुकता जगाई और उसने सुनील (Sunil Kumar Chakravorty) को इस लाश की छान बीन के लिए लगा दिया।
आखिर कौन थी वह लड़की जिसकी लाश समुद्र में पाई गई थी?
लाश की पहचान जानने के लिए सुनील को क्या पापड़ बेलने पड़े?
लड़की के लाश बनने के पीछे क्या कारण था? क्या ये दुर्घटना थी या हत्या?
इस लाश के चक्कर में सुनील ने खुद को किस मुसीबत में पाया?
मुख्य किरदार
सुनील कुमार चक्रवर्ती – ब्लास्ट का रिपोर्टर
ललित – क्रॉनिकल नामक अखबार का रिपोर्टर। क्रॉनिकल ब्लास्ट का प्रतिद्वंदी था।
प्रभुदयाल – पुलिस इंस्पेक्टर
रंजीता गुप्ता – एक युवती
मुकुट बिहारी गुप्ता – संसद सदस्य
कपिल कुमार – रंजीता का प्रेमी
रमाकांत – युथक्लब का मालिक और सुनील का दोस्त
जौहरी, दिनकर – रमाकांत के आदमी
नयना – राजनगर के एक बड़े व्यापारी की बेटी
एलबर्ट – क्रिस्टल क्लब का संचालक
दिलावर – क्रिस्टल क्लब का एक आदमी
मेरे विचार
नशा एक विषय है जिसे लेकर लोग हमेशा से ही विभाजित रहे हैं। यहाँ लोगों में सरकारें भी शामिल हैं। कुछ नशे कानूनी माने जाते हैं और कुछ नशे प्रतिबंधित हैं। नशा चाहे जितनी भी बुरी चीज मानी जाए उसे करने वाले को वह बुरा नहीं लगता है और जिस नशे को वो नहीं करता है उसे वह बुरा ठहराता है। लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि नशा चाहे वह बीड़ी का हो या दिमाग घुमाने वाले बड़े नशे होते यह सब बुरे ही हैं और करने वाले का नुकसान ही करते हैं।
नशे की यह समस्या आज से ही नहीं है वरन बहुत पहले से है। यही कारण है कि 1979 लिखा गया यह उपन्यास ‘मौत की छाया’ (Maut Ki Chhaya) उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस वक्त रहा होगा जब यह लिखा गया था।
सुरेन्द्र मोहन पाठक (Surender Mohan Pathak) द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘मौत की छाया’ (Maut Ki Chhaya) सुनील सीरीज का 53 वाँ उपन्यास है। उपन्यास की शुरुआत ब्लास्ट के एडिटर राय साहब के सुनील को अपने दफ्तर में बुलाने से होती है। राय साहब सुनील को एक लड़की की लाश की पहचान पता करने को कहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि सुनील जिस चीज में हाथ डालता है वह सेन्सेशनल बन जाती है और इससे अखबार की बिक्री बढ़ जाती है।
“मैंने देखा है जिस काम में तुम्हारा दखल होता है वह कितना ही मामूली क्यों न हो उसमें सैंशेशन पैदा हुए बिना नहीं रहती।”“लेकिन काम है क्या?”“तुम जानते ही हो, आजकल पेपर बड़ा खुश्क जा रहा है। मैं तो…”
सुनील इस मामले को हाथ में लेता है और फिर एक के बाद एक ऐसी चीजें उसके सामने आती है जिनके चलते खुद उसकी जान साँसत में फँस जाती है। वह लड़की कौन है? उसकी मौत कैसी हुई और उसकी मौत के पीछे क्या गूढ रहस्य था? यह सब ऐसे प्रश्न हैं जो कि कथानक में अंत में जाकर सुलझते हैं । इस दौरान सुनील राजनगर की नाइटलाइफ से वाकिफ होता है और उसके माध्यम से पाठक नशे में गिरफ्त युवाओं की जीवनशैली से दो चार होते हैं। नशा लोगों को किस तरह बना देता है यह सुरेन्द्र मोहन पाठक सुनील के क्रिस्टल क्लब वाले प्रसंग से दर्शाते हैं। वहीं वह इस कथानक के माध्यम से यह भी दर्शाते हैं कि किस तरह समाज में फैले नशे को प्रकट अप्रकट रूप से पैसे वाले ताकतवर लोगों का साथ मिल रहा है। एक कहावत है कि जो लोग दूसरों के लिए कब्र खोदते है वह अंत में उसी में गिर जाते हैं। उपन्यास में यह चीज भी साफ तौर पर दृष्टिगोचर होती है।
उपन्यास की घटनाएँ तेजी से आगे बढ़ती हैं और जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता आप रहस्य जानने के लिए इसके पृष्ठ पलटते चलते जाते हैं। बीच-बीच में सुनील और रमाकांत के प्रसंग भी कहानी में मनोरंजन लेकर आते हैं। कहानी की शुरुआत में राय और सुनील के बीच की वार्तालाप भी रोचक बन पड़ा है। चूँकि यह सुनील का शुरुआती उपन्यास है तो किरदारों में वो बदलाव नहीं आया है जो कि बाद के उपन्यास में आया है। यानि रमाकांत की भाषा अभी बिगड़ी नहीं है और प्रभु दयाल से सुनील ऐसे बात करता है जैसे अपने किसी बराबर वाले से करता हो। बाद के उपन्यासों में प्रभु और सुनील के बीच जो फर्क आया है उससे मुझे यह समीकरण बेहतर लगता है। उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के अनुरूप ही हैं और कथानक के साथ न्याय करते हैं।
हाँ, अगर रहस्यकथा तौर पर देखूँ तो मुझे मौत की छाया थोड़ी सी कमजोर लगी। यहाँ इतना ही कहूँगा कि मुझे ऐसी रहस्यकथाएँ पसंद हैं जिसमें नायक खुद रहस्य के अंत तक पहुँचे लेकिन कई बार लेखक खलनायक से ऐसी हरकत करवा देते हैं कि वह रहस्य के गढ़ में पहुँच जाता है और फिर सब चीजें पानी की तरह साफ हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ लेखक ने इधर किया है। हाँ, उन्होंने कहानी में ट्विस्ट भी रखें हैं लेकिन उसका अंदाजा हो जाता है। सुनील अपनी तहकीकात तक वहाँ पहुँचा होता जहाँ पहुँचने से रहस्य सुलझा था तो बेहतर होता।
वहीं चूँकि उपन्यास का कलेवर छोटा है तो उतने दाँव पेंच भी उपन्यास में नहीं हैं। नायक खलनायक के बीच थोड़ा और दाँव पेंच इधर होते तो कथानक और रोमांचक बन सकता था।
उपन्यास में ऐसा प्रसंग भी है जिसमें सुनील को भी नशे की डोज लग जाती हैं। सुनील के उन अनुभवों को लेखक ने बहुत अच्छी तरह से दर्शाया है। ऐसी हालत में कैसे व्यक्ति अपना ही अहित करने से नहीं चूकता है यह भी लेखक ने दर्शाया है। बस उपन्यास के आखिर में सुनील को इसके लिये उपचार लेता हुआ या डॉक्टरी सलाह लेते हुए दर्शाया होता तो मेरे ख्याल से अच्छा बेहतर होता क्योंकि जिस नशे की डोज इस उपन्यास में उसे लगी है वह ऐसी होती है कि एक या दो से ही व्यक्ति का इनका अदि होने का खतरा रहता है।
अंत में यही कहूँगा कि मौत की छाया (Maut Ki Chhayaa) एक रोमांचक उपन्यास है जो कि अंत तक बांधकर रहता है। अगर नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़कर देख सकते हैं। 1979 में पहली बार प्रकाशित हुआ यह कथानक आज भी निराश नहीं करता है।