कहानी: कहानी का प्लॉट – शिवपूजन सहाय

शिवपूजन सहाय की कहानी 'कहानी का प्लॉट'

मैं कहानी-लेखक नहीं हूँ। कहानी लिखने-योग्य प्रतिभा भी मुझ में नहीं है। कहानी-लेखक को स्वभावतः कला-मर्मज्ञ होना चाहिये, और मैं साधारण कलाविद् भी नहीं हूँ। किंतु कुशल कहानी-लेखकों के लिए एक ‘प्लॉट’ पा गया हूँ। आशा है इस ‘प्लॉट’ पर वे अपनी भड़कीली इमारत खड़ी कर लेंगे।

मेरे गाँव के पास एक छोटा-सा गाँव है। गाँव का नाम बड़ा गँवारू है, सुनकर आप घिनाएँगे। वहाँ एक बूढ़े मुंशीजी रहते थे। अब वह इस संसार में नहीं है। उनका नाम भी विचित्र ही था – ‘अनमिल आखर अर्थ न जापू’ – इसलिए उसे साहित्यिकों के सामने बताने से हिचकता हूँ। खैर, उनके एक पुत्री थी, जो अब तक मौजूद है। उसका नाम- जाने दीजिये, सुनकर क्या कीजियेगा? मैं बताऊँगा भी नहीं! हाँ, चूँकि उनके संबंध की बातें बताने में कुछ सहूलियत होगी, इसलिए उसका एक कल्पित नाम रख लेना जरूरी है। मान लीजिये, उसका नाम है ‘भगजोगनी’। दिहात की घटना है, इसलिए दिहाती नाम ही अच्छा होगा। खैर, पढ़िये –

मुंशीजी के बड़े भाई पुलिस-दरोगा थे, उस जमाने में, जब कि अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या उतनी ही थी, जितनी आज धर्म-शास्त्रों के मर्म जाननेवालों की है। इसलिए उर्दू-दाँ लोग ही ऊँचे ओहदे पाते थे।

दारोगाजी ने आठ-दस पैसे का करीमा-खालिंकबारी पढ़कर जितना रुपया कमाया था, उतना आज कॉलेज और अदालत की लाइब्रेरियाँ चाटकर वकील होने वाले भी नहीं कमाते।

लेकिन दारोगाजी ने जो कुछ कमाया, अपनी जिंदगी में ही फूँकताप डाला। उनके मरने के बाद सिर्फ उनकी एक घोड़ी बची थी, जो थी तो महज सात रुपये की, मगर कान काटती थी तुर्की घोड़ों की – कंबख्त बारूद की पुड़िया थी। बड़े-बड़े अंग्रेज-अफसर उस पर दाँत गड़ाये रह गये, मगर दारोगाजी ने सब को निबुआ-नोन चटा दिया। इसी घोड़ी की बदौलत उनकी तरक्की रह गयी, लेकिन आखिरी दम तक वह अफसरों के घपले में न आये – न आये। हर तरफ से काबिल, मेहनती, ईमानदार, चालाक, दिलेर और मुस्तैद आदमी होते हुए भी वह दारोगा के दारोगा ही रह गये – सिर्फ घोड़ी की मुहब्बत से!

किंतु घोड़ी ने भी उनकी इस मुहब्बत का अच्छा नतीजा दिखाया – उनके मरने के बाद खूब धूम-धाम से उनका श्राद्ध करा दिया। अगर कहीं घोड़ी को भी बेच खाये होते, तो उनके नाम पर एक ब्राह्मण भी न जीमता। एक गोरे अफसर के हाथ खासी रकम पर घोड़ी को ही बेचकर मुन्शीजी अपने बड़े भाई से उऋण हुए।

दारोगाजी के जमाने में मुंशीजी ने भी खूब घी के दिये जलाये थे। गाँजे में बढ़िया-से-बढ़िया इत्र मलकर पीते थे – चिलम कभी ठंडी नहीं होने पाती थी। एक जून बत्तीस बटेर और चौदह चपातियाँ उड़ा जाते थे। नथुनी उतारने में तो दारोगाजी के भी बड़े भैया थे – हर साल एक नया जलसा हुआ ही करता था।

किंतु, जब बहिया बह गयी तब चारों ओर उजाड़ नजर आने लगा। दारोगाजी के मरते ही सारी अमीरी घुस गयी। चिलम के साथ-साथ चूल्हा-चक्की भी ठंडी हो गयी। जो जीभ एक दिन बटेरों का शोरबा सुड़कती थी, वह अब सराह-सराहकर मटर का सत्तू सरपोटने लगी। चपातियाँ चाबने वाले दाँत अब चंद चने चाबकर दिन गुजारने लगे। लोग साफ कहने लग गये – थानेदारी की कमाई और फूस का तापना दोनों बराबर है।

हर साल नयी नथुनी उतारने वाले मुंशी जी को गाँव-वार के लोग भी अपनी नजरों से उतारने लगे। जो मुंशी जी चुल्लू-के-चुल्लू इत्र लेकर अपनी पोशाकों में मला करते थे, उन्हीं को अब अपनी रूखी-भूखी देह में लगाने के लिए चुल्लू भर कड़वा तेल मिलना भी मुहाल हो गया। शायद किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं है।

लेकिन जरा किस्मत की दोहरी मार तो देखिये। दारोगाजी के जमाने में मुंशी जी के चार-पाँच लड़के हुए, पर सब-के-सब सुबह के चिराग हो गये। जब बेचारे की पाँचो उँगलियाँ घी में थीं, तब तो कोई खानेवाला न रहा, और जब दोनों टाँगे दरिद्रता के दलदल में आ फँसी, और ऊपर से बुढ़ापा भी कंधे दबाने लगा, तब कोढ़ में खाज की तरह एक लड़की पैदा हो गयी! और तारीफ यह कि मुंशीजी की बदकिस्मती भी दारोगाजी की घोड़ी से कुछ कम स्थावर नहीं थी!

सच पूछिये तो इस तिलक-दहेज के जमाने में लड़की पैदा करना ही बड़ी भारी मूर्खता है। किंतु युग-धर्म की क्या दवा है? इस युग में अबला ही प्रबला हो रही है – पुरुष-दल को स्त्रीत्व खदेड़े जा रहा है। बेचारे मुंशीजी का क्या दोष? जब घी और गरम मसाले उड़ाते थे, तब तो हमेशा लड़का ही पैदा करते रहे, मगर अब मटर के सत्तू पर बेचारे कहाँ से लड़का निकाल लाएँ! सचमुच अमीरी की कब्र पर पनपी हुई गरीबी बड़ी जहरीली होती है।

‘भगजोगनी’ चूँकि मुंशीजी की गरीबी में पैदा हुई, और जन्मते ही माँ के दूध से वंचित होकर ‘टूअर’ कहलाने लगी, इसलिए अभागिन तो अजाहद थी – इसमें शक नहीं, पर सुंदरता में वह अँधेरे घर का दीपक थी। आज तक वैसी सुघराई लड़की किसी ने कभी कहीं देखी न थी।

अभाग्यवश मैंने उसे देखा था। जिस दिन पहले-पहल उसे देखा, वह करीब ग्यारह-बारह वर्ष की थी। पर एक ओर उसकी अनोखी सुघराई और दूसरी ओर उसकी दर्दनाक गरीबी देखकर – सच कहता हूँ – कलेजा काँप गया! यदि कोई भावुक कहानी-लेखक या सहृदय कवि उसे देख लेता, तो उसकी लेखनी से अनायास करुणा की धारा फूट-निकलती। किंतु मेरी लेखनी में इतना जोर नहीं है कि उसकी गरीबी के भयावने चित्र को मेरे हृदय-पट से उतारकर ‘सरोज’ के इस कोमल ‘दल’ पर रख सके। और सच्ची घटना होने के कारण, केवल प्रभावशाली बनाने के लिए, मुझसे भड़कीली भाषा में लिखते भी नहीं बनता। भाषा में गरीबी को ठीक-ठीक चित्रित करने की शक्ति नहीं होती, भले ही वह राजमहलों की ऐश्वर्य-लीला और विलास-वैभव के वर्णन करने में समर्थ हो।

आह! बेचारी उस उम्र में भी कमर में सिर्फ एक पतला-सा चिथड़ा लपेटे हुए थी, जो मुश्किल से उसकी लाश ढकने में समर्थ था। उसके सिर के बाल तेल बिना बुरी तरह बिखर कर बड़े डरावने हो गये थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में एक अजीब ढंग की करुणा-कातर चितवन थी। दरिद्रता-राक्षसी ने सुंदरता-सुकुमारी का गला टीप दिया था। कहते हैं, प्रकृति सुंदरता के लिए कृत्रिम श्रृगांर की जरूरत नहीं होती, क्योंकि जंगल में पेड़ की छाल और फूल-पत्तियों से सजकर शकुंतला जैसी सुंदरी मालूम होती थी, वैसी दुष्यंत के राजमहल में सोलहों सिंगार करके भी वह कभी न फबी किंतु, शकुंतला तो चिंता और कष्ट के वायुमंडल में नहीं पली थी। उसके कानों में उदर-दैत्य का कर्कश हाहाकार कभी न गूँजा था। वह शांति और संतोष की गोद में पलकर सयानी हुई थी, और तभी उसके लिए महाकवि ‘शैवाल जाल – लिप्तकमलिनी’ वाली उपमा उपयुक्त हो सकी। पर ‘भगजोगनी’ तो गरीबी की चक्की में पिसी हुई थी, भला उसका सौंदर्य कब खिल सकता था! वह तो दाने-दाने को तरसती रहती थी – एक बित्ता कपड़े के लिए भी मुहताज थी। सिर में लगाने के लिए एक चुल्लू असली तेल भी सपना हो रहा था – महीने के एक दिन भी भर-पेट अन्न के लाले पड़े थे। भला हड्डियों के खंडहर में सौंदर्य-देवता कैसे टिके रहते?

उफ! उस दिन मुंशी जी जब रो-रोकर अपना दुखड़ा सुनाने लगे, तो कलेजा टूक-टूक हो गया। कहने लगे – ‘क्या कहूँ बाबू साहब, पिछले दिन जब याद आते हैं, तो गश आ जाता है। यह गरीबी की मार इस लड़की की वजह से और भी अखरती है। देखिये, इसके सिर के बाल, कैसे खुश्क और गोरखधंधारी हो रहे हैं। घर में इसकी माँ होती, तो कम से कम इसका सिर तो जूँओं का अड्डा न होता। मेरी आँखों की जोत अब ऐसी मंद पड़ गयी कि जूँएँ सुझती नहीं। और, तेल तो एक बूँद भी मयस्सर नहीं। अगर अपने घर में तेल होता, तो दूसरे के घर जाकर भी कंघी-चोटी करा लेती – सिर पर चिड़ियों का घोंसला तो न बनता। आप तो जानते हैं, यह छोटा-सा गाँव हैं, कभी साल छमासे में किसी के घर बच्चा पैदा होता हैं, तो इसके रूखे-सूखे बालों के नसीब जागते हैं! गाँव के लड़के, अपने-अपने घर, भर-पेट खाकर, जो झोलियों में चबेना लेकर खाते हुए घर से निकलते हैं, तो यह उनकी बाट जोहती रहती है – उनके पीछे-पीछे लगी फिरती हैं, तो भी मुश्किल से दिन में एक दो मुट्ठी चबेना मिल पाता हैं। खाने-पीने के समय किसी के घर पहुँच जाती है, तो इसकी डीट लग जाने के भय से घरवालियाँ दुरदुराने लगती हैं। कहाँ तक अपनी मुसीबतों का बयान करूँ, भाई साहब, किसी की दी हुई मुट्ठी भीख लेने के लिए इसके तन पर फटा आँचल भी तो नहीं है! इसकी छोटी अंगुलियों में ही जो कुछ अँट जाता है, उसी से किसी तरह पेट की जलन बुझा लेती है! कभी-कभी एक-आध फँका चना-चबेना मेरे लिए भी लेती आती है, उस समय हृदय दो-टूक हो जाता है। किसी दिन, दिन-भर घर-घर घूमकर जब शाम को मेरे पास आकर धीमी आवाज से कहती है, कि बाबू जी, भूख लगी है – कुछ हो तो खाने को दो, उस वक्त, आप से ईमानन कहता हूँ, जी चाहता है कि गले-फाँसी लगाकर मर जाऊँ, या किसी कुएँ-तालाब में डूब मरूँ। मगर फिर सोचता हूँ, कि मेरे सिवा इसकी खोज-खबर लेने वाला इस दुनिया में अब है ही कौन! आज अगर इसकी माँ भी जिंदा होती, तो कूट-पीसकर इसके लिए मुट्ठी-भर चून जुटाती – किसी कदर इसकी परवरिश कर ही ले जाती, और अगर कहीं आज मेरे बड़े भाई साहब बरकरार होते, तो गुलाब के फूल-सी ऐसी लड़की को हथेली का फूल बनाये रहते। जरूर ही किसी ‘रायबहादुर’ के घर में इसकी शादी करते। मैं भी उनकी अंधाधुंध कमाई पर ऐसी बेफिक्री से दिन गुजारता था कि आगे आने वाले इन बुरे दिनों की मुतलक खबर ही न थी। वह भी ऐसे खर्राच थे कि अपने कफन-काठी के लिए भी एक खरमुहरा न छोड़ गये – अपनी जिंदगी में ही एक-एक चप्पा जमीन बेच खायी – गाँव भर से ऐसी अदावत बढ़ायी कि आज मेरी इस दुर्गति पर भी कोई रहम करने वाला नहीं है, उल्टे सब लोग तानेजानी के तीर बरसाते हैं। एक दिन वह था कि भाई साहब के पेशाब से चिराग जलता था, और एक दिन यह भी है कि मेरी हड्डियाँ मुफलिसी की आँच में मोमबत्तियों की तरह घुल-घुल कर जल रही हैं। इस लड़की के लिए आस-पास के सभी जवारी भाइयों के यहाँ मैंने पचासों फेरे लगाये, दाँत दिखाये, हाथ जोड़कर बिनती की, पैरों पड़ा – यहाँ तक बेहया होकर कह डाला कि बड़े-बड़े वकीलों, डिप्टियों और जमींदारों की चुनी-चुनाई लड़कियों में मेरी लड़की को खड़ी करके देख लीजिये कि सब से सुंदर जँचती है या नहीं, अगर इसके जोड़ की एक भी लड़की कहीं निकल आये, तो इससे अपने लड़के की शादी मत कीजिये। किंतु मेरे लाख गिड़गिड़ाने पर भी किसी भाई का दिल न पिघला। कोई यह कहकर टाल देता कि लड़के की माँ ऐसे घराने में शादी करने से इनकार करती हैं, जिसमें न सास है, न साला और न बारात की खातिरदारी करने की हैसियत। कोई कहता कि गरीब घर की लड़की चटोर और कंजूस होती है, हमारा खानदान बिगड़ जायगा। ज्यादातर लोग यही कहते मिले कि हमारे लड़के को इतना तिलक दहेज मिल रहा है, तो भी हम शादी नहीं कर रहे हैं, फिर बिना तिलक दहेज के तो बात भी करना नहीं चाहते। इसी तरह, जितने मुँह उतनी ही बातें सुनने में आयीं। दिनों का फेर ऐसा है कि जिसका मुँह न देखना चाहिये उसका भी पिछाड़ देखना पड़ा। महज मामूली हैसियतवालों को भी पाँच सौ और एक हजार तिलक-दहेज फरमाते देखकर जी कुढ़ जाता है – गुस्सा चढ़ आता है। मगर गरीबी ने तो ऐसा पंख तोड़ दिया है कि तड़फड़ा भी नहीं सकता। साले हिंदू-समाज के कायदे भी अजीब ढंग के हैं। जो लोग मोल-भाव करके लड़के की बिक्री करते हैं, वे भले आदमी समझे जाते हैं, और कोई गरीब बेचारा उसी तरह मोल-भाव करके लड़की को बेचता है, तो वह कमीना कहा जाता है। मैं अगर आज इसे बेचना चाहता, तो इतनी काफी रकम ऐंठ सकता था कि कम-से-कम मेरी जिंदगी तो जरूर ही आराम से कट जाती। लेकिन जीते-जी हरगिज एक मक्खी भी न लूँगा। चाहे यह क्वारी रहे, या सयानी होकर मेरा नाम हँसाये। देखिये न, सयानी तो करीब-करीब हो ही गयी है – सिर्फ पेट की मार से उकसने नहीं पाती, बढ़ती रुकी हुई है। अगर किसी खुशहाल घर में होती, तो अब तक फूटकर सयानी हो जाती – बदन भरने से ही खूबसूरती पर भी रोगन चढ़ता है, और बेटी की बाढ़ बेटे से जल्दी होती है। अब अधिक क्या कहूँ बाबू साहब, अपनी ही करनी का नतीजा भोग रहा हूँ – मोतियाबिंद, गठिया और दमा ने निकम्मा कर दिया है। अब मेरे पछतावे के आँसुओं में भी ईश्वर को पिघलाने का दम नहीं है। अगर सच पूछिये, तो इस वक्त सिर्फ एक ही उम्मीद पर जान अटकी हुई है – एक साहब ने बहुत कहने, सुनने से इसके साथ शादी करने के वादा किया है कि गाँव के खोटे लोग उन्हें भी भड़काते हैं, या मेरी झाँझरी नैया को पार लगाने देते हैं। लड़के की उम्र कुछ कड़ी जरूर है – 41-42 साल की, मगर अब इसके सिवा कोई चारा भी नहीं है। छाती पर पत्थर रख कर अपनी इस राजकोकिला को…

इसके बाद मुंशीजी का गला रुँध गया – बहुत बिलख कर रो उठे, और भगजोगनी को अपनी गोद में बैठाकर फूट-फूटकर रोने लग गये। अनेक प्रयत्न करके भी मैं किसी प्रकार उनको आश्वासन न दे सका जिसके पीछे हाथ धोकर वाम-विधाता पड़ जाता है, उसे तसल्ली देना ठट्ठा नहीं है।

मुंशीजी की दास्तान सुनने के बाद मैंने अपने कई क्वारे मित्रों से अनुरोध किया कि उस अलौकिक रूपवती दरिद्र कन्या से विवाह करके एक निर्धन भाई का उद्धार और अपने जीवन को सफल करें। किंतु सब ने मेरी बात अनसुनी कर दी। ऐसे-ऐसे लोगों ने भी आनाकानी की, जो समाज-सुधार-संबंधी विषयों पर बड़े शान-गुमान से लेखनी चलते हैं। यहाँ तक कि प्रौढ़ावस्था के रंडुए मित्र भी राजी न हुए। आखिर वही महाशय डोला काढ़कर भगजोगिनी को अपने घर ले गये और वहीं शादी की। कुल रस्में पूरी करके मुंशीजी को चिंता के दलदल से उबारा। बेचारे की छाती से पत्थर का बोझ तो उतरा, मगर घर में कोई पानी देने वाला भी न रह गया। बुढ़ापे की लकड़ी जाती रही, देह लच गयी। साल पूरा होते-होते अचानक टन बोल गये। गाँववालों ने गले में घड़ा बाँधकर नदी में डुबा दिया।

भगजोगनी जीती हैं। आज वह पूर्ण युवती है। उसका शरीर भरा पूरा और फूला-फला है। उसका सौंदर्य उसके वर्तमान नवयुवक पति का स्वर्गीय धन है। उसका पहला पति इस संसार में नहीं है। दूसरा पति है – उसका सौतेला बेटा।

समाप्त


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About एक बुक जर्नल

एक बुक जर्नल साहित्य को समर्पित एक वेब पत्रिका है जिसका मकसद साहित्य की सभी विधाओं की रचनाओं का बिना किसी भेद भाव के प्रोत्साहन करना है। यह प्रोत्साहन उनके ऊपर पाठकीय टिप्पणी, उनकी जानकारी इत्यादि साझा कर किया जाता है। आप भी अपने लेख हमें भेज कर इसमें सहयोग दे सकते हैं।

View all posts by एक बुक जर्नल →

2 Comments on “कहानी: कहानी का प्लॉट – शिवपूजन सहाय”

  1. काफी अरसे बाद आपके ब्लॉग को खोला तो चक्कर में पड़ गया कि यह क्या कायाकल्प हो गया। फिर इस कहानी को पढ़ा, इसमें रुचि आई। मगर अंत ने पहले से ज्यादा चकरा दिया। अंत का क्या मतलब था? या पूरी कहानी का ही?
    साथ ही उस ज़माने में सौतेले बेटे से विवाह कर सकते थे?

    1. कहानी बेमेल विवाह की त्रासदी को दर्शाती है। भगजोगिनी की जब पैंतालीस वर्ष के व्यक्ति से शादी हुई होगी तो वो खुद 14-15 वर्ष की रही होगी। जिस व्यक्ति से शादी हुई होगी उसके पहली पत्नी से उत्पन्न हुए लड़के और उसकी उम्र में अधिक फासला नहीं रहा होगा। ऐसे में उनके बीच आकर्षण का पैदा होना प्राकृतिक बात है। जहाँ तक मेरा मानना है आखिरी पंक्ति में लेखक पति शब्द का प्रयोग करते हैं। पति का एक अर्थ स्वामी भी होता है। जैसे राष्ट्रपति, भूपति इत्यादि। इसी संदर्भ में उन्होंने प्रयोग किया होगा। सौतले बेटे से विवाह शायद तब भी मुमकिन न हो लेकिन संबंध तो तब भी बन ही सकते थे। इस मामले में लेखक भी साफ साफ नहीं बताते हैं।

      जी वेबसाईट को नया रूप देने की कोशिश की है। वेबसाईट का यह रूप आपको कैसा लगा, बताइएगा?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *