आत्मद्वन्द्व तथा अपने समय को समझने की चेष्टा है ‘समवाय’

सौरभ शर्मा लेखक हैं। उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने डॉ राकेश शुक्ल के रचना संग्रह समवाय पर अपने विचार भेजे हैं। आप भी पढ़िए। 

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“रात नींद में देखा,
धुंधला रहा है धीरे-धीरे।
एक विशाल फानुस के नीचे 
शायद राष्ट्रपति ही थे
मेरे सामने खड़े हुए
उन्होंने कुछ दिया
फिर हाथ बढ़ाकर मिलाया हाथ
बहुत खूबसूरत दरबार था
लोग थे एक से बढ़कर एक,
पर मेरे जैसा मैं ही था
जैसे महामहिम जैसे अकेले वे”

यह कविता डॉ. राकेश शुक्ल जी की ई-बुक ‘समवाय’ से ली गई है। कविता में एक सपना है और सपने के भीतर एक आम आदमी के सपने हैं। इस सपने में कवि वैसे ही अद्वितीय है जिस तरह महामहिम। इस अद्वितीयता की स्थापना और आम आदमी की गरिमा उनके लिखे का केंद्रीय कथ्य भी है।

आदि शंकराचार्य का कहा हुआ वाक्य याद आता है कि संसार ईश्वर द्वारा देखा जा रहा सपना है। सपने की कोई स्क्रिप्ट नहीं होती, उसमें सब कुछ अनोखा होता है इसलिए सृजनकर्ता के नियंत्रण से भी बाहर होता है। हम सब इस सपने के पात्र हैं जो ईश्वर के स्वप्न में हैं।  

सपना पूरा होता है और सब कुछ धुंधला जाता है सपना देखने के दौरान भी पात्र को कुछ आभास होता है कि यह सब कुछ नष्ट होने वाला है लेकिन कम ही लोग इसे दर्ज करते हैं। वे लेखक हैं जो इस सुंदर सपने को महसूस करते हैं और इसे लिख देते हैं। 

फिर यह भी होता है कि ईश्वर के सपने में आ रहे चरित्र अपना अभिनय पूरी तन्मयता से करते हैं। ऊपर जब इनकी कास्टिंग होती होगी तो कुछ लोगों को अच्छे किरदार निभाने का मौका मिलता है और समझिये कि ईश्वर का ग्रेस है जो अपने रंगमंच के लिए उसने आपको चुना है।

अद्वितीयता के साथ उनके रचना संसार का दूसरा पक्ष है उनकी जमीनी जड़ें।

“तोड़ो मत,

सारे फूल खिलें रहें

अपनी अपनी फोंक पर

बहुत से मोंगरा, जूही, गुलाब

मुझसे लटक-लटककर 

खिला न सकेंगे मेरा रूप 

जैसे वे खिले हैं 

अपनी अपनी फोंक पर”

हर फोंक में एक अलग सा फूल है और उसकी अलग सी खुशबू, अपने परिवेश से बिखर जाने पर इनकी खूबसूरती भी बिखर जाती है। अपने परिवेश से यह लगाव उनके गद्य में बहुधा प्रगट होता है। रविश कुमार ने मैगसेसे अवार्ड के दौरान अपना भाषण दिया था। उसमें एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगती थी कि एक पेड़ में कई बारिशों का पानी होता है। हमारे जीवन को सुंदर बनाने में कितने लोगों की भूमिका होती है। उनकी भी जो हमारे साथ हैं उनकी भी जो हमारे साथ थे और उनकी भी जो हमारे पूर्व रहे होंगे। हमारी चारित्रिक विशेषता इस बात में है कि हम कितनी कृतज्ञता से उन्हें याद करते हैं। डा. शुक्ल ने समवाय को प्रख्यात आलोचक प्रो. राजेंद्र मिश्र को समर्पित किया है। प्रो. मिश्र पर उनका स्मृति लेख अद्भुत है। इसे पढ़कर लगता है कि डा. शुक्ल के पौधे को प्रो. मिश्र ने भी अनेक बारिशों के पानी से सींचा है। आखिर तक वे उन्हें समृद्ध करते रहे। जैसाकि डा. शुक्ल ने लिखा है कि आखरी समय उन्हें प्रो. मिश्र ने ज्योत्सना मिलन को पढ़ने की सलाह दी थी। मुझे उनका सबसे अद्भुत लेख लगा जो उन्होंने अपने माता-पिता पर लिखा। उस दौर के लोगों की शालीनता और छोटे छोटे सुखों से सजी उनकी दुनिया। इस लेख में डा. शुक्ल ने पूरा शब्द चित्र खींचा है। हम सभी इतिहास में बड़े नेताओं को दर्ज करते हैं लेकिन छोटे छोटे लोगों की महानता और उनका जीवनसंघर्ष कौन रचता है। “घर का छूटना हो या खोये हुए घर की तलाश दोनों ही तापसंताप के विषय हैं।” घर शीर्षक एक लेख जो छत्तीसगढ़ मित्र में प्रकाशित हुआ है की यह पंक्तियाँ हैं। इस लेख में उन्होंने अपनी भीतरी अनुभूतियाँ दर्ज की हैं एक उस घर के बारे में जो दुनियावी है और एक उस घर के बारे में जहाँ हमें जाना है। हर क्षण हमारा परिवेश जिनसे हमारा घर बनता है नष्ट होता है। स्नेही स्वजन विदा होते रहते हैं और लेखक को याद आता है कुंदनलाल सहगल का यह गीत, ‘बाबुल मोरा, नैहर छूटा ही जाए।’ लेखक एक दूसरे घर की खोज में भी रहता है जो हमारी आध्यात्मिक अनुभूतियों से हम रचते हैं। जिसे कबीर ने कहा है  ‘बालम आओ हमारे गेह रे।’ उनके घर के निबंध की यात्रा कुंदन लाल सहगल से शुरू होती है और कबीर पर समाप्त होती है। 

साहित्य की हर विधा अपने से भिन्न होती है। आप जैसी कविताएँ लिखते हैं वैसा गद्य नहीं रच सकते। एक दूसरे माध्यम पर उतर आने में आपकी भाषाई चमक भी कम हो जाती है और मौलिकता भी उस तरह से नहीं रह पाती, लेकिन जब आप डा. शुक्ल की कविताएँ पढ़ेंगे तो लगेगा कि जो कवि है आप उन्हें जानते हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ेंगे तो एक दूसरा व्यक्तित्व उभरकर आता है, ऐसा मुझे महसूस होता है।

आखिर में निबंधों पर आता हूँ। उनके वैचारिक निबंधों की तुलना में उनके सुख जैसे ललित निबंध मुझे ज्यादा अच्छे लगे। यह भी अपनी रसिकता के ऊपर निर्भर करता है कि आपको किस तरह की रचना से सुख मिलता है। जैसे उन्होंने लिखा है कि “जिन्हें चिलम गुड़गुड़ाने से परमसुख मिलता है वे सिद्धांतों के फेर में नहीं पड़ते।” वैचारिक निबंधों में उन्होंने अपने समाज को लेकर, हिंदी भाषा को लेकर कुछ चिंताएँ जाहिर भी की हैं जिनसे मैं सहमति रखता हूँ लेकिन फिर भी मैं ये मानता हूँ कि समय सबसे बड़ा एडिटर होता है उसे जो चीजें अच्छी नहीं लगती, वो इसे डिलीट करता जाता है। 

जैसाकि लेखक ने लिखा है कि आत्मद्वन्द्व तथा अपने समय को समझने की चेष्टा में समवाय का सृजन उन्होंने किया है। उनके इस सृजन से हम सब समृद्ध हुए हैं और अपने द्वंन्द्वों को भी बेहतर तरीके से समझने की दृष्टि हमें मिली है।

पुस्तक विवरण

पुस्तक: समवाय | लेखक: डॉक्टर राकेश शुक्ल | पुस्तक लिंक: अमेज़न

टिप्पणीकार परिचय

सौरभ शर्मा छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में जनसंपर्क अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। इनकी एक किताब ‘क्योटो टू काशी’ और एक किताब ‘अजंता की राजकुमारी’ ई बुक के रूप में प्रकाशित हुई है।

नोट: आप भी साहित्य और साहित्यकारों से संबंधित अपने आलेख हमें प्रकाशित होने के लिए भेज सकते हैं। आलेख भेजने के लिये contactekbookjournal@gmail.com पर हमें संपर्क करें। 


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