उपन्यास 8 जुलाई 2016 से 12 जुलाई 2016 के बीच पढ़ा गया
फॉर्मेट:पेपरबैक
पृष्ठ संख्या:184
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
जब कभी अपने लड़कपन और स्कूली दिनों की बात सोचता हूँ तो सबसे पहले अपने चार दोस्तों और मनमोहन की याद आती है।
उपन्यास की कहानी सन् 1943 के आसपास शुरू होती है जब कृष्ण नववीं कक्षा में गया था और ये कहानी 1946 तक जाती है जब वो इंटरमीडिएट कर रहा होता है। इस अंतराल को तीन हिस्सों में बाँटा गया जिसमें कृष्ण के जीवन में हुए महत्वपूर्ण बदलाव दर्शाये गये हैं।
दूसरा खण्ड में कृष्ण और उसके दोस्त आज़ादी के लिए लालायित युवक हैं। वो क्रांतिकारी बनना चाहते हैं। उसके लिए वो क्या क्या करते हैं इसका ही उसमे विवरण है।
तीसरा खण्ड कृष्ण के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण खण्ड है जिसमें उसे प्यार हो जाता है। उसको पाने के लिये वो क्या करता है। और पाने के बाद क्या होता है? इस खण्ड में इसका विवरण है।
इन तीन खण्डों में कई घटनायें होती हैं जिनको विस्तार में तो आप उपन्यास में ही पढ़ियेगा।
तीसरे खण्ड के बाद उसे ये एहसास होता है कि उसका जीवन एक सूखे पत्ते की तरह था जो केवल हवा के बहाव की तरफ मुड़ जाता था और उसे इसे बदलना होगा।
वो क्या अनुभव थे जिससे उसे इस बात का एहसास हुआ?
जैसे मैं ऊपर बता ही चुका हूँ या उपन्यास तीन खंडों में बंटा है।
पहले खंड में कृष्ण नया नया नववीं कक्षा में गया है। उसके कुछ दोस्त हैं और उसके आदर्श मनोहर नाम का उससे दो साल बड़ा लड़का है। इस खंड को पढ़ने में मुझे बहुत मज़ा आया क्योंकि इसमें कई वाकये है जिनसे मै रिलेट कर सकता हूँ। उदाहरण के लिए लड़कों का समूह बनाकर दूसरे समूह के लड़कों से बैर भाव।
इसके इलावा कृष्ण कुमार ने पहले खंड में अपने चार दोस्तों का भी नाम लिया है।मनोहर, दिनेश्वर, कृपाशंकर और दीनानाथ। इनके ब्यौरे भी बड़े दिलचस्प हैं। ज्यादा बेहतर यही रहेगा कि आप इन्हें उपन्यास में ही पढ़े। लेकिन यकीन जानिए उनके विषय में पढ़कर आपको लगेगा कि आपके आस पास आपने इन लड़कों की प्रतिलिपियों को जरूर देखा होगा।
अगर दूसरे खण्ड की बात करें तो ये खण्ड काफी रोचक था। उपन्यास का घटनाक्रम ऐसे वक्त में हो रहा है जब देश में आज़ादी की लड़ाई चल रही थी तो इससे कृष्ण और उसके दोस्त कैसे अछूते रह सकते थे। वो बहुत संजीदगी से क्रांतिकारी बनना चाहते हैं लेकिन अपनी बालक बुद्धि से जो कार्य करते हैं वो पाठकों को गुदगुदाएंगे जरूर और उनके भोलेपन को भी दर्शाएंगे। जरा इसे पढ़िए:
उपन्यास का तीसरा खण्ड उर्मिला के नाम है। उर्मिला कृष्णकुमार के पिताजी कि मित्र की बेटी है। किसी कारणवश वो उनके घर में रहने लगती हैं और कृष्ण को उनसे मोहब्बत हो जाती है। ये वाला खण्ड बाकियों से बहुत मार्मिक है। आपने कभी प्यार किया है तो आप इसे समझ पाएंगे। वो दुविधा की क्या वो हमारे तरफ भी वही भावना रखती है जो हम उसके प्रति रखते हैं। उससे मिलने के लिये बहाने खोजना। वो सब इसमें मुझे इसमें मिला।
लेकिन प्यार की राह कभी भी आसान नहीं रही है। जाती अक्सर हमारे बीच आ ही जाती है। इस खण्ड में मुझे कभी ख़ुशी भी मिली और दुःख भी महसूस हुआ। कई प्रेमी युगलों को कृष्ण और उर्मिला जैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।कई भाग जाते हैं, कुछ को मार दिया जाता है और कुछ अपने घुटने टेक देते हैं। अभी भी कुछ बदला नहीं है। आज भी परिस्थिति ऐसी ही है जैसी तब थी जब यह उपन्यास लिखा गया था। सोचने वाली बात है लगभग ६० सालों में हमारे समाज ने विकास किया है तो क्या विकास किया है ?
तीसरे खंड के बाद हम उपसंहार की तरफ जाते हैं जहाँ उपन्यास में आए हुए मुख्य किरदारों के जीवन किस दिशा में जाता है ये दर्शाया गया है। कृष्ण को भी अपने बारे में एक एहसास होता है और कहानी वहीं रोक दी जाती है। ये मुझे और आप छोड़ दिया गया है कि कृष्ण के आगे का जीवन उस एहसास के बाद कैसे बीता होगा। तो अगर आपने उपन्यास पढा तो बताना न भूलियेगा कि क्या आपके विचार से क्या हुआ होगा कृष्ण के साथ।
अंत में मैं केवल यही कहूँगा कि यह उपन्यास मुझे बहुत पसन्द आया। मैंने इसे पढ़ा नहीं जिया है। और शायद इसलिए ये मेरे मन के काफी नज़दीक अपनी जगह बना पाया। पहले खण्ड को पढ़ते हुए मैंने विषाद (नास्टैल्जिया), दूसरे खण्ड को पढ़ते हुए रोमांच और बचपने की मासूमियत और तीसरे खण्ड को पढ़ते हुए पहले प्यार होने का आनंद और उसको खोने का दुःख मैंने अनुभव किया। ऐसे कम ही उपन्यास होते हैं जो इतनी भावनायें एक साथ आपके मन में जगाते हैं। मेरे लिये ये उनमे से एक उपन्यास था।
अगर आप हिन्दी के साहित्य में रूचि रखते हैं और आपने इसे नहीं पढ़ा है तो जरूर पढियेगा। अगर पढ़ा है तो अपनी राय इधर दीजियेगा।
आप उपन्यास को निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं: