1
पंडित सालिगराम को अपनी छोटी-सी हवेली बहुत प्यारी थी। उन्होंने अपनी गरीबी से जीवन-भर संघर्ष करके भी उसे अपने हाथों से बाहर जाने नहीं दिया था। चाहे घर कितना भी पुराना क्यों न हो, किंतु फिर भी पुरखों की शान था। आखिर वे उसी में पले थे। उन्होंने उसी में घुटनों चलना प्रारंभ किया था, उसी में चलना सीखा था और जीना तो था ही, मरना भी प्रायः उसी घर में निश्चित था। घर के सामने ही एक छोटा-सा मैदान था। कहने को तो वह वास्तव में पंडितजी की ही जमीन थी, किंतु उन्होंने अपनी रहमदिली के कारण उसके चारों ओर कभी काँटे नहीं बिछवाए। गाँव के बच्चे आते। आजादी से गोदी के बच्चों को धूल में खेलने को छोड़ कर बड़े-बड़े बच्चे मैदान के बीच में खड़े बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे छाया में कबड्डी खेलते। अक्सर चांदनी रातों में डू डू डू डू की आवाज गूँजा करती। कभी-कभी पंडितजी की रात में नींद खुल-खुल जाती जब कोई लड़का खम ठोंक कर पूरी आवाज से चिल्लाता- मेरी मूँछें लाल लाल चल कबड्डी आल ताल…।
किंतु पंडितजी ने कभी क्रोध नहीं किया। उनके पुरखों ने इसी की छाया के लिए वह पेड़ लगाया था। गाँव के लोगों से यह छिपा नहीं था कि जिस पेड़ का एक छोटा-सा पौधा मात्र लाकर उनके पुरखों ने अपनी सब्जी उगाने की जगह लगाया था, वही अब इतना फल-फूल कर खूब फैल गया है। इसी की जड़ें अपने आप इतनी फैल गयी हैं कि जमीन का सारा रस चुस लिया है। अब उस जमीन से दिन-रात अँधेरा-सा छाया रहता है। पेड़ की डालियों में अनेक पंछी रहते हैं। कौन नहीं जानता इन पंछियों की बान कि ‘चरसी यार किसके, दम लगाए खिसके।’ आज यहाँ है, कल वहाँ। सिर्फ मतलब के यार हैं।
उस जमीन में सब्जी की भली चलायी, घास तक ढ़ंग से नहीं उग सकती। उल्टी बरगद की जटाओं ने लौटकर अपनी मजबूत हथेलियों को धरती में घुसा दिया है कि पूरा महल-सा लगने लगा है। एक दिन पंडितजी के पुरखों ने इसी छाया के लिए उसे वहाँ धरकर पनपने के लिए छोड़ दिया था।
पंडितजी को कभी वह पेड़ नहीं अखरा। सदा उसकी हरियाली का वैभव देखकर उनकी आँखें ठंडी होती रही हैं।
और पंडितजी देखते कि गूलरों के गिरने पर बच्चों का जमघट आकर इकट्ठा हो जाता। सब ओर शोर करते। और गाँवों के मेहरबान जमींदार को तो जैसे उस पेड़ से खास प्रेम था। दशहरे पर जब गद्दी होती तो वे उस शाम को इसी पेड़ के नीचे अपना दरबार करते। आस-पास के गाँवों तक से लोग उन्हें भेंट देने आते। भला वे राजा आदमी। पेड़ क्या हुआ उन्होंने उसे गाँव वालों के लिए भगवान का अवतार बना दिया।
पेड़ भी एक ही कमाल का था। जगह-जगह उसमें खोखले हैं। शायद जगह-जगह उसमें साँप हैं। और उसके अरमानों की थाह नहीं। वामन के विराट रूप की भाँति तीन डगों में ही सारे संसार को नाप लेना चाहता है। आकाश, पाताल और धरती। ऊपर भी फैलता, नीचे भी उतरता है और धरती को भी जकड़ता चला जाता है। जैसे पृथ्वी को संभालने वाले हाथियों में एक की संख्या बढ़ गयी हो। हवेली की बगल में पेड़ की इस सघनता से एक सुनसान बियाबान की-सी नीरवता छा गयी है। और शायद अब वह दिखाई भी नहीं देता। पेड़ ही पेड़ छा गया है।
और रात को जब अँधेरा फैल जाता है, तब उस सन्नाटे में हवा के तेज झोंकों में जब पेड़ खड़खड़ाता है, तब लगता है जैसे कोई भयानक दैत्य अपने शिकार पर टूट पड़ने के पहले भयानक आकार को हिला रहा हो।
पंडितजी की छोटी बच्ची भय से आँखें मीच लेती और अपनी-माँ की छाती से चिपट जाती। पंडितजी वह भी देखते, किंतु कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते, क्योंकि उन्होंने सदा ही अपने पूर्वजों की बुद्धि पर विश्वास किया है, और इतना किया है कि अपने पर तो कभी किया ही नहीं…
2
पंडितानी सुबह उठकर नहाती हैं, दिन में नहाती हैं, साँझ को नहाती हैं। किंतु फिर भी उन्हें कोई साफ-सुथरा नहीं कह सकता, जैसे वह पानी एक चिकने घड़े पर गिरता है, फिसल जाता है।
पंडितजी बैठे पूजा कर रहे थे। एकाएक बाहर शोर मच उठा। पंडितजी की पूजा में व्याघात पड़ गया। शोर बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समझ में नहीं आया। इसी समय कुछ लड़के उनकी छोटी बच्ची को उठाकर भीतर लाए। लड़कों की आकृति सहमी हुई थी। डरते-डरते लाकर उन्होंने उसे उनके सामने रख दिया।
पंडितजी ने देखा, बच्ची की नाक से खून बह रहा था। सारी देह नीली पड़ गयी थी।
उन्होंने मर्मांत स्वर में पूछा, “क्या हुआ इसे?”
कंठ अवरूद्ध हो गया, वे और कुछ भी नहीं कह सके।
एक लड़के ने सहमी हुई आवाज में कहा, “बरगद के नीचे झाड़ियों में से कोई साँप काट गया।”
“काट गया?” उन्होंने चीखकर पूछा।
लड़कों ने कोई उत्तर नहीं दिया। सबने सिर झुका लिया। इस कोलाहल को सुनकर पंडितानी भीगे कपड़े पहने ही बाहर आ गयी, और बच्ची की यह हालत देखकर उससे चिपट गयी, और जोर-जोर से रोने लगी।
पंडितजी किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रहे। वे कुछ भी नहीं समझ सके कि उन्हें क्या करना चाहिए?
और धीरे-धीरे अड़ोस-पड़ोस के अनेक किसान आ-आकर इकट्ठे होने लगे।
पंडितानी का करुण क्रंदन सबके हृदय को हिला देता है। ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जिसके सामने उठना चाहिए था, वही आज अपने सामने से उठा जा रहा है। और हम चुपचाप देख रहे हैं।
पंडितजी सुनते थे और उनकी आँखों में कोई तरलता नहीं थी।
पहली बार उन्होंने बरगद की ओर आँखें उठायी, जैसे अपने किसी विराट शत्रु की ओर देखा हो। वे देर तक उसे घूरते रहे।
यही है वह पुरखों का दैत्य, जो संतान को ही खा जाना चाहता है।
और पहली बार उन्होंने अनुभव किया कि उनके घर की भी कोई बचत नहीं।
इधर ही झुका आ रहा है। आज उनकी हवेली गिरेगी, कल करीम का मकान फिर बस्ती के सारे मकानों पर उल्लू बोलेंगे। और तब भी यह दैत्य का-सा बरगद अपनी जटाओं के अंकुश भूमि में गाड़कर खड़ा रहेगा, जैसे सारी जमीन इसी के बाप की है।
विक्षोभ से उनका गला रुंध गया। उन्होंने एक बार जोर से अपनी मुट्ठियाँ भींच ली और देखा, पंडितानी का हृदय टुकड़े-टुकड़े होकर आँसुओं की राह बहा जा रहा था। उन्होंने बच्ची को गोद में धर लिया और तरह-तरह के विलाप कर रही थी। रुदन की वह भयानक कठोरता उनके मन में ऐसे ही उतर गयी, जैसे साँप उनकी बच्ची को काटकर फिर उस पेड़ के खोखले में छिप गया होगा।
उन्होंने बड़ी देर तक निश्चय किया फिर धीरे से कहा, “रोने से क्या अब वह लौट आएगी?”
पंडितानी ने लाज से आज माथे पर घूँघट नहीं सरकाया, क्योंकि इस समय वह बहू नहीं माँ थी।
लोगों ने पंखें बाँधकर बच्ची को उस पर सुला दिया और पंडितानी चिल्ला उठी, “धीरे बांधो मेरी बच्ची को, धीरे कि कहीं उसको लग न जाए।”
पंडितजी का हृदय भीतर ही भीतर काँप उठा और उनकी आँखों से आँसू की दो-चार बूँदें धीरे से गालों पर बहती हुई भूमि पर टपककर उनके मन की अथाह वेदना को लिख गयी…
3
पंडितजी का निश्चय निश्चित था। करीम की राय तो पहले ही थी कि बरगद काट दिया जाए। कौन-सा लाभ है उससे? इधर बड़ी देह रखकर देता क्या है गूलर, जो न खाने के न उगलने के, फूले की-सी आँख, न खूबसूरती की, न देखने की।
पंडितजी ने कहा, “इसी बरगद को मेरे पुरखों ने, आपके पुरखों ने अपना समझ कर पाला था। आशा की थी कि एक दिन इसकी छाया होगी। आसमान से होने वाले अनेक वारों से यह हमें बचाएगा। लेकिन भइया करीम यही होना था क्या?”
“कौन सुनेगा तुम्हारी पुकारों को पंडितजी!” करीम ने सोचते हुए कहा, “यह बरगद उतनी ही जान रखता है, जितने फल फूल सकें। इसे भला मतलब कि हम आप जी रहे हैं या मर गए। इसके तो कोई इनसान के से कान हैं नहीं।”
“लेकिन” पंडितजी ने तड़पकर कहा, “दुनिया-भर के जहर को अपने आप में भर लेने के लिए इसकी छाती में जगह की कमी नहीं।”
करीम ने हँसकर कहा, “आप भी कैसी बातें करते हैं? जानते हैं रात को कैसी नशीली हवा में सोना पड़ता है हमें? और भैया, यह तो इस पेड़ की आदत है। जहाँ बोओगे वहीं जड़ फैलाएगा। कोई नहीं रोक सकता।”
“नहीं कैसे रोक सकता? इसे मैं कटवा दूँगा।” पंडितजी ने विक्षुब्ध होकर कहा।
“तुम”, करीम ने विस्मय से पूछा, “पंडित होकर पेड़ कटवा दोगे? धरम-वरम सब छोड़ दोगे?”
“धर्म”, पंडितजी ने आसन बदलकर कहा, “धर्म का नाम न लेना करीम! मेरी बच्ची का खून है इसके सिर पर। इस पर हत्या का दोष है। जाने कितनों के बच्चों को अभी और काटेगा?…और कमबख्त का हौसला देखो। अब इसका जाल इतना फैल गया है कि हमारे ही घर को ढहा देना चाहता है। मेरे बाद तुम्हारी बारी है करीम…”
करीम ने हाथ उठाकर कहा, “अल्लाह, रहम कर। पंडितजी! कहीं के न रहेंगे। इसे काटना ही पड़ेगा।”
पंडितजी को कुछ संतोष हुआ। मन की जलन पर कुछ शीतल लेप हुआ। तब एक आदमी तो साथ है। पुरखे तभी तक अच्छे हैं जब तक पितर हैं, पानी दे दिया, लेकर चले गए, यह क्या कि अपने ही बच्चों पर भूत बनकर सवार और रोज-रोज गंगा नहाने के खर्चे की धमकी दे रहे हैं। अरे, अगर जिंदा ही नहीं खाएँगे तो इन कमबख्तों को कौन चराएगा?
पंडितजी उठ पड़े। घर आकर पंडितानी से कहा। उनकी आँखों में आँसू और होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट छा गयी। किंतु हृदय में एक शंका भीतर ही भीतर काँप उठी। फिर भी उन्होंने कुछ कहा नहीं।
गाँव-भर में पेड़ से एक दहशत छा गयी। बच्चों ने पेड़ के नीचे खेलना बंद कर दिया। जैसे वह फूहड़ की तलैया का दूसरा भूत हो गया।
पेड़ के नीचे का मैदान नीरव हो गया। अब उसमें कभी-कभी कोई-कोई अकेली गिलहरी भागती हुई दिखाई देती है। और फिर शाखों में जाकर छिप जाती है। अब कोई मुसाफिर उसके नीचे नहीं लेटता। क्या जाने कब साँप आए और सोते में कान मंतर पढ़ जाए?
पंडितजी का निश्चय गाँव में एक अचरज फैलाता हुआ फैल गया। लोगों के हृदय में उनके साहस, उनके जीवन के प्रति एक अज्ञात श्रद्धा जागृत हो गयी।
4
मजदूर पेड़ काटने लगे। गाँव के अनेक-अनेक लोग आते, देखते और इधर-उधर की बातें करके चले जाते। सचमुच अब पेड़ से प्रत्येक को एक न एक शिकायत थी, जो आजतक किसी ने प्रकट नहीं की। आज सब ही को उस पेड़ से एक निहित घृणा थी। हमारे सीने पर ऐसा खड़ा था जैसे मूँग में मुगदर।
एक दिन जमींदार के कारिंदे ने कहा, “पंडितजी पा लागन।”
“खुश रहो भैया, खुश रहो।” पंडितजी ने कहा, “कहो कैसे आए?”
“सरकार ने याद फरमाया है।”
“चलता हूँ”, पंडितजी उठ खड़े हुए।
“हुजूर”, कारिंदे ने कहा, “एक बात और है!”
“क्या बात है?” पंडितजी ने भौं सिकोड़कर उत्सुकता से पूछा।
“सरकार पेड़ का काटना बंद करवाना चाहिए।”
“पेड़ काटना क्यों?” पंडितजी ने एकदम टकराकर गिरते हुए व्यक्ति की-सी चीख निकाली।
“हाँ सरकार।”
“नहीं हो सकता यह। पेड़ तो कटकर ही रहेगा। जमीन मेरी है, मालिक का इसमें क्या उजर है?”
“सोच लीजिए पंडित!” कारिंदे ने आँखें मटकाकर कहा।
“सोच लिया है सब।” न जाने पंडितजी में इतना साहस कहाँ से आ गया।
सुनने वाले सहमे से खड़े रहे। कारिंदा चला गया। पंडितजी ने कहा, “काटो पेड़। यह तो कट कर ही रहेगा।”
मजदूर फिर काटने लगे। अचानक एक दर्दनाक चीख। “क्या हुआ?” पंडितजी ने पुकारकर पूछा।
एक मजदूर शाख पर से नीचे टपक पड़ा। उसे साँप ने काट लिया था, वह मर रहा था। मजदूर कूद-कूदकर भागने लगे। पंडितजी ने चिल्लाकर कहा, “कहाँ जा रहे हो, आज इसकी एक-एक जड़ उखाड़कर फेंक दो वर्ना कल यह सारी बस्ती को वीरान बना देगा। डरो नहीं।” और पेड़ से मुड़कर कहा, “ओ राक्षस, तेरी एक-एक डाल में मौत का भीषण जहर है, आज मैं तेरी बोटी-बोटी काट डालूँगा।”
लोगों ने मजदूरों को घेर लिया था। वे कुछ नहीं समझ पा रहे थे। कोलाहल मचने लगा था।
एकाएक पंडितजी ने सुना, “देखा! तेरे पाप का फल। दूसरों को खाने लगा है। तूने धरम की जड़ पर वार किया है।”
पंडितजी चौंक उठे। उन्होंने कहा, “मालिक! इसने दो खून किए हैं।”
“खून इसने किए हैं कि तेरे पाप ने, तेरे पुरबले जनम के पाप ने?” जमींदार साहब ने कहा।
पंडितजी ने तड़पकर कहा, “और इसने हमारे घर की रोशनी बंद कर दी है, इसने हमारे घर में अँधेरा कर दिया है, इसने अपने भयानक गड्ढ़ों से हमें खंडहर बनाने का इरादा किया है, इसने हमारे बच्चों को डसा है…मैं आज इसे काटे बिना नहीं रहूँगा।”
कहते हुए पंडित सालिगराम ने जमीन पर पड़ी हुई कुल्हाड़ी को उठा लिया। जमींदार साहब ने कहा, “देख, पागल न बन। देखता नहीं मेरे साथ कौन हैं?”
पंडितजी ने देखा। पुलिस के सिपाही थे। जमींदार साहब ने मुस्कराकर देखा। पंडितजी चिल्लाकर कहने लगे, “मालिक, जमीन मेरी है।”
“खामोश!” जमींदार ने चिल्लाकर उत्तर दिया- “कैसे है तेरी जमीन? जिस जमीन पर हमने दरबार किया है वह तेरी कहाँ है? आज तू उसे काट रहा है, जिसकी छाया में हमने राज किया है। कल तू हम पर हाथ उठाएगा!”
“मगर यह धरती बगावत कर रही है। वह मेरी हो गयी है…!” पंडितजी ने कुल्हाड़ी उठाकर कहा, “मैं इसे जरूर काटूँगा…!”
जड़ पर कुल्हाड़ा पड़ते ही पंडितजी मूर्छित होकर गिर गए। उनके सिर पर जमींदार के गुर्गों के लट्ठ बज उठे।
और बरगद अपने चरणों पर बलि का रक्त फैलाए ऐसा खड़ा था जैसे अश्वमेघ के उठते धुएँ में एक दिन साम्राज्य की पिपासा से तृप्त समुद्रगुप्त हुआ होगा।