व्यंग्य: पंडी ऑन द वे – दिलीप कुमार

पंडी ऑन द वे - दिलीप कुमार

पुस्तक मेलों की अपनी एक अलग धमक होती है। अलग-अलग तरह के लोग वहाँ आते हैं। सबके अपने प्रयोजन होते हैं। पाठक,लेखक, प्रकाशक तो मौजूद रहते ही हैं लेकिन इनके अतिरिक्त भी कुछ लोग होते हैं जो पुस्तक मेलों में बहुदा देखे जाते हैं। लेखक दिलीप कुमार का व्यंग्य ‘पंडी ऑन द वे’ पुस्तक मेलों में मौजूद एक ऐसे ही चरित्र पर चिकोटी काटता है। आप भी पढ़ें।


जिस प्रकार नदियों के तट पर पंडों के बिना आपको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, गंगा मैया आपका आचमन और सूर्य देव आपका अर्ध्य स्वीकार नहीं कर सकते जब तक उसमें किसी पंडे का दिशा निर्देश ना टैग हो, उसी प्रकार साहित्य में पुस्तक मेलों में कोई काम संहित्यिक पंडों और पंडियों के बिना नहीं हो सकता। गालिबन इन पंडों से पुस्तक मेलों की रौनक बनती है, ये पंडे-पंडियाँ अव्वल तो किसी ना किसी के निमंत्रण पर पहुँचते हैं, लेकिन अगर इन्हें कोई ना बुलाये तो भी बिन बुलाए हर जगह पहुँच जाते हैं। ऐसे ही एक व्याकुल पंडी इंदौर से इंद्रप्रस्थ पहुँची जहाँ पुस्तक मेला लगा था, बेचारी आजिज थी कि उसे किसी ने बुलाया नहीं, कोई ठिकाना नहीं सो कब तक राह तकती, लोगों ने चेताया भी कि बिन बुलाए मत जाओ दिल्ली-

ये सरा सोने की जगह नहीं बेदार रहो
हमने कर दी खबर तुमको, खबरदार रहो,

मगर पंडी अपने अधीरथी पति के साथ राजधानी के पुस्तक मेले में पहुँच गयी। पंडी को कोई ठिकाना नहीं मिल रहा था क्योंकि विगत वर्ष वो जिस जजमान के घर ठहरी थी इस वर्ष वो इनकी आमद भाँप कर पलायन कर गयी। राजधानी में रहने के लिये, पंडी अति व्याकुल थी। क्योंकि पंडीगिरी करने के बाद भी अगर किराया देकर रहना पड़े तो ये उसके हुनर का अपमान होता, वो कहीं जाती तो सम्भावित नयी पंडियों के घर ही रुकती थी कभी-कभी पंडों के घर भी पहुँच जाती थी अपने पति के साथ। पंडी अस्त-व्यस्त सी राजधानी के पंडों-पंडियों के घर रुककर पुस्तक मेला घूमने का जतन बनाती रही लेकिन दिल्ली अब सिर्फ दिलवालों की नहीं रही, बल्कि नए पंडों-पंडियों की भी है जो दगे कारतूसों को महत्व नहीं देते। पिछले बरस वो जिस जजमानी में पति के साथ ठहरी थी और दान-दक्षिणा लेकर विदा हुई थी। दो साल बाद अब वो जजमानिन्न खुद पंडी बनने की राह पर है और योग, ध्यान और फिटनेस की पंडी बनने कहीं सुदूर पहाड़ों पर चली गयी है जो दिल्ली लौट कर योग, ध्यान और फिटनेस की पंडागीरी करेगी। दिल्ली में गेस्ट पंडी ने बहुत प्रयास किया कि रोहिणी, उत्तम नगर, शालीमार बाग के आस-पास उसे कोई रहने का ठिकाना मिल जाये ताकि वो पुस्तक मेला भी जा कर रंग जमा सके और अपने रोजगार का सामान भी पीरागढ़ी से खरीद ले थोक के भाव की मेहंदी। गेस्ट पंडी व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से दीक्षा लेने के पूर्व घर-घर जाकर मेहंदी लगाती और बेचती थीं, अब भी या तो किताब बेचती हैं या मेहंदी के डिज़ाइन। बस बिक्री ही उनका खुदा और जो ना खरीदे वो दुश्मन। पंडी ने ईस्ट ऑफ कैलाश में भी रहने की एक जुगत भिड़ाई लेकिन अब उस पंडी को कौन बताये कि उस पॉश एरिया की पंडियाँ अंग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़ती हैं और दिल्ली की गेस्ट पंडी तो ट्रेन और स्टेशन के नाम तक अंग्रेज़ी में नहीं पढ़ पाती। भले ही वो डोर टू डोर मार्केटिंग करती है, लेकिन यहाँ की सम्भावित पंडियों ने उसे घास नहीं डाली वो दिल्ली की साहित्यिक -पंडे-पंडियों की संगत में रहना चाहती हैं। अंत में फरीदाबाद की एक पंडी ने उसे पनाह दी लेकिन इस शर्त पर कि इंदौर की पंडी, फरीदाबाद की पंडी को इंदौर बुलाकर साहित्यरत्न टाइप की कोई उपाधि या सम्मान देगी। सौदा पाँच हजार में पटा कि फरीदाबाद की पंडी, इंदौर की पंडी और उनके पति को घर में रहने भी देगी और पाँच हजार रुपये भी देगी बस उसे साहित्य रत्न की उपाधि मिल जाये किसी तरह क्योंकि अभी तक उसके साहित्य की खिल्ली ही उड़ाई गयी थी। गेस्ट पंडी के पति को रहने का ठिकाना मिला तो इस सर्दी में तो उनकी जान में जान आयी। बड़े बेबस थे गेस्ट पंडी के पति, क्या करें बेचारे। उधर दोनों पंडियाँ इस म्यूच्यूअल रिश्ते पर निहाल थीं, वो दोनों सुर में सुर मिलाकर गाने लगीं –

नारि विवस नर सकल गुंसाई
नाचहिं नर मर्कट की नाई

जित्थे देख्या तवा परात
उत्थे नच्या सारी रात

फरीदाबाद की पंडी के पति जो एक भद्र पुरुष थे उन्होंने गेस्ट पंडी से पूछा, “आपके दिल्ली आने की वजह क्या है, बुक स्टॉल तो हर जगह है, किताबें ऑनलाइन भी मिल जाती हैं, फ़िर सिर्फ किताब खरीदने के लिये दिल्ली आने का क्या तुक था?”

गेस्ट पंडी ने गर्व से कहा, “जी सिर्फ किताब खरीदने-बेचने की बात नहीं है, वो तो मैं इंदौर में अपनी किटी पार्टियों में भी बेच लेती हूँ। यहाँ तो मैं एक विधा के उद्धार हेतु आयी हूँ जो यमुना में डूब गयी थी। उसे मैं पाताल से निकालकर पुनः गौरान्वित हो जाऊँगी। वो विधा है लघुकथा”

भद्र पुरुष ने इंदौरी के पति को देखते हुए पूछा, “लघुकथा,वो वो क्या होती है?”

गेस्ट पंडी ने होस्ट पंडी की तरफ पहले अचरज फिर क्रोध से देखते हुए अंततः उसके पति से कहा, “मेरा पति अगर लघुकथा के बारे में ना जानता तो उसकी ऐसी की तैसी कर देती मैं। जो लघुकथा ना जाने उसका जीवन व्यर्थ है फ़िर भी सुनिये जब पचीस लोग बतकुच्चन करके सात-आठ लाइन की रचना निकालें तो उसे लघुकथा कहते हैं। ये मोह माया से मुक्त करती है, मुझे देखिये कुछ वर्ष पहले पाई-पाई को मोहताज थी आज लघुकथा की बदौलत मेरे पास बैंक में लॉकर तक हो गया है और पंडीगिरी का इतना बड़ा नेटवर्क है कि पूछिये मत?”

भद्र पुरुष पुलक उठे कि उनकी पत्नी ने सही व्यापारिक भागीदार चुना है।

गेस्ट पंडी भी मुस्कराई। वो जानती थी कि दिल्ली पंडे-पंडियों से भरी पड़ी है और दिल्ली के बाहर का हर साहित्यिक पंडा ये समझता है कि वो दिल्ली में होता तो पुस्तक मेले में चार चांद लग जाता। फिर भले ही वो अपनी गली में अमावस के चाँद की मानिंद गुम रहती हो।

गेस्ट पंडी ने अपने पति के साथ पुस्तक मेले में प्रवेश किया एक बहुत बड़े झोले के साथ। वैसे तो वो ग्राहक दिखती थीं लेकिन मौका मिलते ही झोले से निकालकर अपनी पुस्तक भी बेच लेती, वो भी बिना स्टॉल के। जबकि पुस्तक मेले में कई दुकानदार स्टॉल का शुल्क चुकाकर मख्खी मार रहे थे और गेस्ट पंडी चलते-चलते किताब भी बेच लेती और मेहंदी के पैकेट भी। गेस्ट पंडी एक कस्टमर द्वारा किताब खरीदने से इनकार करने के बाद उसे मेहंदी खरीदने के लिये कन्विंस कर रही थी कि तभी एक बलखाती हुई रमणी नागिन वाली बिंदी लगाए हुए पहुँची और इतराते हुए गेस्ट पंडी से कहा, “मैम,व्हेर इज योर स्टॉल? वी डु ऑफर ऑन ऑल टाइप ऑफ ब्यूटी प्रॉडक्ट्स एंड सर्विसेज। व्हाट डू यू वांट?”

गेस्ट पंडी अंग्रेज़ी सुनकर हक्का-बक्का हो गयी। रमणी समझ गयी कि इसे अंग्रेज़ी नहीं आती। वो गेस्ट पंडी का मजाक उड़ाते हुए बोली, “हम सिर्फ ब्यूटी की बुक्स सेल नहीं करते बल्कि पुस्तक मेले में लोगों को सजाते -सँवारते हैं। पूरी गारंटी है लोकार्पण से पहले मेकअप नहीं उतरेगा और सेल्फी में चेहरे के दाग धब्बे नहीं दिखेंगे। इवन जेंट्स भी हमारी सर्विसेज ले रहे हैं। बाई द वे आप क्या बेचते हो?”

गेस्ट पंडी हकलाते हुए बोली, “मेहंदी, नहीं, नहीं किताब, साझा संकलन।”

रमणी ने नागिन की तरह जीभ लपलपाकर कहा, “ब्लडी हेल, हु केयर्स, बट लिसेन, अगर तुम्हारी किताब ना बिक रही हो तो हमसे मेक अप करवा लो हम शुभ हैं।”

गेस्ट पंडी ने कहा, “मगर पहले तुम हमसे मेहंदी खरीद लो तुम्हारी ब्यूटी वाला काम चल जाएगा, हम भी शुभ हैं।”

फिर गेस्ट पंडी ने होस्ट पंडी से बिक्री के गुर सीखने-सिखाने शुरू कर दिए, तब तक हाँफते हुए गेस्ट पंडी के पति पहुँचे और छूटते ही बोले, “मैंने मेले का पूरा चक्कर लगाकर हर दुकान से एक कैटेलॉग, एक ब्रोशर ले लिया है। इसे बाहर बेचकर हमारा पुस्तक मेले का टिकट-भाड़ा और फरीदाबाद तक का किराया निकल जायेगा और बाहर इसे छोले वाले को देंगे तो नाश्ता भी फ्री मिल जाएगा।”

ये सुनकर होस्ट पंडी हँस पड़ी और गेस्ट पंडी की शक्ल अब देखने लायक थी। वो पैर पटकते हुए वहाँ से चल दीं, नेपथ्य में कहीं अमिताभ का गाना बज रहा था, “मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है”?

समाप्त

(मूल व्यंग्य साहिंद में फरवरी 3 2019 को प्रकाशित हुआ था।)


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About एक बुक जर्नल

एक बुक जर्नल साहित्य को समर्पित एक वेब पत्रिका है जिसका मकसद साहित्य की सभी विधाओं की रचनाओं का बिना किसी भेद भाव के प्रोत्साहन करना है। यह प्रोत्साहन उनके ऊपर पाठकीय टिप्पणी, उनकी जानकारी इत्यादि साझा कर किया जाता है। आप भी अपने लेख हमें भेज कर इसमें सहयोग दे सकते हैं।

View all posts by एक बुक जर्नल →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *