काली आँधी – कमलेश्वर

उपन्यास जनवरी 13th 2019 से जनवरी 14th 2019 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 120
प्रकाशक: राजपाल प्रकाशन
आईएसबीएन: 9789386534118

काली आँधी - कमलेश्वर
काली आँधी – कमलेश्वर


पहला वाक्य:

जग्गी बाबू मेरे दोस्त हैं।



जगदीश वर्मा उर्फ़ जग्गी बाबू होटल गोल्डन सन के मैनेजर थे। कभी उनका अपना होटल हुआ करता था। लेकिन वो तब की बात थी जब उनके परिवार में एक पत्नी, एक बेटी और वो थे। लेकिन अब उनकी पत्नी मालती उनके साथ नहीं रहती थीं। जग्गी बाबू की ज़िन्दगी अपनी नौकरी और अपनी बेटी के चारों ओर ही घूमती थी।

वो इसी में खुश थे। इससे ज्यादा उन्होंने कभी कुछ चाहा भी नहीं था।

लेकिन फिर भोपाल में  इलेक्शन का वक्त आया और हालात ऐसे बने कि गोल्डन सन होटल एक राजनितिक पार्टी का कार्यालय बन गया। यहाँ आकर ठहरी राष्ट्रीय राजनीति में उभरती हुई नेत्री मालती जी। वही मालती जी जो कभी जग्गी बाबू की पत्नी हुआ करती थीं।

बारह सालों बाद दोनों मिल रहे थे। कुछ था जो शायद इस वक्फे में उनके बीच खत्म नहीं हुआ था। लेकिन फिर राजनीति का सर्प भी फन फैलाए खड़ा था।

एक बार पहले भी इस राजनीति की काली आँधी ने आकर जग्गी बाबू के हँसते खेलते परिवार को तबाह कर दिया था। अब एक बार फिर यह काली आँधी उठने लगी थी। अब न जाने यह क्या छीनने आई थी?


मुख्य किरदार:
मालती वर्मा – एक बड़ी नेत्री
गुरुसरन – कथावाचक और मालती के एडवाइजर
जगदीश वर्मा – मालती जी के पति
प्रताप राय – मालती जी के पिता
लिली – जगदीश जी के बेटी
बिंदा – मालती जी का विश्वस्त नौकर
जगत सिंह – मालती जी का सेक्रेटरी
रामनारायण उर्फ़ भंडारी – चुनाव कार्यालय के किचन की जानकारी इन्हें सौंपी गई थी
नरसी सेठ – होटल सन के मालिक
लाला दीनानाथ – भोपाल के एक बड़े व्यापारी
मिर्जा साहब – भोपाल के एक नेता
लल्लू बाबू – मालती जी की पार्टी के एक नेता
चन्द्र सेन – विरोधी उम्मीदवार
गुलशेर अहमद – विरोधी उम्मीदवार

काली आँधी पढ़ने का विचार मेरा तब ही बन गया था जब मैंने इस पर आधारित फिल्म देखी थी। उस फिल्म का एक गीत ‘तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा’ मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है। खैर, किताब पढ़ने की इच्छा तो थी थी लेकिन ऑनलाइन यह मिलना मुश्किल थी। फिर जब पिछले साल पुस्तक मेले में  गया तो इस पुस्तक को देखा और खरीद लिया। पढ़ने का मौका इस साल ही लगा है। देर आये दुरुस्त आये।

और मैं सबसे पहले यही कहूँगा कि कमलेश्वर जी का यह उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया।

कहानी मुख्यतः दो पात्रों : मालती और जगदीश  की है। कहानी को हम गुरुसरन जो कि मालती जी  के सहायक और जगदीश जी  के दोस्त हैं, के दृष्टिकोण से देखते हैं। यह पात्र दोनों के ही नजदीक है और इसलिए दोनों की कमियों, खूबियों, उनकी कमजोरियों और उनके ताकत से वाकिफ है। इसलिए उम्मीद रहती है कि एक तटस्थ पहलू हमे देखने को मिलेगा। यही चीज हम देखते भी हैं। कहानी इस तरह बताई जाती है कि दोनों ही किरदारों एक नजरिये हमे देखने को मिलते हैं। एक किरदार पूर्णतः राजनीतिक है और दूसरा इस चीज से बिल्कुल दूर। एक ही परिस्थिति में दोनों की प्रतिक्रिया भी पाठक कथावाचक के नजर से देख पाता है और फर्क उसे पता लगता है।

 मालती और जगदीश का प्रेम विवाह हुआ था। उन्होंने एक दूसरे को चुना था। फिर मालती राजीनीति में दाखिल होती हैं और उसके बाद उनके ज़िन्दगी में बदलाव आता है। उनके लिए राजनितिक महत्वाकांक्षा काफी बड़ी हो जाती है। इतनी बड़ी कि आखिर में यह इच्छा उनके परिवार को भी लील जाती है। पति पत्नी के रास्ते अलग हो जाते हैं।

यहाँ ये बात रोचक है कि इधर कारण अहम् नहीं होता है। ज्यादातर मामलों में जब पत्नी पति से ज्यादा सफल होती है तो पति के अहम् को लगने वाली चोट रिश्ते के टूटने का कारण बनती है। ऐसे मामले में गलती सरासर पति की होती है।

लेकिन इस कथानक में जग्गी बाबू ऐसे इनसान  नहीं  हैं। इसलिए उनके साथ सहानुभूति होती है। यहाँ गलत मालती भी नहीं है। महत्वकांक्षा होना गलत नहीं होता है। लेकिन अपनी महत्वकांक्षाओं के लिए अपने रिश्तों से यह उम्मीद करना कि वो अपने आप को पूरी तरह बदल दें ये शायद सही नहीं है। अगर कोई खुद बदलना चाहता है तो उसमें गलत नहीं है लेकिन किसी के ऊपर ऐसा करने के लिए दबाव डालना मेरे नजर में गलत है। यह बात केवल पति पत्नी पर ही नहीं लागू होती है वरन माँ बाप के बच्चों के ऊपर दबाव पर भी लागू होती है।

यहीं  पर शायद मालती चूकती हैं और उन्हें अलग होना पड़ता है। दोनों ही किरदार बेहतरीन तरह से रचे गये हैं। दोनों की अपनी दुनिया है और आप दोनों के दृष्टिकोण को देखकर उन्हें समझने की कोशिश करते हो। यहाँ लेखक ने किसी को भी सही गलत नहीं बताया है। जग्गी बाबू आखिर में मालती से कहते भी हैं:

ज़िन्दगी में हर चीज नहीं मिलती। आदमी को चुनाव करना पड़ता है कि उसे क्या चाहिए… इस चुनाव में जो चीजें छूट जाती हैं, उनके लिए दुःख नहीं करना चाहिए! तुमने जो ठीक समझा…उसे चुन लिया था। मैंने जो ठीक समझा, वह चुन लिया था। अब पछताना कैसा?

– पछताने में कुछ नहीं रखा है, जीतनेवाला तो जीतता ही है, हारने वाला भी एक दिन जीत जाता है… लेकिन पछताने वाला हमेशा पछताता ही रह जाता है। (पृष्ठ 118)

यह चीज मालती के लिए ही नहीं वरन हमारे लिए भी है। आखिर में हमे यह निर्धारित करना होता है कि जरूरी क्या है। फिर जो हम चुनाव करते हैं तो उसके परिणाम हमे भुगतने पड़ते हैं। फिर वो परिणाम अच्छे या बुरे दोनों ही तरह के हो सकते हैं।

हर चीज ज़िन्दगी में शायद ही किसी को मिल पाये।

कहानी की पृष्ठ भूमि राजनीति है तो राजनीतिक उठापटक और इसमें इस्तेमाल होने वाले हथकंडों का प्रयोग होते इसमें दिखलाया गया है जो राजीनति का चेहरा भी दिखलाता है। ये हिस्से रोचक हैं और 2019 में यह सब अब देखने को मिल रहा है। जब उपन्यास लिखा गया था तो पर्चे बाँटे जाते थे। अब यह काम मीम, एडिटेड वीडियोस और गलत न्यूज़ को वायरल करने से हो रहा है। राजनीति के विषय में जग्गी बाबू का यह कथन आज भी प्रासंगिक है:

यार तुम्हारी यह राजनीति बड़ी घटिया चीज है…. तुम लोगों ने इसे निहायत बेहूदा बना दिया है। तुम लोग सिर्फ चीजों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते हो! …. तुम लोगो ने आदमी के आँसुओं और जज़्बातों तक को नहीं छोड़ा..उसकी आशाओं और सपनों तक को नहीं बख्शा..इससे ज्यादा घटिया बात और क्या हो सकती है कि दुखी और मुसीबतजदा इनसानों के सपनों तक का इस्तेमाल तुमने कर लिया…. खुदा के लिए, उसके सपने तो उसके लिए छोड़ दिये होते…ताकि वह अपनी बदहाली और मुसीबतों के बीच सपनों के सहारे तो जी लेता..तुमने… तुमने उसके सपनों को नारे बनाकर निचोड़ लिया! अब क्या बचा है आदमी के पास? (पृष्ठ 6)

उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के अनुसार हैं। उपन्यास में एक बूढ़े पागल का किरदार है। सब लोग उसे पागल कहते हैं लेकिन वही है जो नेताओं की असलियत समझता है। वो उनके दाँव पेंच समझता है। उसे पता है कि भले ही सारी उंगलियाँ बराबर नहीं है लेकिन खाते वक्त वो एक साथ आ ही जाती हैं। और यह भी सच है कि सियासत की असली रूप को जिस किसी ने उजागर करने की कोशिश की है उसे दुनिया वालों ने पागल ही घोषित किया है। पता नहीं कमलेश्वर जी ने इसे बिम्ब के तौर पर लिखा था या नहीं लेकिन मुझे यह किरदार काफी पसंद आया।

इसके अलावा एक काइयां नेता लल्लू जी भी हैं। शुरुआत में उन्हें और मालती जी को साथ देखने पर लगता है कि दोनों एक ही पार्टी में कैसे हैं लेकिन जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है तब पता लगता है कि भले ही वो खुर्राट हो और सज्जनता से उनका दूर दूर तक कोई नाता न हो लेकिन राजनितिक दाँव पेंच में वो इतने माहिर हैं कि उनका उपयोग किया ही जा सकता है। और एक कुशल राजनेता के ये गुण तो गुरुसरन जी ने निम्न कथन में बताएं हैं:


वक्त! जरूरत! और जीत! इन तीनों बातों पर वे टिकी हुई थीं। वक्त की नब्ज़ को वे पहचानती थीं। और जरूरत के हिसाब से वे सब तय कर लेती थीं, उनकी यह शक्ति थी और इसी शक्ति में उनकी जीत निहित थी।(पृष्ठ 17)

शायद हर नेता में यह खूबी होनी जरूरी है। कोई कितना भी बुरा क्यों  न हो लेकिन वक्त और जरूरत के हिसाब से जीत के लिए जरूरी जो हो उसे इस्तेमाल करना ही पड़ता है।

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे बेहद पसंद आया। 120 पृष्ठों में फैला इस उपन्यास का कथानक शुरू से लेकर आखिर तक अपनी रोचकता बरकरार रखता है।  आपको इसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।

अगर मैं खुद की बात करूँ तो शायद मैं जग्गी बाबू से ज्यादा जुड़ाव महसूस कर सकता हूँ। मैं मालती के दृष्टिकोण से दुनिया देख सकता हूँ लेकिन मुझे पता है कि वो मेरी दुनिया नहीं होगी और मैं खुद उसमें सहज नहीं होऊंगा। लेकिन मैं चूँकि समझ सकता हूँ तो जग्गी बाबू की तरह मुझे उससे कोई बैर नहीं है। मुझे वो बुरी नहीं लगी। यही इस उपन्यास की खासियत है शायद। इधर शायद ही कोई खलनायक हो। दूर से भले ही खलनायक लगें लेकिन जब आप पढने लगते हैं तो फिर उनके नजरिये को आप समझने की कोशिश करते हैं। यहाँ समझने की कोशिश करना जरूरी हिस्सा है।

उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

-तो वक्त ही बदल दो….


बदलने की ताकत सबमें नहीं होती…जिनमें होती है वे…वक्त को बदलते-बदलते खुद बदल जाते हैं….वे, जिनके पास यह शक्ति है, शायद वक्त को बदलना भी नहीं चाहते…सिर्फ इस्तेमाल करना चाहते हैं। (पृष्ठ 6)


ईमानदारी और बेईमानी में चार अंगुल का भी फर्क नहीं है। यह सवाल चित्त और पट का है। एक ही स्थिति के ये दो पहलू हैं , अब यह आप पर है कि आप किस पहलू से देखते हैं। राजनीति यही है। और राजनीति की सफलता भी यही है कि आपका पहलू ईमानदारी से भरा और सही माना जाये। (पृष्ठ 21)

हार या जीत का एक और मैदान भी है। उसमें न वक्त है, न जरूरत और न जीत। उसमें सिर्फ हार ही हार है। दोनों हारते हैं एक-दूसरे से। एक भी जीत जाये तो सब बिखर जाता है।(पृष्ठ 36)


लेकिन राजनीति का यह नशा! सफलता का नशा! सफलता की दौड़ में कोई थकता नहीं… इस दौड़ का कोई पड़ाव या मंजिल होती नहीं….सफल व्यक्ति सिर्फ दौड़ता रह जाता है..और दौड़ना ही उसकी सफलता बन जाती है। क्योंकि दौड़ते-दौड़ते वह यह भूल जाता है कि उसने दौड़ना क्यों शुरू किया था। सफलता की मंजिल सिर्फ सफलता है! राजनीति में जो सबसे बड़ा छल है वह यही है कि दौड़ने वाला हमेशा कहता है- हम तुम्हारे लिए दौड़ रहे हैं! जबकि सही यह होता है कि खुद वह अपने लिए भी दौड़ नहीं रहा होता..और इस दौड़ का नुकसान भुगतता है वह दौर, जो सफलता की इस राजनीति की चपेट में आ जाता है। इतिहास की बड़ी-बड़ी सफलताओं के दौर असल में भयानक असफलताओं के दौर रहे हैं…(पृष्ठ 37)

जब जब तुमने कहा है कि मैं तुम्हे गलत समझ रहा हूँ, सिर्फ तभी मैंने तुम्हे ठीक-ठीक समझा है… तुम कब क्या चाहती हो, यह शायद मेरे सिवा कुछ और लोग भी समझ सकते हैं, पर तुम जो चाहती वो, उसे कैसे चाहती हो,सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ!(पृष्ठ 51)

वे शांत थीं। ऐसा नही कि उनके आँसू झूठे थे या कोई उन्हें पीड़ा नहीं हुई थी…पर इतना था कि सहना भी उन्हें आता था और पाना भी। क्या सहकर क्या पाना है, यह वह शायद अंदाज लगा लेती थीं। हम-आप जैसे लोग सहने और पाने का संतुलन नहीं बना पाते। या तो हमें लगता है कि हमने बहुत सहा है और बहुत कम पाया है या कि हमने सहा तो कुछ भी नहीं है, खोया बहुत ज्यादा। मालती जी की विशेषता यही है कि सहने, खोने और पाने का एक विचित्र संतुलन बना रहता है।(पृष्ठ 53)

मैंने पूछा तो लल्लू बाबू निश्छल हँसी हँसे और बोले- भइये, तुम भी एक खुराक पी लो,तबियत हरी हो जायेगी!..ज़रा नमकीन का इंतजाम करो भइये! कहते हुए उन्होंने दूसरी खुराक पर अँगूठा लगाया और उसे भी पी गये। फिर दाँत चूसते हुए बोले- क्या करें भइये, अपन लोगों की ज़िंदगी ही ऐसी है..इस ज़िन्दगी का गुरुमंत्र है- हर काम करो,पर उसकी शक्ल बदलकर करो..समझे भइये! (पृष्ठ 62)

कोई रास्ता पलटता नहीं मालती…रास्ते तो, अपनी राह चले जाते हैं..आदमी पलट जाता है…लेकिन मैं अब आदमी कहाँ रह गया हूँ…मैं अब सिर्फ एक रास्ता रह गया हूँ…(पृष्ठ 82)


इतने दिनों अकेले रहकर मैंने यही सोचा है। तुम्हें अपनी बेरफ्तार दौड़ती ज़िन्दगी में सोचने का वक्त ही कहाँ मिला है? मशीनें नहीं सोचती, मशीनों के लिए आदमी सोचता है! और सफलता..सफलता सिर्फ एक मशीन है! अब तुम औरत नहीं- एक सफलता बन गई हो! अब तुम भी कुछ नहीं हो। सिर्फ एक सफलता रह गई हो… अब तुम्हारी मुक्ति और ज्यादा सफल होते जाने में है..और कोई रास्ता नहीं है। यही तुम्हारा एक मात्र रास्ता है…(पृष्ठ 119)

मेरी रेटिंग: 5/5

अगर उपन्यास आपने पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। अगर उपन्यास आपने नहीं पढ़ा है और पढ़ने के इच्छुक हैं तो आप इसे निम्न लिंक से प्राप्त कर सकते हैं:
काली आँधी- किंडल

कमलेश्वर जी के मैंने दूसरे उपन्यास भी पढ़े हैं। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
कमलेश्वर

उपन्यास के आवरण पर लिखा गया है कि  यह उपन्यास इंदिरा गांधी जी के जीवन पर आधारित था लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता है। हाँ, इस उपन्यास आँधी नाम की फिल्म आई थी। अगर आपने नहीं देखी है वो आपको जरूर देखनी चाहिये।

फिल्म का लिंक:
आँधी-फिल्म


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “काली आँधी – कमलेश्वर”

    1. Glad you find it useful. Thanks for visiting and sharing your thoughts.

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