संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 126 | प्रकाशन: रेमाधव पब्लिकेशन्स प्रा लि | श्रृंखला: फेलूदा #11 | अनुवाद: अमर गोस्वामी
जय बाबा फेलूनाथ – सत्यजित राय |
पहला वाक्य:
रहस्य-रोमांच उपन्यासकार लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु ने प्लेट से एक मूँगफली लेकर अँगूठे और बगल की उँगली से जैसे ही होशियारी से उसे हल्के से दबाया कि भूरे छिलके में से चिकना सफेद बदाम सट से निकलकर उनकी बायीं हथेली में आ गया।
प्रोदोष मित्तर उर्फ़ फेलूदा ने पिछले तीन महीने से कोई केस हाथ में नहीं लिया था। ऐसा नहीं था कि उनके पास कोई केस लेकर नहीं आ रहा था लेकिन वह केस अक्सर इतने पेचीदा नहीं होते थे कि फेलूदा को उनमें रूचि हो।
वहीं रहस्य रोमांचकारी लेखक लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु भी इस बार परेशान चल रहे थे। दशहरे में उनकी कोई न कोई किताब अक्सर मार्केट में आती थी परन्तु इस दशहरे में यह होना मुमकिन नहीं दिख रहा था। उन्हें कहानी के लिए कोई प्लाट नहीं सूझ रहा था।
ऐसे में लाल मोहन गाँगुली ने जब काशी विश्वनाथ में मौजूद मछली बाबा के विषय में पढ़ा तो उनकी रूचि उसमें जागी। वह अखबार का वह कतरन लेकर फेलूदा के पास गये। लाल मोहन गाँगुली का विचार था कि अगर फेलूदा काशी जाने के लिए तैयार हो जाये तो शायद दोनों का काम बन जाये। उन्हें कहानी का प्लाट मिल जाये और फेलूदा को कोई पेचीदा मामाला सुलझाने को मिल जाये।
आखिर कौन थे यह मछली वाला बाबा? क्यों वो काशी आये थे?
क्या फेलूदा और पार्टी को काशी में वह सब मिला जिसकी कि उन्हें तलाश थी?
मुख्य किरदार:
प्रदोष मित्र उर्फ़ फेलूदा – एक जासूस
तपेशरंजन मित्र उर्फ़ तोपसे – फेलूदा का कजिन
लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु – एक रहस्य कथा लेखक और फेलूदा का दोस्त
मछली बाबा – एक बाबा जो वाराणसी पधारे थे और जिनके नाम की धूम इस वक्त उधर थी
अभय चरण चक्रवर्ती – एक बंगाली जिनके यहाँ मछली बाबा रुके थे
निरंजन चक्रवर्ती – दशाश्वमेध घाट पर मौजूद कैलकटा लॉज के मेनेजर। इधर ही फेलूदा और पार्टी रुकी हुई थी
अम्बिका घोषाल – एक रिटायर्ड वकील
उमानाथ घोषाल – अम्बिका घोषाल के पुत्र। कलकत्ता में उनका केमिकल का व्यापार था। हर दशहरे काशी अपने पिता के पास आते थे।
विकास सिंह – उमानाथ के सेक्रेटरी
मगनलाल मेघराज – काशी का एक बाहुबली जिसकी उधर बहुत पैठ थी
रुक्मिणी कुमार उर्फ़ रुकू – उमानाथ घोषाल का लड़का
सुरय – रुक्मिणी कुमार का दोस्त
त्रिलोचन – घोषाल के घर का दरबान
शशि बाबू – घोषाल लोगों के यहाँ मौजूद मूर्तिकार
कन्हाई – शशि का बड़ा बेटा
सब इंस्पेक्टर तिवारी – कशी के एक पुलिस वाले
निताई – शशि बाबू का छोटा लड़का
अर्जुन – मेघराज मगनलाल का एक आदमी
मैं अक्सर सत्यजित राय की किताबों की तलाश में रहता हूँ। फेलूदा के किस्से वैसे तो अंग्रेजी के दो खंडों में संग्रहित हैं और उनमें से एक खंड मेरे पास है लेकिन फिर भी फेलूदा को हिन्दी में पढने का मजा ही कुछ ऐसा है कि मेरी कोशिश रहती है कि हिन्दी अनुवाद ही ढूँढे जाये।
ऐसे ही अमेज़न में एक सर्च के दौरान रेमाधव प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास मुझे दिख गया तो मुझे इसे तो लेना ही था। फेलूदा को पढ़ने का एक फायदा ये भी होता है कि आप किरदारों से साथ विभिन्न जगहों पर घूमते रहते हैं। कभी पुरी, तो कभी जोधपुर-जैसलमेर, तो कभी लखनऊ इत्यादि। इस बार कहाँ जाते हैं यह मुझे देखना था।
उपन्यास की शुरुआत लालमोहन गांगुली के फेलूदा के पास आने से होती है। लाल मोहन गाँगुली मुझसे और फेलुदा से पहली बार सोने का किला उपन्यास में मिले थे। मुझसे इसलिए कहा क्योंकि मैंने फेलूदा की श्रृंखला कभी क्रमवार नहीं पढ़ी है और यह किस्मत ही थी कि सोने का किला पढ़ने से पहले मैं लाल मोहन गाँगुली से परिचित नहीं था।
लालमोहन गाँगुली के कारण ही फेलूदा को मछली बाबा का पता चलता है और उन्ही के कहने पर वो लोग काशी विश्वनाथ जाते हैं। काशी पहुँचने पर उन्हें एक मूर्ती की तलाश में लगा दिया जाता है। यह मूर्ती कुछ ही दिनों पहले चोरी हो गयी थी और घर वाले पुलिस की तहकीकात से नाखुश थे।
मूर्ती की तलाश में फेलूदा और उसके साथियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उपन्यास में कई चरित्र हैं जिन पर मूर्ती चोरी का शक होता है। और उपन्यास इन संदिग्ध चरित्रों के चलते रोमांचक बन जाता है।
उपन्यास का मुख्य खलनायक मेघराज मगनलाल है।मेघराज मगनलाल का किरदार बेहतरीन बन पड़ा है। वह एक खौफ पैदा करने वाला व्यक्ति है। उसके और फेलूदा के बीच एक प्रसंग हैं जिसमें उसकी दबंगई दिखती है और वो फेलूदा पर भारी पड़ता दिखता है। मुझे वैसे भी ताकतवर खलनायक पसंद हैं। लड़ाई का असली मज़ा तो तभी आता है जब खलनायक तगड़ा हो।
हाँ, बस मेघराज के मामले में एक ही बात मुझे खटकती है। उपन्यास के अंत में उस पर जैसे काबू पाया गया वह मुझे पसंद नहीं आया। वो थोड़ा रोमांचक तरीके से होता तो बेहतर होता और उसके चरित्र के साथ न्याय होता।
उपन्यास का दूसरा रोचक किरदार रुक्मिणी घोषाल है। यह दस ग्यारह साल का लड़का है जो कि रहस्यकथाओं का इतना दीवाना है कि उनके किरदारों को जीता है। खुद को कैप्टेन स्पार्क बताता है जो कि लालमोहन गांगुली के प्रतिद्वंदी लेखक अक्रूर नंदी का चरित्र है। रुक्मिणी जब जब अक्रूर के पात्र का जिक्र करता है लाल मोहन बाबू की हरकतें हँसी पैदा कर देती हैं।
रुक्मिणी घोषाल को देखकर मुझे अपने बचपन की याद आ गई थी। मैं भी कभी डोगा, कभी ध्रुव और कभी वॉल्वरिन बना करता था। वॉल्वरिन का तो इतना दीवाना था कि एक बार उसके जैसे स्टंट करने के चक्कर में मैंने अपने घर में मौजूद एक वाश बेसिन तोड़ दिया था।
हुआ हूँ था कि मैंने अपनी बहन को बोला वो मुझे बॉल से मारे और मैं वॉल्वरिन के तरह बचूंगा। उसने बॉल फेंकी और मैंने एक ऊंची छलाँग मारी। वाशबेसिन कुछ ऐसी जगह था कि उधर से हमारे छत पर जाने के लिए लोहे की सीढिया था जिसे आसनी से नीचे से पकड़ा जा सकता था। मैं कूदा और मैंने सीढ़ी का पाया पकड़ा और फिर खुद को उठाया लेकिन वजन न सहन करने के कारण मेरा हाथ छूटा और मैं वॉशबेसिन से टकराया जो कि नया नया लगा था। मेरे टकराने का झटका वो सहन नहीं कर पाया और अपने जोड़ से उखड़ कर नीचे गिरा और टूट गया। बड़ी मार पड़ी थी उस दिन।
रुक्मिणी की हरकतें देखकर वही किस्सा बरबस याद आ गया और मैं मुस्कराने लगा।
फेलूदा के उपन्यास में लालमोहन गाँगुली हो और वो अपनी अलग छाप न छोड़ें यह तो हो ही नहीं सकता। इस उपन्यास में भी लाल मोहन गाँगुली अपनी हरकतों से हँसाते और गुदगुदाते हैं। उपन्यास का शीर्षक भी उन्ही के एक डायलॉग से आता है जो कि काफी मजेदार है। मेघराज उन्हें एक ऐसा प्रयोग करने पर विवश कर देता है कि लालमोहन गांगुली की हालत पतली हो जाती है और आप न चाहते हुए भी हँसने लगते हैं।
इस उपन्यास में लाल मोहन गाँगुली से जुड़ी एक और बात है जो अलग से उभरती है। सत्यजित राय का यह लेखक रहस्यकथा तो लिखता है लेकिन उसे बाहर के लेखकों की रचना को उठाकर उसको बंगाली परिवेश में ढालकर अपनी रचना बोलने में कोई गुरेज नहीं है। वो अक्सर यह काम करता है। इस उपन्यास में भी तोपसे यही कहता है कि इस घटना के बाद जो उनका उपन्यास आया उसकी कहानी टिनटिन की कहानी से काफी मिलती थी। हिन्दी में भी यह काम खूब होता है और शायद उस वक्त बांग्ला में भी होता रहा होगा और यही कारण रहा होगा कि सत्यजित राय ने ऐसा किरदार लिखा। उनके इस प्रवृत्ति के विषय में क्या राय रही होगी यह जानने का मैं इच्छुक हूँ। पता चले तो अच्छा रहेगा।
कथानक में रोमांच है तो कथानक में घुमाव भी काफी मात्रा में हैं। चोरी किसने की यह अंत तक पता नहीं चलता है। घटनाएं ऐसी होती हैं पाठक पृष्ठ पलटता जाता है। आखिर में कुछ सुराग ऐसे थे कि मूर्ती कहाँ होगी यह तो मुझे पता लग गया था लेकिन उधर कैसे और क्यों पहुँची उस पर भी काफी ट्विस्ट था जो कि मुझे पसंद आया।
उपन्यास में कुछ कमी तो नही है बस जो किताब मेरे पास आई थी उसकी बाइंडिंग पढ़ते पढ़ते उधड़ गई और पृष्ठ निकलने लगे। प्रकाशन को इस पर ध्यान देना चाहिए।
मैं तो यही कहूँगा कि सत्यजित राय की जय बाबा फेलूनाथ एक अच्छी रहस्यकथा है और अगर आप साहित्य की इस विधा के प्रशंसक हैं यह आपको निराश नहीं करेगी। मेरा तो इसने भरपूर मनोरंजन किया।
रेटिंग: 4.5/5
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