लघु-कथा: विजया – जयशंकर प्रसाद

लघु-कथा: विजया - जयशंकर प्रसाद

कमल का सब रुपया उड़ चुका था–सब सम्पत्ति बिक चुकी थी। मित्रों ने खूब दलाली की, न्यास जहाँ रक्खा वहीं धोखा हुआ! जो उसके साथ मौज-मंगल में दिन बिताते थे, रातों का आनंद लेते थे, वे ही उसकी जेब टटोलते थे। उन्होंने कहीं पर कुछ भी बाकी न छोड़ा। सुख-भोग के जितने आविष्कार थे, साधन भर सबका अनुभव लेने का उत्साह ठंडा पड़ चुका था।

बच गया था एक रुपया।

युवक को उन्मत्त आनंद लेने की बड़ी चाह थी। बाधा-विहीन सुख लूटने का अवसर मिला था–सब समाप्त हो गया। आज वह नदी के किनारे चुप-चाप बैठा हुआ उसी की धारा में विलीन हो जाना चाहता था। उस पार किसी की चिता जल रही थी, जो धूसर संध्या में आलोक फैलाना चाहती थी। आकाश में बादल थे, उनके बीच में गोल रुपये के समान चंद्रमा निकलना चाहता था। वृक्षों की हरियाली में गाँव के दीप चमकने लगे थे। कमल ने रुपया निकाला। उस एक रुपये से कोई विनोद न हो सकता। वह मित्रों के साथ नहीं जा सकता था। उसने सोचा, इसे नदी के जल में विसर्जन कर दूँ। साहस न हुआ–वही अन्तिम रुपया था। वह स्थिर दृष्टि से नदी की धारा देखने लगा, कानों से कुछ सुनाई न पड़ता था, देखने पर भी दृश्य का अनुभव नहीं–वह स्तब्ध था, जड़ था, मूक था, हृदयहीन था।

“माँ कुलता दिला दे–दछमी देखने जाऊँगा।”

“मेरे लाल! मैं कहाँ से ले आऊँ–पेट-भर अन्न नहीं मिलता-नहीं-नहीं, रो मत-मैं ले आऊँगी; पर कैसे ले आऊँ? हा, उस छलिया ने मेरा सर्वस्व लूटा और कहीं का न रखा। नहीं-नहीं, मुझे एक लाल है! कंगाल का अमूल्य लाल। मुझे बहुत है। चलूँगी, जैसे होगा एक कुरता ख़रीदूँगी। उधार लूँगी। दसमी-विजया-दसमी के दिन मेरा लाल चिथड़ा पहन कर नहीं रह सकता।”

पास ही जाते हुए माँ और बेटे की बात कमल के कान में पड़ी। वह उठकर उसके पास गया। उसने कहा–“सुंदरी!”

“बाबूजी!”–आश्चर्य से सुंदरी ने कहा–बालक ने भी स्वर मिलाकर कहा– “बाबूजी!”

कमल ने रुपया देते हुए कहा– “सुंदरी, यह एक ही रुपया बचा है, इसको ले जाओ। बच्चे को कुरता ख़रीद लेना। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करोगी?”

बच्चे ने हाथ फैला दिया–सुंदरी ने उसका नन्हा हाथ अपने हाथ में समेट कर कहा–“नहीं, मेरे बच्चे के कुरते से अधिक आवश्यकता आपके पेट के लिए है। मैं सब जानती हूँ।”

मेरा आज अंत होगा, अब मुझे आवश्यकता नहीं–ऐसे पापी जीवन को रखकर क्या होगा! सुंदरी! मैंने तुम्हारे ऊपर बड़ा अत्याचार किया है, क्षमा करोगी! आह! इस अंतिम रुपये को लेकर मुझे क्षमा कर दो। यह एक ही सार्थक हो जाय!

“आज तुम अपने पाप का मूल्य दिया चाहते हो–वह भी एक रुपया?”

“और एक फूटी कौड़ी भी नहीं है, सुंदरी! लाखों उड़ा दिया है–मैं लोभी नहीं हूँ।”

“विधवा के सर्वस्व का इतना मूल्य नहीं हो सकता।”

“मुझे धिक्कार दो, मुझ पर थूको।”

“इसकी आवश्यकता नहीं–समाज से डरो मत। अत्याचारी समाज पाप कह कर कानों पर हाथ रखकर चिल्लाता है; वह पाप का शब्द दूसरों को सुनाई पड़ता है; पर वह स्वयं नहीं सुनता। आओ चलो, हम उसे दिखा दें कि वह भ्रांत है। मैं चार आने का परिश्रम प्रतिदिन करती हूँ। तुम भी सिलवर के गहने माँजकर कुछ कमा सकते हो। थोड़े से परिश्रम से हम लोग एक अच्छी गृहस्थी चला देंगे। चलो तो।”

सुंदरी ने दृढ़ता से कमल का हाथ पकड़ लिया।

बालक ने कहा–“चलो न, बाबूजी!”

कमल ने देखा–चाँदनी निखर आयी है। उसने बालक के हाथ में रुपया रख कर उसे गोद में उठा लिया।

सम्पन्न अवस्था की विलास-वासना, अभाव के थपेड़े से पुण्य में परिणत हो गयी। कमल पूर्वकथा विस्मृत होकर क्षण-भर में स्वस्थ हो गया। मन हलका हो गया। बालक उसकी गोद में था। सुंदरी पास में; वह विजया दशमी का मेला देखने चला।

विजया के आशीर्वाद के समान चाँदनी मुस्करा रही थी।


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Author

  • जयशंकर प्रसाद

    जन्म: 30 जनवरी 1889 निधन: 15 नवम्बर 1937 जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रमुख स्तम्भों में से एक थे। वह कवि, नाटककार, और् उपन्यासकार थे। प्रमुख रचनाएँ: छोटा जादूगर (कहानी), इंद्रजाल(कहानी), कंकाल (उपन्यास), तितली (उपन्यास) इत्यादि।

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