‘वीरान टापू का खजाना’ लेखक बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘हीरा-माणिक ज्वले’ का अनुवाद है। यह एक रोमांच कथा है। उपन्यास का अनुवाद जयदीप शेखर द्वारा किया गया है। पुस्तक साहित्य विमर्श प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है।
किताब के विषय में
वीरान टापू का खज़ाना – 1946 में प्रकाशित ‘हीरे माणिक जले’ का हिन्दी अनुवाद है।
मुस्तफी वंश में काम करना बेइज्जती की बात मानी जाती थी। वह जमींदार जो होते थे। पर सुशील काम करना चाहता था। जब गाँव में उसे काम नहीं मिला, तो वो डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए कोलकाता आ गया। और यहाँ उसकी मुलाकात हुई एक खलासी जमातुल्ला से जिसने उसे एक मणि और एक टापू की ऐसी दास्तान सुनाई।
जमातुल्ला की मानें तो उस टापू में ऐसा खजाना था जो किसी को भी अमीर… बहुत अमीर बना सकता था। पर वहाँ जाना इतना आसान न था। यह सुन सुशील अपने ममेरे भाई सनत और जमातुल्ला के साथ उस खजाने की खोज पर जाने को लालायित हो गया। पर उस खजाने तक पहुँचना आसान न था। उन्हें न केवल खतरनाक समुद्री यात्रा करनी थी, बल्कि ऐसे जलदस्युओं से भी खुद को बचाना था, जो खजाने की भनक पाकर उन्हें मार डालने में जरा भी नहीं हिचकिचाते।
आखिर कैसी रही सुशील, सनत और जमातुल्ला की यात्रा?
इस यात्रा पर उनके सामने क्या क्या मुसीबतें आईं?
क्या उन्हें मिल पाया वीरान टापू का खजाना?
खज़ाने की तलाश की यह कहानी रोमांचक होने के साथ-साथ मानवीय स्वभाव और सौहार्द की अनूठी दास्तान है।
पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श प्रकाशन
पुस्तक अंश
डूबा हुआ पहाड़
और भी तीन दिनों के बाद शाम के समय चीनी कप्तान ने कहा, “पारा गिर रहा है सर, रस्सा-रस्सी बाँधकर और चीजों को संभाल कर आपलोग अंदर चले जाइए- तूफान आयेगा।”
तीन घंटों के अंदर तूफान आया पूर्व-दक्षिण दिशा की ओर से। रस्सियों को तोड़ते हुए पाल फड़फड़ाने लगे। जमातुल्ला ने चिल्ला कर कहा, “सब खोल में चले जाइए, भयंकर लहरें उठ रही हैं- “
ऊँची-ऊँची लहरें जंक के डेक पर वेग के साथ आकर गिरने लगीं, ऐसा लगने लगा- मानो डेढ़ टन वजनी क्षुद्र जंक को चूर्ण-विचूर्ण कर वे समुद्र की तली में डुबो ही देंगी, लेकिन दो-तीन बार डूबने-डूबने की स्थिति बनने के बाद भी जंक बच गया- उतरा कर फिर वह सतह पर आ गया। जैसे कोई गेंद ही हो!
अचानक चीनी कप्तान चिल्लाया, “सामने पहाड़ है- संभाल कर- “
जमातुल्ला पतवार पर था। दाहिनी ओर जोर से पहिया घुमाते ही जंक के बगल से बजबजाती हुई ढेर सारी झाग तेजी से चक्कर काटते हुए आगे बढ़ गयी और उस झाग के बीच में से काले रंग की रेखा-जैसी किसी चीज ने उभर कर झाग को दो हिस्सों में चीर दिया। डूबा हुआ पहाड़!
तूफान के शोर में कौन क्या कह रहा था- पता नहीं चल रहा था, फिर भी, सुशील को सुनाई पड़ा- चीनी कप्तान कह रहा था, “बाल-बाल बच गये! नहीं तो अभी सब कुछ खत्म हो जाता हम लोगों का!”
यार हुसैन और सुशील को बाहर की एक झलक दिखाई पड़ी- सही में पानी के अंदर मौत की दीवारें बनी हुई थीं- साक्षात् मृत्यु का फंदा!
जमातुल्ला दाँत-मुँह भींचकर हाल थामे हुए था। थोड़ी से ढिलाई से इस खतरनाक जगह में जंक बेसंभाल होकर बाँयी तरफ के डूबे पहाड़ों से टकरा सकता था। थोड़ी देर में जमातुल्ला की आँखें बाहर निकलने को हो आयीं- यह क्या! दोनों ही तरफ डूबे हुए पहाड़! दाहिने और बाँये- दोनों तरफ।
वह चीना कप्तान पर चिल्लाया, “कहाँ से जहाज निकाल रहे हो गधे की दुम! पहाड़ की चोटी से! मार डालोगे तुम- “
तूफान की शोर में चीनी कप्तान का जवाब अट्टहास-जैसा लगा। उसने क्या कहा, जमातुल्ला समझ नहीं पाया। खैर, गलती जिसकी भी हो, अभी तो जहाज को बचाना था।
जमातुल्ला ने पहले आगे-पीछे देखा- पहाड़ों की काली रेखा विशालकाय शुशुक (डॉल्फिन) के समान पानी की सतह पर उभरी हुई थी; फिर उसने मस्तूल की ओर देखा, चीना जहाजी ने सारे पालों को समेट लिया था, केवल बीच वाले बड़े मस्तूल से बँधा सोलह फुट चौड़ा बड़ा पाल हवा के थपेड़ों से चिथड़े-चिथड़े होकर अनगिनत झंडियों की तरह लहरा रहा था। उसे लगा, इन झंडियों के कारण जहाज हिचकोले खा रहा है। पलक झपकते कमर से चाकू निकाल कर वह पाल की जूट से बनी मोटी रस्सी को काटने लगा। एक बार थोड़ा-सा रस्सी काटता, फिर भागकर पतवार थामता।
बहुत ही साहस, दृढ़ता और फुर्ती का परिचय देते हुए पाँच-छह मिनटों में ही उसने उतनी मोटी रस्सी को काट डाला। मुख्य रस्सी के कटते ही अन्य रस्सियाँ ढीली पड़ गयीं और पाल एक झटके में काफी नीचे सरक आया।
चीनी कप्तान ने चिल्लाकर पूछा, “रस्सी किसने काटी?”
“मैंने।”
“बहुत बढ़िया किया! अब झेलो! जब नहीं जानते हो कुछ, तो हर मामले में नाक क्यों घुसेड़ते हो?”
चीनी कप्तान ने गलत नहीं कहा। जमातुल्ला यह देख सहम गया कि पाल के ढीला पड़ते ही जंक पहाड़-जैसा भारी हो गया। पीछे से आ रही हवा के थपेड़े भी उसे हिला नहीं पा रहे थे। जाहिर था कि अब दोनों तरफ के पहाड़ों के बीच से निकल कर खुले समुद्र में आने में जंक को काफी समय लग जायेगा। इस बीच अगर हवाओं ने दिशा बदल ली, तो आफत!
यार हुसैन अनुभवी आदमी था, उसने समझ लिया कि कुछ गड़बड़ हुई है। सिर बाहर निकाल कर उसने पूछा, “अब क्या हुआ? जंक हिल क्यों नहीं रहा है?”
चीनी जहाजी बोला, “हिलेगा कहाँ से सर- हिलने लायक छोड़ा ही कहाँ है जमातुल्ला ने? अब शायद मैं नहीं बचा पाया!”
लेकिन खुशकिस्मती से खतरा आधे घंटे में ही टल गया। हवाएँ लगातार पीछे से ही चलती रहीं और जंक आधे घंटे में डूबे पहाड़ों के बीच से निकल कर खुले समुद्र में आ गया।
जमातुल्ला ने चैन की साँस ली।
चीनी कप्तान ने ताना मारा, “आज सब किस्मत की जोर से बचे हैं, तुम्हारे हाथों की करामात से नहीं- याद रखना।”
समुद्र शांत हुआ, चाँदनी फैली। सुशील और सभी लोग खोल की ढक्कन उठाकर डेक पर आये।
अचानक चाँदनी में थोड़ी दूरी पर एक विशालकाय काली चीज दिखायी पड़ी- पानी से सिर उठाये खड़ी थी।
यार हुसैन ने पूछा, “वह क्या है?”
सुशील को पहले कुछ नहीं दिखा, फिर देखकर वह भी विस्मित हुआ- कुहासे से धुंधली हुई ज्योत्स्ना में साफ-साफ तो नहीं दिख रहा था, लेकिन बहुत ही विशाल दैत्य के समान काली-सी एक वस्तु पानी की सतह से निकल कर आकाश में सिर उठाये खड़ी थी- क्या था वह?
सनत भी उस तरफ देखकर चकित रह गया।
यार हुसैन अपने सवाल का उत्तर न पाकर कुछ कहने जा रहा था, लेकिन जमातुल्ला ने उसे इशारे से रोक दिया और खुद डेक के सामने जाकर उस चीज को ध्यान से देखने लगा।
चीनी जहाजी फिर तंज कसते हुए बोला, “देख क्या रहे हो, वह भी डूबा पहाड़ है। बुढ़ापे में ठीक से देख नहीं पा रहा हूँ, फिर भी बता रहा हूँ- “
सुशील ने टोका, “पानी से इतना बाहर निकला हुआ है, डूबा पहाड़ कैसे हो गया?”
चीनी जहाजी बोला, “वो सिर्फ पहाड़ का शिखर पानी से निकला हुआ है सर, बहुत बड़ा डूबा पहाड़ है वह- “
जमातुल्ला अब सुशील को एक तरफ ले जाकर फुसफुसा कर बोला, “जहाजी ठीक बोल रहा है बाबूजी। इतनी देर में मैं पहचान पा रहा हूँ। यही वह पहाड़ है बाबूजी- इसी पहाड़ से धक्का खाकर ही- “
सुशील ने अविश्वास के साथ कहा, “पहचाना कैसे?”
“मैं अभी तक ध्यान से देख रहा था, अब मुझे कोई संदेह नहीं रहा। इस डूबे पहाड़ में एक जगह सूअर के मुँह-जैसी नुकीली बनावट गौर कर रहे हैं? आइए, मैं दिखला देता हूँ। मैं इसे भूल गया था, अब देखकर याद आ गया।”
“यार हुसैन को बताऊँ?”
“आप यार हुसैन को बताइए, लेकिन उस पीले मुँह वाले से कुछ नहीं कहिएगा- उस पर मुझे ठीक विश्वास नहीं हो रहा है।”
“अगर यह वही डूबा पहाड़ है, तो वहाँ से जमीन दिखनी चाहिए और सफेद पत्थरों वाला पहाड़- “
“वह तीन रस्सी-चार रस्सी की दूरी पर है बाबूजी, चाँदनी रात में इतनी दूरी से सफेद पत्थरों वाला पहाड़ साफ नहीं दिखेगा। सुबह हो- “
चीनी जहाजी चिल्लाकर बोला, “पतवार संभालोगे, या गप्पें हाँककर समय बिताओगे? सामने डूबा पहाड़ है- इसका ध्यान है?”
जमातुल्ला झल्लाकर बोला, “ओह, यह पीला भूत बहुत तंग कर रहा है। ठहरिए बाबूजी, आप तब तक यार हुसैन साहब को बताइए, मैं उधर देखता हूँ- यह क्या कह रहा है।”
सुशील हँसते हुए बोला, “आप कुछ भी कहिए, है वह पक्का जहाजी, इन इलाकों की रग-रग से वह वाकिफ है। उस्ताद जहाजी है- इसमें कोई संदेह नहीं है।”
कुछ देर के बाद चीनी जहाजी ने नौचालन की दक्षता का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि जमातुल्ला तक को उसकी तारीफ करनी पड़ी। जमातुल्ला पतवार के पहिये को घुमाते हुए जब जंक को डूबे पहाड़ के बगल से निकालने की कोशिश कर रहा था, तब चीनी जहाजी ने हुक्म सुनाया, “सामने बढ़ने दो, बगल क्यों काट रहे हो?”
“सामने जाकर धक्का मारना है क्या?”
“यही सीखकर सुलू सागर में मल्लाहगिरी करने आये हो? जाओ अपने देश के नदी-पनाले में जाकर डोंगी चलाओ! उस पहाड़ के दोनों तरफ तेज बहाव में पड़कर जंक जोर से पहाड़ से टकरा जायेगा- इस तरफ ध्यान है? पतवार पर कितना भी जोर लगाकर उस बहाव के वेग को नहीं संभाल सकोगे- देख नहीं रहे हो कि पानी कैसे चक्कर खा रहा है वहाँ?”
यह सुनने के बाद भी जमातुल्ला को हिचकते देख चीनी जहाजी ने सबको सुनाते हुए आवाज लगायी, “जमातुल्ला अबकी सबको मरवायेगा सर, उसे समझा दीजिए। एक बार उसके हाथों से भगवान ने सबको बचा दिया है, इस बार शायद न बचाये- “
सुशील और यार हुसैन ने जमातुल्ला से कहा, “वह जो कह रहा है, वही करो न जमातुल्ला।”
“वह क्या कह रहा है- आप लोग ध्यान नहीं दे रहे हैं। वह डूबे पहाड़ की ओर सीधे पतवार चलाने बोल रहा है। सब मारे जायेंगे- “
चीनी जहाजी ने जमातुल्ला की बात सुनकर कहा, “चलाकर देखो न कि मैं क्या कर रहा हूँ। मौत से इतना डरने से मल्लाहगिरी नहीं की जाती है साहब- “
जमातुल्ला ने आँखें लाल करके कहा, “खबरदार! मैं चाहे जो भी हूँ, मौत से मैं डरने वाला हूँ- ऐसा तुम नहीं बोल सकते हो पीले मुँह वाले बंदर!”
सुशील ने धमका कर कहा, “यह क्या हो रहा है जमातुल्ला? इस समय झगड़ा-झमेला करके क्या फायदा? जहाजी जो बोल रहा है, वही करो- “
जमातुल्ला के पहिया घुमाते ही जंक पहाड़ के बीस गज के अंदर आ गया- ठीक एकदम आमने-सामने। सभी धड़कते हृदय के साथ देख रहे थे- सामने ही मौत के समान पहाड़ खड़ा था, इससे टकराने से चीनी जंक कैसे बचेगा- यह किसी को समझ में नहीं आ रहा था। देखते-देखते बीस गज की दूरी कम हो गयी- दस गज-
अब शायद जंक नहीं बचेगा- इस चीनी का इरादा क्या था? सबकी आँखें फैल गयी थीं, सबको अपनी धड़कनें ढेकी1 की धमक के समान साफ सुनाई पड़ रही थीं…। अचानक चीनी जहाजी फुर्ती के साथ एक बहुत बड़ी जहाजी रस्सी को सामने की ओर अव्यर्थ निशाना साधकर फेंकते हुए बोल पड़ा, “दाहिने पतवार घुमाओ- “
पलक झपकते एक आश्चर्यजनक घटना घटी- ऐसी घटना यार हुसैन और जमातुल्ला ने अपने पूरे जहाजी जीवन के अनुभव में कभी नहीं देखी थी। जहाज ने दाहिने घूमकर जैसे ही पहाड़ के निचले हिस्से को पार किया, जहाजी की फेंकी हुई रस्सी ने पहाड़ के एक नुकीले अंश को जकड़ लिया और इसी के साथ पिछले हिस्से से जोरों की घड़घड़ाहट के साथ लंगर के गिरने की आवाज हुई- सभी समझ गये कि बड़े सी-एंकर, यानी समुद्र के बीचों-बीच इस्तेमाल होने वाले बड़े लंगर को उतार दिया गया है और अब उसके मतबूत दाँत समुद्र की तली की मिट्टी एवं पत्थरों को जकड़ कर जहाज की अग्रगति को रोक देंगे।
इतना बड़ा जंक किसी नाव या डिंगी2 के समान घूमा और अगले ही पल स्थिर, अचल होकर खड़ा हो गया- पहाड़ से मात्र तीन-चार गज की दूरी पर! पहाड़ और जंक के बीच समुद्रजल का बस एक कतरा रह गया था, जिससे होकर एक बड़ा हाँगर (शार्क) मुश्किल से ही पार हो सकता था।
यार हुसैन बोल पड़ा, “शाब्बास जहाजी!”
सुशील और सनत ने दम छोड़ते हुए कहा, “खूब बचे- “
जमातुल्ला चुप रहा।
पीले दाँत निकाल कर हँसते हुए चीनी जहाजी बोला, “बाहरी आदमी यहाँ जहाज नहीं चला सकते हैं सर! जमातुल्ला जो मल्लाहगिरी जानता है, वह चटगाँव के बंदरगाह में काम देगा, इन जगहों में नहीं। इधर जहाज चलाने के लिए बहुत हुनर चाहिए- “
यार हुसैन बोला, “अब क्या करना है- बताओ, जहाज तो अटक गया।”
जहाजी ने निश्चिंत करते हुए कहा, “जंक अटका नहीं है, ज्वार आने के बाद सुबह आसानी से रवाना किया जा सकेगा।”
सब धड़कते हृदय के साथ सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगे। सुशील और जमातुल्ला तो ठीक से सो नहीं सके।
बहुत भोर में ही उठकर सुशील ने जमातुल्ला को जगाकर कहा, “आइए, चलकर देखिए, बाहर आइए- “
बाहर आकर जमातुल्ला खुशी से झूमकर कहा, “यही तो है सफेद पहाड़ और वह टापू! मैं कल रात में ही समझ गया था बाबूजी, किसी से कहा नहीं था- “
“क्यों?”
“पता नहीं क्यों बाबूजी, चीनी जहाजी पर और हुसैन साहब पर मुझे पूरा भरोसा नहीं हो रहा है। खुदा कसम, उनके सामने मेरा मुँह नहीं खुलना चाहता। हुसैन साहब पूरे गुंडे आदमी हैं, मजबूरी में उनकी मदद लेनी पड़ी है, लेकिन सिंगापुर में उनके नाम से सभी डरते हैं।”
“अब उस बारे में सोचकर क्या फायदा बताइए, जबकि उन्हीं को साथ लेकर काम करना है? यार हुसैन को बता दूँ टापू के बारे में।”
यार हुसैन ने सब सुनने के बाद जमातुल्ला को बुलाकर कहा, “कोई संदेह नहीं है तुम्हें? यही वह टापू है न?”
“यही है।”
“हम लोग उतरने के बाद जंक को छोड़ देंगे- अच्छी तरह सोचकर देख लो अभी भी।”
सुशील और जमातुल्ला ने आश्चर्य के साथ कहा, “जंक को क्यों छोड़ देंगे?”
“मैंने उसे दूसरी कहानी सुना रखी है। मैंने कह रखा है कि डच कंपनी से हम लोगों ने जंगल के मैदानों का पट्टा लिया है, हम लोग तीन हफ्ते यहाँ ठहरेंगे- तीन हफ्ते बाद वह फिर हमें लेने आ जायेगा। उसे असली बात नहीं बतायी- चीनी लोग बहुत भरोसे के नहीं होते।”
*****
आखिर यह लोग इस टापू पर क्यों आए थे? इन तीन हफ्तों में इनके साथ क्या होने वाला था?
यह सब तो आपको इस उपन्यास को पढ़कर ही पता चलेगा।
पुस्तक विवरण:
नाम: वीरान टापू का खजाना | लेखक: बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय | अनुवादक: जयदीप शेखर | प्रकाशक: साहित्य विमर्श प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 164
पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श प्रकाशन
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अनुवादक परिचय
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