कहानी: नेकी की दीवार – शोभा शर्मा

कहानी: नेकी की दीवार - शोभा शर्मा

लेखिका शोभा शर्मा कई वर्षों से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। कहानी, कविता, संस्मरण जैसी विधाओं में उन्होंने लिखा है। कई पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और रेडियो से भी उनकी कई रचनाएँ प्रसारित होती रही हैं। आज एक बुक जर्नल पर पढ़ें लेखिका शोभा शर्मा की कहानी ‘नेकी की दीवार‘।


नौकरानी की मदद से आज संगीता ने बहुत सारा सामान, जो वर्षों से प्रयुक्त नहीं हुआ था, सुबह ही बाहर बरामदे में रखवा दिया था।

संगीता को कल एक समाज सेवी संस्था के द्वारा एक कैम्पेन की जानकारी मिली थी, जिसमें आजकल प्रति सप्ताह एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था।

इसमें सप्ताह के एक पूरे दिन लोग अपने-अपने घरों से उस सामान, जो उनके द्वारा बहुत समय से प्रयोग नहीं किया जा रहा हो और अच्छी हालत में हो, को एक विशेष दीवार के किनारे ला कर रखा जा रहा था ताकि उस सामान को कोई गरीब असहाय उपयोग कर सके।

इस दीवार को नेकी की दीवार नाम दिया गया था। उस दीवार पर लगी खूटियों पर कपड़े टाँग दिए जाते थे। जूते चप्पल व अन्य समान वहीं रखे हुए रैक्स पर रख दिया जाता था। गरीब, असहाय जो ऐसी वस्तुएँ खरीद पाने असमर्थ थे, अपनी जरूरत के मुताबिक उनमें से सामग्री कपड़े चुन-चुन कर उठा ले जाते थे।

संगीता, आज उसी दीवार पर, घर में पड़े छोटे-बड़े पुराने वस्त्र टाँगने का इरादा रखती थी। उसने जल्दी से काम काज किया और वस्त्र एवं सामान लेकर जाने के लिए बाहर आ गयी।

देखा तो वहाँ पति वीरेंद्र मोहन सारी वस्तुओं को हाथ से छूते हुए खोए खोए से बैठे थे। उनके गेंहुएँ चेहरे पर उदासी के साए थे एवं आँखों के चारों ओर गहरे काले घेरे बन गए थे, जैसे निद्रा जन्मों से रूठी हुई हो। आँखें समय के पार कुछ ऐसा देख रहीं थीं, जो वर्षों पूर्व घटा था।


“क्या बात है? आप अपनी स्टडी में नहीं हैं आज! यहाँ…कैसे?” संगीता ने कुछ चिंतित होकर जानना चाहा।

लेकिन संगीता ने क्या कहा..! उन्होंने जैसे सुना ही नहीं!

संगीता फिर धीमे कदमों से जाकर उनके पास ही बैठ गयी… वीरेंद्र मोहन, कार्टराईज के कपड़े से बनी छोटी प्यारी सी पतलून को हाथों में लिए, खयालों में गुम बैठे थे।

उनके मुखमंडल पर यादों की परछाईयाँ उतर आयी थी। ऐसी परछाईयाँ जिसके बोझ तले वे और बूढ़े दिखने लगे थे। मानो वक्त एक अंतराल लाँघ गया हो।

एक पिता को उपेक्षित छोड़ कर जब उसका इकलौता बेटा… अपना अलग थलग संसार बसाने चला जाता है, तब वह पिता अनायास ही, अपने ऊपर अनजाना सा बोझ रखा पाता है। उसके ढुलकते हुए झुके कंधे और अधिक झुक कर उसे असहाय बना देते हैं… वह हरदम एक बेबसी महसूस करता है।

ऐसे माता-पिता असमय ही बूढ़े हो जाते हैं। संतान की ख्वाहिशें, उनके अभिभावकों की लम्बी आयु को काटकर, किसी अदृश्य कैंची से छोटा कर देती हैं। उनके सुख, इच्छाएँ, अरमान, उम्मीदें सब कुछ, संतानों की महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थों, लालसाओं और मनपसंद ख़्वाहिशों की सीढ़ी बन जाते हैं। जिस सीढ़ी से अपनी मंजिल पाने के लिए सिर्फ बच्चे ऊपर चढ़ पाते हैं। माँ-बाप वक्त के साथ ढह जाने को ज्यों के त्यों उसी सीढ़ी पर पत्थर बने पड़े रह जाते हैं।

ऐसा ही उन्हें लगा जब जोगी, उनका इकलौता पुत्र सोनी के प्यार में पड़कर घर से चला गया। वह अपनी मंजिल पाने को, महत्वाकांक्षाओं की एक-एक करके सीढ़ी चढ़ते हुए, अपने संसार में मगन हो गया था।

ये हुए न जाने कितना समय हुआ, पर लगा कि संगीता और वीरेंद्र मोहन आज तक उसी मोड़ पर खड़े रह गए। जैसे जड़, पत्थर हो गए हों। मानो न जाने कब से ऐसे ही जमे हुए पत्थर के बुत खड़े हों।

बस एक जरा सा पेंच था कि सोनी और इन की जाति में फर्क था। यह कोई इतनी बड़ी बाड़ न थी कि लाँघी न जा सके, पर न जाने क्यों? इतनी सी बात से या किन्हीं पूर्वाग्रहों से संगीता और उसके पति के, मन की गाँठे कसतीं ही गयीं।

जोगी ने कोशिश तो बहुत की थी पर शायद और समय चाहिए था या वह सोनी से मिले ही नहीं थे, कि उसे जान पाते! मिलते तो जानते कि वह सीधी सादी सी मिलनसार लड़की थी, जो बस स्नेह और प्यार की भूखी थी।

जोगी तो जानता था सोनी की अच्छाई मगर वह माँ बाप के सामने उसके गुणों को ठीक ढंग से उजागर न कर पाया या टीस पैदा करते हुए बहुत से प्रेम कहानियों के किस्से, भागी हुई लड़कियों को लेकर सुनी सुनाईं, मन ही मन बनायी गयी धारणाएँ, शंकाएँ थीं कि संगीता और वीरेंद्र मोहन के मन में बढ़ती ही गयी इसलिए उनकी भी हिम्मत न हुई उस लड़की से मिलने की। क्या पता कि समाज का डर था या उनका खुद का ही मन माना नहीं मगर इसके दुष्परिणाम और भी बुरे निकले।

इसी तीन तेरह में घर में, दिलों में, मन मष्तिस्क की मिट्टी में दरारें पड़ गयीं। रस और शाखें दोनों सूखने लगे। सोनी और जोगी के मन में तो प्यार के बुलबुले फूट रहे थे। तो वे बुलबुले कैसे शांत होते!! उन्हें कहाँ मानना था !! उन दोनों ने चुपचाप शादी कर ली और अपना घर बसा लिया।

एक घर उजाड़ कर दूसरा घर बस तो गया मगर जो घर उजड़ा था, उसके बारे में किसने पूछा? किसने जानना चाहा! अगर पूछा भी किसी ने तो और अधिक रस सुखाने को पूछा!

अपनों परायों के व्यंग्य और तंज़ के कहकहे… उजड़े घर को जैसे जलाने के लिए आतुर हो उठे! अब तो यदि कोई साधारण सी बात भी करता तो संवेदनशील मन के मालिक वीरेंद्र मोहन को उसमें तंज़ नजर आता था।

घर जो उस छोटे से बच्चे के लिए प्यार और ममता की छाँव की नींव पर बसाया गया था, बड़े होने के बाद उसके जाते ही, उसकी जड़ों में से रस भी सोख ले गया था।

जब रस सूख जाए तो विरस मन कोई कैसे पनप सकता है? कैसे हँस सकता है? कैसे खुश हो सकता है?

संगीता और उसके पति उसी मोड़ पर खड़े पत्थर बन गए, जहाँ जोगी, उनका इकलौता लाड़ला हाथ छुड़ाकर चला गया, जाता नहीं तो उसका हाथ खाली कैसे होता? खाली नहीं होता तो वह सोनी का हाथ कैसे पकड़ता?

सारी क्रियाएँ सापेक्ष चल रहीं थीं। अब वह जब कभी उस मोड़ से गुजरता, जहाँ संगीता और वीरेंद्र मोहन पत्थर के बुत बन गए थे, तो एक पल को रुकता, सोचता कि गलती कहाँ पर हो गयी थी! पर उसी पर उसे खयाल आता सोनी का और बिना उन बुतों को छुए सीधा निकल जाता, अगर छू देता तो बुतों में वापस जान न आ जाती!


“यह वही पतलून है न!! जब जोगी छ बरस का था! मैं उसके जन्मदिन पर दिलवा कर लाया था।” वीरेंद्र मोहन मानो खुद से ही बडबड़ा रहे थे।

“हाँ!” बड़ी ही कठिनाई से संगीता के मुख से निकला। यह एक शब्द उच्चारने में संगीता ने मानो पूरी शक्ति झोंक दी थी, तब वह उसके मुख से निकल पाया। जैसे न जाने कहाँ!! कब से अटका पड़ा था।

“उसी दिन जोगी इसे पहन कर अपने दोस्तों के साथ पार्क में खेलने गया था न! फिर वहीं काँटों में उलझा कर पीछे खौंप लगा लाया था। मैंने कितनी बार उसे मनाया था कि रफू करा दूँगा…रो मत…मगर वह नहीं मान रहा था, देर तक मोटे-मोटे आँसू बहाता रहा था।” वीरेंद्र मोहन ऐसे कहे जा रहे थे मानो वह पूरा वाकया कल ही की बात हो।

“लेकिन रफू हो नहीं सका फिर ये!! न जाने किन तहों में छुपा रखा रह गया। जब मेरे हाथों में आया था, तब तक तो जोगी बड़ा हो गया था।”

“हाँ, तब वह उसके नाप का ही न रहा था। फिर मैंने यों ही छोड़ दिया इसे। कुछ चीजें होतीं हैं रिश्तों की तरह, जो फट जाएँ तो कभी रफू नहीं हो पातीं। रफू करा कर निशान तो चले जाते हैं लेकिन उस फटे हुए को बचाए रखने के लिए बड़े प्रयास करने पड़ते हैं।” — संगीता ने एक आह सी भरी।

“लेकिन यह तो रफू है? उसी जगह पर…!” वे जरा देर ठहर कर संगीता की तरफ देखते हुए अफसोस के स्वर में फिर से बोले, “तुम्हें तो वस्त्रों के साथ साथ रिश्तों पर भी रफू करने की कला आती है, वह तो मैं ही न सीख पाया।”

“क… हाँ…!! मुझे आती होती तो… जोगी कैसे चला जाता!”

संगीता के दिल का बोझ इतना बढ़ा कि उन्होंने पति की हथेली हौले से पकड़कर…अपनी आँखों पर रख ली। देर तक मन साधने के बाद वे पति की ओर देखने लगीं।

“वह तो मैंने कल ही रफू करवाया इस पर। हम इन सभी चीजों को नेकी की दीवार पर टाँग आएँगे।” संगीता ने स्वर मुलायम बनाते हुए धीरे से बताया।

“अपने बेटे के एक-एक सामान में उसकी कितनी सारी यादें छुपी हुई हैं। यह जानते हुए भी इन्हें ले जा रही हो!”

किसी तरह इतना कह कर वे चुप हो गए। उन्हें लगा कि शायद अब और न बोला जाएगा। एक गोला सा अटक गया था रुलाई का मगर मर्द थे रोते कैसे!

माँएँ तो आँसू बहा कर रो लेतीं हैं, दिल भी हल्का कर लेतीं हैं मगर बाप? बाप कैसे रोएँ? सीने पर बर्फ की एक सिल जैसी रखी रहती है मगर बहती नहीं हैं पानी बन कर। जकड़न के बगूले अंदर ही अंदर चक्कर काटते हैं बस।

बेटे को मनाने भी न जा सकते थे! जाते भी तो वह मान भी कैसे जाता? वह भी तो मर्द था! और मर्द सबके सामने रो भी नहीं सकते कि दो बोल सहानुभूति के ही मिल जाएँ!! बेटे के सामने रोकर कोई बाप स्वयं को कमजोर होना कैसे दिखा दे? और बेटा अपनी पत्नी लाने की रोक के लिए बाप के सामने अकड़ा बैठा था।

उसे भी तो अपनी पत्नी के सामने मर्द होने के सबूत पेश करने थे। दीवारें जो खिंच गयीं थीं, वे कैसे भी करके वक्त के साथ कमजोर नहीं हो पा रहीं थीं वरन् और मजबूत सी होती जा रहीं थीं।

कहीं ये मेरा भरम तो नहीं। बुत बने माता पिता बार-बार सोचते और सोचते ही रह जाते। क्या चाहा था और क्या हो गया! पर ऐसा तो कभी भी न चाहा था! अपने­अपने दायरों में, सब अपनी दीवारों में कैद थे। संगीता ने सभी सामान एक बड़े से बैग में भर लिया और बोली, “चलिए, आप भी थोड़ा घूम आइये इसी बहाने। कैद होकर रह गए हैं स्टडी, बेडरुम और डाईनिंग रूम में। या तो पढ़ते हैं या टी वी देखते हैं, बैंक हो आते हैं या चुपचाप बैठे रहते हैं। ऐसे कैसे चलेगा?”

“न… न… तुम हो आओ, मुझे इस शहर से न जाने क्यों अपनापन नहीं रहा। ऐसा लगता है काम-धाम भूलकर लोग बस मुझे ही घूर रहे हैं।” वे इस समय निरीहता की प्रतिमूर्ति दिखने लगे थे।

“एक बार चलो तो सही।”

“मेरा मन नहीं करता। नेकी करने से अब कुछ नहीं होना। कर ली बहुत नेकी। जितनी की है उतने से क्या मोक्ष मिल जाएगा!” उनके स्वरों में तलखी उतर आयी थी।

संगीता हरदम इन बातों से उबरने में लगी रहती थी। उसे लगता कि ऐसी घटनाओं से लोग कभी कभी मन की खोहों में डूबने की हदों तक जा पहुँचते हैं!! इन्हें निकालने का कोई तो उपाय बता दे!!

फिर बात खिंचती देख संगीता ने बैग उठाया और बाहर निकल आयी। बैग स्कूटी के बीच में पैर रखने वाली जगह पर रखा और स्कूटी स्टार्ट कर दी।

जाकर देखा, संस्था ने एक दीवार पर बड़े ही सुंदर अक्षरों में लिख रखा था: ‘नेकी की दीवार: जो आपके पास अधिक है, उसे यहाँ छोड़ जाएँ, किसी जरूरतमंद के लिए। किसी से नेकी करने के लिए।’

पढ़ते हुए संगीता के मन का एक कोना पके हुए फोड़े सा लहक उठा। वह सोचने लगी, ‘कपड़े तो कोई गरीब पा लेगा, जूते और सामान भी पा जाएगा पर प्यार, आदर, मान-सम्मान, नेकी कहाँ टँगी है इस दीवार पर? जो ले जा सके! ऐसे माता पिता, जिनका प्यार, आदर, मान, सम्मान सब लुट गया, ऐसे ग़रीब तो अनेक फिरते हैं इस शहर में! उन्हें नेकी कैसे मिलेगी?

कुछ कैद हैं अपने घरों में, कुछ सबकी निगाहों से ओझल हैं!! उनके लिए भी एक दीवार चाहिए? मन की मुरादों वाली दीवार। जहाँ से मन की मुराद ले जायी जा सके!! मैं भी ले जाऊँ जोगी के बाबूजी के लिए?’

मन ही मन सोचते हुए उसने सारे कपड़े खूटियों पर टाँग दिये।

दीवार पर टाँगने के बाद देखा कि बचपन से लेकर बड़े होने की उम्र तक के ज्यादातर कपड़े, जूते, आज जोगी के ही थे। एक गहरी सी साँस हृदय से निकली।

“काश कि ऐसा हो!” माँ के दिल से एक आह निकली… फिर… एक लेकिन ने उसका मन पत्थर का बना दिया।

‘छोड़ो भी अब ये बातें’, उसने स्वयं से कहा। फिर संगीता ने मन ही मन प्रार्थना की, “हे ईश्वर! जो भी कोई जरुरतमंद आए …मेरे जोगी के सामान को लेने… उसे मेरा आशीर्वाद भी देना… साथ ही उसके दिल से जो दुआएँ निकलें… मेरे जोगी को लग जाएँ… ।”

मन ही मन प्रार्थना करतीं वे वहीं थमीं खड़ीं रह गयीं। उनका मन बड़ा भारी सा हो गया। फिर किसी तरह घर वापस चलीं आयी।


दोपहर बाद जोगी वहाँ से गुजरा। सोनी पीछे बैठी थी। सड़क के बगल की दीवार जो साथ साथ चल रही थी उस पर लिखा था ‘नेकी की दीवार’। उस पर जोगी की नजर पड़ी तो वह एकाएक थमक गया।

वह अपनी प्यारी पतलून को खूब पहचान गया था। सोचने लगा, ‘ये क्या? ये तो मेरी वही पतलून है…? जिद कर कर के बाबूजी से कितनी महंगी खरीदवायी थी! फिर उसी दिन फट गयी थी! साथ खेल रहे रमेश ने दौड़ा दिया था मुझे झाड़ियों की तरफ… कैसे… शैतानी से उसकी आँखें चमक रही थीं और वह खिलखिलाकर मेरे पीछे भाग रहा था।

तभी मैं झाड़ियों में जा गिरा था और पैंट फट गयी थी। घर आकर कितना तो रोया था। माँ ने भी उसे डाँटने की बजाए तरह-तरह से मनाया था। गले लिपटा कर प्यार किया था… मेरी मनपसंद मिठाइयाँ दीं थीं क्योंकि उस दिन मेरा जन्मदिन था। कहा था कि रफू करवा दूँगी। पर फिर रफू न हो पायी वह। माँ का कॉलेज और बाबूजी की ऑफिस की व्यस्तताएँ !! इसे मैं फिर न पहन पाया!! देखूँ तो वही है या और दूसरी कोई?’

वह बाइक खड़ी कर के धीमे कदमों से पास गया और देखने लगा। हाँ, वही थी। वह अच्छी तरह से रफू कर दी गयी थी और धुलवा कर, प्रेस करके यहाँ टाँग दी गयी थी इस दीवार पर। नेकी की दीवार पर? रुलाई का आवेग उमड़ आया जिसे उसने किसी तरह थामा।

सोनी बाइक से कमर टिकाये उसे ही देख रही थी। उसकी तरफ से ध्यान हटा कर वह जैसे खुद से ही बोला, “और मैंने क्या किया? अपने साथ नेकी करने वालों को, उनकी अच्छाइयों को, कहाँ लटका दिया? उनकी भावनाओं को, उनकी उम्मीदों को कहाँ फेंक आया मैं?”

मन में एक जोर का बगूला सा उठा था और छाती में अटक गया था। गहरी साँस बन कर धीमे-धीमे से बाहर आया, मानो साँस लेने में भारी तकलीफ हो रही हो।

हाथों में अभी भी वह छोटी सी, छह साल के बच्चे की कार्टराइज की पतलून थी। वह अभी भी खोया-खोया सा खड़ा था। कुछ बातें, कुछ यादें होतीं हैं ऐसी जो तेज आँधियों में उड़कर आये सूखे पत्तों सी, आकर कदमों में गिर जातीं हैं।

अनायास ऐसी ही एक याद उसके कदमों में पड़ी थी सूखी सी… जिसे और कोई नहीं… वह स्वयं ही देख पा रहा था। यहाँ तक कि जिसे जीवन संगिनी बनाया था, वह भी कहाँ… देख पा रही थी!

देर होने लगी। सोनी उसका इंतजार करती बाइक के पास खड़ी थी… समझ नहीं पा रही थी, इतनी छोटी सी पतलून, वह भी जो जरूरतमंदों के लिए टाँगी गयी है। उसे हाथ में लेकर क्यों खड़ा है जोगी? क्या… चल रहा है उसके मन में? क्या करेगा उसका! वह बार बार सोचती, घड़ी देखने लगी… देर हो रही थी।

“जोगी! कम ऑन, चलो न… अभी हमें मूवी के टिकिट्स भी लेने हैं। देर हो जाएगी।” वह पुकार रही थी।

“अ… ह… ह..! हाँ। हाँ, चलो सोनी, चलते हैं, अभी भी देर नहीं हुयी है!” जोगी आकर बाइक थामने लगा।

“लेकिन यह पेंट तो टाँग दो वापस। यह क्यों ले जा रहे हो !! यह हमारे किस काम की?”

जैसे जोगी ने कुछ सुना ही नहीं। वह तो बाइक पर सोनी को पीछे बिठाए… सरपट भागे जा रहा था। घर से वे दोनों किसी मूवी को देखने का तय करके निकले थे!!


फिर जोगी ने गाड़ी रोक दी और सोनी को पीछे आने का इशारा किया। सोनी भी हैरान चुप-चुप सी उसके पीछे चली आयी। अब तक वह कुछ तो समझ ही गयी थी। कुछ न कुछ बात तो है!

लौटने के बाद आँगन में संगीता खड़ीं बोगनबिलिया की बेल सँवारती हुईं बड़बड़ा रहीं थी, “इसके फूल तो बस देखने भर के हैं मगर खुशबू जरा सी भी नहीं है। तमाम कचरा फैलाती रहती है, कटवा दूँगी कल ही।” वे उस बेल पर अपने दिल के छाले फोड़ रहीं थीं।

तभी अनायास जोगी ने भीतर जाकर उनके चरणस्पर्श कर लिए, “माँ! मुझे माफ कर दो। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी।” पीछे पीछे सोनी ने भी पैर छुए। उसे एकाएक सामने देखकर संगीता के मुख से निकला, “अरे! जोगी! तुम यहाँ!”

जोगी चुप। उसके चेहरे पर अनेक भाव उमड़ते सिमटते जा रहे थे। संगीता मानो कराहीं, एक हूक सी उठी, “क्या ये सोनी है?”

“हाँ माँ, तुम्हारी बहू सोनी।” जोगी के मुख से शीघ्रतापूर्वक निकला।

“अरे! मुझे पता न था कि यह इतनी सोणी है, नहीं तो इसे मैं छाती से लगा रखती।” अनायास ही अपनी बहू को सामने पाकर संगीता का मन विह्वल भी हुआ और बेचैन भी। उसके स्वर भीग गए। मन बह उठा जैसे एकाएक बारिश आ जाने से पानी का रेला उमड़ आता है।

बात दरअसल खालीपन के अहसास की थी और ईगो की भी थी। ये सब तो बहाने थे। जिसकी खुशी देख देख कर जिये मरे, उसी की सबसे बड़ी खुशी का खयाल न रहा।

बुढ़ापे की खाली जिंदगी संतान के बिना काटने को दौड़ने लगी थी। जोगी के बिना जोगी के माता पिता उसकी कमी को भलीभाँति समझ गए थे। ऐसे काम जब संतान कर बैठती है तो दोनों ही पक्ष गिल्टी फील करते हैं, चाहे वह न बताएँ किसी को।

तभी कुछ आहटें, बातचीत सुनकर ऊपर कमरे से सीधी उतरते हुए वीरेंद्र मोहन चले आए, आँगन में जोगी को देख ठिठके, फिर जोगी स्वयं ही आगे बढ़कर पिता के गले लग गया।

जोगी के मुँह में शब्द ही नहीं थे। पिता जैसे दस बरस बूढ़े दिख रहे थे। उन्हें इस हाल में पाकर उसका मन भर आया। उसने सोचा इतने बरस तो नहीं हुए… फिर पिता ऐसे कैसे एकदम से बूढ़े हो गए? जोगी के हाथ में वह पतलून देख माता पिता चौंके।

“यह क्या है तेरे हाथों में?”

“वही तो… ! इसे क्यों टाँग आए वहाँ? इसकी क्या गलती है? पापा…किया धरा तो मैंने था इसकी क्या गलती थी!”

जोगी भी एक ज़रा सी घटना से व्याकुल मन, माँ के सामने छोटे बच्चे की तरह धारों धार सिसक सिसक कर रो रहा था। सारे तटबंध टूट गए थे।

“तो फिर….ऐसा कैसे हो गया?”

“माँ बाबूजी, मुझे माफ कर दीजिए। मेरे कारण ही आपको यह तकलीफ पहुँची!! मारिए मुझे… गुस्सा करिए मुझ पर।” अब तक सोनी भी सारा माजरा समझ गयी थी।

“माँ बाबूजी, मुझे भी माफ कर दीजिए। मेरी भी गलती है। मेरे कारण ये आपसे अलग हुए। न मैं इनको मिलती, न ये इतना आगे बढ़ जाते।”

“न न बेटी… तेरी नहीं हम सभी की गलती है। हमें भी तुझसे मिल लेना चाहिए था। हमने कुछ अलग ही कल्पना कर ली थी तेरे बारे में। तू तो बेटी इतनी भोली‑भाली प्यारी सी है। ये घर आँगन तुम दोनों के बिना अधूरा रह गया है।” अबकी बार भर्राये गले से बोलते-बोलते बाबूजी सोनी और जोगी, दोनों के सिर पर हाथ रख चुके थे। उन्होंने भी बेटे बहू को ढेरों आशीर्वाद दे डाले।

“बेटा! तुम दोनों भी हमें माफ कर दो। अब चले नहीं जाना हमें छोड़कर। तुम्हारे बिना यह घर घर नहीं लगता। जोगी के साथ माँ बाबूजी और सोनी सबके आँसू बोल रहे थे। वे हँस भी रहे थे और रो भी रहे थे और जोगी और सोनी की छोटी सी गृहस्थी को समेटने का काम संगीता और वीरेंद्र मोहन अगले ही दिन जाकर करते हुए कितने खुश थे, यह उनके मुख पर खिली उजास बता रही थी थी।

दिख रहा था कि नेकी की दीवार से मिली दुआओं ने अपना असर दिखा दिया था।

इति शुभम


लेखिका परिचय

शोभा शर्मा

लेखिका शोभा शर्मा मूलतः टीकमगढ़ मध्य प्रदेश की हैं। टीकमगढ़ में ही रहकर उन्होंने अपनी शिक्षा दीक्षा ग्रहण करी। उन्होंने प्राणी शास्त्र में एम एस सी करने के बाद बी एड किया। इसके बाद उन्होंने काफी समय तक शिक्षिका के रूप में भी कार्य किया। विवाह के पश्चात उन्होंने परिवार के साथ समय बिताने हेतु शिक्षण से त्यागपत्र ले लिया और स्वतंत्र लेखन करने लगीं।

उनकी साठ से अधिक कहानियाँ, अनेक लेख और कवितायें सरिता, मुक्ता, सरस सलिल, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, मेरी सहेली, वनिता, मनोरमा जैसी कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने आकाशवाणी छतरपुर से अस्थाई उद्घोषिका का कार्य भी किया है और अब तक उनकी पचास से अधिक कहानियाँ, वार्ताएँ एवं झलकी (हाय रे! हिचिकी) का रेडियो प्रसारण हो चुका है। 

नवभारत जबलपुर में उनके अनेक लेख, परिचर्चाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी रचनाएँ प्रतिलिपि और मातृभारती जैसी वेब पोर्टल्स पर भी निरंतर प्रकाशित होती रही हैं। 

पुरस्कार:
म.प्र लेखिका संघ से सम्मानपत्र प्राप्त
म.प्र लेखिक संघ से सम्मानपत्र प्राप्त
दिल्ली प्रेस के द्वारा गृहशोभा (2001) में कहानी ‘प्रत्यागत’ पर पुरस्कार एवं सम्मान 
मेरी सहेली द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार

मुख्य कृतियाँ:

इंटरनेट पर उपलब्ध रचनाएँ – प्रतिलिपिमातृभारती  

लेखिका से आप निम्न माध्यमों से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:
ई-मेल : 1960.shobha@gmail.com


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2 Comments on “कहानी: नेकी की दीवार – शोभा शर्मा”

    1. कहानी आपको पसंद आयी यह जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।

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