कहानी: मौसी – भुवनेश्वर

कहानी: मौसी - भुवनेश्वर
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मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती।

बिब्बो जीवन की उसी मंजिल में थी। मुहल्लेवाले उसे सदैव वृद्धा ही जानते, मानो वह अनंत के गर्भ में वृद्धा ही उत्पन्न होकर एक अनंत अचिंत्य काल के लिए अमर हो गयी थी। उसकी ‘हाथी के बेटों की बात’, नयी-नवेलियाँ उसका हृदय न दुखाने के लिए मान लेती थीं। उसका कभी इस विस्तृत संसार में कोई भी था, यह कल्पना का विषय था। अधिकांश के विश्वास-कोष में वह जगन्नियन्ता के समान ही एकाकी थी; पर वह कभी युवती भी थी, उसके भी नेत्रों में अमृत और विष था। झंझा की दया पर खड़ा हआ रूखा वृक्ष भी कभी धरती का हृदय फाड़कर निकला था, वसंत में लहलहा उठता था और हेमंत में अपना विरही जीवनयापन करता था, पर यह सब वह स्वयं भूल गयी थी। जब हम अपनी असंख्य दुखद स्मृतियाँ नष्ट करते हैं, तो स्मृति-पट से कई सुख के अवसर भी मिट जाते हैं। हाँ, जिसे वह न भूली थी उसका भतीजा, बहन का पुत्र – वसंत था। आज भी जब वह अपनी गौओं को सानी कर, कच्चे आँगन के कोने में लौकी-कुम्हड़े की बेलों को सँवारकर प्रकाश या अंधकार में बैठती, उसकी मूर्ति उसके सम्मुख आ जाती।

वसंत की माता का देहांत जन्म से दो ही महीने बाद हो गया था और पैंतीस वर्ष पूर्व उसका पिता पीले और कुम्हलाए मुख से यह समाचार और वसंत को लेकर चुपचाप उसके सम्मुख खड़ा हो गया था… इससे आगे की बात बिब्बो स्वप्न में भी नहीं सोचती थी। कोढ़ी यदि अपना कोढ़ दूसरों से छिपाता है तो स्वयं भी उसे नहीं देख सकता – इसके बाद का जीवन उसका कलंकित अंग था।

वसंत का पिता वहीं रहने लगा। वह बिब्बों से आयु में कम था। बिब्बो, एकाकी बिब्बो ने भी सोचा, चलो क्या हर्ज है, पर वह चला ही गया और एक दिन वह और वसंत दो ही रह गए। वसंत का बाप उन अधिकांश मनुष्यों में था, जो अतृप्ति के लिए ही जीवित रहते हैं, तो तृप्ति का भार नहीं उठा सकते। वसंत को उसने अपने हृदय के रक्त से पाला; पर वह पर लगते ही उड़ गया और वह फिर एकाकी रह गयी। वसंत का समाचार उसे कभी-कभी मिलता था। दस वर्ष पहले वह रेल की काली वर्दी पहने आया था और अपने विवाह का निमंत्रण दे गया, इसके पश्चात् सुना, वह किसी अभियोग में नौकरी से अलग हो गया और कहीं व्यापार करने लगा। बिब्बो कहती कि उसे इन बातों में तनिक भी रस नहीं है। वह सोचती कि आज यदि वसंत राजा हो जाए, तो उसे हर्ष न होगा और उसे कल फाँसी हो जाए, तो न शोक। और जब मुहल्लेवालों ने प्रयत्न करना चाहा कि दूध बेचकर जीवन-यापन करनेवाली मौसी को उसके भतीजे से कुछ सहायता दिलाई जाए तो उसने घोर विरोध किया।

दिन दो घड़ी चढ़ चुका था, बिब्बो की दोनों बाल्टियाँ खाली हो गयी थीं। वह दुधाड़ी का दूध आग पर चढ़ाकर नहाने जा रही थी, कि उसके आँगन में एक अधेड़ पुरुष 5 वर्ष के लड़के की उँगली थामे आकर खड़ा हो गया।

“अब न होगा कुछ, बारह बजे…” वृद्धा ने कटु स्वर में कुछ शीघ्रता से कहा।

“नहीं मौसी…”

बिब्बो उसके निकट खड़ी होकर उसके मुँह की ओर घूरकर स्वप्निल स्वर में बोली, “वसंत!” और फिर चुप हो गयी।

वसंत ने कहा, “मौसी, तुम्हारे सिवा मेरे कौन है? मेरा पुत्र बे-माँ का हो गया? तुमने मुझे पाला है, इसे भी पाल दो, मैं सारा खरचा दूँगा।”

“भर पाया, भर पाया,” वृद्धा कम्पित स्वर में बोली।

बिब्बो को आश्चर्य था कि वसंत अभी से बूढ़ा हो चला था और उसका पुत्र बिलकुल वसंत के और अपने बाबा… के समान था। उसने कठिन स्वर में कहा, “वसंत, तू चला जा, मुझसे कुछ न होगा।” वसंत विनय की मूर्ति हो रहा था और अपना छोटा-सा संदूक खोलकर मौसी को सौगातें देने लगा।

वृद्धा एक महीने पश्चात् तोड़नेवाली लौकियों को छाकती हुई वसंत से जाने को कह रही थी; पर उसकी आत्मा में एक विप्लव हो रहा था उसे ऐसा भान होने लगा, जैसे वह फिर युवती हो गयी और एक दिन रात्रि की निस्तब्धता में वसंत के पिता ने जैसे स्वप्न में उसे थोड़ा चूम-सा लिया और… वह वसंत को वक्ष में चिपकाकर सिसकने लगी।

हो… पर वह वसंत के पुत्र की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगी। वह उसे कदापि नहीं रखेगी, यह निश्चय था। वसंत निराश हो गया था पर सबेरे जब वह बालक मन्नू को जगाकर ले जाने के लिए प्रस्तुत हुआ, बिब्बो ने उसे छीन लिया और मन्नू और दस रुपये के नोट को छोड़कर वसंत चला गया।


2

बिब्बो का दूध अब न बिकता था। तीनों गायें एक के बाद एक बेच दीं। केवल एक मन्नू की बछिया रह गयी थी। कुम्हड़े और लौकी के ग्राहकों को भी अब निराश होना पड़ता था। मन्नू – पीला, कांतिहीन, आलसी, सिंदूरी, चंचल और शरारती हो रहा था। …

महीने में पाँच रुपया का मनीऑर्डर वसंत भेजता था; पर एक ही साल में बिब्बो ने मकान भी बंधक रख दिया। मन्नू की सभी इच्छाओं की पूर्ति अनिवार्य थी।

बिब्बो फिर समय की गति के साथ चलने लगी। मुहल्ले में फिर उसकी आलोचना, प्रत्यालोचना प्रारम्भ हो गयी। मन्नू ने उसका संसार से फिर सम्बंध स्थापित कर दिया; जिसे छोड़कर वह आगे बढ़ गयी थी पर एक दिन साँझ को अकस्मात् वसंत आ गया। उसके साथ एक ठिंगनी गेहुएँ रंग की स्त्री थी, उसने बिब्बो के चरण छुए। चरण दबाए और फिर कहा, “मौसी, न हो मन्नू को मुझे दे दो, मैं तुम्हारा यश मानूँगी।”

वसंत ने रोना मुँह बनाकर कहा, “हाँ, किसी का जीवन संकट में डालने से तो यह अच्छा है, ऐसा जानता, तो मैं ब्याह ही क्यों करता?”

मौसी ने कहा, “अच्छा, उसे ले जाओ।”

मन्नू दूसरे घर में खेल रहा था। वृद्धा ने काँपते हुए पैरों से दीवार पर चढ़कर बुलाया।

वह कूदता हुआ आया। नयी माता ने उसे हृदय से लगा लिया। बालक कुछ न समझ सका, वह मौसी की ओर भागा।

बिब्बो ने उसे दुतकारा, “जा, दूर हो।”

बेचारा बालक दुत्कार का अर्थ समझने में असमर्थ था, वह रो पड़ा।

वसंत हतबुद्धि-सा खड़ा था। बिब्बो ने मन्नू का हाथ पकड़ा, मुँह धोया और आँगन के ताख से जूते उतारकर पहना दिए।

वसंत की स्त्री मुस्कराकर बोली, “मौसी, क्या एक दिन भी न रहने दोगी? अभी क्या जल्दी है।” पर, बिब्बो जैसे किसी लोक में पहुँच गयी हो। जहाँ यह स्वर-संसार का कोई स्वर-न पहुँच सकता हो। पलक मारते मन्नू को खेल की, प्यार की, दुलार की सभी वस्तुएँ उसने बाँध दीं। मन्नू को भी समझा दिया कि वह सैर करने अपनी नयी माँ के साथ जा रहा था।

मन्नू उछलता हुआ पिता के पास खड़ा हो गया। बिब्बो ने कुछ नोट और रुपये उसके सम्मुख लाकर डाल दिए, “ले अपने रुपये।”

वसंत धर्म-संकट में पड़ा था, पर उसकी अर्द्धांगिनी ने उसका निवारण कर दिया। उसने रुपये उठा लिये। मौसी, “इस समय हम असमर्थ हैं; पर जाते ही अधिक भेजने का प्रयत्न करूँगी, तुमसे हम लोग कभी उऋण नहीं हो सकते।”

मन्नू माता-पिता के घर बहुत दिनों तक सुखी न रह सका। महीने में दो बार रोग-ग्रस्त हुआ। नयी माँ भी मन्नू को पाकर कुछ अधिक सुखी न हो सकी। अंत में एक दिन रात-भर जागकर वसंत स्त्री के रोने-धोने पर भी मन्नू को लेकर मौसी के घर चल दिया।

वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि मौसी के जीर्ण द्वार पर कुछ लोग जमा हें। वसंत के एक्के को घेरकर उन्होंने कहा, “आपकी यह मौसी हैं। आज पाँच दिन से द्वार बन्द हैं, हम लोग आशंकित हैं।”

द्वार तोड़कर लोगों ने देखा, “वृद्धा पृथ्वी पर एक चित्र का आलिंगन किये नीचे पड़ी है, जैसे वह मरकर अपने मानव होने का प्रमाण दे रही हो।”

वसंत के अतिरिक्त किसी ने न जाना कि वह चित्र उसी के पिता का था पर वह भी यह न जान सका कि वह वहाँ क्यों था!

समाप्त

(हंस पत्रिका में अक्टूबर 1934 में प्रकाशित)


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Author

  • भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव

    मूल नाम: भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव
    जन्म: 1910, शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश
    निधन: 1957, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

    प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि। उन्होंने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतिरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी प्राप्त है।
    मुख्य कृतियाँ:
    कहानियाँ:'भेड़िये',‘डाकमुंशी’, ‘भेड़िये’, ‘भविष्य के गर्भ में’, ‘माँ-बेटे’, ‘मास्टरनी’, ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘सूर्यपूजा’, ‘हाय रे, मानव हृदय!’
    एकांकी एंव नाटक:‘ताम्बे के कीड़े’, ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’, ‘एकाकी के भाव’, ‘पतित’ (शैतान), ‘प्रतिभा का विवाह’, ‘श्यामा : एक वैवाहिक विडम्बना’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर के नामहीन चरित्र’, ‘कारवाँ’

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