पंडित राम सेवक के हाथ से सुमरनी गिर पड़ी। वह झल्लाये से उठकर पूजा की कोठरी से बाहर बरामदे में चले आये। बरामदे से गाना और साफ़-साफ़ सुनाई पड़ने लगा। मुंशी दयाशंकर के तिमंजले पर से कोई कोकिल-कंठी गा उठी—
नीर भरन कैसे जाऊँ
सचमुच गीत बहुत ही मधुर और गान का ढंग अत्यंत आकर्षक था। पंडित रामसेवक लाख प्रयत्न करके भी माला जपने में सफल न हो सके। जब राम नाम का गढ़ इस गीत के सामने टूट कर गिर ही पड़ा तब पंडितजी सुमरनी एक तरफ रखकर बरामदे में एक स्टूल खींचकर बैठ गये। दयाशंकर की कोठी की तरफ मुँह करके वे संगीत का सुख लेने लगे। गायिका गा रही थी:
डगर चलत मोसे रार करत है,
बहियाँ पकर मोरी ढीठ कनहाई
पंडितजी संगीत इतने तनमय होकर सुन रहे थे कि वे अपने पड़ोसियों का आना भी न जान सके। उनकी तंद्रा तब टूटी जब उनके पड़ोसी किशन ने उनके कंधे पर हाथ धरते हुए पूछा, “पूजा हो गयी पंडितजी?”
पंडितजी खिसियाये-से बोले, “कहाँ की पूजा, कहाँ का पाठ भाई। जब से यह पड़ोसी आया है तब से सुबह गाना शाम को गाना, दुपहर को गाना— गाना छोड़कर जैसे उसे कुछ और काम ही नहीं है। रेडियो तो रेडियो, अब यह एक नया तूफान और खड़ा किया है।”
जीवन बोला, “भाई कुछ भी हो, बुरा चाहे भला, पर मुहल्ले में जान-सी आ गयी है और सच बात तो यह है कि गाना मुझे बुरा नहीं लगता पंडितजी।” कहके वह मुस्कराया।
पंडितजी तिलमिला से उठे, बोले, “तुम्हें क्यों न अच्छा लगे। मुंशी दयाशंकर की कोठी पर तुम्हारी शाम जो कट जाया करती है। बड़े आदमियों के साथ उठते-बैठते हो और पान-सिगरेट ऊपर से मुफ्त का। पर यहाँ तो इस गाने-बजाने के मारे पूजा-पाठ धरम-करम सब डूबा जा रहा है।”
डॉक्टर कामता प्रसाद बोले, “अरे भाई, माना कि गाना-बजाना बुरा नहीं है, पर सब बात समय पर अच्छी लगती है हर घड़ी के गाने बजाने से तो, भाई, मुहल्ला सचमुच बरबाद हुआ जा रहा है और बच्चे बिगड़े जा रहे हैं।”
किशन बोला, “किसके बच्चे बिगड़े जा रहे हैं डॉक्टर साहब! कोई उदाहरण की तरह बताइए न?”
डॉक्टर साहब खीझ उठे, बोले, “लो अब तुम मुझे क्रॉस एग्ज़ामिन करने लगे। यह जो आज तिमंजले पर वह एक वेश्या बुलाकर गवा रहा है तो क्या बच्चे देखते नहीं? और उन पर इसका कुछ बुरा असर पड़ता ही नहीं?”
पंडितजी जोर से बोले, “पड़ता क्यों नहीं, जरूर बुरा असर पड़ता है। सच कहता हूँ मेरा बस चले तो ऐसे दुराचारी को गोली से उड़ा दूँ।”
डॉक्टर साहब बोले, “मेरे भी मन में यही आता है पर क्या करूँ। अरे भाई, रुपया-पैसा है तो ज़मीन-जायदाद खरीद लो, मंदिर बनवा दो, धर्मशाला बनवा दो, कुछ धरम के नाम पर खर्च करो। यह क्या कि सारा पैसा बस नाच-गाने में फूँक दिया जाय।” फिर स्वर को धीमा करके बोले, “और भाई! शाम को, आठ बजे के बाद तो वह सदा शराब के नशे में रहता है। ऐसा दुराचारी तो कहीं देखा नहीं। उसकी तो छाया भी छूना पाप है। धरम-करम से दूर सदा पाप में डूबा रहता है।”
पंडित जी ने जीवन की ओर देखा, फिर बोले, “न भाई ऐसी बात जीवन भैया के सामने न कहो। जीवन भैया की शाम तो प्रायः वहीं कटती है और कौन जाने घूँट‑दो-घूँट चढ़ा भी जाते हों तो कुछ आश्चर्य नहीं। संगति का असर तो पड़ता ही है!”
बात अधूरी ही रह गयी। इसी समय फटे चीथड़ों में लिपटी हुई एक स्त्री; अत्यंत दुर्बल; किसी प्रकार अपने तन को ढँके, एक बीमार बच्चे को कंधे से लगाये, वहाँ आ पहुँची। बच्चे को वहीं सुला कर, वह दोनों हाथ जोड़ कर, धरती पर माथा टेककर बोली, “पंडित जी, गोड़ लई परी। ताला खोलवाय देई। बेटउना दिकि्कयान है। हिया परदेश मा हम कहाँ जाई। काल्ह परौं तक कोठरिया के केरावा जरूर दे देब, आज कतहूँ नहीं पायेन (पंडित पैरों पड़ती हूँ। ताला खुलवा दीजिये। लड़का बहुत ज़्यादा बीमार है, परदेश में कहाँ जाऊँ। कल परसों तक किराया जरूर दूँगी, आज कहीं नहीं, मिला।)
पंडितजी उसे झिड़कते हुए बोले, “जब तक किराया नहीं लायेगी, ताला नही खुलेगा। आज-कल करते-करते पंद्रह दिन तो हो गये। जा, निकल, नहीं तो ठोकर मार कर निकलवा दूँगा।”
स्त्री फिर गिड़गिड़ायी, “बेटउना जड़ाय के मर जाई मालिक, जब ओढ़ै -बिछावै के बितरै बंदहोइगा है, दया करी मालिक, जानौ आपै के जिआए जियत लाग हम (लड़का ठंड के मारे मर जायगा। मालिक, ओढ़ने-बिछाने का कपड़ा सब भीतर बंद है। जैसे आपके ही जिलाने से जीते हैं, दया करें मालिक।)
पंडित जी ने उसे एक जोर की झिड़की दी, बोले, “जा, अभी निकल जा। तेरा और तेरे बच्चे का मैंने ठेका नहीं लिया है, मरे चाहे जिये। जब तक किराया नहीं लाती कम्पाउंड के भीतर पैर मत रखना।”
स्त्री रोती हुई अपने बीमार बच्चे को उठाकर बाहर चली गयी। न जाने क्या सोचकर जीवन भी उसी स्त्री के पीछे उठकर चला गया। शायद एक गरीबनी के प्रति इतनी कठोरता उस से सही नहीं गयी।
जीवन के जाते ही पंडितजी किशन और डॉक्टर साहब की तरफ मुखातिब होकर बोले, “बदमाश है साली। जब तक इनके साथ इस तरह से पेश न आओ किराया देते ही नहीं। यह नहीं कि इनके पास है नहीं, है पर देने की नियत नहीं है। रोज़ चाय पीती है। दूध-शक्कर के लिए पैसे आ जाते हैं पर किराये के लिए सदा यही रोना रहता है।”
किशन के अन्दर जैसे कुछ दु:ख-सा रहा था। वह कुछ बोला नहीं।
डॉक्टर साहब ‘हाँ रीवाँ वाले बदमाश होते ही हैं’, कहकर चुप रह गये। वे भी मकान मालिक थे। किराया वसूली में उन्हें भी अड़चन आती थी और प्रायः यही हो के रहता था। जब मज़दूर अपना ताला बंद करके मज़दूरी करने जाते तब उन गरीब मज़दूरों के कमज़ोर तालों पर इन मकान मालिकों के मज़बूत ताले पड़ जाते। और जब तक वह मज़दूर, फिर वह स्त्री हो चाहे पुरुष, किराये की रकम न ला के दे दे, मकान मालिक का ताला नहीं खुलता था। फिर वह रकम चाहे वह चोरी करके लावे चाहे अपने को बेच कर। यदि किसी प्रकार भी किराये की रकम नहीं जुटा पाता था तो चाहे बरसात हो चाहे सर्दी, उस गरीब को आसमान की छाया के नीचे ही रहना पड़ता था।
किशन और डॉक्टर साहब उठ कर जाने को ही थे कि एक और दुबला-पतला बूढ़ा व्यक्ति तिलक लगाये लाठी के सहारे आकर खड़ा हो गया। डॉक्टर साहब और किशन के सामने कहने में कुछ संकोच का अनुभव करते हुए भी न जाने क्या सोचकर बोला, “मालिक, आज बड़ी आफत में पड़ गया हूँ। दस रुपयों की बहुत ज़रूरत है बहू को बाल-बच्चा हुआ था। बुखार आ गया था। अब हवा लग गयी है तो वह अर्रबर्र बकती है, बहुत गाफिल है। मेम आयी थी देखने, दस रुपये, की दवा लिख गयी है। आज का काम चला दो मालिक, आप ही का भरोसा है।”
पंडितजी ने बूढ़े, की ओर घूर कर देखा, बोले, “कोई जेवर लाये हो दीनू पंडित, या वैसे ही रुपया लेने आये हो? अभी तो पहले के रुपये ही पड़े हैं। एक धेला ब्याज तक नहीं मिला है।” दीनू सिटपिटा-सा गया, बोला, “जेवर-एवर हम गरीबों के पास कहाँ हैं मालिक। आप सहारा न देंगे तो वह मर जायेगी। आप ही उसे जिलाइये। ज़िंदगी भर आपकी ग़ुलामी करूँगा, मालिक!”
पंडितजी झिड़कते हुए बोले, “जेवर नहीं था तो फिर क्यों हाथ झुलाते हुए चले आये। जाओ रास्ता नापो और यह सुन लो, पिछला रुपया मय ब्याज के सात दिन के अंदर नहीं चुका दिया तो अदालत के जरिये वसूल करूँगा, समझे।”
बूढ़ा दीनू हताश होकर चला। पंडितजी खीज कर बोले, “सुबह से शाम तक यह साले रुपया ही माँगने आते हैं। लौटाने की बखत जान पर आती है।”
किशन और डॉक्टर साहब नमस्ते करके चले गये। उनके मन में क्या था कौन जाने।
इस घटना के कई दिन बाद पंडितजी खेत पर जा रहे थे। रास्ते में मिल गये जीवन और किशन। पंडितजी ने पूछा, “कहीं गये थे क्या जीवन भैया? दिखे नहीं इधर कई दिनों से। किशन तुम भी नहीं आये। रामायण भागवत रोज शाम को हुआ करती है। तुम लोगों के बिना सूना-सूना लगा करता है भाई! आ जाया करो। धर्म की वार्ता से इतनी दूर क्यों रहते हो। असर पड़ने लगा क्या पड़ोसी का?”
किशन चुप रहा, पर जीवन बोल उठा, “पंडितजी, रामायण-भागवत और पूजा-पाठ से फ़ायदा ही क्या अगर हम आदमी को आदमी न समझ सके। मैं तो रामायण‑भागवत का पाठ करता नहीं, पर आदमी को आदमी समझता हूँ। भगवान मंदिरों में नहीं हम आप और गरीबों में हैं। पर किराये के लिए उस दिन जैसा जो कुछ आपने उस गरीब स्त्री के साथ किया वह उचित न था।”
पंडितजी हँस पड़े, बोले, “जीवन, यही तुम भूल करते हो। अगर मैं कहूँ कि उस घटना के घंटे भर बाद ही उस स्त्री ने किराये के रुपये लाकर दे दिये, तब तो तुम विश्वास करोगे न, कि वह झूठ बोलती थी और उसके साथ वही बर्ताव होना चाहिए था जो मैंने किया था।”
किशन बोला, “वह स्त्री और दीनू पंडित आपके रुपये दे गया, क्यों?”
पंडितजी सगर्व बोले, “दे के कैसे न जाते। मैंने अदालत की जो धमकी दे दी थी। यह सब साले इसी के लायक हैं।”
जीवन बोला, “पर पंडितजी, इन दोनों आफत के मारे गरीबों को उसी दुराचारी दयाशंकर से ही मैंने, रुपये दिलवा दिये थे और तब कहीं वह कष्ट से छुटकारा पा सके। नहीं तो अब तक धन्यो के बच्चे का और दीनू की बहू का न जाने क्या हाल हुआ होता। शायद दीनू तो अदालत के चक्कर काटता होता और धन्यो बच्चे, को दफना चुकी होती। परंतु एक दुराचारी ने उन्हें उबार लिया। मेरी राय में तो आप सरीखे सदाचारियों से यह दुराचारी कहीं अच्छा।”
समाप्त
