कहानी: आँखों देखी घटना – गोपाल राम गहमरी

आँखों देखी घटना - गोपाल राम गहमरी

1

बात सन् 1893की है, जब मैं बंबई से लौटकर मंडला में पहले-पहल पहुँचा था। वहाँ मेरे उपकारी मित्र पंडित बालमुकुंद पुरोहित तहसीलदार थे। उन्हीं की कृपा से मैं मंडला गया था।

मंडला नर्मदा नदी के बाएँ किनारे बसा है। दाहिने किनारे ठीक उसी के सामने महाराजपुर गाँव है। वहाँ के माननीय जमींदार राय मुन्नालाल बहादुर एक सुयशवान् परोपकारी वैश्य थे। उनके उत्तराधिकारी बाबू जगनाथ प्रसाद चौधरी एक हिंदी प्रेमी युवक ने उपर्युक्त तहसीलदार साहब के द्वारा मुझे बुलाया था। मैं जब वहाँ पहुँचा, तब चौधरी साहब ने मुझे बांग्ला पढ़ाने का काम सौंपा। चौधरी साहब की रुचि बांग्ला पढ़कर हिंदी साहित्य में बांग्ला की पुस्तकें अनुवाद करने और हिंदी सेवा में समय बिताने की थी। चौधरी साहब को मैंने बांग्ला भाषा की शिक्षा दी और उन्होंने मेरे वहीं रहते ही बांग्ला से दो पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करके छपवाया। एक ‘दीवान गंगा गोविंद सिंह’, दूसरी पुस्तक ‘महाराजा नंद कुमार को फाँसी’ थी।

उन दिनों मैं सवेरे नर्मदा स्नान किया करता था। नहाते समय मैंने वहाँ दो युवतियों की बातें सुनीं। एक थी लाली नाम की मल्लाहिन अपनी सखी निरखी के साथ। दूसरी थी एक त्रिशूल धारिणी कषायवसना, नाम इसका मालूम नहीं था।

लाली स्नान करते समय अपनी सखी निरखी से कहने लगी, “अरी विन्ना! ऐसे साधू तो हमने कभी नहीं देखे। बड़ो देवता आए, ओको रूप देखते सोई जीव जुडाय जात है। ऐसो सुघर रूप विधाता ने मानो अपने हाथ से सँवारे हैं ओको तो। न जाने कब से संन्यास लए हैं ओने। ओकी उमिरि संन्यासी बनवे की ना आय।” विन्ना लाली की यह बातें निरखी ध्यान से सुन रही थी। लेकिन उसके कुछ कहने से पहले ही पास ही घाट पर त्रिशूल गाड़कर स्नान करती हुई साधुनी ने कहा, “हाँ बहन! तुम्हारी रूप तो विधाता के नौकर-चाकर के हाथ की कारीगरी आय काहे।”

लाली रोज उसी घाट पर नहाने आती थी। मैं भी उसी घाट पर रोज स्नान करता था। वह अवधूतिन पहले ही दिन वहाँ दीख पड़ी थी। उसी दिन लाली से अवधूतिन का बहुत मेल-जोल हो गया।

वह संन्यासिनी त्रिशूलधारिणी उस अवधूतिन मंडली के साथ आयी थी, जो नर्मदा को परिक्रमा करने अमरकंटक से चली थी। लेकिन उस त्रिशूल वाले का मन उन माताओं से नहीं मिलता था। अकेले माँगकर खाना और अलग उस मंडली के पास ही कम्बल डालकर रात काट डालना उसकी दिनचर्या थी। लेकिन महराजपुर पहुँचने पर जब उस मंडली की संन्यासिनों को मालूम हो गया कि चौधरी साहब के यहाँ से परिक्रमा करने वाले संतों को रोज भोजन मिलता है, तब उसने भी लम्बी तान दी। माँग लाने की चिंता से वहाँ उसको रिहाई मिल गयी।

स्त्री जाति के लिए लिखा है कि सदा गृहस्थी के काम में लगे रहने में ही कल्याण है, नहीं तो बिना काम के जब चार-पाँच बैठ जाती हैं, वहाँ चारों ओर का चौबाव चलने लगता है कि समालोचक भी मात खाते हैं। उनमें ऐसा बत वढ़ाव भी हो जाता है कि झोंटउल की भी नौबत पहुँच जाता है।

हम अपनी माताओं, बहनों और बेटियों से वहाँ इन पंक्तियों के लिए क्षमा माँगते हैं। हमारे कहने का यह अभिप्राय हरगिज नहीं है कि मर्दों में यह लत नहीं है और वे लोग इस तरह चार संगी बैठ जाने पर चर्चा-आलोचना नहीं करते।

बात इतनी है कि बेकाम समय बितानेवाली रमणियों में यह गलचौर बहुत बड़ा रहता है। मर्दों में यह गप्प हाँकने वाले बहादुरों का जब चौआ-छक्का बैठ जाता है, तब वह लंतरानिया ली जाती हैं कि आकाश-पाताल के कुलाबे खूब मिलाए जाते हैं। लेकिन यह ठलुए ऊबकर झट अपना रास्ता नापने लगते हैं और देवियों को देखा है कि ऐसी ठल्ली रहने वालियों का नित्य का यही रोजगार हो जाता है और जब उनकी मंडली बैठ जाती है, तब उनका निठल्लपुराण बड़ा विकट, बड़ा स्थायी और बड़ा प्रभावशाली हो जाता है। घर-घर की आलोचना का अध्याय जब चलता है, तब परनिंदा का चस्का जिन्हें लगा हुआ है, उनकी लंतरानियों के मारे भले लोगों में त्राहि-त्राहि होने लगती है।

यह लाली उसी मंडली की एक थी। उसने जो नहाती बेर पुरवा के साधु की सराहना की तो साधुनी ने बड़े ध्यान से सब सुना और बड़े चाव से साधु का स्थान, वहाँ जाने का रास्ता और रंग-ढंग तथा हुलिया भी पूछ ली।


2

दूसरे दिन भिनसारे ही धूई के सामने पद्मासन लगाए हुए पुरवा गाँव के साधु के पीछे वह अवधूतिन शांत भाव से जा खड़ी हुई।

सवेरे का समय था। वहाँ और कोई नहीं था। साधु स्नान करके विभूति लगाए अकेले बैठे थे। अवधूतिन जब पीछे से चलकर उनके सामने हुई, तब उनका चेहरा देखते ही बोली, “काहे देवता! ई आँसू काहे बह रहे हैं तुम्हारे!”

बाबा ने चारों ओर चौकन्ना होकर देखा और हाथ के इशारे से संन्यासिनी को सामने बिठाया।

जब वह बैठ गयी तब वे धीरे से बोले, “आँसू नहीं धूई का धुआँ लगा है, देवी जी!”

संन्यासिनी बोली, “ना,ना! धुआँ तो इस घड़ी हुई नहीं देवता, आपको कुछ मन की वेदना है! सच कहिए, क्या बात है?”

बाबा को अब इतनी करुणा उमड़ी कि रहा नहीं गया। बोले, “हाँ बात सही है। यह आँसू अब मेरी जिंदगी में सूखने वाले नहीं हैं। जाने दो, तुमने देख लिया तो बचा! किसी से कहना नहीं। मैं तो संन्यासी हूँ। तुम भी गेरुआधारिणी हो। मेरा दोष छिपा डालना।”

नए अपरिचित साधु की इस साफ बात पर साधुनी कुछ देर तक चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “मैं किसी से नहीं कहूँगी देवता, लेकिन मेरी विनती यही है कि इस आँसू का कारण आप बतला दें। मैं चुपचाप चली जाऊँगी।”

साधु ने पहले बहुत टाला, लेकिन जब लगा यह तो छोड़ने वाली देवी नहीं है। सुने नहीं मानेगी, तब बोले, “मेरी कथा लम्बी और दुःख भरी है। तुम सुनकर क्या करोगी। दुःख की बातें सुनकर दुःख ही होगा।”

“ना-ना! दुःख कह देने से हल्का हो जाता है, इसमें दुःख क्यों होगा भला?” अब साधु कहने लगे।

मैं काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। घर में माँ और स्त्री यही तीन आदमियों का परिवार था। लेकिन माता का मिजाज बड़ा चिड़चिड़ा था। मेरी स्त्री को लड़का नहीं हुआ, यही उसका अपराध था। इसी कारण सब गृहकाज सुंदर रूप में करके भी उसको सास की सराहना कभी नसीब नहीं हुई। कभी कुछ भूल हो जाए तो माताजी की मार से उसकी पीठ फूल जाती थी। यह सब सहते हुए वह लक्ष्मी सास के सामने होकर कभी जवाब नहीं देती थी। एक दिन माँ ने उस पर और दरनापा चलाया। मैं भोजन करने बैठा था। माताजी पास आकर बैठ गयीं। बहुत दिनों से परोसकर सामने बैठ के मुझे खिलाना माताजी ने छोड़ दिया था। आज बहुत दिनों पर खाते समय उनका पास बैठना देख बड़ा आनंद आया।

माँ बोली, “खावो बेटा! हमारे आने से हाथ क्यों खींच लिया। हम हट जाएँ?”

मैंने कहा, “ना माई! न जाने आज भूख काहे नहीं लगी है।”

माँ– “तरकारी अच्छी नहीं बनी है का रे बंझिया, ला बचवा को चटनी दे। अरे कटहर का आम का अंचार मरतवान में से निकाल ला। तोको केतना कोई सिखावे, अपनी अकल से कुछ नहीं करती।”

माता ने मेरा नाम टुअरा और मेरी स्त्री का नाम बंझिया या बंझेलवा रखा था।

मेरी स्त्री अचार-चटनी लाने गयी तब माँ ने कहा, “देख बेटा! अब तू मेरी बात मान ले। यह पतोहू बाँझ निकल आयी। अब मैं मरे के किनारे पहुँच गयी हूँ। कब चल दूँ, इसका कुछ ठिकाना नहीं है बेटा! लेकिन पोते का मुँह देखे बिना मर जाऊँगी तो इसका दुःख परलोक में पाऊँगी।”

वह बोली, “तुम अपना एक ब्याह और करो।”

मैं समझ गया कि माँ से जो मेरी बातें हुईं, इसने सब समझ लिया है।

मैंने कहा, “तुम ऐसी बातें क्यों करती हो?”

वह बोली, “स्त्री का कर्तव्य है कि स्वामी जिससे सुखी रहे, जिससे स्वामी का वंश चले, इसके वास्ते अपना सब त्याग दे। मैं अभागिन हूँ। भगवान् ने मुझे बाँझ कर दिया तो तुम्हारा वंश ही डुबा दूँ। यह मेरा काम नहीं है।”

मैंने कहा, “अच्छा अब अपनी बात कह चुकी तो मेरी भी अब सुन लो। पुरुष का कर्तव्य है कि स्त्री को सुखी करे। स्त्री पुरुष की विलास की सामग्री नहीं है। वह देवी है, उसे प्रसन्न रखना पुरुष का कर्तव्य है। जहाँ स्त्री प्रसन्न नहीं, वह घर नरक है।”

मेरी बात बीच में रोककर बोली, “बस तो मैं तभी प्रसन्न होऊँगी जब तुम एक ब्याह और कर लोगे।”

अब मैंने सब बात और कहा-सुनी बंद कर दी। माँ से कह दिया। तुम्हारी बात मानता हूँ। मैं ब्याह कर लूँगा। अब मेरा ब्याह उस मोहल्ले के चक्रधर की लड़की सूगा से हो गया।


3

ब्याह के बाद मैं काशी चला गया। सूगा की चिट्ठी बराबर आती रही। हर चिट्ठी में सूगा अपनी सौत की शिकायत लिखने लगी। मैं बराबर समझता गया कि सौत का सौत पर जो मान होता है उसी का यह सब प्रसाद है। एक दिन जो सूगा की चिट्ठी आई, उसको पढ़कर तो मुझे काठ मार गया। उसने लिखा, ‘माँजी ने कई दिन हुए, उनको घर से खदेड़ दिया है।’ उस दिन शनिवार था। झट टिकट लेकर घर पहुँचा। रात के समय भीतर जाते ही नयी दुलहन मिली। मैंने तुरंत पूछा, “माँ ने किसको खदेड़ दिया है।”

फिर सूगा कुछ कहने चली थी कि मैंने उसे डाँटा। तब चुप रही। फिर से हाथ छुड़ाकर गम्भीर हो गया। कहा, “बिछोना ठीक है?”


4

जब मेरी नींद खुली। कान पर जनेऊ चढ़ाकर लघुशंका करने गया। लौटकर देखा तो घड़ी में एक बजा है। बिछोने पर सूगा नहीं है। मैं दबे पाँव बाहर गया। दरवाजे के सामने बढ़ के नीचे दो आदमियों को लिपटा देखकर पास गया। देखा तो वही पिछवाड़े वाला महादेव सूगा को आलिंगन करके चुम्बन कर रहा था। मैं नहीं कह सकता, मुझे कहाँ का धीरज आ गया कि आँखों के सामने वह लीला देखकर मैं सह गया।

महादेव तो मुझे देखकर भाग गया और सूगा चिल्लाकर गुहार करने लगी। मैंने पास जाकर कहा, “तुम डरो मत सूगा। मैं तुमको कुछ नहीं कहूँगा। लेकिन यह तो बताओ कि जिसने तुम्हारे वास्ते अपना सब कुछ छोड़ दिया, उसको तुमने इतना कलंक क्यों लगाया?”

सूगा ने रोकर कहा, “मैंने बड़ा पाप किया है। तुम्हारे आगे मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ, मुझे क्षमा करो।”

मैंने कहा, “मैं तो तुमको क्षमा देता हूँ सूगा। लेकिन जिस देवी के साथ तूने ऐसा विश्वासघात किया है, वह तुझे माफ करेगी कि नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन मैं भी तुम्हीं पर सब छोड़कर जाता हूँ, उस लक्ष्मी का दर्शन पाऊँगा तो क्षमा माँगूँगा। अगर नहीं मिलेगी तो घर का मुँह नहीं देखूँगा।”

यही कहकर मैं चला गया। आज बारह वर्ष हो गए। उस लक्ष्मी का दर्शन नहीं मिला। कल रात को उस लक्ष्मी को मैंने सपने में देखा है। आज सवेरे से ही उसकी याद आ रही है। आँसू नहीं रुकते। नहीं जानता, वह मेरी आशा जगत् में है या नहीं।

यही कहकर संन्यासी ने उस अवधूतिन की ओर देखा। उसके भी आँसू बहकर गाल से टपक रहे थे।

उसने अधीर होकर पूछा, “आप क्यों करुणा करती हो देवी?”

अब वह संन्यासी के चरणों में पड़कर बोली, “मैं वह तुम्हारी दुःखिनी हूँ देवता। मैं ही हूँ हे नाथ? तुम्हारी वह आशा।”

इतना सुनते ही साधु ने ‘अरे तुम हो हमारी लक्ष्मी आशा, तुम्हीं हो’ कहते हुए उसको अपनी ओर खींच लिया। फिर उनका दर्शन वहाँ किसी को नहीं मिला।

समाप्त


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