संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 168 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
केसरीगढ़ कभी एक रियासत हुआ करता था पर अब एक जिला भर था।
विशाल सिंह केसरी गढ़ के राज परिवार से आते थे। आज भी केसरी गढ़ वाले उन्हें महाराज मानते थे। उनका पूरे केसरीगढ़ में काफी मान सम्मान था।
केसरीगढ़ में एक संग्रहालय था जहाँ केसरी गढ़ के राजपरिवार की चीजें रहती थीं। इस संग्रहालय में एक के बाद एक तीन चोरियाँ जब हुई और चोर का पता लगाने में पुलिस असफल रही तो जासूसी विभाग के जासूस जगन को चोरों का पता लगाने को भेजा गया।
आखिर संग्रहालय में कौन चोरी कर रहा था?
क्या जगन चोर का पता लगा पाया?
इसके लिए उसे कैसे कैसे पापड़ बेलने पड़े?
किरदार
जगन – खुफिया जासूस
बंदूक सिंह – एक युवक
कुंवर बलजीत सिंह – पुलिस सुप्रीटेंडेंट
लतिका – बंदूक सिंह की प्रेमी
रामदेव – जौहरी
हुकुम सिंह – एक तस्कर
हिरणी – हुकुम सिंह की पत्नी
बाबू खां – अफीम का व्यापारी
विशाल सिंह – केसरी गढ़ के महाराज
धनलक्ष्मी – विशाल सिंह की पत्नी
राजलक्ष्मी – विशाल सिंह की बेटी
चैनसिंह – मेहमानखाने का दरोगा
मेरे विचार
‘केसरीगढ़ की काली रात’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का उपन्यास है जिसे नीलम जासूस कार्यालय ने प्रकाशित किया है। उपन्यास के मुख्य पृष्ठ में इसे बंदूक सिंह सीरीज का पहला उपन्यास कहा गया है। यह ठीक भी है क्योंकि यह वह उपन्यास है जिसमें बंदूक सिंह का पहली बार पाठक से परिचय होता है। पर अगर मेरा बस होता तो मैं इस सीरीज के नाम को किरदारों के नाम के बजाय विभाग के नाम पर रखता। यानी सीरीज का नाम जासूसी विभाग सीरीज होता जिसमें विभाग से जुड़े सभी मामले आते। ऐसा इसलिए भी क्योंकि प्रस्तुत उपन्यास में बंदूक सिंह जरूर पहली बार आया है लेकिन ये मामला जासूसी विभाग का ही रहता है। उसी के चलते जगन भी केसरीगढ़ पहुँचा रहता है। यहाँ ये भी साफ करना जरूरी है कि इस कहानी में जगन ही नायक है। बंदूक सिंह साथ में जरूर है लेकिन वो सेकंड लीड ही रहता है।
कहानी की शुरुआत जगन की केसरीगढ़ आने से होती है। आते ही उसका टकराव बंदूक सिंह से होता है। ये दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं और बंदूक सिंह कुछ अक्खड़ स्वभाव का व्यक्ति है। उपन्यास के शुरू होते ही आपको ये तो पता चल जाता है कि शालीनता की मूर्ति जगन जितना मीठा बोलता है वो उतनी अच्छी तरह से मुसीबत से जूझ भी सकता है। वहीं इसका भान भी हो जाता है कि बंदूक सिंह के अक्खड़ स्वभाव के वजह से जिन दृश्यों में वह रहेगा वो दृश्य रोचकता के मामले में ऊपर ही रहेंगे।
जगन के केसरीगढ के आने का कारण महाराज विशाल सिंह के संग्रहालय में होती चोरियाँ हैं। इन चोरियों में कई महंगी कलाकृतियाँ अभी तक चोरी हो गई हैं। जब पुलिस से कुछ नहीं बन पाता है तो विशाल सिंह अपने दोस्त राजेश से इस मामले पर विचार विमर्श करतें हैं जो कि जासूसी विभाग को इसमें लगा देते हैं।
जगन किस तरह से मामले की जाँच करता है। इस दौरान क्या क्या तिकड़म वो भिड़ाता है। बंदूक सिंह केसरीगढ़ में क्या कर रहा है। वह कौन है और इस मामले में कैसे फिट होता है? आखिर चोर कौन है और इसका पता कैसे लगता है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर ही कथानक बनता है।
जगन के काम करने लहजा रोचक है। वह कोयले की कोठरी में मौजूद रहकर खुद काला होने से नहीं कतराता है। प्यार मोहब्बत से बात करके अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश करता है। ऐसा नहीं है कि वह खुर्राट नहीं है। मौका लगने पर वह खुर्राट भी बन जाता है।
अपनी जाँच के चलते वह केसरी गढ़ के अपराध की दुनिया के बड़े बड़े लोगों के बीच उठता बैठता है और उनसे साम दाम दण्ड भेद के माध्यम से बात पता लगाने की कोशिश करता है। इस आपराधिक दुनिया के लोग भी जानते हैं कि पानी में रहकर मगर से बैर नहीं करना चाहिए और इसलिये वो जगन को भी अपने साथ मिलाने की तिकड़में लगाते हैं। उपन्यास में एक किरदार हिरनी का है जो कि रोचक बन पड़ा है। उसके और जगन के बीच का समीकरण मुझे पसंद आया।
उपन्यास में जहाँ तहकीकात है वहीं रोमांस का तड़का भी मौजूद है। दो जोड़े इधर मौजूद हैं जो कि अपने अपने स्वार्थवश ही नजदीक आते हैं। रोचक बात ये है कि दोनों ही जोड़ों के बीच का समीकरण जदा जुदा है और रोमांस का अलग अलग फ्लेवर दोनों के बीच देखने को मिलता है।
उपन्यास का नाम केसरीगढ़ की काली रात है। नाम से ऐसा लगता है कि जैसे केसरीगढ़ में किसी रात को कुछ बुरी घटना हुई होगी और इसलिए उसे काली रात कहा जा रहा है पर ऐसा नहीं है। केसरीगढ़ में हर वर्ष एक रात को मेला लगता है और जिस रात को मेला लगता है उसे केसरीगढ़ की काली रात कहा जाता है और मेले को केसरीगढ़ की काली रात का मेला कहते हैं। यह क्यों कहते हैं ये तो आप उपन्यास पढ़कर ही जानिए। बहरहाल चूँकि उपन्यास का क्लाइमैक्स इसी रात को घटित होता है तो कह सकते हैं कि शीर्षक कथानक में सटीक बैठता है। हाँ, उपन्यास पढ़ते हुए ये जरूर लगा कि इस रात में होने वाले मेले में नायकों और खलनायकों के बीच कुछ दाँव पेच अधिक होते तो अच्छा रहता। उससे उपन्यास का जितना हिस्सा ये रात बनी है उससे थोड़ा अधिक हिस्सा बनती और कथानक पर शीर्षक और अच्छे से फिट हो जाता।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो एक रहस्यकथा से मेरी उम्मीद यह रहती है कि नायक की मेहनत से रहस्य उजागर हो। साथ ही अच्छी रहस्यकथा वो होती है जो कि पाठक के सामने सब कुछ पेश कर देती है और फिर बाजिगिरी से रहस्य उजागर करती है और पाठक ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि उससे ये क्लू मिस कैसे हो गया।
इधर ऐसा नहीं होता है। इधर पाठक से चीजें छुपाई जाती हैं और फिर एन मौके पर उन्हें उजागर किया जाता है। साथ ही उपन्यास का एक महत्वपूर्ण रहस्य अपराधियों द्वारा खुद के पाँव पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा रहता है। अगर वो ये हरकत नहीं करते तो शायद नायकों को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती। मुझे लगता है कि लेखक को ये अतिरिक्त मेहनत नायकों से करवानी चाहिए थी क्योंकि इससे उपन्यास और अधिक रोचक बन जाता। अभी चूँकि अपराधी खुद चलकर नायकों के पास आते लगते हैं तो रोचकता थोड़ा कम हो गई है।
अंत में यही कहूँगा कि मुझे केसरीगढ़ की काली रात ठीक ठाक उपन्यास लगा। रहस्य का तत्व और अधिक मजबूत होता तो ये बेहतर उपन्यास बन सकता था। बंदूक सिंह के अक्खड़पन, जगन की समझदारी और चतुराई और जगन और हिरनी के बीच के समीकरण के लिए इसे पढ़ा जा सकता है।
पुस्तक लिंक: अमेज़न
बन्दूकसिंह का पहला उपन्यास. बहुत पहले पढ़ा था. शायद जगन-बंदूकसिंह पहली बार मिलते हैं, तब जगन कार चला था. ओवरटेक करने या हॉर्न बजाने की बात पर दोनों के बीच बहस हो जाती है. जगन शायद बंदूकसिंह से ऐसा कुछ कहता है-भाई एकदम तोप का गोला बने हुए हो.
जगन-बंदूकसिंह सीरिज हमेशा से मेरी फेवरेट रही है. 'ऑपरेशन कालभैरव', 'मौत का बिजनेस', 'किले में भटकती आत्मा' बहुत शानदार उपन्यास हैं. 'महाकाल वन की डकैत' में जगन-बंदूकसिंह के साथ राजेश भी हैं.
सही याद है आपको..बाद में तो जहाँ जगन रहता है उधर बंदूक सिंह और कई बार जगत का रहना भी लाजमी होता है… बदला, रहस्य और हत्यारे की प्रेमिका मैंने पढ़ी है जिसमें यह सभी किरदार मौजूद रहते हैं