संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 61 | अनुवाद: देवलीना
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कहानी:
सुशांत सान्याल कभी बांग्ला साहित्य का प्रसिद्ध नाम हुआ करता था। लोग उसके लेखन और उसके उच्च विचारों के कसीदे पढ़ते नहीं थकते थे। उन्हें लगता था कि वह साहित्य नभ में वर्षों तक ध्रुव तारे के समान टिमटिमाता रहेगा।
लेकिन फिर अचानक सुशांत सान्याल ने लिखना छोड़ दिया। और लोग धीरे धीरे उसे भूलने लगे।
कथावाचक सुशांत सान्याल का बचपन का दोस्त था जिसने उसके जीवन के सभी उतार चढ़ावों को देखा था। और अब कथावाचक सुशांत सान्याल की कहानी बताना चाहता है।
मेरे विचार:
‘आज कल और परसों’ बिमल मित्र की लिखी एक उपन्यासिका है। यह उपन्यासिका उनकी किताब चतुरंग में संकलित की गयी पहली रचना है। ‘आज कल और परसों’ के अलावा इस संग्रह में ‘वे दोनों और वह’, ‘गवाह नम्बर तीन’ और ‘काजल’ भी संकलित की गयी है। ‘गवाह नम्बर तीन’ मैं पहले ही पढ़ चुका हूँ । बाकी की रचनाओं को मैं अलग अलग पोस्ट में लिखूँगा।
‘आज कल और परसों’ की अनुवादिका
देवलीना हैं और यह अनुवाद अच्छा बन पड़ा है। कहीं भी इसका अहसास नहीं होता है आप एक अनुवाद पढ़ रहे हैं।
उपन्यासिका की बात करूँ तो ‘आज कल और परसों’ सुशांत कुमार सानियाल की कहानी है जिसे उसका बचपन का दोस्त सुना रहा है। सुशांत कभी बांग्ला साहित्य में एक बड़ा नाम हुआ करता था। पाठकों को उससे कई उम्मीदें थी लेकिन फिर उसने अचानक लिखना छोड़ दिया और फिर धीरे धीरे लोग उसे भूल गये। कथावाचक इस बात से कहानी की शुरुआत करता है और फिर उसके बचपन से लेकर लिखना छोड़ने तक की घटना बताता चलता है। सुशांत सान्याल बचपन में कैसा था? और जैसे जैसे वह बढ़ा हुआ और उसका नाम होने लगा तो उसमें क्या बदलाव आये यही उपन्यासिका दर्शाती है।
कई बार हम कलाकारों के चरित्र का अंदाजा उनकी कला से लगाने लगते हैं। हमें लगने लगता है एक अच्छा कलाकार एक अच्छा साफ़ दिल का इनसान भी होगा लेकिन अक्सर यह बात गलत साबित होती है। इधर मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि हर अच्छा कलाकार बुरा इनसान होता है लेकिन यह भी तय है कि अच्छा कलाकार होने के लिए अच्छा इनसान होने की जरूरत नहीं है। यह तो नैसर्गिक गुण है अच्छाई बुराई देखकर नहीं आता है। इसलिए जब हम किसी कलाकार से मिलते हैं तो अक्सर उसे अपनी कला से थोड़ा कमतर ही पाते हैं। विरले ही ऐसे कलाकार होते हैं जो कि कला के बराबर होते हैं।
सुशांत भी ऐसा ही व्यक्ति है। उसके अन्दर हुनर है। वह एक अच्छा साहित्यकार है, अच्छा वक्ता भी है लेकिन वह अच्छा इनसान भी है यह इस कहानी से तो नहीं दिखता है। उसका व्यक्तिगत जीवन उसके सार्वजनिक जीवन से एकदम अलग है। उसके जीवन का एक फलसफा है जिसे उसने अपने बचपन में ही तय कर लिया था जो कि निम्न डायलॉग द्वारा लेखक ने दर्शाया है:
मैंने सुशांत से कहा – “तेरा तो और नाम होगा, लेकिन मुझे भूलना मत।”
सुशांत बोला – “फिजूल बातें मत किया कर। जीवन में बड़ा बनने के लिए सबको भूलना पड़ता है। पीछे का खिंचाव – मोह रहेगा तो आगे कैसे बढूँगा?”
उसने सच्ची बात ही कही थी। बाद में तो उसके मन में किसी के लिए दया नहीं थी। उसने जिस तरह बचपन से ही बड़ा बनने का स्वप्न देखा था, उसी तरह से बड़ा हो जाने के बाद और किसी की बात उसने याद ही नहीं रखी। (पृष्ठ 21)
ऊपर कथावाचक से की गयी बात सुशांत केवल कहने के लिए नहीं कहता है वह इसे जीवन में करके दिखाता है। उसे जिस जिस की जरूरत होती है उसका इस्तेमाल कर सफलता की सीढ़ियाँ चलता चला जाता है। सुशांत की माँ हो, या उसकी पत्नी या पाखी इन सभी के साथ के प्रसंगों द्वारा सुशांत की इस प्रवृत्ति को लेखक ने दर्शाया है।
कई बार जब व्यक्ति सफल हो रहा होता है तो ऐसे कई लोग भी उसके आगे पीछे घूमने लगते हैं जो केवल उसकी सफलता के चलते उसके साथ रहते हैं। उनके मन में उसका हित नहीं होता है। अक्सर ऐसे कई सफल लोग अपनी सफलता के मद में अपने सच्चे हितेषी नहीं पहचान पाते हैं और ऐसे चाटुकारों के साथ रम जाते हैं। वह समझने लगते हैं कि जो हैं वहीं हैं। पर फिर सफलता ऐसी चीज है जो कि एक के पास टिक कर नहीं रहती है और जब सफलता उन्हें छोड़ देती है तो उनके के साथ मधुमक्खी से चिपके ये लोग एकदम से छिटक जाते हैं और व्यक्ति अकेला ही रह जाता है। क्योंकि उसके सच्चे हितेषी भी जीवन में आगे बढ़ चुके होते हैं।
यही इस उपन्यासिका में लेखक ने सुशांत सान्याल के माध्यम से दर्शाया है।
फिर ऐसा भी देखा गया है कि अक्सर एक कलाकार जब प्रसिद्ध होता जाता है तो उनकी कला में फर्क आता जाता है। कईयों की कला की गुणवत्ता कम से कमतर होती जाती है। ऐसा क्यों होता है वह उपन्यासिका के एक प्रसंग में मौजूद एक डायलॉग में देखने को मिलता है जो कि मुझे रोचक लगा। आप भी देखिये:
– काम का भी कोई अंत है क्या? तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और आगे तीन उपन्यास लिखने के लिए रुपया एडवांस ले लिया है। इसके अलावा सभा-समितियों में फँसा रहता हूँ।
-लेकिन तू लिखता कब है ? घर तो कभी मिलता नहीं। लिखने का काम कहाँ करता है?
– यही तो कह रहा हूँ। लिखने के लिए मेरे पास वक्त नहीं है। जब जहाँ, थोड़ा समय निकाल पाता हूँ – लिख लेता हूँ। कभी किसी प्रकाशक की दूकान पर बैठकर या कभी किसी के घर बैठकर लिख लेता हूँ। किसी तरह काम चला रहा हूँ।
-लेकिन इस तरह से तो तेरा लिखना खराब हो जायेगा।
– खराब तो होगा ही। फिलहाल ख्याति ही मेरी दुश्मन है। अगर इतना यश नहीं कमाता तो शायद और अच्छा लिख सकता। पहला उपन्यास एकांत में बैठकर लिखा था इसीलिए वह इतना अच्छा था। (पृष्ठ 40)
उपन्यासिका में ज्यादा किरदार मौजूद नहीं हैं लेकिन पाखी का किरदार भी मुझे रोचक लगा। वह एक ऐसी लड़की है जिसके जीवन में पैसा ही सब कुछ है। वह पैसे के लिए किसी के साथ भी रहने के लिए तैयार हो जाती है। अक्सर हम लोग ऐसी लड़कियों को लेकर अपनी धारणा बना देते हैं। लेकिन उनका भी एक पहलू है और वह पहलू क्या है वह पाखी और कथावाचक के बीच कि उस बातचीत से पता लगता है जिसमें पाखी कथावाचक की अपनी तरफ नफरत देखकर उसके समक्ष अपना पक्ष रखती है।
उपन्यासिका की कमी की बात करूँ तो मुझे इसमें एक ही कमी दिखाई दी है। चूँकि सुशांत की कथा को हम कथावाचक के दृष्टिकोण से देखते हैं तो हमें वह उन्हीं चीजों के विषय में बताता है जिससे वह परिचित था। कथावाचक सुशांत सान्याल के लेखकीय जीवन के काफी हिस्सों में मौजूद नहीं रहता है तो उससे जुड़ा केवल एक-आध ही प्रसंग इधर साझा करता है जिससे पाठकों को उसकी जीवनशैली का केवल अंदाजा लगाना होता है। ऐसे में कई चीजों के विषय में पाठक अँधेरे में रहता है। सुशांत ने लिखना क्यों छोड़ा ये भी वह नहीं बताता है। उसने अपना घर क्यों बेचा इसका भी केवल अंदाजा लगाया जा सकता है। साफ़ साफ कुछ नहीं बताया जाता क्योंकि कथावाचक भी नहीं जानता है। उसके व्यक्तिगत रिश्तों के विषय में भी कुछ नहीं पता चलता है। तो अगर ये चीजे साफ़ होती तो मुझे लगता है उपन्यासिका और बेहतर हो सकती थी। अभी एक तरह का अधूरापन इसमें दिखता है।
अंत में यही कहूँगा कि मुझे यह उपन्यासिका पसंद आई। सुशांत सान्याल जैसे कई कलाकार हैं जिन्होंने सफलता का अर्श भी देखा है और वहाँ पर उनका दिमाग भी फिरा है। इसके बाद उन्होंने असफलता का फर्श भी देखा है जहाँ उन्होंने जीवन अकेलेपन के साथ ही गुजारा है। सभी इन लोगों को देखते हैं लेकिन शायद इनसे सीख नहीं लेते हैं क्योंकि ऐसे मामले अक्सर आते रहते हैं। कहते हैं न सफलता पाना तो आसान होता है लेकिन शायद उसे पचाना नहीं। यही यहाँ देखने को मिलता है।
यह उपन्यासिका एक बार पढ़ी जा सकती है।
पुस्तक के अंश जो मुझे पसंद आये:
अहम् सक्षम को भी नहीं शोभता और अक्षम के लिए तो अहम् एक मजाक ही है। जो कहता है कि अहम् या घमंड यौवन का धर्म है, वह सच नहीं कहता.. यह मैं किसे समझाऊँ? अहम् चाहे यौवन का हो, चाहे सम्मान का, स्वरूप का हो या धन का, प्रतिष्ठा का हो या मान का..इसका असर जीवन-भर ढोना पड़ता है। इतिहास यह बताता है कि अतीत में जो कुछ हुआ है, वही भविष्य में भी होकर रहेगा। व्यतिक्रम यदि किसी चीज का होता है तो वह केवल बाहरी स्वरूप का। जैसे अतीत से लेकर आज तक प्रकृति में कोई भी परिवर्तन नहीं आया, उसी तरह मनुष्य भी कभी नहीं बदला है। (पृष्ठ 17)
कोई कुछ भी नहीं है। जन्म से कोई कुछ नहीं बन जाता। स्वयं के परिश्रम से ही कुछ बनना पड़ता है। शुरू में सभी शून्य रहते हैं, बाद में पूर्ण। (पृष्ठ 18)
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मेरे प्रिय लेखकों में से एक
जी विमल मित्र मुझे भी काफी पसंद आ रहे हैं। उनकी लिखी क्लासिक्स पढ़नी अभी बाकी हैं लेकिन उनका लिखा जितना पढ़ा है उतना पसंद आया है।