हांगकांग में हंगामा सुनील शृंखला का छटवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास प्रथम बार वर्ष 1966 में प्रकाशित हुआ था। यह पहली दफा था जब कि सुनील एक पत्रकार के तौर पर अखबार के लिए नहीं बल्कि सीधे भारत सरकार के लिए काम करता दिखा था। उसका यह काम उसे हांगकांग की जमीन पर ले आया जहाँ कदम कदम पर खतरा उसका इंतजार कर रहा था।
आज एक बुक जर्नल पर हम सुरेन्द्र मोहन पाठक के इसी उपन्यास ‘हांगकांग में हंगामा ‘ का एक छोटा सा मगर रोचक अंश लेकर आए हैं। उम्मीद है यह अंश आपको पसंद आएगा और पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।
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पुस्तक अंश
वे एक टैक्सी लेकर रॉयल होटल जा पहुँचे।
“ड्रिंक!” – होटल की लॉबी में प्रवेश करते हुए गौतम ने पूछा।
“यस!”
गौतम उसे होटल के बार में ले आया।
वे एक अकेले कोने में बैठ गए। ड्रिंक्स सर्व होने जाने के बाद सुनील बोला -”अब शुरू हो जाओ।”
“कहाँ से?”
“चायना क्लब से।”
“सुनील साहब”- गौतम बोला – “यह समझ लीजिये कि आपने मुझे स्वर्ग को बयान करने के लिए कह दिया है। ऐसी रंगीन जगह मैंने ख्वाब में भी नहीं देखी थी। क्या ठाठ हैं! क्या रंगीनियाँ हैं! क्या नहीं होता वहाँ! वहाँ जैसी खूबसूरत लड़कियाँ सारी दुनिया में नहीं होंगी । और वहाँ के फ्लोर शो! अमेरिका और पैरिस के कैब्रे डांस उनके सामने दो कौड़ी की चीज मालूम होते हैं । कोई ख्वाब में भी नहीं सोच सकता कि ऐसी रंगीन जगह एक विदेशी जासूसों का अड्डा है और चायना क्लब की सारी रंगीनियाँ उनकी सरगर्मियों पर पर्दा डालने के लिए हैं। संसार के हर देश में से वहाँ की ए-वन लड़कियाँ भगाकर या फुसलाकर यहाँ लाई जाती हैं जिनका काम…”
“कहाँ बहक रहे हो!”-सुनील उसे टोक कर बोला-”चायना क्लब की रंगीनियाँ ही बयान करते जाओगे या कुछ और भी कहोगे?”
“सॉरी, मैं वाकई बहक गया था।”
“काम क्या किया है तुमने यहाँ?”
“मैं तीन-चार बार चायना क्लब गया हूँ। मेरे पास माचिस की डिबिया के साईज का एक मिनिचिएर कैमरा है। उसकी सहायता से मैंने चायना क्लब के दो-तीन मुख्य लोगों की तस्वीरें खींची हैं। चायना और वहाँ से संबंधित कुछ और लोगों जैसे भी तस्वीरें लेने में मैं सफल हो गया हूँ। वे तस्वीरें…”
“कहाँ है?”- सुनील ने पूछा।
“मेरे कमरे में। तुम यहीं ठहरो मैं अभी लेकर आता हूँ।”
गौतम चला गया।
सुनील ने एक पैग और लगाया। उसने अपनी जेब से लक्की स्ट्राइक का एक सिगरेट निकाला और उसे सुलगा कर गौतम की प्रतीक्षा में लंबे-लंबे कश लेने लगा।
सुनील के दूसरा पैग भी समाप्त कर लिया।
उसने सिगरेट का आखिरी कश लेकर सिगरेट को ऐश ट्रे में डाल दिया।
उसने घड़ी देखी। गौतम को गये हुए लगभग पंद्रह मिनट हो गये थे।
वह चिंतित हो उठा।
अंत में वह उठ कर बारटेंडर के पास पहुँचा।
“मिस्टर गौतम का कमरा नंबर मालूम है?”- उसने इंग्लिश में पूछा।
“कौन मिस्टर गौतम?”
“वही जो अभी थोड़ी देर पहले मेरे साथ ड्रिंक ले रहे थे।”- सुनील ने बताया।
“जी हाँ, जानता हूँ। रूम नंबर पाँच सौ सात।”
सुनील लिफ्ट द्वारा पाँचवी मंजिल पर पहुँच गया। पाँच सौ सात नंबर कमरा कॉरीडोर के सिरे पर था।
सुनील ने द्वारा खटखटाया।
कोई उत्तर नहीं मिला।
उसने दो-तीन बार और द्वार खटखटाया लेकिन जब फिर भी कोई उत्तर नहीं मिला तो उसने द्वारा को जोर का धक्का दिया।
द्वार भड़ाक से खुल गया।
गौतम का मृत शरीर कमरे के फर्श पर पड़ा था। उसके गले के इर्द-गिर्द गहरे लाल रंग की एक लकीर खींची हुई थी। किसी ने रस्सी से उसका गला घोंट दिया था। कमरे की पिछवाड़े की ओर खुलने वाली खिड़की खुली हुई थी और उसके रास्ते पिछली सड़क के शोर की आवाज सुनाई दे रही थी।
सुनील एक-दो कदम खिड़की की ओर बढ़ा और फिर रुक गया। वह फिर द्वार के पास वापिस आ गया।
सुनील ने द्वार भीतर से बंद कर दिया और ताला लगाकर चाबी जेब में रख ली। खुली खिड़की देखकर जो पहला ख्याल उसके मन में उपजा था वह यही था कि हत्यारा हत्या करके खिड़की के रास्ते से बाहर निकल गया है। लेकिन फ़ौरन ही उसे अपनी मूर्खता का भान हो गया था। वह कोई घर नहीं, एक नगर के मध्य में बसा हुआ होटल था और कमरा होटल की पाँचवीं मंजिल पर था। जब तक खुली खिड़की के पास पहुँचकर उसने बाहर झाँका होता तब तक हत्यारा कमरे से बाहर निकल कर उसे गौतम की लाश के साथ भीतर बंद कर गया होता।
हत्यारा निश्चय ही अब भी कमरे में था।
सुनील कमरे के बीच में आ खड़ा हुआ।
उसे अधिक देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
वार्डरोब का द्वारा खुला और वह बाहर निकल आया।
…
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