‘देवता का हार’ लेखक वेद प्रकाश काम्बोज द्वारा लिखा हुआ उपन्यास है। कई दशकों पूर्व प्रकाशित हुए विजय-रघुनाथ शृंखला का यह उपन्यास अब नीलम जासूस कार्यालय द्वारा नवीन साज सज्जा के साथ पुनः प्रकाशित किया गया है। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए इसी पुस्तक ‘देवता का हार’ का एक छोटा सा अंश। उम्मीद है यह अंश आपको पसंद आएगा और पुस्तक खरीदने हेतु आपको प्रेरित करेगा।
कोठी खूबसूरत भी थी और शानदार भी।
परंतु विजय को वह सुनसान सी ही लगी। अभी तक उसे कंपाउंड अथवा बरामदे में कोई आदमी नजर नहीं आया था और फिलहाल नजर आने की संभावना भी नहीं थी।
वह अपनी कार कंपाउंड में ले गया और फिर उसने हॉर्न बजाया। उसका ख्याल था कि शायद हॉर्न की आवाज सुनकर कोई बाहर निकल आयेगा परंतु उसका यह ख्याल गलत प्रमाणित हुआ।
उसने दो तीन बार हॉर्न बजाय परंतु कोई बाहर नहीं निकला और विजय यह सोचने पर विवश हो गया कि यह कैसी अभिनेत्री है जिसके कोई नौकर भी नहीं हैं।
हॉर्न के प्रत्युतर में जब उसे किसी प्रकार का संकेत नहीं मिला तो उसने यही सोच कि शायद वह घर नहीं होगी। इसलिए अपनी कार को मोड़ने लगा। परन्तु अभी एक और विचार उसके मस्तिष्क में उभरा और वह कार से उतर आया।
बरामदे में पहुँच कर उसने एक दरवाजे को चेक किया और उसे अंदर से बंद पाकर उसने अपने हाथ का मामूली सा जोर दूसरे दरवाजे पर दिया।
यह दरवाजा अंदर को खुल गया।
अपने होंठों को सिकोड़ कर विजय ने मामूली सीटी बजाने की आवाज अपने गले से निकाली। फिर उसने दरवाजे को थोड़ा सा धकेला।
अंदर प्रविष्ट होने से पूर्व विजय ने अपनी गर्दन इधर उधर घुमाकर देखा और फिर धीरे से अंदर खिसक कर उसने दरवाजे को अंदर से बंद कर लिया। चिटखनी नहीं लगाई।
दिन का काफी प्रकाश अंदर पहुँच रहा था इसलिए अँधेरे का प्रश्न ही नहीं उठता। विजय को अपना मार्ग बिल्कुल साफ नजर आया।
विजय को अपने दाईं ओर दो छोटी-छोटी कोठरियाँ मिली जिसमें कुछ बेकार सा सामान ही भरा हुआ था। बाईं ओर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं जिन पर चढ़ने का विचार उसने फिलहाल छोड़ दिया।
वह छोटी सी राहदारी समाप्त होने के बाद लगभग पंद्रह गज क्षेत्रफल का एक दालान था जिसमें सामने की ओर तो केवल दीवार ही थी परंतु दाईं और बाईं ओर आमने-सामने एक-एक दरवाजा बना हुआ था जो कि बंद थे।
विजय ने पहले बाईं ओर के दरवाजे को धकेल कर देखा और फिर दाईं ओर के दरवाजे को। दोनों कमरे बिल्कुल खाली थे।
उसने उनके दरवाजे पहले की भाँति बंद किये और फिर सीढ़ियों के द्वारा ऊपर पहुँच गया। सीढ़ियों की समाप्ति पर विजय को फिर एक दालान सा मिला। सीढ़ियों के बिल्कुल सामने दालान के पास उसे एक कमरे का बंद दरवाजा फिर नजर आया।
विजय उसी ओर बढ़ा।
इस समय जो हालत थी उसमें विजय को ऐसा लगा जैसे वह अलिफ़ लैला के किसी तिलिस्म में आ फँसा हो जहाँ अभी किसी ओर से कोई जिन आवाज देगा और उसे दबोच लेगा।
भयंकर सन्नाटे और निर्जनता के कारण वातावरण में तनाव आ गया था।
विजय ने उस कमरे के दरवाजे को धकेल कर खोला।
और दरवाजा खोलते ही जिस दृश्य पर विजय की नजर पड़ी वह न केवल अप्रत्याशित था बल्कि विस्मयकारी भी था। दरवाजे के बिल्कुल सामने की दीवार के साथ एक पलंग बिछा हुआ था जिस पर एक लड़की लेटी हुई थी। बिल्कुल शांत व निश्चल। लड़की सुंदर थी इसमें विजय को कोई संदेह नहीं था। परन्तु उसका सारा चेहरा खून से तर था जो कि जमकर कुछ काले रंग का हो गया था।
उसे देखकर विजय को इस बात में भी कोई संदेह नहीं रहा था कि वह मृत है। इस समय विजय एक खूबसूरत लाश को देख रहा था। लाश का अच्छी तरह से निरीक्षण करने के लिये वह कमरे के अंदर प्रविष्ट हुआ और उसने उसे सिर से देखना प्रारंभ किया। लाश के माथे में एक गोली का सुराख था जिसमें से बहने वाले खून ने उसके चेहरे को और सिरहाने के तकिये को तर कर दिया था। इसी सुराख से उसकी मौत भी हुई थी।
विजय की नजरें नीचे की ओर फिसलीं और उसकी गर्दन पर आकर अटक गईं।
उसकी गर्दन में देवता का हार था।
वही हार जिसका चित्र आज सुबह महाराजा रतनसिंह ने दिखाया था। वही हार जो कि नकली हार से बदल दिया गया था।
(अभिनेत्री कौन थी? विजय उसके पास क्यों आया था? उसके गले में देवता का हार क्या कर रहा था? अभिनेत्री का कत्ल किसने किया था?
इस अंश को पढ़कर यह सभी प्रश्न आपके मन में उपज रहे होंगे। है न? तो इन प्रश्नों के उत्तर तो आपको इस उपन्यास को पढ़कर ही मिलेंगे। )
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पुस्तक विवरण
पुस्तक: देवता का हार | लेखक: वेद प्रकाश काम्बोज | शृंखला: विजय-रघुनाथ | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय | पुस्तक लिंक: अमेज़न