‘धड़कनें’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा द्वारा लिखा गया सामाजिक उपन्यास है। कई वर्षों से आउट ऑफ प्रिंट रहने के बाद इस उपन्यास को नीलम जासूस कार्यालय द्वारा पुनः प्रकाशित किया गया है।
आज एक बुक जर्नल पर हम आपके लिए जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के इस उपन्यास ‘धड़कनें’ का एक छोटा मगर रोचक हिस्सा लेकर आ रहे हैं। आशा है आपको यह अंश पसंद आएगा।
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अब?
पाँच सौ रुपए महीना किस तरकीब से कमाए जा सकते हैं।
एक तरकीब है- चरनदास ने मस्तिष्क पर जोर मारा, बेशक एक तरकीब है – यह कि एक डाकू पार्टी बना ली जाए। लेकिन तख्त और तख्ता दोनों ही बात हैं। जिस दिन महाशय चरनदास को फाँसी होगी उस दिन श्रीमती चमेली देवी कौन से विधवा आश्रम की शोभा बढ़ाएगी।
मन खट्टा हो गया, दिमाग कंटाल गया। चरनदास ने थके हुए दिमाग को कुछ आराम देने के लिए नगद तरेसठ पैसे का टिकट निकलवाकर नाइट शो में सिनेमा देखा।
फिल्म बढ़िया थी मज़ा आ गया। एकदम फटेहाल आवारा हीरो, राज कुमारी उसे चाहने लगी। खूब फजीता हुआ, खूब तलवारें चलीं। लेकिन आखिर में शादी हो गयी।
चरनदास को हिम्मत मिली।
रात के एक बजे घर पहुँचा तो शोभा की झाड़ पड़ी। लेकिन कोई परवाह नहीं। फिल्म ने चरनदास पर जादू कर दिया था, पड़ते ही नींद आई और रात भर चमेली राजकुमारी के रूप में दिखाई पड़ती रही।
सुबह उठकर सरासर प्रेम गुरु को धता बताते हुए चरनदास ने दूसरा पत्र लिखा-
मेरी बहुत प्यारी चमेली,
तुम्हारा पत्र मिला, धन्यवाद। फिक्र मत करो, पाँच सौ नहीं इस फिराक में हूँ कि शादी के बाद कम से कम दो हजार रुपये महीने की आमदनी हो।
कैसे?
यह बात पत्र में नहीं लिखी जा सकती।
मेरी छोटी सी बात मानोगी, सिर्फ इतनी सी बात कि मैं तुम्हारे सामने तुमसे दो बातें करना चाहता हूँ।
जब प्रेम नगर में घर बसाना ही है तो दो प्रेमियों के बीच में दीवार क्यों रहे। लिखना कि कब और कहाँ मिलोगी।
तुम्हारा चरनदास
पत्र चरनदास ने मोची के लड़के को पहुँचा दिया।
और सारा दिन तिकड़म सोचते बिताया।
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चमेली को पत्र यथासमय प्राप्त हुआ।
पत्र पाकर उसे वास्तव में प्रसन्नता हुई, वरना वह तो समझ रही थी कि कहीं रोज़ द्वारा लिखवाया गया पत्र चरनदास को नाराज न कर दे।
स्कूल में समय बड़ी कठिनता से बीता। स्कूल समाप्त होते ही वह सीधी मिसेज डेविस के साथ अच्छी शिष्या होने का परिचय देती हुई उनके घर पहुँची रोज़ से मिलने।
विजेता सेनापति की भाँति एकांत में चमेली ने पत्र रोज के सामने रख दिया।
आदत के अनुसार रोज ने पत्र एक बार मात्र पढ़कर नहीं बल्कि तीन बार पढ़कर पत्र का बाकायदा अध्ययन किया।
– “हूँ!” नाक चढ़ाई रोज़ ने – “बेबी हमको यह पत्र एकदम छपका मालूम होता है।”
– “छपका क्या होता है?”
– “छपका यानी बंडल।”
– “छपका यानी बंडल… मैं नहीं समझी।”
– “तू छोकरी नहीं गधी है, अरी यह पत्र फ्रॉड है, सरासर धोखा है।”
– “धोखा कैसे?” तुनककर चमेली ने पूछा।
– “तू नहीं समझेगी मेरी प्यारी बेबी, मुझे तेरा प्रेमी एकदम शैतान मालूम होता है। प्रेम की दुनिया एक सीढ़ी है। चढ़ने की कुछ शर्तें होती हैं, कुछ कीमत होती है। लेकिन तेरा प्रेमी एकदम उँगली पकड़कर कलाई पकड़ने के फिराक में है। बात को बड़ी सफाई के साथ गोल करना जानता है। बात पाँच सौ की कही गई और कहता है कि दो हजार महीने की आमदनी करेगी। किधर से करेगा… क्या जाली नोट छापने का कारखाना लगाएगा।”
– “तू फँस रही है।” – डपटकर रोज़ ने कहा।
– “मैं फँसना नहीं चाहती हूँ सिस्टर… जरा मेरे दिल की हालत समझो न प्लीज़…।”
– “बेवकूफ लड़की।” माथे पर हाथ मारकर रोज ने कहा – “गधा पच्चीसी के चक्कर में है न। लेकिन जिस वक्त जवानी का नशा उतरेगा, गालों की लाली और आँखों की चमक खत्म होगी तब याद करोगी कि रोज़ सिस्टर ने ठीक ही कहा था। बिना पैसे गाड़ी नहीं चला करती मेरी मुन्नी।”
रोज़!
चमेली ने अनुभव किया कि रोज एक तरह से साँप के मुँह में छछूँदर है, न उगलते बने न निगलते बने। वह हर बात का मलतब निकलती थी सत्यानाश, और उसकी बातों में चमेली का प्रेम बुखार निराशा के टायफायड में बदल जाता था। वह प्रेम में एकदम टेक्नीकलर हो जाना चाहती थी, परंतु रोज़ उसे एकदम सिंगल कलर बना देती थी।
इसके साथ ही रोज़ की बात बुद्धि संगत होती थी। उससे सलाह किए बिना काम भी तो नहीं चलता था। प्रेमशास्त्र की पंडित जो थी रोज़।
रोज़ से ट्रक करके जीतना बड़ा कठिन था। परंतु आज जब रोज़ की बातें सुनकर चमेली की आँखें छलछला उठीं तो पत्थर भी कुछ पिघला।
अपने बातों का उत्तर आँसुओं से पाकर भिन्नाती सि रोज़ बोली – “तुझे अक्ल नहीं आएगी चमेली। गोबर-गणेश कहीं की, तू तो बस अल्लाह मियाँ की भैंस हो रही है। वह मिलना चाहता है न, मिल लेंगे। वह आमने-सामने दो बातें करना चाहता है न, हम उससे बस बात करेंगे। लेकिन यह मेरा फैसला है बेबी, मैं तुझे हरगिज बर्बाद नहीं होने दूँगी। लिख…।”
चमेली के जलते दिल पर जैसे बर्फ पड़ी। उंगकर रोज़ ने चमेली के गालों को चूम लिया।
रोज़ ने नया पत्र लिखवाया –
चरनदास जी,
दो बातें नहीं सौ बातें कीजिए, आपकी खुशी में ही तो मेरी खुशी है। लेकिन औरत जात की कुछ मजबूरियाँ होती हैं यह तो आप भी जानते हैं, औरत की इज्जत और काँच के गिलास में कुछ फर्क नहीं है। और फिर अब तो मेरी इज्जत आपकी ही इज्जत है।
इसलिए मिलने का वक्त कल दोपहर बाद तीन बजे मुनासिब रहेगा। स्थान नई दिल्ली का पिंटो रेस्तराँ, कुछ महँगा जरूर है लेकिन वहाँ बेफिक्र होकर बैठा जा सकता है। बातचीत की जा सकती है।
आपको ऐतराज नहीं होना चाहिए कि मेरे साथ मेरी एक सहेली भी होगी। वह मेरी खास सहेली है, और मेरे और उसके बीच कोई पर्दा नहीं है।
तो कल तीन बजे नई दिल्ली के पिंटो रेस्तराँ में।
तुम्हारी
….
– “ठीक है न?”
– “ठीक है।” प्रफुल्ल चमेली ने कहा।
– “कल पिंटो में तेरे प्रेमी की कम-से-कम तीस रुपये में हजामत करनी है। समझ गई न, कल मालूम हो जाएगा कि मगरमच्छ कितने पानी में है।”
– “लेकिन सिस्टर…” तनिक सहमती सी चमेली बोली – “कल उनसे पहली मुलाकात है, अगर कल का बिल हम अपनी ओर से चुका दें तो?”
– “बकवास करेगी तो दूँगी गाल पर थप्पड़। अरी बेवकूफ, कल बिल चुकाते हुए उसकी शक्ल देखना बहुत जरूरी है। उसकी शक्ल देखकर बता दूँगी कि यह निखट्टू महीने में दो हजार कमाएगा या दो। बेबी, यह मत भूलना कि आज की दुनिया रुपए से चलती है, लैला मजनूँ के किस्से से नहीं।”
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(इस उपन्यास पर 1986 में बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित ‘चमेली की शादी’ नामक फिल्म बनकर रिलीज हुई थी जो कि काफी प्रसिद्ध है। )
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पुस्तक विवरण:
नाम: धड़कनें | लेखक: जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | पृष्ठ संख्या: 125 | पुस्तक लिंक: अमेज़न
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-12-2022) को "बिगड़ गई बोली-भाषा" (चर्चा-अंक 4638) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-12-2022) को "बिगड़ गई बोली-भाषा" (चर्चा-अंक 4638) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा अंक में पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।