यह कहानी उस दौर की है जब बोझ बढ़ाते-बढ़ाते हमने इस धरती को प्रतिक्रिया देने पर मजबूर कर दिया था। बेतहाशा पेड़ों की कटाई और धरती के ज्यादातर हिस्सों से जंगलों की विदाई ने धरती की श्वसन प्रक्रिया को ही बधित कर दिया था और ऊपर से अंधाधुंध कार्बन उत्सर्जन ने स्थिति को इतना भयावह कर दिया था कि पृथ्वी का इको सिस्टम ही तहस नहस हो गया था।
प्रतिक्रिया तो संभावित ही थी— इस भयंकर रूप से बढ़ी गर्मी ने बड़े-बड़े ग्लेशियरों को पिघलाना शुरू कर दिया था… ढेर सा ताज़ा पानी समुद्रों में आ समाया था। इस चीज़ से पृथ्वी का मौसम तो बुरी तरह प्रभावित हुआ ही था, समुद्र का जल स्तर लगातार बढ़ने से सैकड़ों तटीय शहर और आबादियाँ डूबने और पीछे खिसकने लगी थीं।
अब मौसम के लिये कोई वर्जना नहीं रह गयी थी— कहीं भी घनघोर बारिश होती थी, कहीं भी बर्फबारी हो जाती थी और कहीं भी चक्रवाती तूफान तबाही फैलाने चले आते थे। यूँ लगातार बदलते मौसम ने तो पूरी दुनिया में ही हाहाकार मचाया था, लेकिन प्रकृति के क़हर के सबसे ज्यादा शिकार ग्लोब के उत्तरी हिस्सों में बसे देशों के लोग हुए थे और जब हालात बिगड़ते हैं तो सबसे पहली ज़रूरत खाने और संसाधनों को लूट लेने की हो जाती है।
हर जगह कट्टरपंथ-चरमपंथ, धार्मिक आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद… जो शासन में है उसे हटाना है और अपना शासन स्थापित करना है— कहीं जाति के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं सरकार से विद्रोह के नाम पर, जगह-जगह इंसानों के छोटे-बड़े झुंड उग आये हैं जो अपनी ही प्रजाति को खाने में लगे हैं… वातावरण इतना अस्थिर है कि कहीं भी लगातार सुरक्षित जीवन की संभावनाएँ शून्य हो गई हैं।
इस कहानी के मुख्यतः चार पात्र हैं— चारों ही अलग अलग प्रकार के व्यक्तित्व हैं। चलिये इस कहानी के पहले पात्र से मिलते हैं… उसका अच्छा-खासा नाम था— विनोद, पर पूरी दूनिया उसे चिपली के नाम से जानती थी। उसके कान तरस जाते थे किसी के मुंह से अपना ओरिजनल नाम सुनने को… पर यह सौभाग्य उसे तभी नसीब होता था जब कोई अन्जाना शख़्स उससे मिलता था। ‘चिपली’ शायद कोई गोत्र होता हो, पर उसका तो नाम था— जो कभी बचपन में पड़ा था, जब वह ठीक से बोल नहीं पाता था और छिपकली को चिपली कहता था।
एक चिढ़ के रूप में घर से शुरू हुआ नाम दरवाज़े से बाहर क्या निकला कि पूरे कस्बे में फैल गया और अब इसी नाम से उसकी ज़िंदगी चल रही थी, लेकिन हम उसे चिढ़ायेंगे नहीं— उसे उसके ओरिजनल नाम के सम्बोधन का ही सम्मान बख्शेंगे।
सो…
इस वक़्त एक अंधेरी काली रात है और वह अपने घर से दूर एक पुलिया पर बैठा अपनी सोचों में ग़ुम है। वह इस कस्बे का निवासी है, जो राजस्थान के एक ऐसे भूभाग पर स्थित है, जहाँ किसी वक़्त में दूर-दूर तक उड़ती ठहरी रेत के सिवा और कोई नज़ारा दुर्लभ था और बारिश तो किसी नियामत की तरह कभी कभार होती थी, लेकिन बदलते मौसम ने किसी को भी अछूता नहीं रखा था। अब तो वहाँ ऐसी ज़बर्दस्त बारिश होती थी कि रेगिस्तान में बहती छोटी-छोटी नदियाँ रौद्र रूप धारण कर लेती थीं और राजस्थान हर वर्ष बाढ़ से जूझता था।
बाढ़ आती थी तो साथ में मिट्टी भी लाती थी जो पीछे छूट जाती थी और बाद में उस पर वनस्पति जन्म लेती थी। उसी का परिणाम था कि अब राजस्थान के अधिकांश हिस्से को हरा भरा देखा जा सकता था, लेकिन चूँकि यह भारी बारिश भी अनिश्चित होती थी तो खेती के काम उस हाल में भी नहीं आ पाती थी।
जहाँ विनोद था— वहाँ भी आसपास में कभी हर तरफ रेत नज़र आती थी, लेकिन अब हर साल आने वाली बाढ़ और झमाझम होने वाली बारिश ने नज़ारा ही बदल दिया था— सारी रेत हरियाली के नीचे दफन हो चुकी थी।
विनोद पुलिया पर बैठा था और ऊपर बिजली कड़क रही थी, बादल गरज रहे थे, किसी भी पल बारिश शुरू हो सकती थी। हवा की नमी बताती थी कि बारिश का दौर शुरू हो चुका था… बारिश, फिर बाढ़, तबाही और फिर कुछ दिनों के लिये खानाबदोशी।
रात का वक़्त था— बारिश की आहट ने लोगों को उनके बसेरों की तरफ खदेड़ना शुरू कर दिया था, लेकिन विनोद पुलिया पर अडिग था। वह अपनी सोचों में मद्गुम था, लेकिन आखिर वह सोच क्या रहा था?
उसका बाप एक छोटा-मोटा ठेकेदार था— ठेकेदार था पर घर में गुज़र फिर भी बड़ी मुश्किल से होती थी। शायद ठेकेदार की ग़लत आदतों की वजह से— इसमें कोई दो राय नहीं कि उसकी माँ शायद कस्बे की सबसे ख़ूबसूरत औरत थी। अब ढलती उम्र में वह उतनी आकर्षक तो नहीं रह गयी थी, लेकिन फिर भी अपने साथ की औरतों में सर्वश्रेष्ठ थी।
ठेकेदार के तीन बच्चे थे और तीनों ही शक़्ल-सूरत में अपनी माँ पर गये थे। विनोद दूसरे नम्बर पर था… उससे बड़ी और छोटी, दोनों बहनें थीं और दोनों ही इतनी ख़ूबसूरत थीं कि उसके घर के आसपास लोगों के ठिकाने बन गये थे।
बाप ठेकेदार था… शुरू से उसके घर नेताओं और पी०डब्लू०डी० के अधिकारियों, कर्मचारियों का आना-जाना लगा रहता था। जब वह छोटा था तो समझता था कि बाप ठेकेदार है, इसीलिये यह लोग उसके घर आते-जाते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उसकी समझ में आया था कि यह लोग उसके घर आते-जाते हैं, इसीलिये उसका बाप ठेकेदार है।
बचपन में अक्सर उसने देखा था कि जब ऐसा कोई खास मेहमान आता है तो थोड़ी देर की रस्मी बातों और चाय नाश्ते के बाद वह माँ के साथ सोने के कमरे में बंद हो जाता था— कई बार बाप होता था तो कई बार नहीं भी होता था… होता था तो चुपचाप बरामदे में बैठ कर पीता रहता था। मेहमान के जाने के बाद उसने अक्सर अपनी माँ को नशे में धुत पाया था। ऐसे क्षणों में उसे अपनी माँ से घिन आने लगती थी। इस सिलसिले को लेकर— ऐसे ही किसी वक़्त में अगर किसी बच्चे के मन में पैदा हुआ सवाल बाप से पूछ लिया तो न सिर्फ गाली, थप्पड़ खाना पड़ता था, बल्कि कुछ देर के लिये घर भी छोड़ना पड़ता था।
उसकी बहनों ने इस बात को जल्दी समझा और होंठ सिल लिये, लेकिन वह काफी पिटने और गालियाँ खाने के बाद इस बात को समझ पाया कि उसका बाप इन बड़े लोगों से ठेके और रियायतें पाने के लिये उसकी माँ का इस्तेमाल करता था।
उसने सोचा कि अभी वह छोटा है— जब बड़ा हो जायेगा तो इस तमाशे के खिलाफ आवाज़ ज़रूर उठायेगा, लेकिन उसका दुर्भाग्य… कि उससे पहले ही उसकी बहन बड़ी हो गयी और घर आने वाले मेहमानों की नज़रों ने नये जवान हुए जिस्म को छू लिया और एक दिन उसने पाया कि मेहमान वही, कमरा वही, लेकिन जिस्म बदल गया।
अब माँ— बाप के साथ बाहर बैठ कर पी रही थी और बहन अंदर थी।
उसे लगा कि यह ज़र्बदस्ती है, अत्याचार है— लेकिन जब उसने बहन में प्रतिरोध का एक भी लक्षण न पाया तो उसकी हिम्मत टूट गयी और उसने हालात से समझौता कर लिया। जिस घर में यूँ खुलेआम बेहयाई होती हो, वहाँ दो जवान लड़कियाँ चरित्र की कसौटी पर कहां तक खरी रह सकती थीं। अब उसे पहले भी कई बार बहनों का आसपास के अँधेरे कोनों से बरामद होना याद आया।
और आज… आज तो मुसीबत ही हो गई थी। उसकी जानकारी के मुताबिक कल पी०डब्लू०डी० का कोई टेण्डर खुलने वाला था इसलिये उसके बाप ने दो खास मेहमान आमंत्रित कर लिये थे। एक तो स्थानीय विधायक था और दूसरा पी०डब्लू०डी० का एक जे०ई० था।
घर में दो मेहमान हों तो मुसीबत ही थी… इन कुर्बानियों के बदले ठेकेदार को काम तो मिल जाता था, कमाई भी अच्छी थी लेकिन उसकी आदतें ग़लत थीं और यही वजह थी कि एक कमरे और बरामदे के जिस घर में उसने जन्म लिया था वह आज भी वैसा ही था। दुनिया कितनी भी बदल गयी हो पर उसका घर नहीं बदला था। आज उससे छोटी बहन की भी विधिवत शुरूआत हो गई थी। जब विधायक उसे ले कर कमरे में बंद हो गया तो समस्या जे०ई० की मेहमान नवाजी की आई।
बड़ी बहन तैयार थी पर जगह… उसे घर से धकिया दिया गया, माँ-बाप घर के बाहर चबूतरे पर ही बैठ कर पीने लग गये और यूँ वह बरामदा जे०ई० के काम आ गया।
अब हालत यह थी कि वह उस पुलिया पर बैठा-बैठा सोच रहा था कि बारिश ऐसी हो कि सारी सृष्टि ही बह जाये। सृष्टि न बहे तो भी उसका घर तो बह ही जाये। जब घर ही नहीं रहेगा तो शायद खुले में उसकी बहनों को किसी मेहमान के साथ लेटने में शर्म आये— या फिर कोई बिजली ही उसके घर पर गिर पड़े और उन दो मेहमानों के साथ उसका परिवार भी खत्म हो जाये।
यह तो हुआ पहला कैरेक्टर… अब चलिये मिलते हैं कहानी के दूसरे चरित्र से—
यह एक युवती है, जवान ज़हीन युवती— लेकिन जिसके सितारे हमेशा गर्दिश में रहते हैं। जो काम कभी न बिगड़ा हो वह उसके होने मात्र से बिगड़ जाता है। इसीलिये उसे बचपन से ही एक खिताब मिला हुआ है… मनहूस। अतीत में जायें तो वह न्यूज़ीलैंड में रहने वाले एक चाइनीज़ परिवार का हिस्सा थी और कभी उसका बाप ऑकलैण्ड का एक अमीर व्यापारी हुआ करता था— लेकिन उसके बिगाड़े कामों और उसके किये नुकसानों की भरपाई करते-करते वह बेटी के जवान होने तक बिलकुल कंगाल हो गया था। नतीजे में एक दिन माँ-बाप ने उसे धक्के दे कर घर से निकाल दिया था।
मज़े की बात यह कि उसके ऑकलैण्ड छोड़ते ही अगले कुछ महीनों में साउथ पोल की बर्फ इतनी तेजी से पिघली थी कि उससे बढ़े जलस्तर ने ऑकलैण्ड को ही निगल लिया था— इससे उसे बेहद खुशी मिली थी।
लेकिन बहरहाल… उसे आस्ट्रेलिया में शरण लेनी पड़ी थी। आस्ट्रेलिया के तटीय शहरों में भी पानी की घुसपैठ जारी थी और साथ ही जारी था एमिली का जीवन संघर्ष। उसे यूँ तो कहीं भी नौकरी और रहने का ठिकाना मिल जाता था, लेकिन उसकी फूटी तकदीर उसका पीछा नहीं छोड़ती थी। कहीं तो वह कम्पनी या ऑफिस ही बंद हो जाता, जिससे वह सम्बद्ध होती या एम्पलायर से उसका झगड़ा या उसके हाथों एम्पलायर का कोई बड़ा नुकसान हो जाता और नतीजा हमेशा एक जैसा होता।
यही कारण था कि आस्ट्रेलिया में कई जगह भटकने के बाद वह ईस्ट एशिया की घनी आबादी वाले छोटे-छोटे देशों में भटकती फिर रही थी जो मौसम और समुद्र की मार से आंशिक रूप से या लगभग बर्बाद हो चुके थे।
ऐसा नहीं था कि वह खुद अपनी ज़िंदगी से खुश थी। वह इतनी तंग आ चुकी थी मनहूसियत के इस अनवरत सिलसिले से— कि खुदकशी करके उससे छुटकारा पा लेना चाहती थी, लेकिन वहाँ भी तीन बार की कोशिशों में नाकामी ही हाथ लगी थी।
एक बार वह सड़क पर एक कार के आगे आ गयी थी, लेकिन कार वाले ने वक़्त रहते ब्रेक लगा दिये और उसका एक पाँव ही टूटा, लेकिन पीछे से आते एक ट्रक ने उस कार को ऐसा खदेड़ा कि कार तिरछी होकर सामने से आती एक दूसरी कार से जा टकराई और दोनों कारों के चालक अधमरे हो गये। एक बार उसने ज़हर खा लिया… एक घंटा तड़पती रही, फिर घर वालों ने देख लिया और तुरंत हास्पिटल पहुँचा दिया। वहाँ उसे बचा लिया गया… वहीं उसे यह पता चला कि जो गोलियाँ उसने खाई थीं वह कभी की एक्सपायर हो चुकी थीं, उन्हें दुबारा नई डेट के साथ पैक करके बाज़ार में डाल दिया गया था।
वह बच तो गयी थी लेकिन आँतों में ऐसे जख़्म हुए थे कि उनकी तकलीफ उसे आज भी जब-तब महसूस होती थी। तीसरी कोशिश उसने ऑकलैण्ड छोड़ने से कुछ महीने पहले की थी… जब उसने ख़ुद को एक रस्सी से लटका लिया था— उसे अपनी गर्दन लम्बी हो जाने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन रस्सी छत के जिस हुक में फँसी थी, उसे लिये हुए नीचे आ गयी थी और यूँ लकड़ी के इस्तेमाल से बनी पुरानी जर्जर छत का घुना हुआ काफी हिस्सा ढेर हो गया था। सज़ा के तौर पर उसे तीन दिन खाना नहीं नसीब हुआ था और आखिरकार उसने ऐसी कोशिशों से ही तौबा कर ली थी।
मौजूदा वक़्त में वह न्यु पापुआ गिनी के एक कस्बे में मौजूद थी— जहाँ वह पिछले तीन महीने से एक छोटी सी नौकरी कर रही थी, लेकिन आज ही उसे जवाब मिल गया था और अब वह फिर बेराज़गार थी।
इस वक़्त वह अपने किराये के मकान के कमरे में बैठी खिड़की से बाहर देख रही थी। बाहर बिगड़ा हुआ मौसम था और शांत पड़े घर थे। जब से समुद्र के बढ़ते जलस्तर ने तटीय शहरों को निगलना शुरू किया था तब से लोगों की भीड़ देशों के मध्य भागों की ओर बढ़ने लगी थी। कभी यह छोटा सा कस्बा था— लेकिन अब यहाँ महानगरों जैसी भीड़ थी, जो इन छोटे-छोटे घरों में भरी पड़ी थी।
किसी ज़माने में यहाँ ओले भी पड़ जाते तो एक करिश्मा होता, लेकिन अब तो अंडे जितने ओले पड़ते थे— जैसे आज उन बड़े-बड़े ओलों ने शोर मचाया हुआ था। वह सड़कें, छतें, गलियाँ सब पाटे दे रहे थे— कमज़ोर आशियानों को ढहाये दे रहे थे। पहले भी जब कभी ओले पड़े थे, ढेरों लोग मारे गये थे… आज भी वैसा ही मौसम था। अब कल पता चलेगा कि कितने लोग इन ओलों का शिकार हुए थे।
और एमिली… खिड़की से बाहर देख ज़रूर रही थी, लेकिन उसका ध्यान मौसम में नहीं था। वह सोच रही थी कि अब उसका दाना-पानी शायद यहाँ से भी उठ गया है। वह यहीं रह कर कोई दूसरी नौकरी तलाश करे या इस जगह को छोड़ कर कोई और जगह रवाना हो— या किसी और देश के लिये कूच करे।
एमिली को इसी उधेड़बुन में छोड़ते हैं और चलिये, कहानी के तीसरे कैरेक्टर से मिलते हैं।
उसका नाम है सावो… क़द आम अफ्रीकियों जितना, रंगत काली, नाक मोटी, दाँत सफेद, बाल घुँघराले और शरीर सुगठित। उम्र पैंतीस साल— चेहरा कठिन परिश्रम की गवाही देता था और सच में खाने के एक-एक दाने के लिये उसे कड़ा संघर्ष करना पड़ता था।
सावो दुनिया के उन गरीब पिछड़े देशों में से एक का निवासी था जिनकी ख़ुद की कोई खास उपज नहीं थी और वह अपनी आबादी का पेट भरने के लिये दूसरे देशों से आयतित खाद्यान्न पर निर्भर रहते थे। मुश्किल यह थी कि पल-पल बदलते मौसम ने फसलों की पैदावार पर सबसे गहरा असर डाला था… नतीजे में उपज कम होने के कारण भारत, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देशों ने खाद्यान्न निर्यात पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी और छोटे गरीब, खाद्यान्न के आयात पर निर्भर देशों में कोहराम मच गया था और उन देशों में भूख से मौतें होना आम बात हो गयी थी।
वह माली का निवासी था— कभी नाइजर नदी के किनारे अपने कुनबे सहित आबाद था… लेकिन हमेशा शांत रहने वाली नाइजर नदी पिछले साल एकाएक हुई घनघोर बारिश के बाद ऐसी उबली थी कि अपने किनारे की आधी आबादी साफ कर डाली थी। ख़ुद उसका बड़ा सा कुनबा था जो या तो बह गया था या डूब गया था। बहरहाल, साल बीतने के बाद भी कोई दुबारा नहीं टकराया था।
उस तबाही में वह अपने साथ अपनी एक छोटी बहन को ही बचा पाया था। इसके बाद वह कहाँ-कहाँ नहीं भटके थे— क्या-क्या मुश्किलें नहीं झेली थीं। एक तो माली के हालात पहले से बदतर थे, ऊपर से इन बदलती वैश्विक परिस्थितियों ने तो माली को दयनीय बना दिया था। अक्सर दोनों बहन-भाई को कड़ी मेहनत करनी पड़ती, तब शाम को आधा पेट खाना मिल पाता… और कई बार तो वह खाना भी दो-दो तीन-तीन दिन के बाद नसीब होता।
अब क़रीब महीने भर पहले उसे एक अमेरिकी बेस में जगह मिल गयी थी, जहाँ दिन भर के काम के बाद उसे भरपेट खाना मिल जाता था— उसे भी और बहन को भी। उसने वहाँ के फौजियों से सुना था कि कभी बेस पर ग्यारह-बारह औरतें भी थीं, लेकिन धीरे-धीरे वह वतन लौट गयीं और अब तो वहाँ मर्द फौजी ही बचे थे जो दिन भर के झल्लाये, झुँझलाये, ज़िंदगी से ऊबे से— आसपास की स्थानीय औरतों के अपहरण और बलात्कार से भी बाज़ नहीं आते थे।
उनकी इसी हालत की वजह से उसे यह नौकरी मिली थी— क्योंकि उसके साथ उसकी जवान बहन थी। उस बहन को सावो की तरह जी तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती थी, बस जब किसी सैनिक को जिस्म की भूख लगे तो उसे कपड़े उतार कर उसके साथ लेटना पड़ता था। सावो को जान बूझ कर ऑंखें बंद कर लेनी पड़तीं— ज़ाहिर है कि जहाँ भुखमरी से आधी दुनिया जूझ रही हो वहाँ बहन पेट से बड़ी तो नहीं हो सकती। फिर बहन को भी इससे एतराज़ नहीं था। उसे अहसास हो चुका था कि बेसहारा होना कितना खौफ़नाक है, पिछले ग्यारह महीने उन्होंने माली में यहाँ-वहाँ भटकते गुज़ारे थे और लगभग आधे दिन भूखे रहे थे। उससे तो यह जगह फिर बेहतर थी— जहाँ कम से कम रोज़ भरपेट खाना तो मिल जाता था।
तेज़ हवाएँ चीख चिल्ला रही थीं— आकाश पर काले, गहरे भूरे बादल चकराते, एक दूसरे में गडमड हो रहे थे और बिजली बार-बार कड़क कर दिल दिमाग़ कँपा रही थी। उसे पता नहीं था कि बहन कहाँ थी— पर वह ख़ुद बेस के एक कोने में बैठा, ख़ुद को देख रहा था। कभी वह अपने कबीले के सबसे तगड़े तंदरुस्त लोगों में से एक हुआ करता था लेकिन लम्बी भुखमरी ने उसकी काया आधी कर दी थी और अब जब उसे फिर तंदरुस्त होने की उम्मीद जगी थी, तो एक नई मुसीबत ने उसे अपनी चिंता में दुबला करना शुरू कर दिया था।
ख़बर थी कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर हो चुकी थी कि वह धीरे-धीरे दुनिया भर में फैले अपने सभी सैन्य ठिकाने वापस समेट रहा था और अब इस बेस के बंद होने की बारी थी।
सैनिक खुश थे कि चलो, इसी बहाने अब उन्हें अपने घर परिवार के साथ रहने का मौका मिलेगा, लेकिन अपना सावो दुखी था और वह उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखता सोच रहा था कि काश ऐसी बारिश हो कि यह सारे फौजी मारे जायें और वह यहाँ मौजूद इनकी सारी खुराक लूट ले।
अब आती है कहानी के चौथे और अंतिम मुख्य किरदार की बारी… यह कैरेक्टर भी कम दिलचस्प नहीं, बल्कि यह तो इतना अजीबोगरीब कैरेक्टर है कि इसे हद दर्जे तक कन्फ्यूज्ड ही कहा जा सकता है।
उसे एक आधुनिक और विकसित समाज में रहने के बावजूद भी कई मरहलों पर अपने लड़की होने का अफ़सोस होता था और वह ठीक लड़कों की तरह ज़िंदगी गुज़ारना चाहती थी, लेकिन यह कोई डिसऑर्डर भी नहीं था, क्योंकि लड़कों जैसे जीने की चाहत के बावजूद वो कभी अपना स्त्रीत्व नहीं खोना चाहती थी और एक एडवेंचर के तौर पर वो एक लड़की और एक लड़के दोनों ही रूप में अपनी ज़िंदगी जी लेना चाहती थी। उसे मर्दानी आज़ाद ज़िंदगी में दिलचस्पी थी, उसे मर्दाने खेलों में दिलचस्पी थी। उसमें बचपन से एक खब्त था, ख़ुद को दूसरों से अलग दिखाने का, ख़ुद को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने का।
यही कारण था कि जब उसकी माँ लीजा ने ओन्टारियो में उसके बाप को तलाक दे कर छोड़ा और रीमोस्की में अपने नये पति के साथ आ बसी थी, तो इज़ाबेल ने बाप के बजाय लीजा के साथ इस शर्त पर रहना स्वीकार किया था कि वह यहाँ एक लड़की नहीं, लड़के के रूप में जानी जायेगी और ख़ुद लीजा इस बात को राज़ रखेगी। लीज़ा की नज़र में यह बस उसकी सनक और खब्त भर था जिसका खामियाजा उसे अपने भविष्य और कैरियर के रूप में उठाना पड़ सकता था, लेकिन विरोध के बावजूद लीजा को उसके आगे झुकना पड़ा था और यूँ उसने एक लड़के के रूप में वहाँ के स्पोर्ट कालेज में दाखिला ले लिया था, हालाँकि इसके लिये भी उसे कुछ झूठ गढ़ने पड़े थे और कुछ फर्जी डाक्यूमेंट्स बनवाने पड़े थे और अपने पूर्व के ऑनलाइन रिकार्ड्स में संशोधन के लिये एक हैकर की मदद भी लेनी पड़ी थी।
उसका जिस्म चौड़ी हड्डियों का था, चेहरा भी थोड़ा चौड़ा ही था— इसलिये उसके रूप से जनानी गंध भी थोड़ी कम ही आती थी। कपड़े लड़कों वाले पहने जा सकते थे, बाल लड़कों वाले कटाये जा यकते थे, लेकिन उभरता सीना और पतली कमर… सीने पर वह सख़्ती से एक कपड़ा लपेटती थी— वैसे ही एक कपड़े को कई बार लपेट कर उसे सीने और कमर के बीच के कर्व को बराबर करना पड़ता था, ऊपर से एक स्किन टाईट टी-शर्ट और फिर कपड़े। हाँ, आवाज़ की बारीकी वह कैसे भी खत्म नहीं कर सकती थी— इसीलिये उसे इस मामले में काफी एहतियात बरतनी पड़ती थी और बोलते वक्त आवाज़ में भारीपन पैदा करके उसे लगातार बरकरार रखना पड़ता था— यहाँ तक कि कई बार उसे बुरी तरह खाँ सी भी आने लगती थी।
वह सॉकर के लिये क्रेजी थी और बजाते ख़ुद एक ज़बर्दस्त खिलाड़ी भी थी… यहाँ उसे इस खेल में ख़ुद को साबित करने के कई मौके मिले जो किसी लड़की के लिये दुर्लभ थे। उसने मैच जिताये, नाम कमाया, शोहरत बटोरी, ईनाम और पैसा भी हासिल किया— लोकल मीडिया की आँख का तारा भी बनी… लेकिन कोई न जान सका कि वह एक लड़का नहीं लड़की है। हाँ, कई बार साथी खिलाड़ियों के साथ ड्रेसिंग रूम शेयर करते वक्त वह ज़रूर मुसीबत में पड़ी थी, पर उसने मैनेज कर लिया था। नहाते या कपड़े बदलते वक़्त उसने साथी लड़कों को पूरी तरह नग्न देखा था, पर ऐसे किसी भी वक़्त में उसने कपड़े कम करने से भी गुरेज किया था— ऐसी स्थिति में उसने हमेशा यही बहाना बनाया कि उसकी त्वचा में किसी प्रकार का इन्फेक्शन है और वह एक विषेश प्रकार की बूटियों के साथ स्नान करने पर मजबूर है। साथी उसकी खिल्ली उड़ा कर उसका पीछा छोड़ देते थे। उसके इन्हीं अंदाज़ के कारण साथ के लड़कों ने उसे ‘शर्मीली बिल्ली’ कहना शुरू कर दिया था।
कई बार जब उसके साथ के लड़के, लड़कियों और सेक्स के बारे में बात करते थे, तब शुरू में वह बेहद अपसेट हो जाती थी— मगर धीरे-धीरे उसे ऐसी आदत पड़ गयी कि अब वह ऐसी बातों में ख़ुद बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी।
गुजरते वक्त के साथ वह जवान हो गयी… पढ़ाई खत्म हो गयी। खेल और एक्सरसाईज के कारण उसकी लम्बाई-चौड़ाई लड़कियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही हो गयी, जो उसके लड़का बने रहने के लिये ज्यादा मुफीद थी। समस्या वक्षों की आ सकती थी लेकिन हमेशा ही दिन के ज्यादा तर वक़्त में बंधे रहने के कारण उनका ठीक से विकास भी नहीं हो पाया और वह ज्यादा न बढ़ सके… उसके लिये यह चीज़ भी मुफीद साबित हुई और यूँ वह एक मर्द के रूप में अपना कैरियर शुरू करने में कामयाब रही।
उसने जब हाफमैन वाटर रेक्टिफाइंग सिस्टम में नौकरी शुरू की थी, तब कंपनी अपने हाथ-पांव जमा ही रही थी, लेकिन तेज़ी से बदलती वैश्विक परिस्थितियों से भले समूची मानव जाति को नुकसान हो रहा हो, लेकिन कंपनी ज़बर्दस्त फायदे में रही थी। आज दुनिया के बड़े हिस्से में लोग पीने के पानी की समस्या से जूझ रहे थे। भूगर्भीय जल ज्यादातर हिस्सों में खत्म हो चुका था। जिन देशों के पास पैसा और मज़बूत आर्थिक ढाँचा था, भौगोलिक स्थितियाँ अनुकूल थीं— वह किसी तरह हिमनदों, या वर्षा के जल का संचयन करके काम चला रहे थे, लेकिन या तो सारे देश ऐसे भाग्यशाली नहीं थे या फिर चीन, भारत, रूस जैसे बड़े देश अपने भूभाग के हर हिस्से में लोगों को यह सुविधाएँ उपलब्ध करा पाने में कामयाब नहीं थे। ऐसे में हाफमैन कंपनी पेश होती थी जो आसपास के गढ़ों, नालियों, नालों, तालाबों का सड़ा पानी भी कम से कम खर्च में वापस शुद्ध करके पीने लायक बनाने वाला सिस्टम रखती थी। यही कारण था कि पिछले ढाई सालों में अन्तर्राष्ट्रीय लाइसेंस रखते हुए कंपनी ने दुनिया के आधे से ज्यादा देशों में पाँव जमा लिये थे।
कंपनी का मुख्य ऑफिस टोरन्टो में था, जहाँ इज़ाबेल अकेले एक किराये के फ्लैट रहते हुए ग्यारह महीने नौकरी करती थी, लेकिन एक महीना जब कनाडा का तापमान सबसे कम होता है— वह अपनी माँ और सौतेले पिता के पास रीमोस्की आ जाती थी या कभी-कभी लम्बी छुट्टियों के वक्त।
वह आज भी यहीं है, लेकिन एक नाइटी में और पूरी औरत के रूप में— चिप्स खातें, टीवी देखते… घर में दोनों लोग नहीं थे। उसके सौतेले पिता की अपनी पहली पत्नी से तीन संतानें थीं, जो पास के ही एक उपनगर में अपनी माँ के साथ रहती थीं। वह उन्हीं से मिलने गया था और लीजा भी साथ गयी थी। टीवी देखते-देखते इज़ाबेल की नज़र बार-बार खिड़की के पार चली जाती थी, जहाँ से समुद्र दिखता था। समुद्र की लहरें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं और आसमान पर गोल-गोल घूमते कड़कते, गरजते, गहरे घने बादलों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा था। वह गोलार्द्ध के जिस उत्तरी हिस्से पर थी वहां एसा मौसम किसी टॉरनेडो या साइक्लोन में बदलते देर नहीं लगती थी।
अशफाक अहमद लेखक, ब्लॉगर और प्रकाशक हैं। वह वर्डस्मिथ, आखरवाणी पत्रिका, लफ़जतराश,परिहास पत्रिका जैसी कई वेबसाईट चलाते हैं। उन्होंने अब तक दस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। वह ग्रेडिआस पब्लिशिंग हाउस नामक प्रकाशन चलाते हैं और प्रतिलिपि जैसे ऑनलाइन प्लैटफॉर्म भी पर भी लिखते हैं।
वन मिसिंग डे, जूनियर जिगोलो, सावरी, आतशी, CRN-=45, द ब्लडी कैसल, गिद्धभोज इत्यादि उनकी कुछ पुस्तकें हैं।