किताब परिचय:
‘ओय! मास्टर के लौंडे’ दो देसी बच्चों की देसी शरारतें समेटे एक हल्की-फुल्की हास्य कहानी है जो आपको ले जाएगी 1980वें दशक को पार कर रहे एक छोटे से शहर मुज़फ्फ़रनगर में जहाँ डी.ए.वी. कॉलेज के स्टाफ क्वाटर्स में 12 साल का लड़का दीपेश रहता था और उससे थोड़ा दूर उसका क्लासमेट हरदीप। दोनों पक्के दोस्त थे। साथ स्कूल जाते, साथ पढ़ते और शरारतें भी साथ करते। मगर दोनों में एक फ़र्क था। दीपेश मास्टर का बेटा था और हरदीप चाय वाले का…।
दीपेश की नज़र में हरदीप मनमर्जियाँ करने वाला एक आज़ाद परिंदा था और वो खुद पिंजरे में कैद ग़ुलाम। वहीं दूसरी ओर हरदीप की नज़र में दीपेश की लाइफ सेट थी क्योंकि उसके पापा प्रोफ़ेसर थे, कोई चाय वाले नहीं…। दीपेश ‘हरदीप’ हो जाना चाहता था, वो सारे सुख पाना चाहता था जो हरदीप के पास थे जैसे हर महीने फ़िल्में देखना, ज़ोर ज़ोर से गाने गाना, पतंगें लूटना, खोमचे पर चाऊमीन खाना, ‘फ़िल्मी कलियाँ’ पढ़ना और जब चाहे स्कूल से छुट्टी मार लेना…दीपेश इन सुखों से वंछित था क्योंकि उसके पापा मास्टर थे जिनकी नज़र में ये सब करना गलत था। दीपेश की व्यथा और हरदीप की कथा के ताने-बाने से बुना गया ये हास्य उपन्यास आपको आपके स्कूल के दिनों में ले जाएगा और आप कह उठेंगे, ‘अरे! ये तो हमारे साथ भी हुआ था!’
किताब लिंक: किंडल
(अगर आपके पास किंडल अनलिमिटेड है तो आप इसे बिना किसी अतिरिक्त शुल्क अदा किये पढ़ सकते हैं।)
उपन्यास अंश
शर्माइन आंटी चाशनी में डूबी शिकायत का रसगुल्ला खिला बनावटी मुस्कान लिए लौट गई लेकिन मैं डर से थर्र-थर्र कांप रहा था। मेरी आत्मा चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी ‘हे रामजी! धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊ! ठीक सीता मैय्या की तरह… ताकि मुझे मेरे रावण समान बाप का प्रकोप ना झेलना पड़े!’
पापा उस वक़्त घर में ही थे और दरवाज़े पर कान लगाकर सब सुन रहे थे। माना आंटी लखनऊ की थी मगर मेरे पापा तो पक्के मुज़फ्फ़रनगरी थे जो चप्पल हाथ में उठाए बिना बच्चों को समझाना जानते ही नहीं थे।
…
उसके बाद वही हुआ जो ऐसे मौको पर हमेशा होता था। ‘धूम-धड़ाक…पट्-पटाक…अईईई… मम्मीईईईईई! मेरी चोट्टी खींच ली इसने…, मम्मी देक्खों! पापा का जुत्ता उठा लिया इसने…’ और फ़िर ये ‘लंका कांड’ तभी समाप्त हुआ जब हवा में तीर सी उड़ती दो चप्पलें और ढ़ेर सारी गालियाँ अपने अपने निशाने पर सटीक जा लगी। वैसे मानना पड़ेगा! निशानेबाजी में ऐक्सपर्ट थी हमारी मम्मी! बरसों की साधना जो थी। अगर ओलंपिक में गन या तीर-कमान की बजाय चप्पलों से निशाना लगाने का कांप्टीशन होता तो देश के लिए एक-दो गोल्ड मेडल जीत के ले आती! यूँ ही नहीं कहता मैं मम्मी को ‘कलाकार’… वो हैं ही हर कला में माहिर!
जिज्जी और मेरे बीच युद्ध के बाद की संधि करवाई जा चुकी थी मगर हम दोनों जानते थे ये संधि बारूद पर बैठ कर की गई थी, भारत-पाकिस्तान की संधियों की तरह जो एक दिन टूटनी थी। मैं मन ही मन उसे दसवीं फेल होने की बद्दुआ दे चुका था और वो तो मुँह पर बोल कर गई थी, ‘जा तुझे हरदीप कभी ना मिले!’
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“चलो, फटाफट अपनी कापियाँ ले आओ दोन्नों, देक्खूं क्या गुल खिलारे स्कूल में!” पापा बड़े गरम दिमाग हो रखे थे, आज तो मुझे सीधा पतलून उतरती नज़र आने लगी। मम्मी ने भी खुद को रसोई में बिजी कर रखा था, ताकि ये ढईया कहीं उन पर ना चढ़ बैठे। फ़िर वहीं हुआ जो ऐसे मौकों पर हुआ करता था। कुछ डाँट-डपट, फ़िर कान खिंचाई और थोड़ी कुटाई। फ़िर विद्यार्थी जीवन में अनुशासन, समय के प्रबंधन, पढ़ाई के महत्व, वगैरह वगैरह… पर प्रवचन और ‘हम जब तुम्हारी उम्र के थे…’ वाला समापन भाषण देते हुए पूरे विधि-विधान से ‘बच्चें कुटाई’ कार्यक्रम संपन्न कर दिया गया। जैसे ‘चोर चोरी से जाए पर सीनाज़ोरी से ना जाए’ वैसे ही ‘मास्टर मास्टरी से जाए पर हाथ सेंकने से ना जाए’, दूसरों के बच्चें ना मिले तो अपने ही सही…
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मैंने एक बात और नोटिस की थी, हर मास्टर के पढ़ाने का कुछ अलग सूत्र हुआ करता था। जैसे ज़ल्लाद का सूत्र था –‘कनपटी खींचे बिना पहाड़े याद ना होत्ते बेट्टा!’ और पापा कहां करते थे ‘गुद्दी सिके बिना बुद्धि में ज्ञान उतर ई नी सकता!’ हालांकि उनके पास इसका लॉजिक भी था कि गुद्दी के नीचे कुछ ऐसे एक्यूप्रेशर पॉइंट्स होते हैं जिनको दबाने से सीधे बुद्धि के द्वार खुल जाते हैं। साथ में वे यह बताना नहीं भूलते थे कि यह ज्ञान उन्हें अपने पिताश्री से मिला था और इसी सूत्र पर अमल करके उन्होंने मेरे पिताश्री को थ्रू आउट गोल्ड मेडलिस्ट बनाया था।
किताब लिंक: किंडल
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लेखिका परिचय:
शिक्षा: बी.एस.सी. (गणित), एम.सी.ए.
जन्मस्थान: मुजफ्फरनगर(उत्तर प्रदेश)
विधा: कहानी, लघुकथा, बाल कहानी, कविता, लेख, व्यंग
पिछले पंद्रह सालों से निरंतर लेखन। सभी प्रमुख राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक भास्कर, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दिल्ली प्रेस, नई दुनिया, प्रभात खबर, हरिभूमि, मेरी सहेली, वनिता, फ़ेमिना, नंदन, बाल भास्कर, बालभूमि आदि में लगभग 400 कहानियाँ, बाल कहानियाँ, लेख, व्यंग्य प्रकाशित।