अंत में चौंकाने में सफल होता है ‘खतरे का हथोड़ा’

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 280 | प्रकाशक: राजा पॉकेट बुक्स | शृंखला: अर्जुन भारद्वाज

कहानी

सेठ पिशोरीलाल मेहरा की किसी ने निर्ममता से हत्या कर दी थी।
 
पुलिस ने अपनी कार्यवाही की थी और उन्होंने पिशोरीलाल के बेटे अशोक मेहरा को उनकी हत्या के इल्जाम में पकड़ लिया था। वहीं अशोक मेहरा ने भी अपना गुनाह कुबूल लिया था।  
पर सेठ पिशोरीलाल की बहू कमला मेहरा का कहना था कि किसी ने उसके पति को फँसाने की साजिश की थी और उसके पति निर्दोष थे। यही कारण था कि कमला मेहरा ने अर्जुन भारद्वाज को बुलाया था। वह चाहती थी कि अर्जुन मामले की जाँच करे और सच्चाई का पता लगाए। 
आखिर अशोक मेहरा ने क्यों अपना गुनाह कबूला था?
क्या वह असल में बेगुनाह था?
अगर ऐसा था तो सेठ पिशोरीलाल का हत्यारा कौन था और उनकी हत्या क्यों की गई थी?

किरदार 

अर्जुन भारद्वाज – सुपर डिटेक्टिव एजेंसी का मालिक 
नीना – अर्जुन की सेक्रेटरी
बंसल – अर्जुन का मातहत
सेठ पिशोरीलाल – मकतूल
कमला मेहरा – पिशोरीलाल की बहू
अशोक मेहरा – सेठ पिशोरीलाल का बेटा जिस पर उसके कत्ल का इल्जाम था
इंस्पेक्टर जयसिंह – वह पुलिस वाला जो इस मामले को देख रहा था
विजय मेहरा – पिशोरीलाल का छोटा बेटा
जयपाल – पिशोरीलाल का साला
जगदीश मल्होत्रा – पिशोरिलाल का पड़ोसी और दोस्त जिसके साथ वो शतरंज खेला करता था
दिव्या मेहरा – सेठ पिशोरीलाल की पत्नी
लालसिंह – एक अपराधी जिसकी जान कभी अर्जुन भारद्वाज ने बचाई थी
सूरज भान राणा- एक व्यक्ति जिसका रिश्ता दिव्या मेहरा से था

विचार

वैसे तो लेखक अनिल मोहन अपने किरदारों देवराज चौहान और मोना चौधरी के लिए अधिक जाने जाते हैं लेकिन चूँकि मुझे खालिस मर्डर मिस्ट्री पसंद आती हैं तो मुझे उनका किरदार अर्जुन भारद्वाज  काफी पसंद आता है। अर्जुन भारद्वाज सुपर प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी का मालिक है जो कि अपराध और अपराधियों से बहुत नफरत करता है। इस शृंखला को पसंद करने का एक और कारण यह भी है कि अर्जुन भारद्वाज एक नो नोसेन्स किरदार है। वह जितनी जरूरत होती है उतना ही बोलता है और ज्यादा लफ्फाजी नहीं करता है। वहीं हिंदी अपराध साहित्य के ज्यादा मकबूल प्राइवेट जासूसों से अलग वह औरतों को देखकर लार भी नही बहाता है और अगर बहाता भी है तो क्योंकि कथानक तृतीय पुरुष में होते हैं तो पाठक को ये पता नहीं चलता है। मुझे अक्सर हिंदी अपराध साहित्य के प्राइवेट जासूसों से तब कोफ्त होती है जब वह फ़्लर्ट करने और छेड़खानी करने में फर्क नहीं महसूस कर पाते हैं। अर्जुन ऐसे चीजों से काफी दूर रहता है और इसलिए वह उन जासूसों से परिपक्व भी नजर आता है। 

प्रस्तुत उपन्यास ‘खतरे का हथौड़ा’ की बात करें तो अर्जुन भारद्वाज शृंखला के सभी गुण इसमें मिलते हैं। ‘खतरे का हथौड़ा’ मूल रूप से एक लॉकड-रूम मर्डर मिस्ट्री है। लॉकड-रूम मर्डर मिस्ट्री रहस्य कथाओं की वह विधा है जिसमें कत्ल एक बंद कमरे के अंदर होता है और जासूस को यह तो पता लगाना होता ही है कि कत्ल किसने किया पर साथ ही में यह भी पता लगाना पड़ता है कि यह असंभव कत्ल किस प्रकार हुआ। 

प्रस्तुत उपन्यास की शुरुआत अर्जुन भारद्वाज को आये फोन से होती है। सेठ पिशोरीलाल की हत्या के चक्कर में उनके बड़े बेटे अशोक को पुलिस ने पकड़ लिया है और उसकी पत्नी कमला चाहती हैं कि अर्जुन इस मामले में दखल दें। अर्जुन के पिशोरीलाल के घर पहुँचने के बाद से ही पता चल जाता है कि कुछ गड़बड़ है और वह हत्यारे का पता लगाने के लिए हाथ पैर मारने लगता है। हत्यारे का पता लगाना मुश्किल है क्योंकि सेठ पिशोरीलाल ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें उनके परिवार में या आस-पास भी कोई पसंद नहीं करता था। हर किसी के पास उसको मारने के कारण हैं और अब अर्जुन को पता लगाना है कि इनमें से किसने हत्या की है। वहीं चूँकि पुलिस भी बाद में इस मामले को आत्महत्या मानकर इसे रफा दफा कर देती है तो वह भी उसके लिए एक अलग मुसीबत हो जाती है क्योंकि उधर से कोई मदद मिलने की गुंजाइश नहीं रहती है। 

उपन्यास में कत्ल कैसे हुआ और वह किसने किया यह अंत तक पता नहीं लगता है। पाठक के साथ अर्जुन भी इस मामले में चक्करघिन्नी बनता हुआ सा महसूस होता है। वह अपनी कोशिश करता तो है तो लेकिन अंत तक वह कोशिश रंग लाती दिखती नहीं है। ऐसे में यह रहस्य कि कातिल कौन है और कत्ल क्यों हुआ अंत तक पृष्ठ पलटने पर आपको मजबूर कर देता है। 

अंत में जब अर्जुन को कत्ल करने के तरीके का अहसास भी होता है तो पाठक की नजर से वह बच जाता है और इसलिए जब अर्जुन रहस्य उजागर करता है तो वह पाठक को चौंकाने में सफल होता है। वहीं उपन्यास में लेखक ने रेड हेरिंग का उपयोग भी किया है जो कि शक की सुई घुमाने का काम भी करता है और पाठक को चौंकाने में मदद करता है। 

अर्जुन भारद्वाज अपनी जासूसी के लिए तो जाना जाता ही साथ ही कानून के बाहर जाकर जिस तरह वह अपराधियों का सफाया करता है वह भी उसे दूसरे प्राइवेट जासूसों से अलग बनाता है। उसका यह पहलू भी उपन्यास में देखने को मिलता है। 

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उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो अर्जुन और उसकी सेक्रेट्री शीना के बीच होने वाली चुहलबाजी मनोरंजक रहती है। विजय मेहरा और जयपाल का किरदार भी कॉमेडी का तड़का इस उपन्यास में लगाते हैं। उनकी बातचीत फिर वह आपस में हो या अर्जुन के साथ हँसाने का काम करती हैं। उपन्यास में पिशोरीलाल का किरदार एक कमीने बाप का दर्शाया गया है जो कि पैसों को संभाल कर रखता था लेकिन सच पूछो तो वह मुझे कमीना कम समझदार ज्यादा लगता था। उसके परिवार वाले जिस तरह से दर्शाये गए हैं उन्हें देखकर तो उसका रवैया ठीक ही महसूस होता है। उपन्यास के बाकी के किरदार कथानक के अनुरूप हैं। पिशोरीलाल के पड़ोसी जगदीश मल्होत्रा का किरदार ऐसा है कि उसे पढ़ते वक्त उस जैसे किसी पड़ोसी का पाठक के जहन में अक्स जरूर उभरेगा।  हाँ, अर्जुन के मातहत बंसल और पंडित काम के सिलसिले में ही दिखते हैं। उन्हें शीना जितनी फुटेज नहीं दी गयी है लेकिन मैं जरूर जानना चाहूँगा कि वह कौन हैं और अर्जुन से कैसे जुड़े। 

उपन्यास की कमियों की बात की जाएँ तो एक दो बातें हैं जो कि मुझे लगा बेहतर हो सकती थीं। 

सबसे पहली चीज तो उपन्यास का शीर्षक है। उपन्यास का शीर्षक ‘खतरे का हथौड़ा’ कथानक में कहीं फिट नहीं बैठता है। यह शीर्षक क्यों रखा गया यह एक ऐसा रहस्य है जो कि उपन्यास खत्म होने पर भी नहीं सुलझता है। अक्सर मैंने देखा है कि हिंदी अपराध साहित्य में शीर्षक को तर्कसंगत साबित करने के लिए लेखक शीर्षक का इस्तेमाल डायलॉग या नैरेशन में करते हैं लेकिन इधर ऐसा भी नहीं किया गया है। सच बताऊँ, अगर अर्जुन भारद्वाज ही किसी को कह देता है कि ‘मैं वो खतरे का हथौड़ा हूँ जो किसी पर पड़ता है तो उसकी जान ले लेता है’ तो भी मैं संतुष्ट हो जाता लेकिन अफसोस इतना भी इधर नहीं किया गया है। 

उपन्यास के अंत में अर्जुन और सूरजभान का आमना-सामना होता है। यह आमना-सामना जरूरत से ज्यादा सरलता से निपट जाता है। मुझे लगता है कि यह थोड़ा रोमांचक बन सकता था। अर्जुन जो करता है वो करने में उसे थोड़ी मेहनत लगती तो अच्छा रहता। 

इसके अलावा उपन्यास में बीच-बीच में संपादन की गलतियाँ हैं। एक दो जगह प्रूफ की गलतियाँ हैं और एक दो जगह डायलॉग भी बीच से गायब हैं जो कि पढ़ते समय खटकते हैं। उदाहरण के लिए: 

जब उसकी निगाह अर्जुन सिंह पर पड़ी तो जयसिंह के माथे पर बल पड़ गए। (अर्जुन सिंह नहीं अर्जुन भारद्वाज होना चाहिए था। )  (पृष्ठ 9)

रही बात केश की तो वह बेश चलता रहे। (केश नहीं केस होना चाहिए था) (पृष्ठ 62)

“य… यह आप क्या कह रहे हैं सर।” नीना साहसी हो उठी – “मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम कितनी अच्छी हो जाओ यहाँ से।” (बीच में नीना का डायलॉग रहना चाहिए था और उसके बाद अर्जुन का डायलॉग आना चाहिए था) (पृष्ठ 163)

अर्जुन ने ठिठककर, कहर भरी निगाहों से राना सूरजभान को देखा। 

“किसी भी हत्यारे को मैं कभी भी आजाद नहीं छोटा सूरजभान!”

“यह तो आने वाला वक्त बताएगा।” कहने के साथ ही अर्जुन भारद्वाज ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला और बाहर निकलता चला गया।  (यहाँ पर बीच में सूरजभान का एक डायलॉग आना चाहिए था जो कि गायब है। ) (पृष्ठ 184)

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया। अर्जुन भारद्वाज शृंखला की सभी खूबी इस उपन्यास में तो हैं ही साथ में एक अच्छी मर्डर मिस्ट्री भी लेखक ने पाठक को परोसी है। अगर आप लॉकडरूम मिस्ट्री या रहस्यकथा के शौकीन हैं तो आपको इसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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