संस्करण विवरण
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 150 | प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन | अनुवाद: शोभा आर कावेरी
पुस्तक लिंक: अमेज़न
‘द्वंद’ सुधा मूर्ति के दो लघु-उपन्यासों का संकलन है। प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इन लघु-उपन्यासों में केंद्रीय किरदार अपनी पहचान, अपनी जड़ों की तलाश करते दिखता है। वहीं एक भाई की तलाश भी इनमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिर एक रोचक बात ये भी है कि भले ही सुधा मूर्ती दक्षिण से आती हों लेकिन इस संकलन में मौजूद उनकी दोनों ही रचनाएँ उत्तर भारत की पृष्ठभूमि में रची गई हैं। मूलतः कन्नड़ में लिखी इन रचनाओं का अनुवाद शोभा आर कावेरी द्वारा किया गया है। अनुवाद अच्छा है।
इस पुस्तक में निम्न दो रचनाएं संकलित हैं:
द्वंद
कहानी
मुकेश को मालूम था जब तक उसके पिता है उसे कोई चिंता करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन वो कहाँ जानता था कि अचानक से उसके पिता का चला जाना उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देगा।
लेकिन ऐसा हुआ।
अपने पिता रामचरण त्रिवेदी के देहावसान के बाद उसे पता लगा कि वह वह नहीं था जो कि अब तक समझता आया था।
अब उसे अपनी पहचान को ढूँढना था।
आखिर मुकेश को अपने पिता के देहावसान के बाद क्या पता चला? उसकी इस यात्रा का क्या परिणाम निकला?
मुख्य किरदार
सोनिया – मुकेश की पत्नी
रामचरण त्रिवेदी – एक बड़े व्यवसायी और मुकेश के पिता
सुमन – रामचरण की पत्नी
नीलम – रामचरण और सुमन की लड़की
सतीश – नीलम का पति
विद्याचरण शर्मा – सोनिया की माँ
डेविड – मुकेश का दोस्त
शफ़ी – मुकेश का ड्राइवर
प्रशांत – सतीश और नीलम का बेटा
रुपिंदर – रामचरण त्रिवेदी और सुमन की पड़ोसी
सुरिंदर – रुपिंदर का पति
परमिंदर – रुपिंदर का भाई
किशन – रुपिंदर का छोटा लड़का
केशवलाल – विभावरी गार्मेंट्स का बाबू
मार्टिन – एक अमेरिकी व्यक्ति
विचार
‘मैं कौन हूँ?’ यह एक ऐसा प्रश्न है जो सदियों से मनुष्य को सालता रहा है। अक्सर अपनी पहचान को अधिकतर मनुष्य अपने परिवार, अपने इलाके, अपनी भाषा, देश इत्यादि से खोजने की कोशिश करता है। अधिकतर मनुष्य इसी पहचान के सहारे अपनी ज़िंदगी काट देता है। पर अचानक से अगर आपको पता लगे कि आप आजतक जिसे पहचान समझ रहे थे वह आपकी पहचान है ही नहीं तो व्यक्ति जिस द्वंद से गुजरता है वही लेखिका सुधा मूर्ति ने इस लघु उपन्यास द्वंद में दर्शाने की कोशिश की है।
किसी ने बताया था कि छह महीने पहले उसने उसको मार्केट बास्केट में एक ‘म्यास्की फूड’ में वेटर का काम करते देखा है।
मेरा भाई रेस्तराँ में वेटर है—यह जानकर मुकेश को बहुत कष्ट हुआ। भारतीय विचारों में पले होने के कारण उसे यह सब बुरा लगा; पर अमेरिका जैसे मुक्त समाज में इन बातों का कोई अर्थ नहीं होता। (पृष्ठ 72)
मुकेश को लगा कि उसका स्वाभिमान भी ठीक ही था। मुकेश उससे अमीर था—उसे यह पता होते हुए भी उसने मुकेश की अमीरी का दुरुपयोग नहीं किया। यही अमेरिकी संस्कृति है। (पृष्ठ 75)
जितना वह ढूँढ़ता है, जड़ें उतनी ही गहरी होती जा रही हैं। जिस किसी छोर पर पहुँचता, वहीं खो जाता। काश में उन्मुक्त उड़ते पंछी का नीड़ जैसे किसी ने उजाड़ दिया हो। उसे लगा कि उसके सिर पर न कोई छत है और न किसी की छाया। (पृष्ठ 51)
अंत में यही कहूँगा कि यह एक पठनीय लघु उपन्यास जो कि यह दर्शाने में सफल होता है व्यक्ति किनकी कोख से जन्मा ये महत्वपूर्ण नहीं होता। वह कहाँ पला बढ़ा और कैसा व्यक्ति बना ये महत्वपूर्ण होता है।
लघु-उपन्यास के कुछ अंश
जो काम करता है, वही तो गलतियाँ करता है। उसके लिए जी छोटा मत करो। जो राहों पर चलता है, वही ठोकरें खाता है, बैठा हुआ नहीं। गलतियों से ही आदमी सीखता है।’(पृष्ठ 11)
किसी ने सच ही कहा है कि भाग्य कर्मठ व्यक्तियों को ढूँढ़कर आता है। (पृष्ठ 36)
न्यायबुद्धि के लिए पढ़ाई-लिखाई की कोई जरूरत नहीं होती। उनमें सिर्फ अनुभव और तर्क की आवश्यकता होती है। (पृष्ठ 38)
विकसित देशों में यही समस्या है। पैसा बहुत है, पर धीरज कम। सबकुछ सोचने के साथ ही हो जाना चाहिए। (पृष्ठ 50)
दम तोड़ती एक माँ और क्या बोल सकती है? कोई भी देश हो, कोई भी जगह हो, माँ की भाषा एक सी होती है। (पृष्ठ 53)
गरीब हों तो भी हर्ज नहीं। बच्चों को माँ के आँचल में ही पलना चाहिए। माँ का साया जरूरी है। यहाँ छोड़ने से पता नहीं मुन्ना क्या बनेगा? नन्ही सी जान को सहारे और सुरक्षा की आवश्यकता होती है। इस देश में किसी भी उम्र में काम मिलता है, लेकिन मन को शांति नहीं मिलती। (पृष्ठ 55)
सबकुछ ठीक हो तो अमेरिका एक स्वप्ननगरी है, स्वर्गलोक है। दुर्भाग्यवश यदि कुछ अनहोनी हो जाए तो जिंदगी ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती है। (पृष्ठ 56)
कृतज्ञता दिखाना सबसे बड़ा गुण है। यही हमारी संस्कृति है। कुछ ही लोगों में यह गुण पाया जाता है। (पृष्ठ 59)
अमेरिका में लोग भागते रहते हैं। रिश्तों को कायम करने के लिए समय ही नहीं मिलता। (पृष्ठ 74)
तर्पण
कहानी
रामप्रसाद बैंक में अफसर था जो कि ट्रांसफर होकर दिल्ली से लखनऊ आया था।
लखनऊ में अपने परिचित के गाँव गए रामप्रसाद को जब कुछ लोगों ने शंकर मास्टर कहकर संबोधित किया तो उसका सिर चकरा गया।
आखिर गाँव के लोगों ने उसे शंकर मास्टर क्यों कहा?
कौन था ये शंकर मास्टर?
क्या सच में उसकी शक्ल रामप्रसाद से मिलती थी?
किरदार
शांता – रामप्रसाद की पत्नी
सूर्यनारायण राव – शांता के पिता
किरण – रामप्रसाद और शांता की बेटी
रवि – रामप्रसाद और शांत का बेटा
वीणा पुरषोत्तम – दिल्ली की रईसों में एक
प्रियंका – वीणा की बेटी
श्यामप्रसाद श्रीवास्तव – रामप्रसाद के पिता
जानकी – श्यामप्रसाद की माँ
इंदिरा – श्याम प्रसाद की पत्नी
सुनीता – किरण की दोस्त
सतीशचंद्र अवस्थी – सुनीता के पिता
प्रभावती – सतीशचंद्र जी की पत्नी
शिव शंकर शर्मा – एक व्यक्ति जिसकी शक्ल रामप्रसाद से मिलती थी
विचार
‘तर्पण’ संकलन का दूसरा लघु उपन्यास है। लघु उपन्यास का कन्नड़ नाम पुस्तक ने नहीं दिया है। दिया होता तो बेहतर होता।
कहानी के केंद्र में राम प्रसाद है। राम प्रसाद एक बैंक में कार्यरत है। कहानी की शुरुआत उसके ट्रांसफर होने की खबर से होती है। इसके बाद उसके परिवार वालों और उनसे उसके समीकरणों के विषय में पाठक को पता लगता है। ट्रांसफर होने के बाद जब रामप्रसाद लखनऊ पहुँचता है तो संयोगवश उसे पता लगता है कि उसकी शक्ल का एक व्यक्ति है। यह व्यक्ति कौन है और क्या उसका इससे रिश्ता हो सकता है? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए रामप्रसाद क्या क्या करता है? उत्तर जानने के बाद वो क्या करता है? और उसके निर्णयों को लेकर उसके परिवार वाले कैसी प्रतिक्रिया देते हैं? यही सब उपन्यास का कथानक बनता है।
राम प्रसाद अपने शब्दो में बोलने वाला नहीं अपितु सुनने वाला व्यक्ति है। यही कारण है कि उसके घर में उसकी पत्नी की चलती है। फिर इसका एक कारण ये भी कि उसके परिवार की मौजूदा अच्छी माली हालत उसकी पत्नी के निर्णयों के कारण ही है। पर रामप्रसाद अपनी पत्नी से अलग पैसे को इतना महत्व नहीं देता है। यही कारण है कि उसकी पत्नी और उसका बेटा, जो कि पैसे को महत्व देने वालों में से, उसको महत्वपूर्ण नहीं समझते है।
वहीं उसकी बेटी क्योंकि उसके जैसे है इसलिए वो उसको मानती है और उसको समझती है।
इस परिवार के चारों लोगों के सोचो के कारण इनके बीच में क्या समीकरण बनते हैं ये देखना रोचक होता है। कई बार पैसे की अत्यधिक चाह कैसे व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है यह इधर दिखता है।
रामप्रसाद जब दिल्ली से लखनऊ जाते हैं तो वो अवस्थी जी के यहाँ ठहरते हैं। अवस्थीजी रामप्रसाद से कई मामलों में अलग हैं, कई मामलों में जिंदादिल हैं। रामप्रसाद के जो अनुभव उधर होते हैं उसके माध्यम से लेखक ने दिल्ली जैसी महानगरीय जिदंगी और लखनऊ जैसे छोटे शहर की जिंदगी के बीच के फर्क को दर्शाया है। वहीं जब रामप्रसाद जब अवस्थी जी के गाँव जाते हैं तो इस यात्रा के माध्यम से गाँव और शहर के बीच के फर्क को भी दिखलाने की कोशिश की है।
इसके अलावा एक कहानी भागीरथी की भी है। भागीरथी शिवशंकर की माँ है। अक्सर महिला और पुरुष के रिश्ते को एक ही नजर से लोग देखते हैं। इस कारण कैसे किसी मासूम के ऊपर कष्टों का पहाड़ टूट सकता है ये दिखता है।
इन सभी किरदारों के जीवन के अपने नजरिए हैं और लेखिका ने उन नज़रियों को दर्शाया है। उन्होंने किसी को सही और किसी को गलत नहीं कहा है। बस यह दर्शाया है कि कई बार चुप रहने से काम नहीं चलता। जब जरूरी हो तब बोलना आवश्यक हो जाता है और अपने निर्णय पर दृढ़ रहना भी। सभी किरदार जीवंत हैं और इन्हें पढ़ते हुए अपने पास मौजूद ऐसे किरदारों की याद आ जाती है।
लघु-उपन्यास का शीर्षक तर्पण है जो कि कथानक पर फिट बैठता है। रचना में जो रहस्य होता है वो इसी कारण उजागर होता है।
तर्पण की कहानी तो अच्छी है लेकिन इस ई-संस्करण में सम्पादन की दिक्कत है जो कि पढ़ने के अनुभव को खराब करते हैं। इसके अतिरिक्त रचना का महत्वपूर्ण अंश ही गायब है जो कि पढ़ते हुए अनुभव को किरकिरा कर देता है। कहानी का अंदाजा तो हो जाता है लेकिन एक अधूरेपन का अहसास इस कारण बना रहता है। अगर ई संस्करण की गुणवत्ता को ठीक किया जाए तो बेहतर होगा।
उदाहरण के लिए:
माँ तो क्या, मैं तुम्हारी माँ से भी जबान नहीं लड़ाता। (पृष्ठ 90)
यहाँ पर या तो दादी होना चाहिए था या फिर पिता की माँ।
किंतु पोते की शादी के पहले ही जानकी स्वर्ग सिधार गईं। घर में जैसे एकदम अँधेरा-सा छा गया। इसी दौरान उनका तबादला कानपुर में हुआ। वहीं रवि पैदा हुआ। कानपुर से जब दोबारा दिल्ली आए तो इंदिरा हार्ट अटैक से मर गईं। आगे छह महीने में ही श्रीवास्तवजी लकवा के शिकार हो गए। जबान पूरी तरह बंद हो गई। सबकुछ अँगुलियों के जरिए इशारा करके दिखाते। उसी प्रकार बातें भी करते। कई बार तो उनकी बातें किसी को समझ में ही नहीं आती थीं। अधिक दिनों तक शांता से सेवा-शुश्रूषा कराए बिना वे जल्दी ही गुजर गए। (पृष्ठ 88)
‘‘बेटे, ऐसी बात नहीं है। शांता घर पर ही रहती है ना। जब मेरे माँ-बाप गुजरे, तब हमारे लिए तो जैसे आसमान सिर पर गिर पड़ा। उनके रहते सभी यही कहते—रामू को क्या पता, वह तो अभी छोटा है। जब अचानक वह बड़ा बना तो जिम्मेदारियाँ अपने आप समझ में आने लगीं।’’ ‘‘अच्छा, उस समय शायद दादी ने हम लोगों की मदद की होगी।’’ ‘‘हाँ, तुम्हारी दादी बहुत व्यावहारिक थीं। उन्हें सब चीजों का अच्छा ज्ञान था। इसलिए उन्होंने मुझसे लोन लेने के लिए कहा और चार बाग में दो साइट पर कमर्शियल बिल्डिंगें बनवाईं। (पृष्ठ 90)
यहाँ पर दादी लिखा है लेकिन शायद माँ होगा क्योंकि दादी तो शादी से पहले ही गुजर गई थीं।
श्रीवास्तवजी हमेशा अपनी बेटी से कहते, ‘हरेक में कोई-न-कोई कमजोरी होती है। उस कमजोरी को पहचानने की क्षमता आपमें होनी चाहिए। अपनी कमजोरियों को कभी दूसरों को पता नहीं लगने देना चाहिए।’ (पृष्ठ 92-93)
यहाँ श्रीवास्तवजी लिखा है लेकिन श्रीवास्तव तो रामप्रसाद के पिता थे। शांता के पिता सूर्यनरायण राव थे।
भगीरथी जब अपनी कहानी सुनाती है तो कहती है:
उनका बड़ा बेटा डाकिया था और छोटा बेटा लखनऊ में पढ़ता था। छोटे बेटे की नजर भागीरथी पर थी। उसने मन-ही-मन उसे पत्नी स्वीकार कर लिया था। (पृष्ठ 125)
यहाँ छोटा बेटा बजरंग है जो कि भागीरथी से पाँच साल बड़ा रहता है। लेकिन आगे जाकर कहा जाता है:
न बजरंग और न भागीरथी—दोनों में से कोई इस शादी के लिए राजी नहीं हुआ। उनका कहना था कि साथ-साथ पले हैं और उनमें भाई-बहन जैसा प्यार है। वे शादी की बात सोच भी नहीं सकते। (पृष्ठ 126)
ऐसे ही कई जगह हुआ है। इसके अलावा एक प्रसंग है जिसमें रामप्रसाद शिव शंकर की कहानी बता रहा है। वो भी अधूरा है। ऐसे में शिव शंकर की आधी ही कहानी पाठकों को पता लगती है।
एक और मुख्य चीज मुझे समझ नहीं आई। शुरुआत में दिया गया है कि रामप्रसाद के पिता श्रीवास्तव थे लेकिन जब वो तर्पण करते हैं तो अपने पूर्वजों का नाम शर्मा लेते थे। ये थोड़ा अटपटा लगता है।
अंत में यही कहूँगा कि तर्पण एक पठनीय उपन्यास है। अपने जैसी शक्ल वाले की खोज में निकला नायक किस तरह से खुद अपने को, अपनी जड़ों को और अपने भीतर की दृढ़ता को पा लेता है यह देखना अच्छा लगता है।
लघु उपन्यास के कुछ अंश:
केवल रंग ही सुंदरता की पहचान नहीं है। व्यक्ति के गुण चेहरे पर दिखाई दे जाते हैं। (पृष्ठ 81)
जहाँ भावनाएँ नहीं होतीं वहाँ बिजनेस जैसा व्यवहार करना आसान है; पर जहाँ दिल की भावनाएँ बीच में आ जाएँ वहाँ काम करना मुश्किल पड़ता है। ऊपर उठने के लिए व्यावहारिक होना चाहिए, भावुक नहीं।(पृष्ठ 82)
ऐसे तेज जबानवालों के साथ जीना मुश्किल होता है। वे सही हों या गलत, अपनी ही चलाते हैं। उनसे बातें करना पत्थर पर सिर मारने के बराबर है। पत्थर पर सिर मारने से क्या होगा? हमारा अपना ही सिर फूटेगा, उन्हें कुछ नहीं होगा। जिंदगी में यदि शांति चाहिए, लोगों के बीच मर्यादा चाहिए तो चुप बैठना बेहतर है। (पृष्ठ 90)
मनुष्य यदि तृप्त रहना सीख जाए तो बहुत से रोगों से बच सकता है और दुनिया की कोई समस्या हो ही नहीं। (पृष्ठ 96)
यह ग्रामीण जीवन की विशेषता है। जान-पहचान के बिना ही वे आपसे सवाल-जवाब करेंगे। किसी तरह आपको बातों में घसीट लेंगे। (पृष्ठ 120)
अंत में यही कहूँगा कि अपनी जड़ों को खोजते इन किरदारों की कहानियाँ पठनीय हैं। यह दर्शाती हैं कि व्यक्ति का खून के रिश्ते से जुड़े होने से अधिक व्यक्ति के भीतर मनुष्यता होनी जरूरी है। अगर ऐसा नहीं है तो पैसा इत्यादि किसी काम का नहीं रह जाता है। पैसा कई बार किस तरह व्यक्ति को स्वार्थी बना देता है यह भी इधर दिखता है। वहीं व्यक्ति के अंदर स्वार्थ न हो तो किस तरह पैसे का सही प्रयोग वो कर सकता है यह भी दिखता है।
सुधा मूर्ती अपनी भाषा की सुगमता और सुलभता के लिए जानी जाती हैं। वह इधर दिखता है। महत्वपूर्ण बातों को भी वह बिना लाग लपेट के सहज भाषा में कह देती हैं।
बस अगर तर्पण में संपादकीय गलतियाँ कम होती तो बेहतर होता। उनसे पढ़ने का अनुभव बाधित हुआ है। उम्मीद संशोधित की जाएगी।
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