पाठक जानते हैं कि पृथ्वी गोल है। पृथ्वी के गोले की तरफ यूरोप, एशिया और अफ़्रीका की पुरानी दुनिया और दूसरी तरफ़ अमेरिका की नयी दुनिया है। दोनों गोलार्द्धों का ध्रुव ठीक 90 अंश पर है। वहाँ हमेशा बर्फ़ जमी रहती है। बर्फ़ के भयंकर तूफ़ान आया करते है, समुद्र जम कर बर्फ़ की चट्टान की शक्ल का हो जाता है। अतएव मनुष्य के लिए ध्रुव प्रदेश प्रायः अगम्य है। परंतु महा अध्यवसायशील यूरोप और अमेरिका वाले अगम्य को गम्य, अज्ञेय को ज्ञेय और अदृश्य को दृश्य करने के लिए भी यत्न करते हैं। 1827 ई. से लेकर आज तक कितने ही उद्योगी आदमियों ने उत्तरी ध्रुव तक पहुँचने, वहाँ की सैर करने, वहाँ स्थिति प्रत्यक्ष देखने का यत्न किया है। उन्हें इस काम में बहुत कुछ कामयाबी भी हुई है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की स्थिति प्रायः एक सी अनुमान की जाती है। अब तक लोगों का ध्यान विशेष करके उत्तरी ध्रुव तक पहुँचने ही की तरफ़ था; पर कुछ समय से दक्षिणी ध्रुव पर भी चढ़ाइयाँ शुरु हुई हैं। उनमें से कुछ का संक्षिप्त वृतांत इसके पहले के लेखों में दिया जा चुका है। इस लेख में दक्षिणी ध्रुव के विषय में नहीं, किंतु उत्तरी ध्रुव पर की गयी एक नवीन चढ़ाई का कुछ हाल पाठकों को सुनाना है। 1896 ईसवी में डॉक्टर नानसेन ने उत्तरी ध्रुव पर चढ़ाई करके बहुत नाम पाया। वे 86 अक्षांश तक पहुँच गए थे। उत्तरी ध्रुव पर चढ़ाइयाँ तो कई हुई है; पर उनमें से 9 मुख्य है। इन चढ़ाइयो के नायकों के नाम, चढ़ाई का साल और उसकी अंतिम सीमा के अक्षांश हम नीचे देते हैं—
नाम | सन् | अक्षांश |
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डब्लू. ई. पारी | 1827 | 82-45 |
सी एफ हॉल | 1870 | 82-11 |
जूलियस पेयर | 1874 | 82-05 |
सी. एस. नेयर्स | 1876 | 83-20 |
ए. डब्लू. ग्रीली | 1882 | 83-24 |
वॉल्टर वेल मैन | 1889 | 82-00 |
एफ. नानसे | 1896 | 86-14 |
ड्यूक ऑफ़ अबरुजी | 1900 | 86-34 |
रॉबर्ट ई. पीरी | 1902 | 84-17 |
इससे पाठकों को मालूम हो जाएगा कि नानसे 86 अंश 14 मिनट तक ही जा सके थे; पर ड्यूक ऑफ़ अबरुजी, उनके बाद उनसे भी दूर अर्थात् 86 अंश 34 मिनट तक पहुँचे थे। अब एक अमेरिकन साहब ने इन ड्यूक महाशय को भी मात दिया हैं। आपका नाम है कमांडर पीरी। उत्तरी ध्रुव पर चढ़ाई करने के लिए आप 16 जुलाई 1905 को उत्तरी अमेरिका के न्यूयार्क शहर से रवाना हुए थे कोई डेढ़ वर्ष बाद आपकी चढ़ाई का फल प्रकाशित हुआ है। उससे मालूम हुआ है कि आप 87 अंश 6 मिनट तक गए। वहाँ से आगे नही जा सके। अर्थात् उत्तरी ध्रुव से कुछ कम 3 अंश इधर ही रह गए। यही बहुत समझा गया है। लोग धीरे-धीरे आगे ही बढ़ रहे है। बहुत सम्भव है किसी दिन कोई 90 अंश तक पहुँचकर ध्रुव के दर्शनों से कृतकृत्य हो आए। कमांडर पीरी ने उत्तरी ध्रुव के पास बर्फ़ से भरे हुए समुद्र में चलने लायक़ एक ख़ास तरह का जहाज़ बनवाया। 16 जुलाई 1905 को वह जहाज़ न्यूयार्क से चला। उस पर सब मिलाकर 20 आदमी थे। वे सब कप्तान वार्टलेट की निगरानी में थे। पीरी साहब जहाज़ के साथ नहीं रवाना हुए। उत्तरी अमेरिका के ठेठ पूर्व, समुद्र से सटे हुए, नोवा स्कोटिया के ब्रेटन नामक अंतरीप में सिडनी नाम का एक बंदरगाह है। वही जाकर कमांडर पीरी जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ जहाज़ ने ख़ूब कोयला लिया। खाने-पीने का भी समान यथेष्ट लादा। 26 जुलाई को जहाज़ ने सिडनी से लंगर उठाया। जहाज़ का नाम ‘रुज़वेल्ट’। अमेरिका की संयुक्त रियासतों के सभापति रुज़वेल्ट के नामानुसार इसका नाम रखा गया है। 29 जुलाई को यह जहाज़ ‘डोमिनोरन’ नामक बंदरगाह मे पहुँचा। वह जगह लबराडोर नाम के टापू में है। वही उत्तरी अमेरिका के पूर्व है और अँग्रेज़ों के न्यूफ़ौडलैड टापू के अंतरर्गत है। वहाँ से वह ग्रीनलैड की तरफ़ उत्तर को रवाना हुआ। 7 अगस्त को वह ग्रीनलैड के यार्क नामक अंतरीप में पहुँचा और 16 को एटा नाम के बंदरगाह में। इस जहाज़ के साथ उसकी एक मददगार भी था। उसका नाम है ‘यारिक’। यह जहाज़ ग्रीनलैड के कितने ही स्थानों में, वहाँ के निवासियों तथ कुत्तों को लेने के लिए घूमता फिरा। जब यह काम हो चुका तब 13 अगस्त को उसने लाए हुए कुत्तों और आदमियों को ‘रुज़वेल्ट’ के हवाले किया। एटे में ‘रुज़वेल्ट’ कई दिन तक ठहरा। अपने प्रत्येक पुर्जे की परीक्षा करके उन्हें ख़ूब साफ़ किया। जहाँ तक कोयला लाद सका ‘यरिक’ से लिया। क्योंकि अब आगे और कोयला मिलने की आशा न थी। 200 कुत्ते और यस्किमो नामक जाति के 23 आदमी भी ‘यरिक’ से उसने लिए। यस्किमो जाति के लोग बर्फ़िस्तानी देशों और टापुओं मे रहते है। बर्फ़ में रहने का उन्हे जन्म ही से अभ्यास रहता है। वे उत्तरी ध्रुव के आस-पास के प्रदेश से ख़ूब परिचित होते है। इसलिए कमांडर पीरी ने उनको अपने साथ ले जाने की ज़रूरत समझी।
बर्फ़ में डूबे हुए उत्तरी ध्रुव के पास वाले प्रदेश में, गत वर्ष, पीरी साहब ने जो अनुभव प्राप्त किया, और जो कुछ उन पर बीती, उसका संक्षिप्त वृत्तांत उन्होंने 2 नवंबर 1906 को लिखकर रवाना किया है। लबराडोर के होपडेल नामक स्थान से उन्होने यह वृत्तांत न्यूयार्क को भेजा है। उसका मतलब हम थोड़े में उन्ही की ज़बानी यहाँ देते हैं—
उत्तरी समुद्र के किनारे, ग्रांट रोड नामक भू-प्रदेश के पास ‘रुज़वेल्ट’ ठहरा। वहीं उसने जाड़ा बिताया। फ़रवरी में हम लोग बर्फ़ पर चलने वाली स्लेज नामक छोटी-छोटी गाड़ियाँ लेकर उत्तर की ओर रवाना हुए। हेकला और कोलम्बिया के रास्ते हम आगे बढ़े 84 और 85 अक्षांशों के बीच हमें खुला हुआ समुद्र मिला। उस पर बर्फ़ जमा हुआ न था। तूफ़ान ने जमे हुए बर्फ़ को तोड़ फोड़ ड़ाला; हमारे खाने पीने की चीज़ों को बर्बाद कर दिया; हमारी टोली के जो लोग पीछे थे, उनका लगाव काट दिया। इस कारण आगे बढ़ने में बहुत देर हुई। किसी तरह हम लोग 87 अक्षांश 6 मिनट तक पहुँचे। आगे बढ़ना असम्भव हो गया। लाचार लौटे। लौटती बार 8 कुत्ते मारकर खाने पड़े। कुछ दिनों में फिर खुला हुआ समुद्र मिला। उसमें पानी भरा था। राम-राम करके ग्रीनलैंड के उत्तरी किनारे पर पहुँचे। राह में अनेक आफ़तों का सामना करना पड़ा। बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलनें पर ग्रीनलैंड के सामुदायिक किनारे के दर्शन हुए। वहाँ के कई बर्फ़िस्तान बैल मारकर खाए। किसी तरह किनारे-किनारे चलकर जहाज़ के पास पहुँचे। हमारी टोली के जिन लोगों का साथ छूट गया था, उनमें से कुछ को तूफ़ान ग्रीनलैड के उत्तरी किनारे ले गया। कुछ आदमी एक तरफ़ गए, कुछ दूसरी तरफ़। एक टोली को मैंने भूखा मरते पाया और उसके प्राण बचाए। एक हफ़्ते ‘रुजवेल्ट’ पर रहकर हम लोग कुछ तरोताज़ा हुए। फिर ‘स्लेज’ गाड़ियों पर सवार हुए और पश्चिम की तरफ़ चले। ग्राटलैंड नामक भू-भाग के सारे उत्तरी किनारे को देख डाला। इतनी दूर चले गए कि उस किनारे की दूसरी तरफ़ जा पहुँचे। घर लौटती बार बर्फ़ और तूफ़ान का लगातार सामना करना पड़ा। ‘रुज़वेल्ट’ तूफ़ानों से बड़ी बहादुरी से लड़ता आया। बर्फ़ से लड़ने में ‘रुज़वेल्ट’ बड़ा बहादुर है। इस चढ़ाई में न कोई आदमी मरा और न कोई बीमार ही हुआ।
यह पीरी साहब की संक्षिप्त चिट्ठी है। आपको आशा थी कि आप उत्तरी ध्रुव तक ज़रूर पहुँच जाएँगें। पर नही पहुँच सके। बर्फ़ के तूफ़ानों ने उन्हें 87 अक्षांश से आगे नहीं बढ़ने दिया। तिस पर भी वे इतनी दूर तक गए जितनी दूर तक आज तक कोई नहीं गया था। पीरी साहब अमेरिका के रहने वाले है। अतएव उत्तरी ध्रुव की सैर करने वालो में, दूरी के हिसाब से, इस समय अमेरिका का नम्बर सब से ऊँचा है। पीरी साहब का इरादा था कि सबाइन अंतरीप से 350 मील उत्तर वे अपना खेमा रखेंगे। वहाँ से उत्तरी ध्रुव 500 मील है। राह में बर्फ़ के मैदान का विकट बियाबान है। इसे कोई डेढ़ महीने में पार कर जाने की उन्हें उम्मीद थी। परंतु तूफ़ानों की प्रचंडता ने उनकी आशा नहीं पूरी होने दी।
1876 ईसवी में नेयर नाम के जो साहब उत्तरी ध्रुव देखने के इरादे से 83 अक्षांश तक गए थे, उन्होंने लौट कर बतलाया था कि ग्रांटलैंड नामक भूभाग के उत्तर, 30 मील की लम्बाई-चौड़ाई में, समुद्र बिलकुल बर्फ़ से जमा हुआ है। आपने राय दी थी कि बर्फ़ 50 फुट तक गहरा था। तब से लोगों ने यह अनुमान किया था कि इस तरह का समुद्र बहुत करके ध्रुव के पास तक गया होगा और वह बहुत गहरा न होगा। उस पर बर्फ़ की बहुत मोटी तह ठेठ नीचे तक गयी होगी। लोगों ने समझा था कि यह बर्फ़ हज़ारों वर्ष का पुराना होगा और पत्थर की तरह अपनी जगह पर जम गया होगा। अतएव इन चट्टानों पर ‘स्लेज’ गाड़ियाँ आसानी से चल सकेंगी। परंतु कमांडर पीरी ने इस अनुमान को ग़लत साबित कर दिया। पीरी ने यथा सम्भव ‘स्लेज’ गाड़ियों से भी काम लिया और जहाज़ से भी। यदि बर्फ़ समुद्र के तल तक पत्थर की तरह जमा होता तो वह तूफ़ानों से न टूटता और पीरी की इच्छा के विरुद्ध उनके जहाज़ को ग्रीनलैंड की तरफ़, दक्षिण-पूर्व की ओर, न बहा ले जाता। पीरी ने समुद्र में बर्फ़ जमा ज़रूर पाया; पर वह पुराना न था। इसी से तूफ़ान के वेग से वह टूट गया, पानी के ऊपर बहने लगा, और अपने साथ ‘रुज़वेल्ट’ को भी ग्रीनलैंड की तरफ़ बहा ले गया। अतएव ‘स्लेज’ गाड़ियों पर सवार हो कर ध्रुव तक पहुँचने की आशा व्यर्थ है।
अनेक विघ्न बाधाओं को टालकर, और ‘स्लेज’ गाड़ियों पर दूर तक जाने में असमर्थ होकर भी, पीरी साहब 87 अक्षांश से भी कुछ दूर आगे बढ़ सके, यही ग़नीमत समझना चाहिए। आपकी यात्रा का सविस्तार वृतांत प्रकाशित होने पर कितनी ही अद्भुत बातों के मालूम होने की आशा है।