1 सितंबर को मशहूर लेखक राही मासूम रजा का जन्मदिन पड़ता है। राही मासूम रजा जी का जन्म 1 सितंबर 1927 को गाजीपुर जिले के गंगोलीं गाँव में हुआ था। उन्हें याद करते हुए गजानन रैना ने अपने खास अंदाज में एक लेख लिखा है। आप भी पढ़िए।
राही मासूम रजा |
इस सफर में नींद ऐसी खो गई
हम न सोये,रात थक कर सो गई
आज 1 सितंबर को उस शख्स का जन्मदिन है, जो हमारा था,तुम्हारा था,हम सबका था।
आज से चौरानबे साल पहले गाजीपुर के गंगौली गाँव में, जिले के सबसे मशहूर वकील,बशीर हसन आब्दी के घर बेटा पैदा हुआ ।
ग्यारह साल की उम्र में उसको टी बी हो गई थी। एक कोइरी नौकर रखा गया, कल्लू चाचा।
चाचा बेहतरीन किस्सागो थे। कहानी कहने का फ़न इस लड़के को उन्होंने ही सिखाया था ।
लड़के ने अलीगढ़ युनिवर्सिटी से ,हिंदी साहित्य में पी एच डी की और वहीं पढाने लगा।
उसकी गद्य और पद्य, दोनों पर बराबर मजबूत पकड़ थी। प्रगतिशील सोच होते हुए भी वो किसी संगठन या गुट से नहीं जुड़ा था।
उसने गजलों, नज्मों से लिखना शुरू किया था ।
” अजनबी शहर के अजनबी रास्ते ” याद हैं न?
“ज़हर मिलता रहा,ज़हर पीते रहें
रोज मरते रहें, रोज जीते रहें
जिंदगी भी हमें आजमाती रही
और हम भी उसे आजमाते रहे।
अजनबी शहर मे अजनबी रास्ते
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहें
मै बहुत दूर तक यूं ही चलता रहा
तुम बहुत देर तक याद आते रहें।”
फिर उसका ए एम यू से मोहभंग हुआ, नौकरी छोड़ वो मुंबई आ गया । यहाँ उसने ” सगीना”, ” मिली” और ” आलाप” जैसी फिल्मों के संवाद लिखे, ” आलाप ” के लिए गाने भी लिखे।
उसने ‘ सीन नंबर पचहत्तर ‘, ‘ ओस की बूँद ‘, ‘ असंतोष के दिन ‘, ‘ टोपी शुक्ला ‘ , ‘ कटरा बी आरजू ‘ और ‘ आधा गाँव ‘ जैसे कालजयी उपन्यास लिखे।
यह भी पढ़ें: ओंस की बूँद पर एक पाठकीय टिप्पणी
‘ कटरा बी आरजू ‘ अगर इमरजेन्सी पर भारी चोट था तो ‘ आधा गाँव ‘ विभाजन और बढ़ती सांप्रदायिकता पर अल्टीमेट टिप्पणी ।
एक दिलचस्प बात यह है कि उस ने अपने अभाव के दिनों में, अपनी रचनात्मकता बचाये रखने के लिए, पल्प फिक्शन भी लिखा।
“खुद को बेचा किये हम रोशनाई के लिए, ताकि कलम न हो खुश्क और कुछ रह न जाये लिखने से बाकी”
इलाहाबाद से निकहत पब्लिकेशन्स से निकलने वाली ‘ जासूसी दुनिया ‘ में दो लोगों में एक को चुना जाना था, एक था वो लड़का और दूसरे थे,इब्ने सफी। सफी चुन लिये गये,लेकिन जब वो बीमार हुये तो उस ने आफताब नासिरी के नाम से कई जासूसी उपन्यास लिखे।
‘ रूमानी दुनिया ‘ के लिए उसने शाहिद अख्तर और आफाक हैदर के नाम से रूमानी नावल लिखे।
इसी बीच उसने अठारह सौ सत्तावन के गदर पर एक काव्य लिखा ।
इसके अलावा उसने उन्नीस सौ पैंसठ के वार हीरो ,अब्दुल हमीद पर ‘ छोटे आदमी की बड़ी कहानी ‘ लिखी।
उसी का बूता था कि कभी तो नीम के पेड़ को पात्र बना दे तो कभी महाभारत की महागाथा में समय को सूत्रधार ।
ऐसा शख्स मिलना मुश्किल है, बल्कि नामुमकिन सा है,जो इस श्राप जैसे समय में कह सके कि,” मैं तीन माँओं का बेटा हूँ ,
नफ़ीसा बेगम ,अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी और गंगा। नफ़ीसा बेगम मर चुकी हैं, दो हैं और बहुत याद आती हैं ।”
उसकी वसीयत देखें , ” मेरा फ़न तो मर गया यारों, जिस्म नीला पड़ गया यारों, मुझे गाजीपुर ले जाना,वहाँ मुझे गंगा की गोद में सुला देना और गंगा से कहना कि,ले,तेरा बेटा तेरे हवाले है।”
वो राही था, राही मासूम रज़ा ।
‘मुँह की बात सुने हर कोई, दिल का दर्द है जाने कौन/ आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन।’
यह भी पढ़ें:
- रैना उवाच: खरीदी कौड़ियों के मोल
- रैना उवाच: कविता
- रैना उवाच: आवारा मसीहा की छवि और सामाजिक स्वीकृति की चाहत के बीच की खींचतान का नतीजा है अंतिम परिचय
- रैना उवाच: दो पसंदीदा कहानियाँ – स्मृतियाँ और तदुपरांत