किताब 25 अगस्त 2016 से 6 अक्टूबर 2016 के बीच पढ़ी गयी
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 291
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पहला वाक्य :
एक मुद्दत के बाद एक बार फिर इधर आया हूँ।
डायरी मनुष्य का व्यक्तिगत दस्तावेज़ होता है जिसमे वो बिना झिझक अपने मन के भावों को व्यक्त करता है। कहा भी जाता है किसी की डायरी उसकी जानकारी के बिना पढना शिष्टाचार के विरुद्ध होता है। लेकिन यही डायरी जब उसके लिखने वाले की मर्ज़ी से प्रकाशित हो तो ये जानकारी का एक अच्छा स्रोत भी बन जाता है। ये उस व्यक्ति को समझने में सहायक होता। उस व्यक्ति के नज़रिए से हम उसके आस पास की दुनिया और वक्त को देखते हैं। और एक नये दृष्टिकोण से वाकिफ होते हैं।
‘शाम’ अ हर रंग में’ में कृष्ण बलदेव जी कि डायरी के अंश संकलित किये गये हैं। डायरी में १९५४ से १९५८ और १९८३ से १९९० के वक्त की एंट्रीज़ हैं। कृष्ण बलदेव जी एक उपन्यासकार,अनुवादक, नाटककार रहे हैं। ये उनकी पहली रचना है जिसे मैंने पढ़ा। अगर डायरी की बात करूँ तो ऐनी फ्रैंक की डायरी के बाद ये दूसरी डायरी है जिसे मैंने पढ़ा है। मैं भी डायरी लिखना पसंद करता हूँ और इस कारण भी एक लेखक की डायरी पढने की इच्छा मेरे अन्दर थी। मैं देखना चाहता था कि एक लेखक कौन कौन सी बातें अपनी डायरी में दर्ज करता है। और मैं उनसे इस मामले में क्या ग्रहण कर सकता हूँ। फिर वो जिस समाज में विचरता है उसके तरफ उसका क्या नजरिया है इसको जानने की भी मेरे अन्दर उत्सुकता थी।
अगर किताब की बात करूँ तो डायरी पढ़ते हुए आप कृष्ण जी के अन्दर उठते अवसाद से रूबरू होतें हैं। डायरी के ज्यादातर हिस्से में वो कुछ बढ़िया न लिख पाने के कारण दुखी दिखते हैं। ये न लिख पाने के कारण उत्पन्न हुई ग्लानि और दुःख ही शायद उनसे ज्यादा लिखवाता है। अगर आप को कोई काम इतना पसंद हो कि एक दिन वो न करो और आप को अपने होने का दुःख होने लगे तो वो काम आपके लिए कितनी अहमियत रखता है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
बाकी डायरी के कंटेंट के विषय में कहूँ तो जिन लोगों को हम पढ़ते आये हैं या उनके विषय में सुनते आये हैं जैसे मुल्क राज आनन्द, कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, निर्मल वर्मा। उनके विषय में भी डायरी में लिखा गया है क्योंकि कृष्ण जी उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानते थे। इसके इलावा पाठक ये भी जान पाता है कि कृष्ण जी ने कौन कौन सी रचनाएँ कैसे कैसे लिखी यानी उनके विचार उन्हें कब आये, कौन से उपन्यास किस जगह जाकर खत्म किये इत्यादि। जैसे शुरुआत में ही पाठक को पता चलता है कि कृष्ण जी का उपन्यास ‘उसका बचपन’ उन्होंने रानीखेत, अल्मोड़ा में खत्म किया था। उधर रहने के दौरान वो काफी इंटरेस्टिंग करैक्टरस से भी रूबरू हुए जिनके विषय में पाठक जान पाता है। चौरासी के दंगों का भी इस डायरी में वर्णन है। और उस वक्त के पंजाब और उसके विषय में कृष्ण जी के क्या विचार थे इसे वो जान पाता है। डायरी में कई जगह उन्होंने अपने स्वप्नों को भी दर्ज किया है वो पढना भी रोचक था। हाँ, कुछ वर्षों के ब्यौरा सात आठ पृष्ठ में ही निपट गया है जो मुझे थोडा सतही लगा। ऐसा भी हो सकता है कि उन वर्षों में कुछ प्रकाशित करने लायक हुआ ही न हुआ हो।
इसके इलावा मुझे ये भी महसूस हुआ कि मुझे डायरी को पढने से पहले कृष्ण जी की बाकि रचनाओं को भी पढना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो मैं डायरी में दर्ज उस रचना के विषय में जानने के लिए ज्यादा उत्सुक होता। अभी मेरे लिए वो केवल कृति के नाम हैं। यह कमी मुझे शरत चन्द्र जी के ऊपर लिखी गयी पुस्तक ‘आवारा मसीहा’ पढ़ते हुए भी महसूस हुई थी। उस वक्त भी मुझे लगा था कि अगर मैंने शरत बाबू की सारी कृतियाँ पढ़ी होती तो आवारा मसीहा पढने का अनुभव जुदा होता। खैर, इसलिए मैंने इस पुस्तक को दुबारा पढने की श्रेणी में डाल दिया है। एक बार कृष्ण जी की रचनाओं को पढने के बाद मैं दोबारा इस डायरी को पढूंगा ।
इस डायरी के इलावा उनकी एक और डायरी ‘ख्वाब है दीवाने का’ पहले प्रकाशित हो चुकी थी। इसे भी मैंने उन पुस्तकों की सूची में जोड़ लिया है जिन्हें मैं पढना चाहता हूँ।
अगर आप कृष्ण बलदेव वैद जी की रचनाओं से वाकिफ हैं तो आपको ये डायरी जरूर पढनी चाहिए। अगर आप वाकिफ नहीं है और आप डायरी लिखने के शौक़ीन है तो भी इसे पढ़ सकते हैं। आप कुछ सीखेंगे ही जैसे मैंने सीखा और कृष्ण जी की बाकी रचनाओं को पढने की उत्सुकता भी शायद जाग जाये (जैसे मेरे अन्दर जागी है।)
डायरी में वैसे तो कई खूबसूरत अंश हैं लेकिन उनमे से कुछ ही इधर दूंगा। बाकी पढने के लिए आपको डायरी खरीद कर ही पढ़नी होगी।
इस वक्त कलम और हवा की आवाज़ के सिवा कोई आवाज़ कहीं से नहीं आ रही- अंदर से भी नहीं। बिजली नहीं, इसलिए अँधेरा भी यहाँ अधिक शुद्ध होता है।
पी रहा हूँ लेकिन चढ़ नहीं रही। अंदर कोई चट्टान से जमी पड़ी है जिसे यह शराब काट नहीं पा रही।
अशान्ति और अनास्था के बावजूद बामानी जीवन कैसे गुजारा जाए?ग़रीबी और ग़लाज़त कैसे दूर हो?
शैली में नायलॉन या टेरिलान या रेशम जैसी चिकनाहट मुझे अच्छी नहीं लगती। रेशम और रेत की सही मिलावट से बनी शैली ही मुझे प्रिय है।
अगर मैंने ऊब से प्यार किया होता तो उसकी तस्वीर मेरे यहाँ भी वैसी ही होती जैसी कि रूमानी ऊबकारों के यहाँ। मैं हमेशा ऊब से झगड़ता, उलझता, ऊबता ही रहा हूँ और मेरे इस रुख़ का अक्स मेरी शैली में है।
कल रात भर तड़पता रहा, आज दिन भर कुढूँगा- काम न कर पाने के कारण। मैं उन हिंदुस्तानी लेखकों से भिन्न नहीं जो काम के बजाए काम न कर पाने के बहाने खोजते रहते हैं। बाहर के अधिकतर लेखक हर क़िस्म की हालत में काम करते रहते हैं। लेकिन नहीं, हरामखोर हर कहीं मौजूद हैं।
अपने काम में हम वैसी ईमानदारी और आज़ादी से अपनी नज़र और ज़बान और कल्पना का इस्तेमाल नहीं करते जैसे आला अदब के लिए जरूरी समझी जाती है। हमारी ज़बान कोई ज्यादती नहीं करती, हमारी कल्पना के पर कटे ही रहते हैं, हमारी नज़र सतह पर ही रुकी रहती है। हम ऐसा लिखना चाहते हैं जिसे पढ़ कर हमारा कोई पडोसी या मेहमान या रिश्तेदार या मास्टर यह न सोचे कि यह तो हरामी निकला। हम भलेमानुस बने रहना चाहते हैं।
शान्ति नामुमकिन है। मस्ती और मौज के लम्हों की कीमत अशान्ति की सूरत में चुकानी पड़ती हैं। उमर ख़ायाम याद आता है। मैंने सारी उम्र घरेलु घेरे से नफ़रत की है और उसी घेरे में बन्द भी रहा हूँ। यह मेरी विडम्बना है। वैसे आज कुछ काम किया, जिसका सुरूर तो नहीं, कड़वा सा नशा जरूर है। सुरूर नशे से उधर और ऊपर की कैफ़ियत है।
अगर आपने डायरी पढ़ी है तो इसे विषय में आप क्या सोचते हैं ये बताना नहीं भूलियेगा। अगर नहीं पढ़ी है और पढना चाहते हैं तो इसे आप निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं:
अमेज़न
अगर आप कोई डायरी recommend करना चाहें तो कर सकते हैं। साहित्य की इस विधा में मेरी रुचि जागृत हो रही है। कुछ अच्छा पढने को मिले तो मज़ा आ जायेगा।