समरसिद्धा – संदीप नैयर

समीक्षा: समरसिद्धा - संदीप नैयर

प्रथम वाक्य :
‘दामोदर…. ‘
युद्धभूमि के प्रचंड शोर, धनुषों की टंकार और घोड़ों के टापुओं के तीव्र स्वरों के बीच भी यह चीख शत्वरी के कानों में गूँज उठी।

कहानी

शत्वरी एक ब्राह्मण कन्या थी। उसका जीवन एक सुगम संगीत की तरह मधुर था। पति का प्यार और संगीत की धुनें यही उसका जीवन था और इसी में वो खुश थी । लेकिन उसके जीवन में अमोदिनी नाम कि गणिका एक ग्रहण के भाँति अवतरित होती है और हालात ऐसे हो जाते हैं कि शत्वरी को ब्राह्मण से चंडाल घोषित कर लिया जाता है। वो अब बदले कि आग में सुलग रही है।

वहीं दूसरी ओर दक्षिण कौसल के राजा रुद्रसेन अपनी विस्तारवादी नीतियों के चलते एक छोटे राज मेकाल के तराई के कुछ गाँवों को अपने कब्जे में ले लेते हैं। मेकल के राजा नील अपने इलाकों को रुद्रसेन के कब्जे से छुड़ाना चाहतें हैं।

क्या वो ऐसा करने में कामयाब हो पाएँगे? आर्य समाज जहाँ वर्णव्यवस्था ऐसी हो चुकी है कि शूद्रों को दमन के सिवा कुछ नहीं मिलता, उसी समाज में शुद्र अब इस अन्याय के खिलाफ लड़ने को अमादा हैं। वो शत्वरी के नेतृत्व में दक्षिण कौसल के राज्य में विद्रोह करने को तैयार हैं। क्या वो अपनी कोशिश में सफल होंगे?

क्या होगा इन विभिन्न समारों का नतीजा ??

कौन जीतेगा इनमे??

ये जानने के लिए आपको उपन्यास पढ़ना पड़ेगा।

टिप्पणी:

समर्सिद्धा संदीप नैयर का प्रथम उपन्यास है। ये उपन्यास आठवीं शताब्दी ईसापूर्व के कालखंड में रचा गया है। शत्वरी और दामोदर के जीवन की कहानी, दक्षिण कौसल और मैकल के बीच का विवाद को संदीप जी ने बेहद खूबसूरती से दिखाया है। वर्णव्यवस्था और कैसे समाज के रसूखदार लोग धर्म की परिभाषा अपने हित में ढालने का प्रयत्न करते हैं इसको भी अच्छे से दर्शाया है। आज भी धर्म को लेकर यही स्थिति बनी हुई है इसलिए उपन्यास भले ही ऐतिहासक कालखंड में रचा गया है लेकिन उसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

उपन्यास मुझे भाया और इसकी भाषा कि खूबसूरती ने मेरे मन को मोह लिया। अलंकार और उपमाओं के ऐसे प्रयोग मैंने पहली बार पढ़ा और मैं लेखक को इसके लिए बधाई देना चाहूँगा। अगर आपको अलंकृत भाषा पढ़ना पसंद है तो यह पुस्तक आपको जरूर पसंद आएगी।

पर उपन्यास में कुछ कमियाँ भी हैं।  उपन्यास की शुरुआत बेहतरीन थी लेकिन अंत तक आते आते ऐसा लगा कि जैसे इसे  जल्दबाजी में निपटा दिया गया हो। जहाँ शुरुआती  कहानी यथार्थ के करीब लगती है वहीं इसका अंत एक ख्वाब जैसा प्रतीत होता है। सब कुछ अच्छा हो जाता है और सभी बाकी ज़िन्दगी हँसी ख़ुशी से बसर करते हैं। अगर लेखक अंत भी यथार्थ के निकट रखते तो बेहतर होता क्योंकि समाज में आज भी वो कमियाँ मौजूद हैं जिसके खिलाफ समरसिद्धा ने युद्ध किया था। ऐसे में उपन्यास का ऐसा अंत दिखाना उपन्यास के प्रति न्याय नहीं कर पता है।

अगर अंत को नजरंदाज कर दिया जाए तो समरसिद्धा एक पठनीय उपन्यास है जिसे आपको पढ़कर देखना चाहिए।

पुस्तक के कुछ अंश :

सुर और सम्बन्ध दोनों ही विचित्र होते हैं । जितनी कठिनाई से सधते हैं , उतनी ही सरलता से फिसल जाते हैं । 

‘रस का अर्थ है ‘सार’ या ‘सत्व’ ,’ आचार्य जी ने रस की परिभाषा देते हुए कहा ,’जिस प्रकार किसी फल या फूल का सत्व उनके रस में निचोड़ा जा सकता है उसी तरह जीवन का सार भी कुछ रसों में समाया होता है । जीवन को गति देने वाली इच्छाएं और भावनायें इन्हीं रसों में घुल कर बहती हैं । बिना रसों के जीवन निरर्थक है ‘। 

आप इस भ्रम में हैं कि अस्तित्व की रक्षा शक्ति से की जाती है, अस्तित्व की रक्षा शक्ति से नहीं विवेक से की जाती है, शक्तिशाली मिट जाते हैं पर विवेकशील जीवित रहते हैं । 

यह पुस्तक चंडालों का प्रतिशोध नाम से पुनः प्रकाशित हुई थी।

पुस्तक लिंक: अमेज़न


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “समरसिद्धा – संदीप नैयर”

  1. संदीप नैयर जी के उपन्यास समरसिद्धा की आपने अच्छी समीक्षा लिखी है।
    हाँ, बहुत बार ऐसा होता है की कहानी जिस रोचकता से आरम्भ होती है उसी रोचकता से समापन नहीं हो पाती।
    -मुझे कालखण्ड विशेष की ऐसी कहानियाँ बहुत अच्छी लगती है। उपन्यास पढने की इच्छा जागी है।
    धन्यवाद।

    1. पढ़कर कैसी लगी? यह जरूर बताइयेगा।

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