व्यंग्य: समोसा और जलेबी – प्रांजल सक्सेना

व्यंग्य: समोसा और जलेबी - प्रांजल सक्सेना

प्रांजल सक्सेना शिक्षक और लेखक हैं। अपनी रचनाओं में हास्य और व्यंग्य का तड़का वो लगाते हैं। आज एक बुक जर्नल में पढ़ें अहिष्णुता पर प्रांजल सक्सेना का व्यंग्य ‘समोसा और जलेबी’।


बंसी बोला – “ अरे! सेठजी ये असहिष्णुता तो कुछ कहिए मत। बेड़ा गर्क कर रखा है इसने। दिन भर लोग इसी की बात करते हैं और हमारी दुकान का ये टी. वी. भी लोग बस समाचार ही देखते रहते हैं। पहले पुराने गाने चलते पर अब यही असहिष्णुता चलती रहती है। अच्छा खून पीया है इसने।”

हम बोले – “पर फैली कैसे ये ? इतना शोर तो तब भी न हुआ था जब भारत-पाकिस्तान अलग हुए थे।”

बंसी बोला – “सेठजी सब बखत-बखत की बात है। अब हाथ में फोड़ा निकल आए तो भी आदमी दुनिया भरके काम कर सकता है पर अगर पैर में फोड़ा निकल आए तो पक्का लँगड़ाएगा। वैसे इन नेताओं का भी जबाव नहीं अंग्रेजों ने 70 साल पहले जो फसल बोई थी हिंदू-मुस्लिम में अलगाव की उसे ये आज तक काट रहे। किसी का जखम देख लें तो उस पर मरहम लगाने के बजाय कुरेदने लगेंगे।”

“हाँ बिलकुल सही विश्लेषण बंसी हम अपने मस्तिष्क में नोट करे जा रहे हैं ये सब बातें लिख डालेंगे और अपने को महान विश्लेषक सिद्ध करेंगे।”

हमने आगे कहा – “वैसे बंसी हमें लगता है कि हिंदू-मुस्लिम के बीच ये खाई पटना मुश्किल है क्योंकि इसे खोदा है अंग्रेजों ने। अब अंग्रेजों की तो सारी चीजें वैसे ही बहुत मजबूत हैं। उनके बनाए पुल ही देख लो कइयों की एक्सपाइरी निकले 20 वर्ष हो गए हैं पर फिर भी बढ़िया चल रहे हैं। जबकि आज के ठेकेदार ऐसे पुल बना रहे हैं कि जब तक रेलिंग लगने का नम्बर आता है उसमें छेद होने लगते हैं।”

अबकि बंसी ने कोई उत्तर न दिया हमें देखकर केवल मुस्कुराए। फिर दन्नू से कहा – “चल दन्नू चाय में सब कुछ डाल दिया है देखता रह बस उबलकर गिरे न। आज समोसे और जलेबी मैं बनाऊँगा।”

दन्नू बोला – “पर तुम क्यों बनाओगे? काम सही तो कर रहा हूँ न। मुझे निकालने के तो चक्कर में न हो न।”

बंसी बोला – “अगर अभी चाय पर ध्यान न दिया तो जरूर निकाल दूँगा अब हट यहाँ से।”

अब बंसी ने जलेबी और समोसे बनाने की कमान सम्भाल ली थी और मंद आँच पर रखी चाय की चौकीदारी दे दी थी दन्नू को। आलू को कढ़ाई में डालकर बंसी बोला – “वैसे सेठजी एक बात बताऊँ समय लगता है कोई काम करने में। अगर काम करने वाले को कोई काम करने दे न इतिहास भी बदल जाता है। अब तीन-चार सौ साल अंग्रेजों ने राज किया भारत पर। पर जब उनको उखाड़ फेंका हम लोगों ने तो उनके जहर के बीज को…”

बंसी की बात पूरी होने से पहले ही दन्नू बोला – “अरे! जे का डाल रहे हो आलू में?”

बंसी बोला – “तू काम देने मोए को मेरे हिसाब से बस चाय पर नजर रख।”

दन्नू मुँह बिचकाकर रह गया। “सेठजी , अंग्रेजों के जहर का बीज तो यूँ ही खतम हो जाए बस उसको खाद पानी न मिले। उजले मुखड़ों वाले ने जो काम किया उसे उजले लिबास वाले खतम करने के बजाय बढ़ा रहे।”

फिर 5 मिनट ऐसे ही शांति रही । बंसी ने 8–10 जलेबियाँ तलीं और उन्हें निकालकर एक बर्तन में रखा। दन्नू पुन: बोल पड़ा – “अरे ! अब जे का कर रहे हो सब जलेबिन का …”

दन्नू की बात पूरी होने से पहले ही बंसी जोर से बोला – “तू चाय का खौला देख पहले।”

दन्नू ने भगौने में चाय का उबाल देखकर तुरंत चूल्हा बंद किया। बंसी बोला – “अपने काम में ध्यान है न मेरे काम में अड़ँगा लगा रहा है। जा जाकर चाय देकर आ सेठजी को फिर प्लेट में जलेबी लगा मैं समोसे तलता हूँ तब तक।”

दन्नू बोला – “ठीक है हम काहे अड़ँगा लगाएँगे। पर काका तुम्हारा दिमाग जरूर सड़ गया है जे असहि…..सू जो भी है उसके चक्कर में।”

‘दन्नू बार–बार क्यों टोक रहा है बंसी को? ये बंसी का प्लान क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दुकान पर मुझे अकेला देख कुछ मिलाकर दे दे चाय में और मेरी खटारा द्विचक्रवाहिनी और सस्ता मोबाइल लूट ले।’ हम सोच ही रहे थे कि चाय आ गयी। चाय सुरक्षित थी क्योंकि दन्नू ने बनाई थी। दन्नू चाय रखकर चला गया। हमने चाय का पहला कश अर्थात पहली चुस्की ली। अहा! चाय तो बंसी की वास्तव मे अति उत्तम थी। दन्नू ने जलेबी और समोसे दो प्लेटों में रखी और ले आया मेज पर।

हमने जलेबी और समोसे को देखा तो समझ नहीं आ रहा था कि खाएँ या नहीं। मस्तिष्क ने कहा कहीं ऐसा न हो कि खाएँ और लुढ़क जाएँ ,तभी उदर ने कहा आज तक मस्तिष्क की मानकर ही सारे काम किए हैं क्या? चुपचाप खाओ और मुझे संतुष्ट करो। अगर लूट भी लिया तो भी इन पुरानी चीजों से छुटकारा मिलेगा। चुपचाप उठाओ और खा लो।

स्पष्ट था कि हम उदर की ही बात सुनते। हमने सोचा पहले चटपटा खाएँ तो उठाया समोसा और दाँत गड़ा दिए। पर आएँ ये कैसा स्वाद आया मीठा लगा ये तो। लगता है हमारी खोपड़ी इस असहिष्णुता के चक्कर में सत्यानाश हो गयी है जो चटपटे को मीठा समझ रहे हैं। हमने चाय की तीन चुस्कियों के साथ समोसा समाप्त किया।

बंसी बोला – “सेठजी, समोसा कैसा लगा?”

हम सकुचाकर बोले – “समोसा, हाँ समोसा, बहुत बढ़िया। पर ऐसा लगा जैसे पान की दुकान पर पिज्जा खाया हो।”

बंसी बोला – “अभी जलेबी खाएँगे तो ऐसा लगेगा कि चाट वाले की दुकान पर आइसक्रीम खा रहे हों।”

हम अपनी बात कहकर स्वयं ही उसका अर्थ नहीं समझ पाए थे। ऊपर से बंसी ने एक और पहेली लाद दी थी। भाड़ में गया पहेली का अर्थ पहले जलेबी सपोटें। हमने प्लेट की सबसे बड़ी जलेबी उठाई और दाँतों को समर्पित करी पर ये क्या ये तो नमकीन लग रही।

अब हमसे न रहा गया, हम बोले – “ये क्या है बंसी? तुम्हारी दुकान पर समोसे मीठे थे और जलेबी नमकीन ऐसा क्यों?”

बंसी ने मारा गगनभेदी ठहाका और कहा – “सेठजी बताएँगे पर पहले आप ये बताओ कि आपको समोसे का मीठापन और जलेबी का चटपटापन अच्छा लगा कि नहीं?”

हम बोले – “चूँकि पहली बार खाया इसलिए अटपटा तो लगा पर फिर भी अच्छा लगा। इतना अच्छा जितना कभी चटपटा समोसा और मीठी जलेबी भी नहीं लगी।”

बंसी बोला – “सेठजी यही तो बात है समोसे से हमेशा उम्मीद रखी जाती है कि वो चटपटा हो और जलेबी से ये कि वो मीठी हो। पर अगर ये दोनों एक-दूसरे के स्वाद को पा लें और दिखने में वैसे ही रहें तो लोगों के मन को भा जाते हैं। हमने समोसे में नमक के बजाय डाली चीनी और जलेबी को चाशनी के बजाय डाला नमक के पानी में। अब स्वाद बदला तो बात आपके दिल में उतरी न।

अब देखिए सेठजी अखबार में कभी-कभी ये खबर आती है कि उस मंदिर में मुस्लिमों ने श्रमदान किया या उस मस्जिद के लिए हिंदुओं ने जगह दी तो बंसी की दुकान पर दिन में दसियों ग्राहक इस खबर को जोर-जोर से पढ़कर सुनाते हैं और सबके मन को पसंद आती है ये बात। पर फिर भी हर इंसान इसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल नहीं कर पाता। पता नहीं क्यों खूँटे से सोच को बाँधे रखता है। पर सेठजी जिस दिन हिंदू और मुस्लिम में पहले जैसी मोहब्बत ने जोर मारा न कसम से सोच के खूँटे उखाड़कर गले मिलेंगे दोनों।”

हम तो जनराय लेने आए थे पर बंसी ने तो अनमोल सबक दे दिया था वो भी अद्वितीय तरीके से। हम बोले – “वाह बंसी वाह तुम्हारी बातों की चाय सी मिठास और उनका नुकीलापन बिलकुल समोसे के तिकोनों सा है और ये जलेबी की भाँति गोल-गोल करके एक छोर पर रुक जाने के स्टाइल में बात समझाना हमें तो बहुत भा गया।”

हम और भी कुछ बोलते पर चाय ने हमारे उदर में गुड़गुड़ मचा दी थी। ओहो ! पुन: शौचालय जाना पड़ेगा , हम बोले – “बंसी तुमसे बात करने का और मन है पर उदर नहीं। इसलिए शीघ्र ही अपना बिल बताओ तो हम चुकता करके चलें।”

हमारे उदर पर हाथ रखकर ये कहने से बंसी हमारी उदरोदशा समझ चुका था , बोला – “सेठजी, बंसी की दुकान पर काम जल्दी और दाम कम ही रहता है। बस 30 रूपए दे दीजिए।”

हमने अपने फटेहाल हुए पर्स से 10 के करारे 3 नोट निकालकर बंसी को दिए और चल दिए।

हमारे जाते-जाते बंसी बोला – “वैसे सेठजी एक बात कहूँ अगर चायवाले को उसके मन की करने दी जाए न तो वो सब ठीक कर सकता है पर नासमझ लोग करने नहीं देते जैसे ये दन्नू नहीं करने दे रहा था।”

बंसी के चेहरे पर मुस्कान थी। हमने अपनी द्विचक्रवाहिनी उठाई और चल दिए घर की ओर। एक बात आज सीख ली थी अगर कोई मन से दूसरे को स्वीकार ले तो जीवन बहुत ही सरल हो जाएगा और असहिष्णुता पाताल के गर्त में सदैव के लिए समा जाएगी ।

है न!!!

प्रांजल सक्सेना


(यह व्यंग्य साहिन्द में जनवरी 8 2019 को प्रकाशित हुआ था।)

लेखक परिचय

प्रांजल सक्सेना

पेशे से शिक्षक और शौक से लेखक प्रांजल सक्सेना बरेली के रहने वाले हैं और जाने कब से झुमका ढूँढ रहे हैं। झुमका तो मिला नहीं लेकिन ढूँढने की इस जद्दोजहद में कई किस्से मिल गए। प्रांजल को लोगों के खिलखिलाते चेहरे देखना बहुत पसंद है और उससे भी ज्यादा पसंद है उस खिलखिलाहट का कारण बनना। इन्हें स्वयं नहीं पता चला कि कब चुटकुलों से कहानियों और कहानियों से उपन्यास लेखन में कूद पड़े। दोस्तों की बैठकों में कहे जाने वाले किस्सों को सोशल मीडिया ने सहारा दिया तो किताब लिखने की हिम्मत जुटाने लगे।

प्रकाशित रचनाएँ:

महानपुर का नेता (व्यंग्य उपन्यास), गाँव वाला अंग्रेजी स्कूल (बाल उपन्यास), भूतिया मास्साब (बाल उपन्यास), हाथिस्थान (बाल फंतासी उपन्यास), हाथिस्थान: महागज का सामना (बाल फंतासी उपन्यास)

ईमेल: authorpranjal@gmail.com | वेबसाइट: प्रांजल के नव रस | यू ट्यूब चैनल: प्रांजल का नव रस


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