विनय प्रकाश तिर्की, छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ शासकीय अधिकारी हैं। उन्होंने डॉ राकेश शुक्ल के रचना संग्रह ‘समवाय’ पर अपने विचार भेजे हैं। आप भी पढ़िए।
डाॅ. राकेश शुक्ल ने अपनी किताब समवाय में एक नया प्रयोग किया है। उन्होंने साहित्य की अलग – अलग विधाओं में रचित अपनी रचनाओं को इसमें एक साथ जगह दी है। हालाँकि पारंपरिक लेखन करने वाले यथास्थितिवादी लोग इसे खिचड़ी किताब कहकर अस्वीकार कर सकते हैं, लेकिन साहित्य में खतरे तो उठाने ही पड़ते हैं । इस विषय पर मेरा तो यह मानना है कि लेखन में नये-नये प्रयोग तो होते ही रहने चाहिए।
खैर, पुस्तक के पहले ही ललित निबंध – ‘सुख‘ ने मुझे बेहद प्रभावित किया । इस निबंध में डाॅ. राकेश शुक्ल ने अपने जीवन के कुछ संस्मरणों, सामयिक उदाहरणों और प्रासंगिक उक्तियों के माध्यम से सुख की व्याख्या की है। इस निबंध को पढ़ते हुए मुझे अपने स्कूली सिलेबस में पढ़े हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध याद आ गये। वास्तव में ‘सुख’ बेहद ही उच्चकोटि का ललित निबंध है।
इस पुस्तक के अगले कहानी खण्ड में कहानी ‘खट-खट-खट‘ उर्फ आरती मैडम, युवा पीढ़ी द्वारा अपने कार्यों को गंभीरता से न लेते हुए हल्के में लेने की प्रवृत्ति से किये जाने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। अगली कहानी ‘न अनार न दाना‘, स्त्री मनो-विज्ञान पर आधारित एक छोटी सी कहानी है। यह कहानी एक स्त्री द्वारा खुद को हमेशा माॅं के स्वरूप में मानने का मनो-विज्ञान बयाॅं करती है। ‘गुड बाय’ कहानी सोशल मीडिया की वर्चुअल (आभासी) ज़िन्दगी और यथार्थ ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाई के बीच संबंध को उकेरती है। आज व्यक्ति रियल ज़िन्दगी से भागकर आभासी दुनिया में जीने के लिए अभिशप्त है। हालाँकि इस कहानी खण्ड की तीनों कहानियाॅं संदेश – परक है, पर कुछ-कुछ उलझनें भी पैदा करती हैं।
इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण खण्ड पुस्तक चर्चा है। आज जब हर व्यक्ति सोशल मीडिया में ही घुसा रहना चाहता है, ऐसे में पुस्तकों की चर्चा रेगिस्तान में वर्षा का अहसास कराती है। पुस्तक चर्चा में कवि सतीश कुमार सिंह की पुस्तक ‘सुन रहा हूँ इस वक्त’, विनय प्रकाश तिर्की की किताब ‘तलाश’ धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ आशुतोष दुबे की ‘चोर दरवाजे से’ की बेहतरीन समीक्षा की गई है। इसे समीक्षा की जगह समालोचना कहना ज्यादा उचित प्रतीत होता है। यों तो धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘गुनाहों का देवता’ पर बहुत सी समीक्षाएँ लिखी गई है, पर राकेश शुक्ल ने एक अलग ही नज़रिये के साथ इस पुस्तक की समीक्षा की है। इस तरह की दृष्टि रखते हुए समीक्षा-समालोचना कोई नीर-क्षीर विवेचक ही कर सकता है। इस लिहाज़ से डॉ शुक्ल जी एक उम्दा विवेचक कहे जा सकते हैं। शुक्ल जी की इन समालोचनाओं को पढ़ते हुए पाठकों को सहज ही इन किताबों को पढ़ने की उत्कंठा जागृत होने लगती है। यह किसी समीक्षक की उपलब्धि कही जा सकती है।
पुस्तक के अगले खण्ड में संस्मरण है। डाॅ. शुक्ल जी के संस्मरण ‘मेरे माॅं – बाबूजी’ को पढ़ते हुए पाठक उनके इस संस्मरण से तादाम्य स्थापित करते हुए खुद को उनकी जगह महसूस करने लगता है। उनका यह संस्मरण एक फिल्म की तरह नज़रों के सामने चलने लगता है। इस संस्मरण में जिस तरह से घटनाओं का जिक्र किया गया है, उससे हर पाठक यह महसूस करता है कि मेरी अपनी कहानी है। अगला संस्मरण “हम न मरिहैं मरिहैं संसार” भी है, प्रो. राजेन्द्र मिश्रा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर इतने बढ़िया तरीके से प्रकाश डाला है जिसकी बानगी कहीं और नहीं मिल सकती है। इस संस्मरण में प्रो. राजेन्द्र मिश्रा का बेहतरीन चित्रण है। संस्मरण ‘गोदान और मुंशी प्रेमचंद’ में मुंशी प्रेमचंद के समय और वर्तमान समय के परिवेश के बीच उम्दा तरीके से लिंक स्थापित किया गया है। इस संस्मरण में लेखक गोदान उपन्यास को जीता हुआ महसूस होता है। ‘कैसे आयेंगे अच्छे दिन’ में हिन्दी की उपेक्षा के प्रति चिंता जाहिर की गई है। यह चिंता जायज भी है, लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में भाषा की उपयोगिता सि़र्फ संवाद कायम करने तक ही सीमित हो गई है। ऐसे में ज्यादा चिंतित होना ठीक भी नहीं है।
‘युवा पीढ़ी प्रश्न और पूर्वाग्रह’, हमें आज युवाओं के सोचने के तरीके और उनकी पुरानी पीढ़ी से असहमति की दास्तां बयान करता है।
इस संग्रह की कविताएँ और ग़जलें भी एक से बढ़कर एक बिंबात्मक है। पुस्तक में व्यंग्य, सामयिकी के अलावा अंत में लिखे गये उनके कुछ अलग तरह के नोट्स एक ही पुस्तक में अलग-अलग विधाओं को एक साथ पढ़ लेने की सुखद अनुभूति कराते हैं। पुस्तक में समाहित समस्त कृतियों की शैली साहित्यिक तथा पाण्डित्यपूर्ण है। पाठक इसे पढ़कर ऐसा महसूस करता है जैसे उनका कादम्बिनी, नवनीत या वागर्थ की पत्रिका से पाला पड़ा हो। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड में दो महान राजनैतिक वक्ता हुये हैं- ग्लैडस्टोन तथा डिजरायली। इनके ओजस्वी भाषणों को कुछ लोग वहीं समझ जाते थे, जबकि अधिकांश घर जाकर उन्हें उनकी गूढ़ बातें समझ में आती थीं। समवाय के अधिकांश कृतियों में यही स्थिति है। लुग्दी साहित्य में रूचि रखने वाले पाठकों को किताब के भाव समझने में निश्चय ही समय लगेगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि ऑल इन वन इस साहित्यिक किताब को पढ़ना बेहद सुखकारक है, हालाँकि इस पुस्तक में भाषा और भाव की क्लिष्ठता पाठकों के रिदम को तोड़ती है। आज के इस दौर में इस तरह के किताबों का लेखन सीमित है। लेखक को इस पर विचार करना चाहिए।
पुस्तक विवरण
पुस्तक: समवाय | लेखक: डॉक्टर राकेश शुक्ल | पुस्तक लिंक: अमेज़न
टिप्पणीकार परिचय
साहित्य विमर्श प्रकाशन से उनका लेख संग्रह तलाश: विदेशी एवं आदिवासी संस्कृति के अनछुए दस्तावेज प्रकाशित हो चुका है।
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