संस्करण विवरण
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 61
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
अक्षत पांडेय को न चाहते हुए भी कानपुर आना पड़ा। उसकी बदली तो जो उधर हुई थी।
कानपुर एक ऐसा शहर था जिसने उसे बर्बाद तो किया ही और फिर उसने उसकी बर्बादी पर हँसते हुए उसे हँसी का पात्र भी बना दिया था।
उसकी बर्बादी का कारण था उसकी बीवी साक्षी जो उसे छोड़कर अपने आशिक के साथ यहाँ भाग गई थी। उसकी यही दुआ थी कि उसकी बीवी की शक्ल उसे न दिखाई पड़े।
पर वो कहाँ जानता था कि कानपुर आते ही वो एक बार फिर उसके सामने आ जाएगी।
आखिर साक्षी क्यों अक्षत के सामने आई थी?
किरदार
अक्षत पांडेय – इंस्पेक्टर
सिराज – हवलदार
सुरजीत सिंह – अक्षत के थाने में मौजूद एक इंस्पेक्टर
सुखराम – एक हवलदार जो कि सुरजीत का मुंह लगा था
साक्षी – अक्षत की पूर्व पत्नी
लोकेश – साक्षी का भाई
मनीष और अनीता चौधरी – लोकेश के जानकार
शंकर दयाल – अनीता के पिता
मेरे विचार
‘दाग’
किंडल पर प्रकाशित आदित्य कुमार की एक
उपन्यासिका है। मूलतः यह एक
रहस्यकथा है। अगर आपके पास किंडल अनलिमिटेड का सब्सक्रिप्शन की सदस्यता है तो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क को अदा किए आप इसे पढ़ सकते हैं।
उपन्यासिका के केंद्र में अक्षत पांडेय नाम का इंस्पेक्टर है जिसकी जिंदगी में कुछ ऐसा हुआ रहता है कि वो अपने को बरबाद करने और ईमानदारी छोड़ भ्रष्ट होने पर तुला हुआ है। उसके साथ जो घटना हुई थी वो करने वाली उसकी पूर्वपत्नी कानपुर में आ चुकी थी और अब किस्मत उसे उसी कानपुर में ले आई है। पर किस्मत को इससे भी चैन न मिला तो उसके सामने वो उसकी उसी पूर्व पत्नी साक्षी को खड़ा कर देती है। पर अब गेंद अक्षत के पाले में है। एक अपराधिक मामला है जिसकी जाँच उसे करनी है और उस मामले के केंद्र में साक्षी का करीबी है।
ये मामला क्या है? अक्षत कैसे इस मामले की जाँच करता है? मामले की जाँच का क्या नतीजा निकलता है? साक्षी और अक्षत की मुलाकात में क्या होता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका उत्तर इस
उपन्यासिका को पढ़कर जाना जा सकता है।
उपन्यासिका में अक्षत और उसकी व्यक्तिगत परेशानियों का चित्रण लेखक ने बखूबी किया है। इसके साथ साथ पुलिसिया जीवन और डिपार्टमेंट की आंतरिक राजनीति का चित्रण भी अच्छे से करने में सफल हुए हैं।
क्योंकि यह कहानी में अपराध घटित होता है तो पुलिस को उसकी जाँच करनी होती है। पुलिस के जाँच करने का तरीके को वह अच्छे से दर्शाते हैं और इस दौरान वह समाज की मानसिकता भी दर्शाने में सफल होते हैं। उपन्यास में आते किरदारों के माध्यम से वह दर्शाते हैं कि कैसे हम लोग स्त्री के चरित्र को दूषित करने से पहले पल भर नहीं सोचते हैं और कई बार अपने दागों को भी दूसरे पर प्रत्यारोपित करने से नहीं चूकते हैं। वहीं ये यह भी दर्शाता है कि कैसे व्यक्ति कई बार भ्रष्ट सिस्टम और समाज का शिकार हो जाता है और अपराध सहकर भी चुप लगा जाता है।
चूँकि यहाँ एक कत्ल हुआ है तो रहस्य का एक तत्व कहानी में मौजूद है। बस यही इस कहानी का कमजोर पहलू है। जिस तरीके से रहस्य उजागर होता है उसे देखकर लगता है जैसे लेखक ने आसान रास्ता चुन लिया था। अगर नायक सबूतों के आधार पर तहकीकात कर अपराधी तक पहुँचता तो बेहतर होता। अभी आखिरी सबूत खुद ब खुद उस तक पहुँच जाता है।
वहीं कहानी में अपराध कुछ देखे जाने से ट्रिगर होता है। एक छोटी सी चीज इधर ये रहती है कि ये चीज देखकर ही क्यों ट्रिगर हुआ। इधर इतना ही कहूँगा कि अपराध ऐसा था कि पीड़ित को पीड़क पहचान पता होनी ही चाइए थी। ऐसे में उसका उससे इतना नजदीकी संबंध बनाने को राजी होने का औचित्य समझ नहीं आता है। अगर इसके पीछे एक पुख्ता कारण देते तो बेहतर होता।
उपन्यासिका का मुख्य किरदार अक्षत पांडेय है। वो एक इंस्पेक्टर है लेकिन मूलतः अच्छा व्यक्ति है। शुरुआत में वो बुरा बनने की कोशिश करता है लेकिन धीरे धीरे हम देखते हैं कि अपनी अच्छाई से पीछा छुड़ाना उसके लिए इतना भी आसान नहीं है। उसकी अच्छाई की परिभाषा साफ है और वो न्याय दिलाने के लिए सिस्टम के साथ और सिस्टम के बाहर जाने से भी नहीं चूकता है। अक्षत का साथ सिराज नामक हवलदार देता है जो कि ईमानदार व्यक्ति है और किस तरह से पुलिस में इमानंदरी गुण नहीं बल्कि दोष समझा जाता है ये उसके हाल देखकर पता लगता है। रचना के बाकी किरदार कथानक के अनुरूप हैं। सुरजीत सिंह अक्षत के सामने खड़ा दिखता एक भ्रष्ट पुलिसिया है जो अपने फायदे के लिए कुछ भी करने को तैयार है। एक मामले में अक्षत उसे छकाते दिखता है जिसे देखना रोचक रहता है। इन किरदारों से मैं एक बड़े कैनवास पर रची गई कथा के अंदर मैं जरूर मिलना चाहूँगा।
अंत में यही कहूँगा कि
आदित्य कुमार की
उपन्यासिका दाग एक पठनीय रचना है। अगर रहस्य के उजागर होने वाला पहलू थोड़ा और बेहतर होता तो यह और अच्छी
रहस्यकथा बन सकती थी। रचना पढ़ी जा सकती है।
पुस्तक के कुछ अंश
रेल यात्रा का असल आनंद तो यही है, बोलने वालों को अचानक एक मंच और कई श्रोता मिल जाते है और सुनने वालों को कई बार रस भरी बातें। (पृष्ठ 3)
उसे सिस्टम सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, ना ही वो ये चाहता था कि पुलिस वाले दूध के धुले बन जाए पर उसे इस बात की उम्मीद रहती थी की मानवता लज्जित न हो। उसे नौकरी करनी थी सो वो किसी के आड़े न आता था, पर जहाँ उसका ज़मीर गवाही न दे वहाँ वो काम नहीं कर सकता था। ये वजह थी की उसकी तरक़्क़ी कई सालों से नहीं हुई थी। उसके साथ के लोग अब तक सब इन्स्पेक्टर बन चुके थे और वो आज भी सिनीयर कान्स्टबल ही था। (पृष्ठ 8)
जब कोई अपना धोखा दे ना तो इंसान उसका बुरा तो चाहता है पर वो ख़ुद उसका बुरा नहीं कर सकता। (पृष्ठ 15)
जिससे कभी मुहब्बत रही हो उससे नफ़रत हो जाने के वावजूद जब वो सामने आ जाए तो नफ़रत दब जाती है। (पृष्ठ 19)
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