संस्करण विवरण
फॉर्मैट: पैपरबैक | पृष्ठ संख्या: 32 | प्रकाशक: राज कॉमिक्स | शृंखला: तिरंगा 1
टीम
लेखक: हनीफ अजहर | चित्रांकन: गोपाल / राहुल
कहानी
राजनेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए एक बार फिर एक कुत्सित चाल चली थी।
इस बार उनकी चाल के चपेट में आया था भारत नगर जहाँ फैल चुका था दंगा।
क्या काबू में आया ये दंगा?
क्या हुआ इस दंगे का असर?
विचार
‘तिरंगा’ राज कॉमिक का ऐसा किरदार है जिसके कॉमिक शायद सबसे मैंने कम पड़े होंगे। यह हैरत की बात है क्योंकि मैं व्यक्तिगत तौर पर जासूसी साहित्य का शौकीन हूँ और तिरंगा भी मुख्यतः डिटेक्टिव ही है। ऐसे में होना तो ये चाहिए था कि तिरंगा के कॉमिक मुझे सबसे अधिक पढ़ने चाहिए थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि तिरंगा एक सुपरहीरो कॉस्ट्यूम में रहता है। अगर शायद कोई बिना कॉस्टयूम का प्राइवेट डिटेक्टिव होता तो शायद मैं ज्यादा रुचि लेता। खैर, इस बार मामा के पास गया तो उधर तिरंगा के कॉमिक भी उनके संग्रह में देखे और एक दो मैं ले आया।
प्रस्तुत कॉमिक ‘दंगा’ तिरंगा का पहला कॉमिक बुक है। जैसा कि नाम से ही आधारित है यह एक दंगे की कहानी है। भारत के इतिहास में दंगों का भी अपना महत्व रहा है। समय-समय पर अलग-अलग विचारधाराओं वाले नेताओं ने अपने राजनीतिक रंग को जमाने के लिए भीड़ों में उन्माद पैदा करके दंगा करवाया है। वह यह उन्माद कैसे पैदा करते हैं। कैसे अपने गुर्गे भीड़ में भेज कर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करते हैं कि भीड़ का गुस्सा चरम पर पहुँचे और कैसे अपराधी, राजनीतिज्ञ और पुलिस का गठजोड़ इसमें शामिल होता है यह चीज इस कॉमिक में बाखूबी दर्शाई गयी है। गुंडे,राजनीतज्ञ और पुलिस मिलकर एक ऐसा अभेद त्रिकोण बना देते हैं जो कि कई ईमानदार पुलिस वालों की जानें भी ले लेता है। यह भी इस कॉमिक में दर्शाया गया है।
कॉमिक बुक का आधे से ज्यादा हिस्सा सच्चाई के करीब है और आज भी उसकी प्रासंगिगता बनी हुई है। यह हिस्सा मुझे पसंद आया।
लेकिन कॉमिक के कथानक की कमी की बात करूँ तो इसका कमजोर हिस्सा तिरंगा के आने के पश्चात वाला है। कॉमिक में अचानक से तिरंगा आ जाता है। न कोई उसका परिचय मिलता है और न वो जो वो कर रहा है वो क्यों कर रहा है वो ही दिखता है। बस दंगे की खबर सुनता हुआ वो अपनी पोशाक पहनकर तैयार होता हुआ दिखता है। यह चीज अटपटी लगती है। कोई भी व्यक्ति अचनाक से कॉस्टयूम डालने की नहीं सोचता है। उसके अपने कारण होते हैं जिससे वो पहचान छुपाना चाहता है। लेकिन ऐसा कुछ इधर नहीं दिखता है। फिर इधर कास्टूम के अलावा एक ढाल भी है जिसे चलाने में वह पारंगत दिखता है। आदमी बिना प्रशिक्षण के यह नहीं कर सकता लेकिन इधर ऐसा कुछ दिखता नहीं है। एक पल को कोई कह सकता है कि वह इस चीज का प्रशिक्षण काफी समय से ले रहा था। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि उसने इसी समय को दुनिया के सामने आने के लिए क्यों चुना? आधुनिक समय में वह ढाल चलाने का प्रशिक्षण क्यों ले रहा था? ऐसे कई प्रश्न हैं जो कि आपके मन में कथानक पढ़ते हुए उठने लगते हैं लेकिन इनके जवाब आपको नहीं मिलते हैं।
इसके बजाय सीधे दंगे के क्षेत्र में वह दिखाई देता तो बेहतर रहता। लोगों के साथ पाठक भी हैरत में रहता कि यह कौन है और क्यों आया है। और कॉमिक में आगे जाकर उसके ऐसे रूप में आने के कारण का भी पता चलता।
अगर उसे पोशाक पहनते हुए दर्शाया जाना जरूरी था तो फिर उसके पोशाक पहनने के कारण को पहले ही दर्शाया जाना चाहिए था।
इसके अलावा कॉमिक बुक में एक ईमानदार हवलदार रामनाथ का जिक्र है। रामनाथ के साथ जो होता है वह ऐसी जगह होता है जिसके विषय में किसी बाहरवाले को खबर लगना थोड़ा मुश्किल था। लेकिन तिरंगा को यह भी पता होता है। उसे यह बात पता क्यों होती है? इसके ऊपर भी लेखक रोशनी डालने में सफल नहीं हो पाए हैं। अगर इसका कारण देते तो कॉमिक का कथानक और मजबूत बनता।
इन दो बातों के अलावा कॉमिक बुक ठीक है। एक्शन से भरपूर है और पढ़ते हुए यह सीख दे जाता है कि राजनेता आपकी भावनाओं का दोहन करने की कोशिश करते हैं। आज भी कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे लेकिन आपको समझना होगा कि धार्मिक उन्माद में बहकर अपनी मनुष्यता को त्यागना गलत है। अपने उन्माद के चलते निर्दोषों को मारना गलत है।
कॉमिक के आर्टवर्क की बात करूँ तो आर्टवर्क गोपाल और राहुल ने किया है और मुझे आर्टवर्क ठीक लगा। यथार्थ के नजदीक चित्रांकन लगता है। वहीं तिरंगा बना व्यक्ति भी ऐसा है जिसे देखकर लगता है कि एक आम तंदूरस्त व्यक्ति ने ही पोशाक पहनी है। बाद के कॉमिक बुक्स में जाकर तो तिरंगा की हालत खराब होती चली गयी थी। जितनी माँसपेशियाँ इंसानी शरीर में नहीं होती उससे ज्यादा दिखाने लगे थे चित्रकार जो कि खराब ही लगता है।
अंत में यही कहूँगा कि ‘दंगा’ एक प्रासंगिक विषय पर लिखा गया कॉमिक है जिसके एक दो बिंदुओं पर अधिक ध्यान दिया जाता तो यह औसत से अच्छा कॉमिक हो सकता था। यह काम संपादक का होता है और यह चूक उनकी ही कहलाएगी जाएगी।
अभी उन बिंदुओं के चलते यह औसत से थोड़ा कमजोर कॉमिक कहलायेगा। ऐसा लगता है जैसे लेखक के पास विचार तो अच्छा था लेकिन उन्हें और संपादक को तिरंगा को उसमें फिट करना नहीं आया और इसी से मामला गड़बड़ा गया। फिर भी एक बार कॉमिक पढ़ा जा सकता है।
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