संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | पृष्ठ संख्या: 22 | अंक: तहकीकात 3
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
चौधरी फ़रज़ंद अली का इलाके में दबदबा था। हर कोई उनसे डरता था।
ऐसे में जब सरेराह उनकी दो भागों में कटी लाश मिली तो सनसनी फैलनी ही थी।
आखिर किसने किया था कत्ल?
ये कत्ल क्यों किया गया था?
मेरे विचार
‘भयानक प्रतिशोध’ तहकीकात के तीसरे अंक में प्रकाशित सत्यकथा है। यह सत्यकथा मलिक सफ़दर हयात ने मूल रूप से उर्दू में लिखी थी और इसका अनुवाद इश्तियाक खाँ द्वारा किया गया है। अनुवाद अच्छा हुआ है और पढ़ते हुए यह नहीं लगता है कि आप किसी अनुवाद को पढ़ रहे हैं।
अगर आप मलिक सफ़दर हयात को नहीं जानते हैं तो बता दूँ कि मलिक सफ़दर हयात एक पुलिस अफसर थे जिन्होंने आजादी से पहले हिंदुस्तान में पुलिस विभाग में अँग्रेजी हुकूमत के लिए काम किया था। अपने कार्यकाल में उन्होंने जितने मामलों को सुलझाया उसमें से कुछ चुनिंदा मामलों को उन्होंने बाद में उपन्यासों और कथाओं के रूप में लिखा था। ‘भयानक प्रतिशोध’ भी उनके द्वारा सुलझाया हुआ एक केस ही है।
कहानी की शुरुआत चौधरी फ़रज़ंद अली की लाश मिलने से होती है। चौधरी फ़रज़ंद अली इलाके का बाहुबली है जिससे सभी लोग घबराते हैं। कोई उसकी बात टालने की हिम्मत नहीं कर सकता है। ऐसे में उसकी चौथी शादी के कुछ रोज पहले जब उसकी लाश मिलती है तो सभी का हैरान होना लाजमी रहता है। कत्ल भी कोई आम कत्ल नहीं हुआ था। लाश के विषय में बताया गया है वह निम्न है:
चौधरी फ़रज़ंद अली की लाश को लंबाई में दो समान भागों में विभक्त करके फेंका गया था।
आखिर इलाके में ऐसा कौन सा व्यक्ति था जिसने फ़रज़ंद अली पर हाथ डालने की जुर्रत की थी और इस बेरहमी से उसे मारा था। यह सोच सभी को परेशान कर रही थी।
पुलिस लाश मिलने पर अपनी कार्यवाही करना शुरू करती है और तहकीकात करते हुए कैसे आगे बढ़ती है यह इस कहानी में दिखता है? कैसे अपनी तहकीकात के दौरान उन्हें बात पता चलती रहती हैं और एक बात का सिरा पकड़कर दूसरी बात तक पहुँचते हुए वह किस तरह कातिल तक पहुँचते हैं यह कहानी में दिखता है।
चूँकि यह सत्यकथा (ट्रू क्राइम) है तो इसमें इतने पेंच नहीं है लेकिन फिर भी कहानी में ट्विस्ट आता है। सबूत कैसे गलत इशरा कर सकते हैं और कई बार जो चीज होती है वह दिखती नहीं है यह भी इस कहानी को पढ़कर जाना जाता है। चूँकि यह सत्यकथा है तो हम मानकर चलते हैं कि जैसा दिखाया गया है वैसा ही हुआ होगा। गल्प और सत्यकथा में यह फर्क होता है। इससे पहले मैंने पत्रिका के इसी अंक में प्रकाशित योगेश मित्तल की उपन्यासिका कान का बुंदा के विषय में कहा था कि उधर एक संयोग होता है जो कि कहानी को कमजोर बना देता है। अगर संयोग न होता तो बेहतर होता। अब इस सत्यकथा को देखें तो एक संयोग इधर भी होता है। ऐसे में यह संयोग कहानी को कमजोर तो बना देता है लेकिन जो चीज असल में हुई है वह असल में हुई है। लेखक इसमें क्या कर सकता है। मैंने कहीं पढ़ा था कि गल्प को विश्वसनीय बनाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि कई बार जो घटना असलीयत में होती है उन्हें गल्प में दिखा दे तो उससे हमारा गल्प कम् मजेदार या कमजोर बन जाता है। तब पाठक को लगता है कि लेखक ने आसान सा रास्ता चुनकर कहानी की इतिश्री कर दी। पर असल कहानियों में ऐसा नहीं होता। जो है वो है। यही चीज इस कहानी पर लागू होती है।
लेखक ने इस कहानी के माध्यम से यह बाखूबी दर्शाया है कि पुलिस किस तरह कार्य करती है। अगर आपको पुलिस की कार्यशैली दर्शाते कथानक पसंद आते हैं तो यह भी पसंद आएगा।
हाँ, कहानी में ऐसी कोई कमी तो नहीं थी लेकिन अगर मैं पुलिस वालों की जगह होता तो लाश को काटा कैसे गया है इस पर थोड़ा फोकस करता। कहानी में ऐसा होता दिखता नहीं है। मुझे लगता है अगर इस चीज पर फोकस किया जाता तो शायद तहकीकात का एक दूसरा सिरा भी उन्हें मिलता। फिर शायद जो संयोग हुआ उस पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं थी।
खैर, जो भी हो कहानी दिखाती है कि चाहे कोई कितना भी बड़ा बाहुबली हो कई बार उसके सताये लोग जब बगावत पर आ जाते हैं तो उस बाहुबली को भी धूल चाटनी पड़ जाती है।
ताकत के नशे में लोग भूल जाते हैं जबकि आए दिन हम लोग बाहुबलियों को ध्वस्त होते देखते रहते हैं।
अंत में यही कहूँगा कि भयानक प्रतिशोध एक रोचक सत्यकथा है जिसे एक बार पढ़ा जा सकता है।
पुस्तक लिंक: अमेज़न