किताब सितम्बर 25 2020 से सितम्बर 2020 के 11 अक्टूबर 2020 के बीच पढ़ी गयी
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 114 | प्रकाशक: क्रिएटिव बुक कंपनी | आईएसबीएन: 8186798161
नमक का कैदी को मैंने नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में 2018 में खरीदा था। वह भी एक अच्छी घुमक्कड़ी थी। दिल्ली विश्व पुस्तक 2018 का मेरा यात्रा वृत्तान्त आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
2018 में ही मैंने इसे पहली बार पढ़ा भी था। उस वक्त किसी कारण के चलते इस पर नहीं लिख पाया था और फिर यह किताब मेरे उत्तराखण्ड वाले घर में ही रह गयी थी। इस बार इधर हूँ तो ऐसी पुरानी पढ़ी हुई किताबें भी पढ़ रहा हूँ और इस बार इस पर लिख भी पाया हूँ।
‘नमक का कैदी’ में नरेन्द्र कोहली की आठ कहानियों और एक लम्बी कहानी को संकलित किया गया है। यह कहानियाँ उन्होंने 1967-1968 के बीच लिखीं थी। संग्रह में निम्न कहानियाँ संकलित हैं:
1) शालिग्राम
पहला वाक्य:
हम दोनों – मैं और रीमा – अभी-अभी मिसेज शर्मा से मिलकर लौटे थे।
वीरेन्द्र और रीमा मिसेज शर्मा से मिलकर लौट रहे थे। वैसे तो वीरेन्द्र और रीमा को मिसेज शर्मा अपने बेटे बहु सा स्नेह करती थी लेकिन फिर भी वीरेंद्र को लग रहा था कि उनके रिश्ते में एक दूरी सी आ रही है। वह मिसेज शर्मा से नाराज था और केवल वही मिसेज शर्मा से नाराज नहीं था बल्कि ऐसे कई लोगों को वह जानता था जो कभी मिसेज शर्मा के नजदीकी होते थे लेकिन अब वे लोग उनसे अलग थलक ही रहते थे।
आखिर क्यों वीरेंद्र मिसेज शर्मा से नाराज था? आखिर क्यों लोग मिसेज शर्मा से नाराज रहते थे?
जब यह कहानी मैंने 2018 में पहली बार पढ़ी थी तब मुझे इसका शीर्षक समझ नहीं आया था। अपने व्हाट्सएप्प ग्रुप में पूछा तो पता लगा कि शालिग्राम एक तरह का पत्थर होता है जिसे की भगवान के प्रतिनिधि के तौर पर भी पूजा जाता है। यह एक जगह स्थापित कर दिया जाता है और फिर लोग उसके पास उसकी पूजा अर्चना करने आते हैं।
शीर्षक में शालिग्राम मिसेज शर्मा को कहा गया है। यह क्यों कहा गया है यह तो आपको कहानी पढ़कर ही पता चलेगा। यहाँ इतना ही कहूँगा कि कहानी पर शीर्षक फिट बैठता है।
इस कहानी का कथावाचक वीरेंद्र है जिसकी नजर से हम लोग चीजों को देखते हैं। वीरेंद्र अपनी पत्नी के साथ लौट रहा होता है और उसे इस बात का अहसास हो चुका होता है कि क्योंकि मिसेज शर्मा शालिग्राम सरीखी हैं। जैसे जैसे कहानी आगे बढती है हम यह देखते हैं कि इस मुलाक़ात में क्या हुआ था और साथ ही पाठकों को वीरेंद्र के गुजरे वक्त की झलक भी देखने को मिलती है। वैसे तो यह झलक लेखक ने शायद मिसेज शर्मा और वीरेंद्र के रिश्ते को स्थापित करने के लिए दिखाई थी लेकिन मुझे लगता है कि यह हटा भी दी जाती तो कहानी में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
कहानी रोचक है। मिसेज शर्मा जैसे कई लोग आपको अपने आस पास मिल जाते हैं। कहानी पढ़ते हुए शायद एक दो का नाम आपके जहन में आ जाए।
2) सन्तुलन
पहला वाक्य:
और सुनीति बाज़ार में ही परिमल से झगड़ पड़ी।
परिमल और सुनीति के बीच में झगड़े बढ़ते ही चले जा रहे हैं। हद तो तब हो गयी जब सुनीति परिमल से बाज़ार के बीच में ही झगड़ने लगी।
आखिर उनके बीच झगड़े क्यों बढ़ रहे हैं? इन झगड़ों का क्या अंत निकला?
शादी एक ऐसी पार्टनरशिप है जिसमें दोनों व्यक्तियों के बीच तारतम्य होना जरूरी है। यह तारतम्य जब तक रहेगा घर में ख़ुशी रहेगी और जब बिगड़ेगा तो घर में कलह ही होगी।
पर कई बार दो व्यक्तियों की सोच चाह कर भी नहीं मिल पाती है। कई बार हम लोग एक तरह से चीजों को नहीं देख पाते हैं और ऐसे में घर में कलह बढ़ जाती हैं।
संतुलन एक ऐसे ही शादी शुदा जोड़े की कहानी है जो कि पैसे खर्च को लेकर सहमति नहीं बना पा रहे हैं। अक्सर कहा जाता है कि हमें पैर उतने ही फैलाने चाहिए जितनी चादर हो लेकिन कई बार लोग झूठी शान या जान पहचान वालों के देखा देखी अपनी चादर से बाहर पैर फैलाने लगते हैं। यह प्रवृत्ति मैंने कई लोगों में देखी है और बाद में उन्हें इसका खामियाजा उठाते हुए भी देखा है। उन लोगों को जब तक अक्ल आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस कहानी के पात्र को कब अक्ल आती है यह तो आप कहानी पढ़कर ही जान पाएंगे।
3) हिन्दुस्तानी
पहला वाक्य:
आपको अपनी कहानी सुनाऊँ?
कथावाचक अमेरिकी एम्बेसी में कार्य करता है और वह आज पाठक को अपनी कहानी सुना रहा है। कहानी अपनी और अपनी सहकर्मचारी नीलिमा की। नीलिमा भी उसके साथ ही एम्बेसी में कार्य करती है।
आखिर क्या है कथावाचक और नीलिमा की कहानी?
हिन्दुस्तानी एक तल्ख कहानी है। भारतीयों में अक्सर डरने और जी हुजूरी करनी की प्रवृत्ति ज्यादा दिखती है। वहीं हमारी सरकारी नीतियाँ भी कई बार इस पृवृत्ति से ग्रसित देखी गयी हैं। जब यह कहानी लिखी थी उस वक्त भी कुछ पॉलिसीस में ऐसी प्रवृत्ति देखी गयी थी। और आज भी ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती रही है।
कुछ होता है तो कड़ी निंदा कर दी जाती है। कोई बार बार वार करता है और हम हाथ बढाकर उसे गले लगाते रहते हैं। ऐसी ही प्रवृत्ति पर तल्खी से यह कहानी प्रहार करती है। कहानी का एक अंश देखिये:
“क्यों?” मैं जोर जोर से बोलने लगा, “हम किसी से कम हैं क्या? चीनियों ने हमारे रघुनाथ और पी विजय को मारा पीटा, उन पर थूका। तो क्या हम पीछे रहे हैं? हमने भी उनको प्रोटेस्ट नोट भेजा है। हाँ।”
नीलिमा चुप हो गयी। मैं गर्व से फूल उठा। उसके पास मेरी बात का कोई जवाब नहीं था। भारत माता की जय!
इस कहानी में सरकारों पर, लोगों की प्रवृति पर प्रहार तो है ही लेकिन भारतीय बौद्धिक जमात पर भी यदा कदा कटाक्ष किया गया है। कुछ अंश देखिये:
पर नहीं। जाने दीजिये। अपनी कहानी सुनाने लगा तो आप उबासी लेकर कहेंगे, “यार बोर कर डाला।” आप ठहरे इस देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी। और बुद्धिजीवी सदा ही देश-काल से परे रहता है। जो अपनी वास्तविक समस्या की बात करे, वह तो ठहरा बोर और आप – जाँघों, नितम्बों और गालों की बात करने वाले बुद्धिजीवी।
सॉरी। बात काफी व्यवाहरिक हो गयी। आपके साहित्यिक आदर्शों को ठेस लगी होगी। मुझे अफ़सोस है।
हाँ, पैसों की बात पर याद आया…क्षमा करेंगे, आपसे पूछे बिना पैसे की बात करने लगा। आप बुरा तो नहीं मानेंगे न? इसलिए पूछ रहा हूँ कि आप ठहरे मॉडर्न व्यक्ति, और मॉडर्न व्यक्ति केवल सैक्स की बात करता है। पैसे की बात तो कथा-साहित्य में प्रेमचंदीय युग की बात हो गयी न।
कहानी तल्ख और कड़वी जरूर है लेकिन मुझे पसंद आई। आखिर में जो भूमिका लेखक नरेंद्र कोहली ने लिखी है उसमें उन्होंने कहा है कि इस कहानी में उनके गुजरे दो वर्षों की जो बुरे अनुभवों से उभरी कड़वाहट है वह दिखाई देती है।
हाँ, पिछले दो वर्षों के अनुभवों की कटुता के कारण विनोद की वक्रता यथार्थ की कटुता में बदलनी आवश्यक लग रही थी। उसका आभास हिन्दुस्तानी में मिलता है।
– बेक कवर में छपी लेखक की भूमिका से
यह कहानी आज भी प्रासंगिक है क्योंकि चाहे सरकार हों, लोगों की प्रवृत्ति हो या बुद्धिजीवियों की सोच ये आज भी नहीं बदली हैं।
4) बला
पहला वाक्य:
पीयूष ने बड़े धीमे और कोमल स्वर में कहा, “तुम कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओ।”
पीयूष ने जब केशा को कुछ दिनों के लिए मायके जाने को कहा तो केशा के लिए यह अचरज की बात नहीं थी। केशा को बुरा जरूर लगा लेकिन जिस तरह से उनके घर की हालत इस वक्त हो रखी थी उसे पता था कि यह दिन भी आने वाला है।
आखिर पीयूष ने केशा को मायके जाने को क्यों कहा?
‘बला’ एक ऐसे युगल की कहानी है जो पहली बार माँ बाप बने हैं। आजकल जब परिवार एकल होते जा रहे हैं तो नये दम्पतियों को बच्चों को सम्भालने में दिक्कत का सामना करना पड़ता है। जब सब लोग साथ रहते थे तो बच्चे सम्भालने का कार्य ज्यादातर बड़े बुजुर्ग कर लेते थे पर अब यह कार्य माँ बाप को ही करना होता है। ऐसे में अनुभव हीन माँ बाप को इससे काफी परेशानी उठानी पड़ती है और बच्चा जो कि उनका जिगर का टुकड़ा है वह उन्हें एक बला सरीखा लगने लगता है। इसी दृष्टिकोण को लेकर इस कहानी को लिखा गया है।
क्या पीयूष अपने घर आई इस बला से कुछ दिनों का छुटकारा पा पाया? यह तो खैर आपको कहानी पढ़कर ही पता चलेगा।
यह एक रोचक कहानी है। विशेषकर इसका अंत आपको जरूर भायेगा।
5) खर्च, डायरी और अस्पताल
पहला वाक्य:
उसने जोर की आवाज करते हुए डायरी बन्द कर दी।
खर्च डायरी और अस्पताल एक ऐसे बुजुर्ग व्यक्ति की कहानी है जो घर खर्च को लेकर खब्त की हद तक चिंतित रहता है। कहानी रोचक तो है लेकिन कहानी पढ़ते वक्त मैं इस बुजुर्ग व्यक्ति के विषय में और जानना चाहता था। क्या वो शुरू से ही ऐसा था? जहाँ तक मुझे लगता है वो शुरू से ऐसा नहीं था। कहानी पढ़ते हुए भी ऐसा ही लगता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि उसके अंदर यह बदलाव कब से शुरू हुए? कहानी पढ़कर यह चीज जानने की इच्छा होती है।
आम जीवन में भी कई लोग ऐसे होते हैं कि जो कि एक चीज को लेकर खब्त की हद तक परेशान रहते हैं। ऐसे लोगो का कुछ न कुछ जुड़ाव इससे होता है या ऐसी कोई कमी होती है जो इस खब्त के जरिये वो पूरी करने की कोशिश करते रहते हैं। लोग अक्सर उनकी इस खब्त को नजरअंदाज करने लगते हैं लेकिन हमे सोचना चाहिये कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं और अगर कुछ कमी उन्हें महसूस होती है तो बातें करके उसे पूरी करने की कोशिश करनी चाहिए।
कहानी के कुछ अंश:
उसने जो कुछ कहा था, वह किसी एक को सम्बोधित करके नहीं कहा था, इसलिए उसकी बात का कुछ उत्तर देना भी किसी एक व्यक्ति का काम नहीं था। और जो सबका काम होता है, वह कोई नहीं करता।
6) शव-यात्रा
पहला वाक्य:
मैं और वर्मा स्कूटर को सड़क पर छोड़, पैदल ही गेट के भीतर चले गए।
जब कथावाचक के मित्र सेठी के रिश्तेदार की अकाल मृत्यु हो जाती है तो कथावाचक अपने दोस्त वर्मा के साथ इस शवयात्रा में शामिल होता है। वह इस शवयात्रा में क्या क्या देखता है यही इस कहानी का कथानक बनता है।
अगर शवयात्रा में आप शामिल हुए हैं तो आप भी इस बात से वाकिफ होंगे कि उसमें शामिल होने पर गम होने से ज्यादा गम होने का प्रदर्शन करना जरूरी होता है। कुछ ऐसी फॉर्मेलिटीज होती हैं जो कि आपको करनी ही पड़ती हैं। ऐसे ही कई बातों को इसमें कहानी के माध्यम से लेखक ने उभारा है।
हम दोनों सेठी के पास खड़े हो गए।
हमें देखकर सेठी के होंठों पर मुस्कान आई। पर फिर शायद उसे याद आ गया कि यह मुस्कराने का अवसर नहीं था।
कहानी में एक किरदार वर्मा है जो कि मृत्यु से गमजदा नहीं है लेकिन उसे कब क्या बोलना यह पता है और वह इस कारण सबकी इज्जत का पात्र बन जाता है। वहीं कथावाचक. जिससे वह अपने मन के सच्चे भाव जाहिर करता रहता है, वह यह देखकर हैरान होता रहता है।
“पर बाबूजी, यह हुआ कैसे?” वर्मा ने पूछा।
मैं उजबक-सा वर्मा का चेहरा ताक रहा था। अभी थोड़ी देर पहले ही तो उसने यह प्रश्न सेठी से भी पूछा था।
हमने धीरे कोका-कोला पी और आगे बढ़े।
“पता नहीं लोग साले इतनी गर्मी में क्यों मरते हैं।’ वर्मा ने जाते हुए एक स्कूटर- रिक्शा को हाथ दिया।
“क्या कर रहे हो!” मैंने उसे रोका, “वे लोग हमें स्कूटर में देखेंगे तो क्या कहेंगे?”
उसने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया। वह स्कूटर पर जा बैठा। मैं भी जाकर बैठ गया।
अर्थी आगे निकल गई तो वर्मा ने संकेत से सेठी को अपने पास बुलाया। सेठी भीड़ छोड़कर हमारे पास आ गया।
“मैंने देख लिया,”वर्मा बोला, “बाहर गेट पर ही लकड़ी की टाल भी है और दूसरी सामग्री की दुकान भी। तुम सामान ले आओ। मैं यही देखने के लिए जल्दी आ गया था।”
“तुमने अच्छा किया,” सेठी बोला, “मैंने इसीलिए तुम्हें विशेष रूपनसे बुलवाया था।”
कहानी में वर्मा के द्वारा दिखाए गए भाव पाठक के मन उसके प्रति गुस्सा जरूर जगाते हैं लेकिन चूँकि वह सामाजिक ताने बाने की समझ रखता है तो उसके द्वारा किये गए कार्यो का जो नतीजा निकलता है उससे गमजदा व्यक्ति प्रसन्न ही होता है तो यह भी सोचने को विवश करते हैं कि क्या वह सचमुच बुरा है। क्या उसके प्रति गुस्से के भाव रखना सही है।
एक रोचक कहानी है जो कि समाज के इस पहलू को उभारती है जहाँ गम से ज्यादा उसके दिखावे पर जोर होता है। क्या सही है क्या गलत यह बात लेखक पाठक के ऊपर छोड़ देते हैं।
7) घर में एक मौत
पहला वाक्य:
मैं अभी लौटा ही था कि आशा मुझे बुलाने के लिए आ गई।
घर में एक मौत जैसे कि शीर्षक से ही जाहिर है एक मृत्यु की कहानी है। कथावाचक एक अट्ठारह वर्षीय लड़का है जिसके बत्तीस वर्षीय चाचा क्षय रोग से ग्रसित हैं और काफी बीमार है। सभी लोग उनकी मृत्यु की ही राय देख रहे हैं। चूँकि वह क्षय रोग से पीड़ित हैं तो लोग भी उनसे दूरी बनाकर रहते हैं लेकिन कथावाचक उनकी तीमारदारी में लगा रहता है।
उनकी मृत्यु होने के उपरान्त क्या होता है यही कहानी बनती है।
मृत्यु और उसके होने के उपरान्त जिस तरह का ढकोसले देखने को मिलते हैं उससे जुड़ी यह संग्रह की दूसरी कहानी है। कहानी में ताऊ नाम का पात्र भी है जो कि मृतक के जिंदा होने तक उससे दूरी बनाकर चलता था लेकिन मरने के बाद सबसे ज्यादा चीख चिल्लाहट वही मचाता रहता है।
कहानी एक अट्ठारह वर्षीय बालके के दृष्टिकोण से लिखी गयी है जो यह बात नोट कर रहा है और उसे यह कचोट रही है लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कह सकता है। बस यह चुप रहने के लिए मजबूर है क्योंकि ऐसा करने वाला उससे रिश्ते में और उम्र में भी बढ़ा है।
वैसे तो यह कहानी काफी पहले लिखी गयी थी लेकिन आज के समय में भी प्रांसगिक है। आज हम एक बिमारी से जूझ रहे हैं और इस बिमारी ने रिश्तों की पोल भी खोली है। कई लोगों ने अपने माता पिता को कोरोना संक्रमित होते ही छोड़ दिया था, कईयों ने अपने रिश्तेदारों का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया था लेकिन वही लोग उन रिश्तेदारों के पास मौजूद कीमती फोन और जेवर के लिए सरकारी अफसरों को फोन करने से नहीं झिझके थे।
यह कहानी ऐसे ही समाज का चेहरा दिखाता है। दिखावा करने वाला और जो असल में कार्य करता है उनमें बहुत फर्क होता है।
8) नमक का कैदी
पहला वाक्य:
इस बात को कई महीने हो गये थे।
कथावाचक को कुछ दिनों से साँस लेने में तकलीफ हो रही थी लेकिन जब यह तकलीफ अचानक बढ़ जाती है तो उसका बेटा उसे हॉस्पिटल ले जाता है। हॉस्पिटल में जाकर यह पता लगता है कि कथावाचक को हृदयाघात हुआ है और अब उसे कुछ समय तक हॉस्पिटल में रहकर इलाज एवं परहेज करना होगा। यह परहेज नमक का होता है लेकिन कुछ ही दिनों बाद कथावाचक के मन में नमक की चाह उठने लगती है।
इस नमक की चाहत के चलते आगे क्या होता है यही इस कहानी का कथानक बनता है।
कई बार जीवन में ऐसा होता है कि व्यक्ति को बिमारी के चलते कुछ चीजें छोड़ देनी होती है। मुझे याद है मुझे भी जब डेंगू हुआ था तो एक ही तरह का खाना मुझे खाना पड़ता था। ऐसे में एक चिड़चिड़ाहट होने लगती है और जीभ स्वाद माँगने लगती है। इसी स्वाद को पाने के लिए एक बुजुर्गवार क्या क्या करते हैं यह इस कहानी में दर्शाया है। उनकी जुगत देखकर कभी हँसी आती है और कभी हैरानी होती है लेकिन जिन पर बीती होगी वो जानते होंगे कि ऐसी जुगत उस वक्त उन्होंने भी लगाई होंगी।
कहानी का अंत डार्क है और बुजुर्ग किसी ऐसे नटखट बच्चे से प्रतीत होते हैं जो लोगों को अपनी उँगलियों में नचाने में माहिर है। रोचक कहानी।
9) चारहान का जंगल
पहला वाक्य:
सन् 1935 की जुलाई की एक शाम।
बालकराम वन विभाग में एक रेंज क्लर्क था जो कि अपना काम निपटा ही चुका था कि अरशद हुसैन उससे मिलने आ पहुँचा। अरशद हुसैन डिविजन अफसर जॉन डेविड का कैंप क्लर्क था जो कि आजकल उसके साथ बालक राम की रेंज में आया हुआ था।
सुबह से ही अरशद हुसैन बार बार बालकराम के पास आ रहा था और फिर यूँ ही कुछ बातें करके चला जा रहा था। बालकराम को इससे लग गया था कि जरूर कुछ ऐसी बात है जो अरशद बालकराम से करना चाहता है लेकिन झिझक के कारण नहीं कर पा रहा है।
इस बार अरशद आया तो बालकराम ने बात की तह तक पहुँचने का फैसला कर लिया।
आखिर अरशद क्यों बार बार बालकराम के पास आ रहा था?
वह उससे क्या कहना चाहता था?
चारहान का जंगल इस संग्रह में मौजूद एक मात्र लम्बी कहानी है। यह कहानी इस बात में भी नमक के कैदी में मौजूद कहानियों से जुदा है कि यह कहानी 1935 में घटित होती है जबकि इस संग्रह में मौजूद अन्य कहानियों का कालखण्ड 1967-1968 के बीच का है। नरेंद्र कोहली बताते हैं कि यह कहानी उन्होंने अपने पिता के जीवन में घटित हुई एक घटना से प्रेरित होकर लिखी थी।
चारहान का जंगल वैसे तो दफ्तरी राजनीति की पोल खोलती कहानी है लेकिन पढ़ते वक्त यह एक रोमांच कथा का अहसास आपको देती रहती है। यह कहानी स्वतंत्रता पूर्व के भारत में घटित होती है और कश्मीर और रावलपिंडी के बीच मौजूद एक ऐसे इलाके में बसाई गयी है जो पहाड़ों पर बसा हुआ है। इस इलाके से झेलम नदी भी होकर गुजरती है।
कहानी एक रात की घटना है जिसमें बालकराम और अरशद को एक सफर पर निकलना पड़ता है। इस पर वह क्यों जाते हैं यह तो आप कहानी पढ़कर ही पता करियेगा लेकिन इतना मैं कहूँगा कि यह सफर एक बेहद रोमांचक सफर में तब्दील हो जाता है। पतली पगडंडी सी सडकों पर दौड़ती टैक्सी, रात का मौसम, तूफ़ान, बारिश और किरदारों के अंदर एक बेहद जरूरी काम को अपनी जान पर खेलकर भी पूरा कर देने की इच्छा आपको कहानी से बाँध देती हैं। यह लम्बी कहानी पढ़ते हुए मुझे ऐसा लग रहा था कि नरेंद्र कोहली साहब अगर रोमांचकथाएँ लिखते तो बेहतरीन लिखते।
यह कहानी दफ्तर की राजनीति को भी बाखूबी दर्शाती है। आज भी दफ्तर में ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जो कि ऊपरी तौर पर तो आपके मित्र बनेंगे लेकीन अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आपका पत्ता ही काट देंगे।
इनसान के रूप में हम लोग धर्म, भाषा, क्षेत्र और रंग देखकर व्यक्ति के प्रति अपनी राय निर्धारित कर देते है। यह हमेशा से होता रहा है और यही इस कहानी में भी दिखता है। वहीं दूसरी तरफ एक अल्पसंख्यक व्यक्ति का डर भी इधर दिखाई देता है। यहाँ ये जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति को डरने का कोई कारण है लेकिन फिर भी एक ख्याल मन में आ जाता है क्योंकि हमें पता है कि हम अपने पराये में फर्क करने के लिए धर्म, जाती, भाषा रंग इत्यादि का इस्तेमाल करते हैं। अगर धर्म अलग है तो धर्म से फर्क करेंगे, अगर धर्म एक है तो जाति/पन्थ/ से फर्क करेंगे, अगर धर्म जाति भी एक है तो भाषा से फर्क करेंगे और ये सब भी एक हैं तो रंग से फर्क करेंगे। यह मानव प्रवृत्ति है। वह गुट बनाने में ही विश्वास रखता है।
बालकराम ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप उसे देखता रहा। पर जब अरशद ने बात आगे नहीं बढ़ाई तब बालकराम को कहना ही पड़ा, “उसका फैसला तुम्हें स्वयं ही करना है। भरोसे के मामले में कोई भी अपनी सिफारिश नहीं कर सकता।”
पर बालकराम समझता था कि यह बात कहने की अरशद को आवश्यकता क्यों पड़ी। बात बड़ी नाजुक थी। अरशद पक्का, कट्टर मुसलमान था और बालकराम हिन्दू।
पृष्ठ 79
बालकराम कुछ नहीं कर रहा था। जब यह सब सैयद साहब को मालूम होगा तो वह क्या सोचेंगे.. अरशद के साथ उनका सम्बन्ध क्या है…यही तो कि वह भी मुसलमान है। बालकराम ने कुछ नहीं किया, क्योंकि वह हिन्दू है…बालकराम की नौकरी का क्या होगा…नौकरी तो नौकरी.. हो सकता है, जंगल में बीट पर आये किसी गार्ड को उसकी लाश मिले। आसपास की सारी आबादी मुसलमान थी। उसके लिए किसी भी रूप में मुसलमान-विरोधी समझा जाना घातक हो सकता था…
पृष्ठ 83
भारतीय समाज के कई पहलुओं को यह कहानी उजागर करती है और साथ में एक रोमांचकथा का मज़ा भी देती है। इस संग्रह में मौजूद मेरी पसंदीदा कहानियों में से यह एक है।
कहानी का अंश जो मुझे पसंद आया:
“मैं अपने खुदा की बात मानता हूँ,” आखिर में अरशद स्वयं ही बोला, “मैं तुम पर भरोसा करता हूँ। और तुमने धोखा दिया ही, तो फिर अल्लाह ताला की मर्जी…”
बालकराम को लगा कि अब उसे कुछ कहना ही चाहिए, “मियाँ अरशद हुसैन! जब बात इतनी खुलकर हो रही है तब मेरा विचार है कि मैं भी एक बात कह दूँ कि भरोसा किसी के मजहब पर नहीं किया जाता, भरोसा आदमी पर किया जाता है।”
****
तो यह थी नमक का कैदी के प्रति मेरी राय। अंत में यही कहूँगा कि यह कहानी संग्रह मुझे बहुत पसंद आया।
‘नमक के कैदी’ में मौजूद इन नौ कहानियों में नरेंद्र कोहली ने अपने आस-पास के समाज को ही दर्शाया है। इस संग्रह में बनते बिगड़ते रिश्ते हैं, भारतीय प्रवृत्ति पर टिप्पणी है, नव अभिभावकों की परेशानी है,समाज का दोमुँहा चेहरा है, नजरअंदाज कर दिए गये बुजुर्ग हैं और ऑफिस की राजनीति से पीड़ित व्यक्ति हैं। भले ही यह कहानियाँ 1967-1968 के समाज को देखकर लिखी गयी हों लेकिन यह आज के वक्त में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
संग्रह में मौजूद कहानियों में से हिन्दुस्तानी और चारहान का जंगल मुझे सबसे ज्यादा पसंद आईं। मैं सलाह दूँगा कि यह दो कहानियाँ आपको जरूर पढ़नी चाहिए।
रेटिंग: 4/5
अगर आपने इस कहानी संग्रह को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अगर आप अपने विचार कमेंट के माध्यम से मुझ तक पहुँचायेंगे तो मुझे बेहद खुशी होगी।
किताब आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
नरेन्द्र कोहली जी की मैंने दूसरी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनके प्रति मेरे विचार आप निम्न लिंक पर क्लिक करके जान सकते हैं:
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत सुन्दर
जी आभार।
बहुत बढ़िया समीक्षा । आपके ब्लॉग पर सदा ही नई बुक्स की जानकारी होती है जो बहुत अच्छी बात है । पढ़ते रहिए… लिखते रहिए ।
लेख आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा ,मैम। आभार।
Sounds like a good collection. I haven't read this book or any Narendra Kohli book. Adding it to my TBR. And it's a wonderful review. Makes me curious. Thank you for sharing.
You should read Narendra Kohli. His mythological fiction like Bandhan, Mahasamar are more famous but i think his works detailing contemporary life are also good. You'd like it.