रिपोर्टर – महाश्वेता देवी | वाणी प्रकाशन | अनुवाद: सुशील गुप्ता

किताब अगस्त 5 2020  से अगस्त 9 2020 के बीच पढ़ी गयी 

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 96 | प्रकाशक: वाणी प्रकाशन  | आई एस बी एन: 9789352291618 | अनुवादक: सुशील गुप्ता | मूल भाषा: बांग्ला
 
रिपोर्टर – महाश्वेता देवी

पहला वाक्य:
दलदली शहर के इस तरफ, गंगा के पूर्व में, हालाँकि वार्तावह का दफ्तर मौजूद था, लेकिन यह अंदाजा लगाने का कतई उपाय नहीं था कि पश्चिम की तरफ भागीरथी प्रवाहमान है।
कहानी:
अमिय के लिए उसका अखबार ‘वार्तावह’ ही सब कुछ था। वहीं अमिय की पत्नी दूर्वा के अनुसार यह अखबार ही उनका भविष्य बिगाड़ रहा था। वह चाहती थी कि अमिय अपना अखबार समेटकर नसीरगंज छोड़ दे और नये बनते शहर अरुणोदय में एक घर खरीदकर दुकानदार बन जाए।  

अमिय के लिए यह सब करना मरने के समान था। इस अखबार से उसकी अनेक यादें जुड़ी थी। यह उसके अस्तित्व का हिस्सा था। उसके बाबूजी का आशीर्वाद था। लेकिन इस समाज में एक ईमानदार रिपोर्टर बने रहना इतना आसान काम भी न था।

यह अमिय की कहानी है। एक रिपोर्टर की कहानी। एक रिपोर्टर के रिपोर्टर बने रहने की कहानी।

मुख्य किरदार:
अमिय – वार्तावह अखबार के मालिक 
दुर्वा – अमिय की धर्मपत्नी 
सीतू – अमिय की पत्नी 
काली बाबू – अमिय के पिता के साथी जो उनके साथ रहते थे 
अनंग – अमिय के चाचा और एक नेता 
 मणि – अमिय के पिता और कल्याणी प्रेस के मालिक 
 कल्याणी – अमिय की माँ 
बाबूचन्द्र दास – अमिय का सहयोगी 
अबुल मंसूर – जामडांगा शाखा कमेटी के सचिव 
कल्लोल कराती – किसान संगठन के आंचलिक सचिव 
नेपाल, सिराज, बेलून – जामाडांगा के कुछ अपराधिक चरित्र 
कुणाल -अमिय के दोस्त का भाई जिसकी अमिय के प्रति बहुत श्रद्धा था 
अभ्र शुभ्र दीया नीया – कुणाल के भाई और बहन 
मीता – एक युवती जिससे कुणाल शादी करना चाहता था 
मधु हलदार – मीता के पिता 
विश्वास – नसीरगंज थाने का ओ सी 
फटिक – मूर्तिकार 
भजनपाल – ठेकेदार 
सुजन – भजन का छोटा बेटा 
पूजन – भजन का बड़ा बेटा 
नमिता – पूजन की पत्नी 
श्यामली – सुजन की पत्नी 

मेरे विचार:

महाश्वेता देवी का लिखा यह उपन्यास, जैसा कि शीर्षक से जाहिर होता है, एक रिपोर्टर की कहानी है। उपन्यास मूलतः बांग्ला में लिखा गया था और इसका अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया है। अनुवाद अच्छा हुआ है और पढ़ते हुए कहीं यह नहीं लगता है कि उपन्यास अनूदित है। हाँ, उपन्यास में वर्तनी की गलतियाँ हैं जो कि वाणी द्वारा प्रकाशित महाश्वेता देवी कुछ उपन्यासों में मैंने पहले भी देखी हैं।

उपन्यास के केंद्र में अमिय बोस है जो कि विपरीत परिस्थितयों के होते हुए भी वार्तावह अखबार को निकालता रहा है। उसे अपनी इस इच्छा के लिए अपनी पत्नी, दूर्वा, से भी विरोध सहना पड़ता है। यह बात उपन्यास के पहले ही पृष्ठ में ही साफ हो जाती है।

पिछली बार महा-सैलाब में जब घर के अंदर तक पानी घुस आया था, काफी सारे पुराने अंक नष्ट हो गये। दूर्वा बेहद खुश हुई।

‘पाप थे…. साक्षात् पाप! नष्ट हो गये, जन बची। समूचा घर ऐसा गोदाम बन गया था कि अगर वहाँ साँप वगैरह भी रेंग रहे हों, तो ताज्जुब नहीं। चल, अब वे कमरे खाली कर डालें!’

‘जाः तुम भी क्या बात करती हो। अखबार न रहा, तो बाबुम भला जी पाएंगे?’, सीतू ने कहा। 

‘ठीक है! अखबार और तेरे बाबू सलामत रहे।’

(पृष्ठ 5)

ऐसा नहीं है कि दूर्वा हमेशा से ही ऐसी थी। अमिय हमेशा से अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता रहा है और उसने इसके अंजाम भी भुगते हैं। वह जेल गया है और इस कारण उसकी पत्नी ने भी ये चीजें भुगती हैं। पर अब वह थक चुकी है। वहीं वह अब उसकी सुरक्षा को लेकर भी चिंतित रहती है। उसे पता है कि समय बदल रहा है। इसके उलट अमिय अभी भी ईमानदारी से काम करना चाहता है। जब उसके एक रिश्तेदार अनंग मोहन, जिनका वह काफी सम्मान करता था, ने उसके अखबार निकालने की खबर सुनी तो उन्होंने उसे एक सलाह दी थी। वह उसी सलाह पर बने रहना चाहता है:

अखबार निकाल रहे हो। अख़बार के ही जरिये इंसानों के सुख-दुःख समस्या के बार में लिखते रहो। जन सम्पर्क खो दिया, तो मर जाओगे, मुन्ने! सिर्फ शहरी मध्यवित पाठको के लिए ही मत लिखा करो। गाँव! गाँवों को भी सामने लाओ। जिनके बारे में तुम लिखोगे, वे लोग अखबार के अपने लोग हैं। 
– यह काम…
-कलकत्ते के अख़बार नहीं कर सकते। कोई वारदात हो जाती है, तो वे लोग सिर्फ खबर भर दे सकते हैं।
पृष्ठ 31

ऐसा भी नहीं है कि अमिय ने अपने पेशे से समझौते नहीं किये हैं उसने समझौते किये हैं और इसकी उसे ग्लानि भी है। इसीलिए अब वह ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहता है जिससे उसकी आत्मा उसे कचोटे।

यह भी सच है कि दूर्वा हमेशा रटती रहती है कि या तो पूरा का पूरा ही बेच दो या किराएदार समेत वह हिस्सा बेच डालो।
‘उसके बाद?’
‘नये टाउनशिप में…’
‘नहीं, अभी रहने दो।’
….
‘क्यों नहीं?’
‘मेरा मन नहीं करता।’
‘देखो, एक वक्त था, जब त्यागी, सन्यासी की जिंदगी गुजारने से भी चल सकता था, मगर अब  नहीं चल सकता।’
(पृष्ठ 24)

‘तालाहार, मौल डांगा में सड़क न होना, बेशक एक खबर है। लेकिन नारी बलात्कार, शिशु-बलात्कार, कत्ल खून के हादसे लगातार होते रहें, इसके बावजूद ‘वार्ताव्ह’ इस बारे में कुछ न लिखे? लोग-बाग़ यह सोचने लगे थे कि वार्तावः दाएं-बाएं बचाकर चलता है। लेकिन अब उनकी यह राय टूट गयी है।….’
‘दाएं-बाएं बचाकर चलने में तुम्हें बेहद शर्म आती है न?’
‘वैसे भी,मैं ख़ास कुछ नहीं करता। खासा सुरक्षित ही हूँ। लेकिन, जितना थोड़ा कुछ कर सकता हूँ, अगर वह भी न करूँ, तो मुझसे साँस नहीं लिया जाएगा। मैं जी नहीं पाऊँगा।’
‘अर्चना दी -हमारी हेडमिस्ट्रेस कह रही थीं- उन्होंने छाप तो दिया। अब कहीं कोई झमेला न हो-‘
तुम यह समझती हो न कि मुझसे कोई समझौता नहीं होता, इसीलिए न मेरी समलोचना करती हो?
‘हाँ, यह तो सच है!’
‘मेरे समझौते तुम्हे नजर नहीं आते? सत्यभामा स्कूल में विकास-फंड का घपला वार्तावह ने नहीं छापा, इसलिए कि तुम वहाँ नौकरी करती हो। इस बात के लिए बहुतेरे लोग, मुझे आज तक माफ़ नहीं कर पाए।…’
(पृष्ठ 36)

चूँकि अब अमिय अपने पेशे के प्रति ईमानदारी बररता है तो इसके लिए जहाँ एक तरफ जनता उसका साथ देती हैं वही दूसरी तरफ जरायमपेशा लोग और उनको पोसने वाले पुलिस वाले उसके खिलाफ हो जाते हैं। उसके आगे मुसीबतें आती हैं। उसे धमकाया भी जाता है। इन धमकियों और इन मुसीबतों का उस पर क्या असर पड़ता है यही इस उपन्यास का सार है। वहीं चूँकि अमिय नसीरगंज में रहता है जहाँ निम्न वर्ग के लोग ज्यादा रहते हैं तो उस समाज की स्थिति और वहाँ की परेशानियों का भी वर्णन उपन्यास में होता रहता है। वहाँ का सामाजिक ढाँचा भी आप देख पाते हैं।

उपन्यास में न केवल अमिय का वर्तमान दर्शाया गया है बल्कि उसकी यादों के जरिये उसके जीवन में आये विभिन्न व्यक्तियों और उसके गुजरे जीवन की घटनाओं के विषय में भी बताया है। सत्तर के दशक के दौरान बंगाल में क्या हो रहा था उसका जिक्र भी इन्हीं यादों के जरिये किया गया है। 

उपन्यास में अमिय के इतिहास और वर्तमान को लेकर आज के हालातों पर टिप्पणी की गयी है। जैसे जैसे वक्त बदल रहा है वैसे वैसे समाज में अपराध और सिस्टम में भ्रष्टाचार कैसे बढ़ रहा है यह भी दिखता है। जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए लड़ाई की थी उनकी हताशा भी इसमें अमिय के बाबू जी के इस कथन से झलकती है:

‘असल में लोगों के पास रूपये बढ़ गये हैं।’
‘बॉर्डर कारोबार में रूपये! काले बाजारी और चोर बाजारी के रूपये! यह बहुत ही बड़ा अजीब है! बिल्कुल और तरह का!’
‘हताशा होती है न , बाऊ जी?’
‘नहीं! आत्ममंथन करता रहता हूँ। हमारी सोच और कार्यों में, कहीं कोई भूल जरूर रह गई, वर्ना ऐसा क्यों होता? हालत क्यों होती ऐसी?…’
(पृष्ठ 10)
सिस्टम में आये बदलावों के चलते ईमानदार लोगों को ईमानदारी से अपना कार्य करने में कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है यह भी अमिय के माध्यम से हम देखते हैं।
उपन्यास अमय की संघर्ष कथा है।  यह एक व्यक्ति की उसके कार्य को ईमानदारी से करने की जिद की कथा है। 

मेरी सलाह मानें, हमेशा दूर-दूर की खबरें लिखें, करीब की खबरों पर कलम न चलाएँ। अपने थाने से सहयोग करें। अखबार और थाना, अगर आपस में हाथ मिला लें, तो…। कौन-सी मछली खरीद रहे हैं? मुझे तो आज, ताजा मौराला मछली चाहिए-‘

यह थानेदार क्या धमकी दे गया?
(पृष्ठ 61) 

उपन्यास चूँकि 96 पृष्ठों का है तो इसमें काफी चीजों को संक्षिप्त रूप से दर्शाया गया है।

उपन्यास का स्ट्रक्चर भी ऐसा है जिससे कुछ कमियाँ रह जाती है। असल में उपन्यास अमिय के वर्तमान से शुरू होता है और फिर अमिय की यादों के द्वारा उसके इतिहास में जाता है। इस कारण  कई बार जब आप अमिय के इतिहास में विचरण करते हैं तो अनंग मोहन और मृणाल जैसे रोचक किरदार तो आपको मिलते हैं लेकिन उनके विषय में ज्यादा जानकारी नहीं दी जाती है। अनंग मोहन और मृणाल दोनों के विषय में भले ही कुछ ही पंक्तियाँ उपन्यास में दी गयी है लेकिन फिर भी यह ऐसे किरदार है जो कि आकर्षित करते हैं। पढ़ते हुए मुझे इनकी कहानी विस्तृत रूप से जानने की इच्छा करने लगी थी। चूँकि इनके विषय में ज्यादा नहीं लिखा गया था तो इस कारण पढ़ते वक्त मन में एक तरह की असंतुष्टि भी रही। ऐसी कई घटनाएं भी अमिय के इतिहास में दर्ज हैं जो कि एक एक पंक्तियों में निपटाई गयी है लेकीन आपको उनके विषय में विस्तृत रूप से जानने की इच्छा करने लगती है। 

इसीलिए मैंने ऊपर कहा कि यह इस उपन्यास के स्ट्रक्चर की गलती है। चूँकि यह रिपोर्टर की कहानी है तो लेखिका उससे भटक भी नहीं सकती थीं और इस कारण इन घटनाओं पर ज्यादा विस्तृत तौर पर नहीं जा सकती थीं। वहीं उन्हें यह भी दिखाना था कि अमिय को अमिय बनाने के पीछे कौन सी घटनाएं या किरदार हैं और इस कारण इनका जिक्र भी जरूरी था। 

लेखिका के पक्ष से देखूँ तो उन्होंने अपने हिसाब से सही तरीके से इसे लिखा है लेकिन पाठक के रूप में देखूँ तो पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि काफी कुछ ऐसा है जो कि बताया जाना चाहिए था और नहीं बताया गया। हाँ, अगर इस कहानी को विस्तृत रूप देकर दो तीन लघु उपन्यासों में परिवर्तित किया जाता जिसमें अमिय के जीवन के विभिन्न कालखण्ड होते तो पाठक के रूप में मुझे ख़ुशी होती। फिर रिपोर्टर उसके जीवन का एक भाग होता और चूँकि एक पाठक के रूप में आप पहले ही विस्तृत तौर पर बाकी चीजों से परिचित हो गये थे तो यह संक्षिप्त जिक्र उतना नहीं खलता। 

अगर अमिय के वर्तमान की बात करें तो चूँकि अमिय रिपोर्टर है तो उसकी रिपोर्टिंग की जिंदगी से जुड़े दो महत्वपूर्ण खबरों को ही इस उपन्यास में स्थान दिया गया है। इन खबरों के चलते उसे क्या सहना पड़ा और क्या परेशानी उठानी पड़ी यह इसमें दिखता है जो कि उपन्यास के विषय के हिसाब से काफी है लेकिन फिर भी पढ़ते हुए कुछ घटनाएं ऐसी हैं जिनके विषय में आप सोचते हैं कि अगर उन्हें ज्यादा जगह दी जाती तो एक पाठक के रूप में आप अमिय से ज्यादा जुड़ पाते। उसके जीवन के ज्यादा पहलुओं के विषय में जान पाते। उदाहरण के लिए अपनी पत्नी के लिए जो उसने समझौता किया था उसके चलते उसके जीवन में क्या बदलाव आये उसे ही काफी बढ़ाया जा सकता था। 

यह दो ही ऐसे बिंदु हैं जो कि पाठक के रूप में मुझे थोड़े से खले।

उपन्यास का अंत एक सकारात्मक बिंदु पर हुआ है। उसे देख कर मजरूह सुलतान पुरी का निम्न शेर याद आ जाता है:

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया 

अंत में यही कहूँगा कि एक रोचक विषय को लेकर लिखा गया यह उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। आज जब पत्रिकारिता साफ साफ़ खेमों में बंटी दिखती है तो हमे चाहिए कि अमिय जैसे और पत्रकार समाज में हों जो अपने खेमों से निकलकर जनता के विषय में सोचें। 
हाँ, उपन्यास का कलेवर थोड़ा बड़ा होता तो उपन्यास और बेहतर बन सकता था।

रेटिंग: 3/5

उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आईं:

‘तुम लोग जीत गये?’
‘अरे, लल्ला, हार-जीत ऐसे नहीं होती। हर बात में वक्त लगता है। वक्त पर परीक्षा में जो आखिर तक टिका रहता है, वही असली होता है।’
(पृष्ठ 10)
आजकल के नौजवानों में लगभग नब्बे प्रतिशन, असुरक्षा के शिकार हैं। पूरी की पूरी एक पीढ़ी यह महसूस करती है कि राज्य, राष्ट्र, नौकरी, कल-कारखाने, स्वनियुक्ति के कामकाज, विविध योजनाओं में उनके लिए कहीं कोई जगह नहीं है। वे लोग निरे फ़ालतू हैं। अगर वे न भी पैदा हुये होते, तो चल जाता। सिस्टम ने उन्हें खारिज कर दिया है। 
(पृष्ठ 18) 
आज तो जो शख्स अन्याय का विरोध करता है, वही पापी समझा जाता है। गुनाहगार! जिस शख्स की तरफदारी में विरोध किया जाता है, वह शख्स भी उनका साथ नहीं देता। 
(पृष्ठ 31)
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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8 Comments on “रिपोर्टर – महाश्वेता देवी | वाणी प्रकाशन | अनुवाद: सुशील गुप्ता”

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (02-09-2020) को  "श्राद्ध पक्ष में कीजिए, विधि-विधान से काज"   (चर्चा अंक 3812)   पर भी होगी। 
    — 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    — 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर…! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

    1. जी चर्चा अंक में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए आभार…

  2. आदरणीय आपने पुस्तक के उद्धरण देकर पुस्तक की अच्छी जानकारी दी है। हार्दिक साधुवाद!
    मैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!–ब्रजेन्द्रनाथ

    1. जी आभार सर… आपने अपने ब्लॉग का पता देकर अच्छा किया…जल्द ही उधर आता हूँ….

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