मानसरोवर 1.2 – मुंशी प्रेमचंद

किताब दिसंबर 17 2019 से जनवरी 14 2020 के बीच पढ़ा गया


संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक
पृष्ठ संख्या:433
ए एस आई एन: B01MDVA7D2

मानसरोवर 1 मुंशी प्रेम चंद की कहानियों का संग्रह है। मुंशी प्रेमचंद जी की सभी कहानियों को मानसरोवर नाम की श्रृंखला में संकलित की हुई है। इस श्रृंखला के कुल आठ भाग हैं।

मानसरोवर भाग 1 में 24 कहानियाँ संकलित की गयी थी।

पिछली पोस्ट में आपने मानसरोवर भाग में प्रकाशित पहली 12 कहानियों के विषय में मेरी राय पढ़ी। उन कहानियों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

मानसरोवर  1.1

इस पोस्ट में आखिरी की बारह कहानियों के विषय में मेरे विचार आपको पढ़ने को मिलेंगे। यह आखिरी की बारह कहानियाँ निम्न हैं:


13) दिल की रानी

पहला वाक्य:
जिस वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई दुनिया कौप रही थी, उन्हीं का रक्त आज कुस्तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है।


कुस्तुनतुनिया हार चुका था। तुर्की सेनापति यजदानी अपने एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूर के समक्ष खड़ा अपने ज़िन्दगी के आखिरी बचे पल जी रहा था। लेकिन फिर अचानक परिस्थिति कुछ ऐसी बदली कि यजदानी का सिपाही हबीब तैमूर की आँखों में चढ़ गया और तैमूर ने उसे अपनी सल्तनत का वजीर बना दिया।

पर तैमूर को यह मालूम न था जिस हबीब को वह युवक समझ रहा था वह युवक नहीं बल्कि यजदानी की एकलौती बेटी उम्मतुल हबीब थी।

क्या हबीब ने तैमूर का वजीर बनने की पेशकश को स्वीकार किया? 
क्या तैमूर यह जान सका कि हबीब असल में कौन था? 
असलियत जानने के बाद तैमूर की प्रतिक्रिया रही?

‘दिल की रानी’ प्रेमचंद जी का लिखा ऐतिहासिक गल्प है। यह तातार के राजा तैमूर और उनकी रानी हमीदो की प्रेम कहानी है।  तैमूर के कुस्तुनतुनिया जीतने, हबीब के युवक के रूप में तैमूर का वजीर बनने और आखिर में हबीब का राज तैमूर पर उजागर होने की यह कहानी है। कथा रोचक है।

इंसानियत, दया, प्रेम किसी भी धर्म से ऊपर है यह कहानी यह दर्शाती है। अगर आपके पास यह है तो आप खुदा के नज़दीक होंगे। अगर यह आपके पास नहीं है तो आप कितना ही धार्मिक कर्मकांड मान ले तब भी न आप भगवान के नज़दीक होंगे और न धार्मिक ही होंगे। कई बार यह बात समझाने के लिए हमे किसी विशेष व्यक्ति की जरूरत होती है। जो हमे यह समझा दे वो हमारे लिए गुरु बन जाता है। हमारी श्रद्धा का पात्र बन जाता है। यही इस कहानी में तैमूर और हबीब के बीच होता है। इन दोनों पात्रों के माध्यम से प्रेमचंद जी ने धर्म और धार्मिक होना क्या है इसको बाखूबी परिभाषित किया है।

प्रेमचंद जी ने ऐतिहासिक गल्प भी लिखे हैं यह मुझे पता नहीं था इसलिए जब अचानक इस संग्रह में इस कथा को पढ़ा तो मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था। मैं प्रेमचंद जी द्वारा लिखे ऐसे अन्य ऐतिहासिक गल्प पढ़ना चाहूँगा।

कहानी के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
वह दार्शनिक न था, जो सत्य में शंका करता है वह सरल सैनिक था, जो असत्य को भी विश्वास के साथ सत्य बना देता है।


आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।


कापिर वह है, जा दूसरों का हक छीन ले जो गरीबों को सताए, दगाबाज हो, खुदगरज हो। कापिर वह नही, जो मिटटी या पत्‍थर क एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्‍तों और झाडि़यों में खुदा का जलवा पाता हो। यह हमसे और तुझसे ज्‍यादा खुदापरस्‍त है, जो मस्जिद में खुदा को बंद नहीं समझता ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बदें है, सब।


सल्तनत  किसी आदमी की जायदाद नही बल्कि एक ऐसा दरख्त है, जिसकी हरेक शाख और पती एक-सी खुराक पाती है।





14) धिक्कार

पहला वाक्य:
अनाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलम्ब न था।

साल भर के भीतर जब मानी की माँ और पति का देहांत हो गया तो उसे लगा कि अब उसके लिए दुनिया में कोई जगह नहीं है। वह विप्पति में घिरी हुई थी और इस विप्पति की घड़ी में उसे अपने चाचा वंशीधर का ख्याल आया। कहने को तो वो उसके चाचा थे लेकिन अब तक उनके परिवार से दूर ही रहते आये थे। परन्तु समाज की लाज के कारण वंशीधर ने मानी को अपने घर रखना स्वीकार तो कर लिया लेकिन उधर उसका जीवन किसी नर्क से कम न था।

क्या मानी के जीवन में यही नर्क लिखा था?

धिक्कार कहानी पढ़कर मन दुखी हो जाता है। कहानी एक विधवा लड़की मानी के विषय में है जिसे किस्मत की मारी कहना ही ठीक होगा। जब किस्मत ने उसे कुछ सुख देने चाहे भी तो उसे ऐसे शब्दों का सामना करना पड़ा जिसके बाद उसे अपने जीवन का कोई औचित्य दिखाई देना ही बंद हो गया।

कबीर के एक दोहे  ने वाणी के महत्व को समझते हुए बताया है कि हमे ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिससे किसी का मन न दुखे। हमारे मुख से उच्चारे गए शब्द क्या अनर्थ ढा सकते हैं इस बात का अक्सर हमे अंदाजा नहीं रहता है। इस कहानी में भी वंशीधर के शब्दों ने जो वज्रपात किया उसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं था। एक मार्मिक कहानी।

यह कहानी उस वक्त लिखी गयी थी जब समाज का विधवाओं के प्रति नजरिया बदल रहा था। जहाँ समाज में इन्द्रनाथ जैसे लोग थे वहीं उसी समाज में वंशीधर रूढ़िवादी लोग भी थे। आज भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। कई जगह कई मानियाँ हैं जो शायद उसके जैसा जीवन व्यतीत कर रही होंगी।

कहानी के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं, तो हम अपनी सारी बुराइयों उसके सामने खोलकर रख देते हैं। हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कृपा के सर्वथा योग्य नहीं है।


हम छोटे-छोटे कामों के लिए तजुर्बेकार आदमी खोजते हैं, जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजुर्बे का होना ऐब समझते हैं।


अतीत चाहे दुख:द ही क्यों न हो, उसकी स्मतियॉ मधुर होती हैं।


विपत्ति में हम परमुखपेक्षी हो जाते हैं।



15) कायर

पहला वाक्य:
युवक का नाम केशव था, युवती का नाम प्रेमा।

प्रेमा और केशव एक दूसरे से बेहद प्यार क-रते थे। जहाँ केशव आधुनिक विचारों वाला व्यक्ति था वहीं प्रेमा के विचार कुछ हद तक रूढ़िवादी थे। यही कारण था कि जब केशव ने प्रेमा से शादी की बात की तो प्रेमा पहले पहल तो थोड़ा झिझकी थी। लेकिन फिर उसने घर में बात करने का मन बना लिया था।

क्या प्रेमा ने घर में बात की? 
प्रेमा के घरवालों का इस प्रस्ताव पर क्या प्रतिक्रिया हुई? 
क्या प्रेमा और केशव का विवाह हो पाया?

प्रेमा और केशव की यह कहानी पढ़कर मन दुखी हो जाता है। अक्सर कई युवक झौंक में बड़ी बड़ी बातें तो कर देते हैं लेकिन जब उन बातों के किर्यान्वन का समय आता है तो वो फिसड्डी ही साबित होते हैं।

यह कहानी भी इसी बात को उजागर करती है। एक तरफ केशव है  जो उसूलों की ढींगे तो मारता है लेकिन जब उन उसूलों पर कायम होने की बात आती है तो वह हार मान लेता हैं वहीं दूसरी तरफ प्रेमा है जो भले ही उन उसूलों को मानने का ढोंग नहीं करती है लेकिन उसमें इतना साहस है कि मौका पड़ने पर वह सही का साथ देने से नहीं चूकती है।

प्रेमा जैसी कई लड़कियाँ आज भी इस समाज में हैं जो अपने प्रेमियों के धोखे का इसलिए शिकार बन जाती है क्योंकि उनके प्रेमियों में रीढ़ की हड्डी का आभाव रहता है। लेकिन अच्छी बात यह है उन लड़कियों का अंत प्रेमा जैसा नहीं होता है। वो इस मामले में उससे अधिक समझदार होती हैं। प्रेमा में भी इतनी समझ होती कि जो हुआ उसमें उसकी गलती नहीं थी, तो शायद बेहतर होता। कायर एक मार्मिक कहानी है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस वक्त थी जब लिखी गयी थी।

16) शिकार

पहला वाक्य:
फटे वस्त्रों वाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद-से मुखड़े की ओर सम्मान-भरी आँखों से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा- हम गरीबों का इस तरह कैसे निबाह हो कसता है महारानी!


वसुधा आजकल दुखी और बीमार ही रहती थी। किसी चीज में उसका मन नहीं लगता था। कहने को उसके पास सब कुछ था लेकिन जिस चीज की उसे चाह थी वही उसकी पहुँच से दूर था। उसके पति कुँवर साहब को उससे अधिक अपने शौक प्यारे थे।

इसी मनस्थिति में जब उसकी नई नौकरानी मुनिया ने उससे इस विषय में बात की को वसुधा के मन में यह बात चुभ गयी। मुनिया तक ने उसकी परिस्थिति को समझ लिया था।

वसुधा अब समझ चुकी थी कि उसका ऐसे निर्वाह नहीं होगा और यही कारण था कि उसने पति कुँवर साहब के पास जाने का निर्णय कर लिया था।

क्या वसुधा अपने पति के पास पहुँच पाई? 
कुँवर साहब से मिलकर उसने उन्हें क्या कहा? 
आखिर उनका रिश्ता वसुधा के इस कदम से किस तरफ को मुड़ा?


प्रेमचंद जी की कहानी शिकार एक ऐसे जोड़े की कहानी है जो कि अपनी शादी से खुश नहीं है। एक तरफ वसुधा है जिसे लगता है कि उसका पति उससे प्रेम नहीं करता है वहीं दूसरी तरफ उसका पति कुँवर है जिसे लगता है कि उसकी पत्नी को उससे ज्यादा उसके धन में रूचि है। यही कारण है कि कुंवर उसे धन से अकेला छोड़कर शिकार और रेस में मग्न रहता है। यह दोनों जोड़े अपनी अपनी सोच के कारण घुटते रहते हैं।

उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखों में सब कुछ थीं। पति-प्रेम गौण-सी वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका; पति-प्रेम के लिए हाथ फैलाने लगा। कुछ दिनों में उसे मालूम हुआ, मुझे प्रेम-रत्न भी मिल गया; पर थोड़े ही दिनों में यह भ्रम जाता रहा।


अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार ही में मग्न थी, आज धूल के पाउडर और पोमेड में वह उसके नारीत्व का दर्शन कर रहे थे।

पर जब अति हो जाती है और वसुधा मामले को अपने हाथ में लेती है तो बातचीत होती है तो इनके खुद के सोचों के दायरे टूटते हैं प्रेम का सोता फूटकर उस जमीन को हरा भरा बना देता है जो कि आजतक गलतफहमी और गलत सोचों के थपेड़े खाकर सूख चुकी थी। यह इसलिए भी होता है क्योंकि आगे चलकर वसुधा कुँवर की ज़िदंगी उसके शौकों में रूचि लेने लगती है। इस रूचि से उनके बीच का जुड़ाव और गहरा हो जाता है।

कहानी दर्शाती है कि रिश्ते तभी सुदृढ़ होते हैं जब हम एक दूसरे से संवाद करते हैं। संवाद करेंगे तो  गलतफहमियाँ दूर होंगी। हम एक दूसरे की जरूरतों का पता लगा पाएंगे और एक दूसरे को खुश रख पाएंगे। कहानी रिश्तों के एक दूसरे पहलु को भी उजागर करती है। वह यह कि हमें अपने साथी के शौकों का भी ख्याल रखना चाहिए। उसमें रूचि दिखानी चाहिए क्योंकि ऐसा करके हमारे बीच आत्मीयता बढ़ेगी। शिकार एक सुन्दर कहानी है जिससे सीखना चाहो तो काफी कुछ सीख सकते हो।

कहानी का एक और रोचक प्रसंग है। यह प्रसंग मुनिया और वसुधा की बातचीत है। यह बातचीत कहानी के शुरू में ही है लेकिन समाज के एक और पहलू को दर्शाती है। कई बार हमे लगता है कि पढ़ी लिखी या अमीर घर की लड़कियों की हालत गरीब घर की लड़कियों से बेहतर होगी लेकिन अक्सर इसका उलट देखने को मिलता है। गरीब घर की लड़की क्योंकि कामकाजी और स्वालबी होती है तो स्वंत्रता का भाव उसमें अधिक होता है। यह चीज मुनिया और वसुधा में भी देखने को मिलती है। दोनों की आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का फर्क है लेकिन मुनिया ज्यादा स्वंत्र है।

कहानी के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह जिद्दी, उतने ही आतुर, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में कभी मन न लगा हो, वह बीमारी के बाद पढ़ी जाती हैं।


आनन्द से भरे भंडार में अब वह दान भी कर सकती थी। जलते हुए हृदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती!

17) सुभागी

पहला वाक्य:
और लोगों के यहाँ जो चाहे होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे।

तुलसी महतो को अपनी बेटी सुभागी से बहुत प्यार था। औरो के घर लड़का और लड़की में फर्क किया जाता रहा हो लेकिन तुलसी महतों के घर में यह फर्क न था। हाँ, तुलसी महतो अपने बेटी को अपने बेटे से जरूर ज्यादा प्यार करते थे।

सुभागी इतने गुणवान थी कि उसकी माँ को चिंता रहती थी कि कहीं किसी की नजर उस पर लग जाये। और फिर वही हुआ जिसका डर था। सुभागी के पति का देहान्त हो गया और सुभागी विधवा हो गयी। इसके बाद परिस्थितियाँ जो बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गयी।

ऐसा सुभागी के साथ क्या हुआ? उसने परिस्थितियों का सामाना कैसे किया? 

प्रेमचन्द जी की यह कहानी सुभागी के इर्द गिर्द घूमती है। सुभागी एक ऐसी स्त्री है जिसने मुसीबतों के सामने डिगना नहीं सीखा है। वह बचपन में विधवा हो जाती है लेकिन उस दुःख से टूटती नहीं है बल्कि उसका सामना करती है। उसकी मुसीबतों के सामने दृढ रहने की प्रवृत्ति ही उसका यश चारों तरफ फैलाती है। कहानी का अंत सुखान्त है और सुभागी के लिए अंत में प्रसन्नता होती है।

कहानी में चूँकि सुभागी बाल विधवा हो जाती है तो हमे उस समय जो स्त्रियाँ इस परिस्थिति से गुजरती थी उनके हालात का पता चलता है। उन्हें कैसे उनके भाई बहन ही बोझ समझने लगते हैं। वो कैसे नौकरानी की तरह जीवन यापन करने के लिए विवश हो जाती हैं। कहानी में इसका आभास हमे होता है।  हाँ, एक रोचक बात यह है कि इसमें सुभागी जिस समाज से आती है उसमें विधवा विवाह की रीती रहती है जिसे देखकर मुझे अच्छा लगा।



18) अनुभव

पहला वाक्य:
प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गयी।

जब कथावाचिका के पति को गर्मी के दोपहरी अंग्रेजी राज के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले युवकों को शर्बत पिलाने के जुर्म में सजा हो गयी तो कथावाचिका का सिर गर्व से ऊपर उठ गया। लेकिन अब उसके जीवन में एक समस्या भी आ गयी कि उसका निर्वाह कैसे होगा? पति के जाने के बाद उसके जीवन में परेशानियाँ आनी ही थीं। इन्ही परेशानियों के दौरान उसे ऐसा अनुभव हुआ जिसके चलते उसकी जिंदगी को देखने का नजरिया बदल गया। रिश्तों के मायने बदल गये।

आखिर क्या अनुभव उसे हुए? 

रिश्ते केवल खून के ही नहीं होते हैं बल्कि कई बार दिल के भी होते हैं। मेरे खुद के अनुभव ये रहे हैं कि दिल के रिश्ते खून के रिश्तों से ज्यादा ही ख्याल रखते हैं। इस कहानी में भी यही दिखता है।

19) आखिरी हीला

पहला वाक्य:
यद्यपि मेरी स्मरण-शक्ति पृथ्वी के इतिहास की सारी स्मरणीय तारीखें भूल गयी, वे तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और मस्तिष्क को खपाकर याद किया था; मगर विवाह की तिथि समतल भूमि में एक स्तम्भ की भाँति अटल हैं। 

आखिरी हीला में एक पत्र सम्पादक की कहानी है। इस कहानी का कथावाचक एक पत्र का सम्पादक है जो  अपनी कहानी पाठक के समक्ष रख रहा है। कथावाचक बहुत परेशानी में है और उसकी परेशानी का कारण उसकी धर्मपत्नी है जिसने उसके साथ शहर में आकर रहने की जिद्द ठान ली है। पत्र सम्पादक गृहस्थ जीवन की परेशानियों से वाकिफ है और इस कारण उसकी हर सम्भव कोशिश रहती है कि उसकी पत्नी उसके पास शहर न आये। इसके लिए उसने अब तक कैसे कैसे बहाने मारे और उनका क्या असर हुआ है यह कथा वो पाठक को सुना रहा है। हीला का मतलब बहाना होता है और यह तो तय कि कहानी को पढ़कर पाठक यह जान जायेगा कि वह कौन सा हीला था जिसे कहने के बाद पत्नी रुपी विपदा कथावाचक पर टूट पड़ी।

गृहस्थ जीवन में व्यक्ति बंध सा जाता है और उसे लगने लगता है उसकी आज़ादी, जिसका का वो अभी तक आदि था, सब छिन जाएगी। यह काफी हद तक सही भी है। मैंने खुद अपने शादीशुदा दोस्तों को इन जिम्मेदारियो में बंधते देखा है और कई परिचितों को इसमें पिसते देखा है। इस कहानी में भी इसी बात से घबराया व्यक्ति दर्शाया गया है।

मैं पत्र सम्पादक की हालत समझ सकता था क्योंकि इन जिम्मेदारियों में बंधने के डर के कारण ही काफी समय तक मैं अपने घर वालों को अपनी शादी के लिए मना करता रहा। मेरे बहाने भी कथावाचक की तरह ही हास्यपद होते थे।

यह कहानी मुझे रोचक लगी। कहानी हास्य रस से भरपूर है और कहानी पढ़ते पढ़ते मेरे चेहरे पर मुस्कराहट रहती थी।


कहानी के कुछ अंश जो पसंद आये:

मेरी सारी मौलिकता, सारी रचनाशीलता इसी दाम्पत्य के फन्दों से बचने के लिए प्रयुक्त हुई हैं। जानता हूँ कि जाल के नीचे जाना हैं, मगर जाल कितना ही रंगीन और ग्राहक हैं, दाना उतना ही घातक और विषैला। इस जाल में पक्षियों को तड़पते और फड़फड़ाते देखता हूँ और फिर डाली पर जा बैठता हूँ ।

शहर बीमारियों के अड्डे हैं। हर एक खाने-पीने की चीज में विष की शंका दूध में विष, फलों में विष, शाक-भाजी में विष, हवा में विष, पानी में विष। यहाँ मनुष्य का जीवन पानी का लकीर हैं। जिसे आज देखो, वह कल गायब। अच्छे-खासे बैठे हैं, हृदय की गति बन्द हो गयी। घर से सैर को निकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की राह ली। अगर शाम को सांगोपांग घर आ जाय, तो उसे भाग्यवान समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, दिल बैठा; मक्खी नजर आयी और हाथ-पाँव फूले। चूहा बिल से निकला और जान निकल गयी। जिधर देखिए यमराज की अमलदारी हैं। अगर मोटर और ट्राम से बचकर आ गये, तो मच्छर और मक्खी के शिकार हुए। बस, यही समझ लो कि मौत हरदम सिर पर खेलती रहती हैं। रात-भर मच्छरों से लड़ता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्हीं-सी जान को किन-किन दुश्मनों से बचाऊँ। साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि कहीं क्षय के कीटाणु फेफड़े में न पहुँच जायँ।


20) तावान
पहला वाक्य:
छकौड़ीलाल ने दुकान खोली और कपड़े के थानों को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला, दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दुकान को छंकने आ पहुँची।

छकौड़ीलाल एक बजाज(कपड़े का व्यापारी) था जिसके ऊपर कांग्रेस कमेटी ने तावान यानी दण्ड ठोका था। छकौड़ी के घर में उसकी वृद्धा माँ, उसकी बीमार पत्नी अम्बा और उसके दो बच्चे थे और वह किसी तरह अपना गुजर बसर कर रहा था।

जबसे विदेशी कपड़े की बिक्री पर कांग्रेस ने रोक लगाई थी तभी से उसकी हालात खराब चल रही थी। यही कारण था कि वह लोभ संवरण न कर पाया और अब तावान(दंड/क्षतिपूर्ति) का भागीदार बन गया है।

आखिर छकौड़ीलाल का क्या होगा? क्या वो तावान भर पाया?

तावान कहानी उस वक्त का चित्रण करती है जब विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके देश में एक आंदोलन किया जा रहा था। यह कहानी आंदलोन के कई पहलुओं को दर्शाती है। इसमें छकौड़ीलाल जैसे लोग हैं जो की आंदलोन का हिस्सा तो बनना चाहते हैं लेकिन उन्हें अपने परिवार वालों से प्यार भी है। उनके मोह के चलते वह आंदोलन तोड़ देते हैं। वहीं उसी परिवार में उसकी पत्नी है तो आंदोलन और अपनी इज्जत के लिए अपने प्राणों की भी फ़िक्र नहीं है। वहीं एक तरफ प्रधान जी भी हैं जो कि चाहकर भी तावान के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लगता है कि भले ही छकौड़ी ने लालच के चलते ये नहीं किया था लेकिन अगर उन्होंने दया दिखाई तो लालची लोग इसी चीज का हीला बनाकर व्यापार कर सकते हैं और आंदोलन फिर बैठ जायेगा।

जब हम आंदलोन के लिए समप्रित लोगों की बात कर करते हैं तो अक्सर ऐसे लोगों को भूल जाते हैं जिन्होंने इसके चलते अपने परिवार खोये होंगे फिर भले ही वह सीधे रूप से आंदोलन से जुड़े हुए न रहे हो। जब हम इतिहास में आंदोलन के विषय में पढ़ते हैं तो वह केवल तारीक के रूप में हमारे पास रहती है। उसमें शामिल हुए लोगों के दुःख त्याग का अंदाजा हम केवल तारीक से नहीं लगा पाते हैं। तावान जैसी कहानियाँ इस त्याग को उभारती है क्योंकि हमे यह दर्शाती है कि आंदलोन को सफल करने के लिए व्यक्ति को किन किन चीजों से गुजरना पड़ा था। उसे खुद के परिवार को भूखे मरते देखना पड़ा था। खुद की बीवी को बीमार हालात में पैसे की तंगी के चलते खत्म होते देखना पड़ा था। न जाने इस आंदोलन में छकौड़ी जैसे कितने ही लोग रहे होंगे। न जाने उन्होंने कितना कुछ खोया होगा। मैं अब सोचता हूँ कि क्या उन्हें देश ने उतना कुछ दिया होगा। मेरे पास उत्तर नहीं है। क्या आपके पास है?


21) घासवाली
पहला वाक्य:
मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आ, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी बड़ी मद-भरी आँखों में शंका समाई हुई थी।

उस दिन मुलिया घास लेकर लौटी तो वह महावीर को परेशान दिखी। महावीर के कुछ पूछने पर भी उसने नहीं कारण इसलिए नहीं बताया क्योंकि वह जानती थी कि महावीर अगर बात जानेगा तो गुस्से में काबू नहीं रख पायेगा और कुछ ऊल जलूल हरकरत कर बैठेगा।

आखिर मुलिया के साथ हुआ क्या था? उसने अपनी परेशानी का हल किस प्रकार निकाला?

यह कहानी मुलिया, महावीर और चैनसिंह को केंद्र में रखकर लिखी गयी है। जहाँ मुलिया, महावीर नीची जाति के हैं वहीं चैनसिंह ऊँची जाति का व्यक्ति है। इनके संवादों से प्रेमचंद ने उस वक्त के जातीय समीकरण का चित्रण किया है। प्रेम व्यक्ति को किस तरह बदलता है वह इस कहानी में चैनसिंह के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन के माध्यम से उन्होंने दर्शाया है। मुलिया का परिस्थिति के हिसाब से खुद को ढालकर उसका उपयोग करना रोचक था।


कहानी के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जाति में रूप-माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या हैं कि वह ऊँची जातिवालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मौकें उसने जीते थे, पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया।


संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नही होती, पीछे से टीस होने लगती हैं।


जवानी जोश हैं, बल हैं, दया हैं, साहस हैं, आत्मविश्वास हैं, गौरव हैं और वह सब कुछ – जीवन को पवित्र, उज्जवल और पूर्ण बना देता हैं। जवानी का नशा घमंड हैं, निर्दयता हैं, स्वार्थ हैं, शेखी हैं, विषम-वासना हैं, कटुता हैं और वह सब-कुछ – जो जीवन को पशुता, विकार और पतन की ओर ले जाता हैं। 



जैसे उबलती हुई चाशनी में पानी के छींटे पड़ जाने से फेन मिट जाता हैं, मैल निकल जाता हैं और निर्मल, शुद्ध रस निकल आता हैं। जवानी का नशा जाता रहा, केवल जवानी रह गयी। कामिनी के शब्द जितनी आसानी से दीन और ईमान को गारत कर सकते हैं, उतनी आसानी से उसका उद्धार भी कर सकते हैं।


22) गिला
पहला वाक्य:
जीवन का बड़ा वभाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ।

गिला कहानी है या लेख इसका मुझे पता नहीं लेकिन इसे पढ़कर मुझे बहुत आनंद आया। गिला में एक पत्नी अपने पति की शिकायत करती दिखती है। उसका पति दुनिया की नज़र में बहुत सज्जन, शिष्ट , उदार, सौम्य है लेकिन पति के इन गुणों से उसके जीवन में क्या असर होता है वह इस कहानी में पता चलता है। कई बार पत्नी का लहजा ऐसा होता है पढ़ते हुए बरबस ही हँसी छूट जाती है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं एक दो ऐसे लोगों को जानता हूँ जो कुछ हद तक चरित्र में कथावाचिका के पति से मिलते थे। इस कारण मैं कथावाचिका की परेशानियों को समझ सकता था क्योंकि परिचितों के घर वालों को  मैंने इन्हीं से जूझते हुए देखा है। लेकिन यह शिकायतें भी प्यार का एक रूप ही होती हैं। यह मुझे पता है।

कहानी के अंत भी इस बात को साफ़ कर देता है और आपके चेहरे पर यह एक मुस्कान ला जाता है।

23) रसिक सम्पादक
पहला वाक्य:
‘नवरस’ के सम्पादक पं चोखेलाल शर्मा की धर्मपत्नी का जब से देहांत हुआ है, आपको स्त्रियों से विशेष अनुराग हो गया है और रसिकता मात्रा भी कुछ बढ़ गयी है।


रसिक सम्पादक पं चोखेलाल की कहानी है। पं चोखेलाल जब से विधुर हुए हैं तभी उसे स्त्रियों को वो ज्यादा महत्व देने लगे हैं। ऐसे में जब उनके यहाँ एक ऐसी कविता आती है जिसे ज्यादातर सम्पादकों ने अश्लील करार दे दिया है तो वह कविता लिखने वाली कामाक्षी की कल्पनाओं में खो जाते हैं। और जब उन्हें खबर मिलती है कि उनके सपनों की देवी कामाक्षी खुद उनके शहर आ रही हैं तो वह उनसे मिलने को लालायित रहते हैं। आगे क्या होता है यही कहानी बनती है।

कहानी उन लोगों पर व्यंग्य है जो कि स्त्री को केवल चेहरे मोहरे से आंकते हैं। ऐसे लोग हर जगह और बड़े बड़े औहदों पर भी आपको मिल जायेंगे। रोचक कहानी लेकिन पं चोखेलाल का व्यक्तित्व एक तरह की खीज भी मन में पैदा कर देता है क्योंकि ऐसे लोग असलियत में भी काफी भरे पड़े हैं।

24) मनोवृत्ति
पहला वाक्य:
एक सुंदर युवती, प्रातः काल गाँधी पार्क में बिल्लौर के बेंच पर गहरी नींद में सोई पायी जाए, यह चौंका देनेवाली बात है। 

यह समाज फिर इसमें जवान हो, बुजुर्ग हों या महिलाएं ही वह किस तरह किसी भी स्त्री के प्रति धारणा बनाने में सबसे आगे होते हैं यही इस कहानी में दर्शाया गया है। सुबह के वक्त एक औरत जब कुछ लोगों को एक बेंच पर बैठी सोती हुई मिलती है तो सभी उनके प्रति कयास लगाने लगते हैं।


आखिर यह स्त्री कौन है और क्यों इधर सो रही है? 

यही उनके बीच की चर्चा का विषय रहता है जिसके दौरान वो उस स्त्री के विषय में अपनी धारणा व्यक्त करते हैं। यह प्रवृत्ति आज भी समाज में व्याप्त है और इस कारण यह आज भी प्रासंगिक है। अगर आपने नहीं पढ़ी है तो एक बार जरूर पढ़िये।

मानसरोवर भाग १ समाप्त किया और काफी रोचक कहानियों को पढ़ने का मौका मिला। इस कहानी संग्रह में मौजूद कहानियाँ समाज के कई बिंदुओं पर प्रकाश डालती हैं। यह समाज का विकृत चेहरे को भी उभारती हैं। कुछ कहानी हँसाती भी हैं और कुछ द्रवित भी कर जाती हैं और उन्हें पढ़कर मन व्यथित हो जाता है।

अंत में यही कहूँगा कि यह कहानियाँ सोचने के लिए काफी कुछ पाठक को दे जाती हैं।  एक बेहतरीन संग्रह जो कि हर किसी को पढ़ना चाहिए।

अगर आपने इस संग्रह को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने  विचारों से मुझे आप टिप्पणी के माध्यम से अवगत करवा सकते हैं। अगर आपने प्रेमचंद जो को नहीं पढ़ा है तो आप जल्द से जल्द इन्हें पढ़िए।

रेटिंग: 5/5

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मुंशी प्रेमचंद जी की मैंने अन्य कृतियाँ भी पढ़ी हैं। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सके हैं:
मुंशी प्रेमचंद

© विकास नैनवाल ‘अंजान’


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “मानसरोवर 1.2 – मुंशी प्रेमचंद”

  1. बेहतरीन समीक्षा ! आप की साहित्यिक अभिरुचि लाजवाब है । मुंशी प्रेमचन्द की लेखनी का जादू अद्भुत है । उनकी लेखनी की प्रशंसा जितनी भी जाये कम ही होगी ।

    1. जी सही कहा आपने। मुंशी जी की लेखनी पढ़कर काफी कुछ सीखने को मिल जाता है। इस साल उनका लिखा सब कुछ पढ़ने का इरादा है। लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा मैम।

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