संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 121 प्रकाशक: डायमंड बुक्स
नौका भी चली गई और उसके संगी साथी भी चले गये। अकेले छूटे नवकुमार को क्या पता था कि उसके जीवन में आगे क्या होना था? पहले उसकी ज़िन्दगी में कपालिक नाम का तांत्रिक आया। और फिर उसकी ज़िन्दगी में आई कपाल कुण्डला। और नवकुमार की ज़िन्दगी ही बदल गई।
आखिर कौन था नवकुमार? कौन थी कपाल कुण्डला? क्या नवकुमार इस निर्जन स्थल से बाहर निकल सका ? कपाल कुण्डला का उसके जीवन में क्या महत्व था ?
बंकिमचन्द्र जी का यह लघु उपन्यास 1886 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास अपने प्रकाशन से ढाई सौ वर्ष पूर्व की कहानी सुनाता है। कहानी की शुरुआत बड़ी रोचक है और तंत्र मंत्र का प्रयोग इस रोचकता को बढ़ा देता है। लेकिन फिर उपन्यास कपाल कुण्डला और नवकुमार के जीवन के तरफ मुड़ जाता है।
उपन्यास में सलीम, मेहरुनिस्सा इत्यादि का जिक्र भी है जिसके कारण इसे ऐतिहासिक गल्प में रखा जा सकता है। इन्ही किरदारों के सम्बन्ध में आप देख पाते हैं कि कैसे उस वक्त राजकाज के मामले में औरतों के बीच ताकत के लिए खेल खेले जाते थे। सब अपनी चालें चलती थीं, भले ही मुँह के सामने मीठी बने। राजनीति के ये दृश्य पढ़कर मैं यही सोच रहा था कि कैसे कोई इस बीच रह सकता है। आपको पता ही नहीं चलेगा कि कौन आपका हितेषी है और कौन ताकत के लिए आपके साथ मीठी मीठी बात कर रहा है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि जिस सिर पर ताज होता है वह कभी भी आराम नहीं कर सकता है। यह कहावत आप चरित्रार्थ होते देख सकते हैं। जब मैं ऐसे उपन्यास पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि कोई बड़ी बात नहीं थी लोग अपने राज काज के लिए भाई तक तो मार देते थे। अगर वो न मारते शायद कोई और उन्हें मार देता। हम अपनी लोअर मिडिल क्लास ज़िन्दगी जीते हुए शायद ही उनकी परिस्थितियों को समझ सकें।
कहानी नवकुमार और कपाल कुण्डला के सम्बन्ध के चारो तरफ घूमती है। इनकी मुलाकात कैसे होती है? उसके बाद इनके जीवन में क्या बदलाव आता है? क्या परेशनियाँ आती हैं? यह सब उपन्यास का केंद्र है।
प्रेम के कारण ही कहानी में छल होता है, धोखा होता है और फिर कहानी अपने अंत तक पहुँचती है।
इस कहानी में नवकुमार और कपाल कुण्डला के अलवा एक किरदार पद्मावती उर्फ़ मति बीबी उर्फ़ लुत्फुनिस्सा है। यह लड़की कौन है यह तो आपको कहानी पढकर ही पता चलेगा लेकिन मुझे यह किरदार बहुत रोचक लगा। हिन्दी फिल्मो में वैम्प होती थीं जो कि काफी आधुनिक, तेज तर्रार और अपने प्रेम को लेकर काफी उन्मुक्त होती थीं। लुत्फुनिस्सा को देखकर उन्ही वैम्पस की याद आ जाती है। उसके अन्दर प्रेम जागृत होने पर जो बदलाव आता है वह पहले अटपटा लगता है लेकिन मुझे पता है इनसान प्रेम जागृत होने पर एक दम बदल सा जाता है तो यकीन करने में मुझे ज्यादा परेशानी नहीं आई।
वह एक सशक्त स्त्री है। राजनीति में माहिर है। अगर एक उपन्यास लुत्फुनिस्सा के जीवन पर लिखा होता तो मैं इसके बाद उसे ही पढ़ता। हाँ, ये मैं कभी नहीं चाहूँगा कि वो मेरी दुश्मन बने। ऐसे स्त्री हितेषी हो तो ही बेहतर रहता है। उसके आगे का जीवन कैसे रहा होगा यही मैं सोचता हूँ?
कपाल कुण्डला मुख्यतः एक अधूरे प्रेम की कहानी है। नवकुमार जिसे प्रेम करता है वो उससे प्रेम नहीं करती है। कपाल कुण्डला शायद ही किसी से प्रेम कर सकती है। उसे शायद अपनी स्वतंत्रा से प्रेम है। लुत्फुनिस्सा जिसे प्रेम करती है वो उससे प्रेम नही करता है। सभी अपने अपने प्रेम के पूरे होने की कोशिश में लगे रहते हैं और इसी कोशिश को करते हुए कहानी का अंत हो जाता है। कहानी का अंत मार्मिक है लेकिन फिर पाठक के रूप में मुझे पता था कि एक व्यक्ति के मन में दूसरे के प्रति प्रेम के भाव नहीं थे तो अंत ने मन में असर कम किया। अगर दोनों के अन्दर समान भाव होते तो शायद असर होता।
उपन्यास के तांत्रिक कपालिक और उसकी तंत्र साधना वाले हिस्से ने भी मुझे प्रभावित किया। मैं चाहूँगा कि इस विषय के चारो ओर बुना हुआ कोई कथानक मैं पढ़ सकूँ। अंग्रेजी में ऐसे दो उपन्यास मैंने मंगवाए हैं। हिन्दी में भी कोई मिले तो मजा आ जाये। अगर आपको इस विषय में कुछ पता हो तो मुझे जरूर बताइयेगा।
कपाल कुण्डला के विषय में यही कहूँगा कि कहानी पठनीय है और इसमें अंत तक रोचकता बनी रहती है। हाँ, लुत्फुनिस्सा को क्यों दिल्ली से जुड़ा हुआ दिखाया इसका मुझे मकसद नज़र नहीं आया। उसकी दिल्ली से जुड़ी ज़िन्दगी रोचक जरूर है लेकिन अगर वह नहीं भी होती तो शायद मूल कहानी में इतना फर्क नहीं पड़ता। फिर भी इस हिस्से के होने से कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है तो शिकायत नहीं की जा सकती है।
रेटिंग : 3/5
हिरण्यमयी को पुरन्दर ने मिलने को बुलाया तो वह उसे मना नहीं कर पायी। वह दोनों बचपन के साथी थे और इस कारण वह आखिरी बार उससे मिलने चली गई। क्योंकि अब वो बढ़े हो चुके थे तो उनके घर वालों को उनका ऐसा अकेला मिलना पसंद नहीं था। वैसे उनकी शादी पहले तय हो गई थी लेकिन फिर हिरण्यमयी के पिताजी ने उनकी शादी के लिए मना कर दिया था। ऐसा क्यों किया? इसका किसी को अंदाजा नहीं था। इसी बात से दुखी होकर पुरंदर आखिरी बार हिरण्यमयी से मिलना चाहता था। उसने कुछ फैसला किया था और वह उसे अपनी दोस्त और प्रेमिका को बताना चाहता था।
आखिर पुरन्दर ने क्या फैसला किया था?
सेठ धनदास ने अपनी पुत्री का विवाह पुरन्दर से क्यों नहीं किया था?
बंकिम जी की यह कहानी रोचक है। यह एक रहस्य कथा सी आगे बढ़ती है। आखिर हिरण्यमयी और पुरन्दर का क्या होगा यह देखने के लिए पाठक कहानी पढ़ता जाता है। कहानी के बीच में कुछ ऐसी घटनाएं होती है जो कि कहानी में रहस्य का तत्व जोड़ देती हैं।
कहानी के अंत तक आते आते मुझे यह तो पता चल गया था कि आखिर अंत कैसे होगा लेकिन उस तक पहुँचा कैसे जाएगा यह देखन रोचक था।
कहानी एक प्रेम कथा जरूर है लेकिन इसमें घुमाव और रहस्य के तत्व इसकी रोचकता अंत तक बरकरार रखते हैं। इस कारण कहानी मुझे बहुत पसंद आई।
मेरी रेटिंग: 3.5/5
ग्यारह वर्ष की राधारानी उस दिन रथयात्रा का मेला देखने के लिए गई थी। वह उधर घूमने नहीं गई थी अपितु उसकी कुछ मजबूरियाँ उसे उधर लेकर गई थी। उस दिन उसकी ज़िन्दगी में ऐसी घटना घटी कि वह उस दिन को उन्नीस वर्ष की होने तक भी न भुला पाई। इतने वर्षो में उसने काफी कुछ खोया और काफी कुछ पाया लेकिन एक आस मन में दबी रह गई।
आखिर राधारानी मेले में क्यों गई थी? ऐसा उस दिन क्या हुआ था जो कि वह इतने वर्षों पश्चात भी उस दिन हुई घटना को नहीं भूल पाई?
राधारानी इस किताब में संकलित दूसरी कहानी है। कहानी राधारानी के चारो ओर घूमती है। उसकी जिंदगी में घटित हुई घटना ने उस पर क्या असर डाला यह दिखाती है। सही बताऊँ मुझे नहीं पता कि उस वक्त इस कहानी को कैसे लिया गया होगा लेकिन आज के वक्त में मुझे यह कहानी अजीब लगी।
जब आप किसी की मदद करते हैं तो फिर शायद उससे कुछ मिलने की आस छोड़ देते हैं। ऐसे में कहानी में मौजूद रुकमणि कुमार राय के चरित्र के द्वारा किये गये काम मुझे पचाने में थोड़ी दिक्कत हुई। पर यह इसलिए भी हो सकता है कि मैं आज के जमाने में पैदा हुआ हूँ और उस वक्त यह आम चलन था। बड़ी बड़ी उम्र के आदमी छोटी छोटी लडकियों से ब्याह रचा देते थे और इसे ठीक समझा जाता था। यही कारण है कि रुकमणि कुमार के मन में जो इच्छा जन्मी उसे आज एक शायद ही कोई ठीक समझे लेकिन उस वक्त वह शायद साधारण बात थी।
कहानी में एक प्रसंग ऐसा भी है जिसमें राधारानी अपने पसंद के लड़के से शादी की बात करने से पहले उसकी जाति जानना चाहती है। वैसे यह काम तो आज भी काफी होता है। वहीं उसके मन में यह भी होता है कि वह अपने प्रेमी की दूसरी पत्नी नहीं बनेगी। ऐसे काफी प्रसंग उसमें हैं जिससे उस वक्त के समाज के विषय में पता चलता है।
कहानी सीधी है। ज्यादा घुमाव इसमें नहीं है। कहानी का अंत कैसा होगा इसका अंदाजा आसानी से हो जाता है।
रेटिंग: 2.5/5
अगर आपने यह पुस्तक पढ़ी है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से आप मुझे टिप्पणियों के माध्यम से अवगत करवा सकते हैं।
'कपाल कुण्डला' मैंने पढा था। यह वास्तव में यह बहुत रोचक उपन्यास है। उपन्यास का अंत मन को छू जाता है।
– गुरप्रीत सिंह
अंत मुझ पर प्रभाव नहीं डाल सका क्योंकि दोनों किरदार की भावनाएं बिलकुल अलग थीं। लड़का उससे प्रेम करता था लड़की नहीं। वैसे बाकी किरदार रोचक थे।
Vikash ji apse ek saval hai, aap jitne bhi book ka review karte hai kya sabhi ko padhte hai
जी पहली बात तो मैं रिव्यु नहीं करता हूँ। यह एक पाठकीय प्रतिक्रिया है। अब पाठकीय प्रतिक्रिया बिना पढ़े कैसे दी जा सकती है???
बहुत बढ़िया समीक्षा विवेक जी ।
जी आभार, मैम..