उस दिन जब मैं कुछ फोटो खींच चुका, तभी किशन एक ट्रे में दो चाय लिये ऊपर आया। मैं समझ गया कि उसे रमन लाम्बा के आने का पता नहीं चला होगा, इसलिए चाय मेरे और अपने लिए ही लाया है। सरदार मनोहर सिंह ने नीचे से उसे चाय ले जाने के लिए ही आवाज़ दी थी।
चाय बेशक दो ही थीं, लेकिन मैंने तुरंत ही चाय की ट्रे किशन से लेकर, चाय रमन लाम्बा और उसकी साथिन की ओर बढ़ा दी, पर रमन लाम्बा ने बड़ी शालीनता से ‘नो थैंक्स, एक्चुअली हम कोल्ड ड्रिंक पीकर आ रहे हैं’ कहा और बोला –”अब हम चलते हैं।”
और अपनी फीमेल साथी के साथ वह शीघ्रतापूर्वक वहाँ से चला गया।
मैं और किशन चाय पी रहे थे, तभी सरदार मनोहर सिंह भी ऊपर आ गये। आते ही पूछा –”आया था क्या रमन लाम्बा?”
“हाँ…।” मैंने कहा –”मैंने उसकी कुछ बहुत अच्छी फोटो खींच ली हैं। पर अभी रील पूरी होने में तो बहुत समय लगेगा। कैमरा सम्भाल कर रख देना। बच्चे छेड़छाड़ न करें। पता चले, सारी रील खराब हो गयी।”
“ठीक है।” मनोहर सिंह ने कहा –”कैमरा यहीं ऑफिस में रहेगा, यहाँ बच्चे नहीं आते।”
यह घटना सम्भवतः 1977-78 की होगी। उन दिनों मैं सपरिवार पश्चिमी दिल्ली के रमेशनगर में रह रहा था।
अगले रविवार की सुबह जब मैं खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में था और कुर्सी पर बैठा, हफ्ते भर की डाक देख रहा था कि अचानक ही ऑफिस में एक मुस्कुराते चेहरे ने प्रवेश किया, जिसने मुझे एकदम चौंका दिया।

जी हाँ, वह रमन लाम्बा ही था।
“हो गयी ?” आते ही उसने पूछा।
“क्या ?” जानते-बूझते हुए भी मैंने सवाल किया।
“फोटो…फोटो तैयार हो गयी?” रमन लाम्बा ने पूछा।
“अभी कहाँ ? अभी तो रील ही पूरी नहीं हुई।” मैंने कहा।
“अरे यार…।” रमन लाम्बा ने मुस्कुराते हुए ही सिर हिलाया। फिर तुरंत ही बोला –”मैं तो तस्वीर देखने ही आया था।”
“अरे यार..।” मैं जानबूझकर रमन लाम्बा के स्टाइल में ही बोला –”थर्टी फाइव एम एम की एक रील में पैंतीस से अड़तीस तक स्नैप खिंच जाते हैं। जब तक रील पूरी न खिंच जाए, रील निकाल नहीं सकते। अभी कोई ऐसा इवेंट भी नहीं है कि फोटो खींच-खींच कर सारी रील ख़त्म कर दें।”
(और हमारे पास ऐसा कोई बंदोबस्त नहीं था कि जितने स्नैप खिंचें हो, डार्क रूम में जाकर उन्हीं को कट करके डवलप कर लें और उनके पॉजिटिव तैयार कर लें।)
“आपने फोटो खींचे तो थे न?” अचानक रमन लाम्बा ने पूछा।
“ये सवाल क्यों किया ?” मैंने कहा –”आपको क्या लगा, मैंने यूँ ही आपको खुश करने के लिए क्लिक-क्लिक किया था।”
“नहीं-नहीं, मेरा मतलब ये था…ये था…” रमन लाम्बा एकदम गड़बड़ा सा गया, पर फिर सादगी से ही कह उठा –”आप जैसा कोई फोटोग्राफर पहले कभी नहीं देखा, आपको फोटोग्राफी आती तो है ना?”
किसी ने तमाचा मार दिया होता तो शायद उतना झन्नाटेदार महसूस न हुआ होता, जैसा झटका मुझे उस समय रमन लाम्बा के शब्दों से लगा। तुरंत बोला –”अरे यार, प्रोफेशनल नहीं हूँ, मगर अच्छी फोटो खींच लेता हूँ। तुम अपनी फोटो देखोगे तो उछल पड़ोगे। इतनी शानदार तो मैंने खींची ही हैं।”
“तो दिखाइए न, मुझे भी उछलना है।” रमन लाम्बा ने कहा।
“अभी रील पूरी होने दो, अच्छा, मैं कोशिश करूँगा, रील जल्दी भर जाए। कुछ दिनों बाद पता करना।” मैंने रमन लाम्बा को आश्वस्त किया।
“दो हफ्ते बाद आऊँ?” रमन लाम्बा ने पूछा।
“हाँ, ठीक है।” मैंने स्वीकृति दे दी।
और दो हफ्ते बाद रविवार की सुबह रमन लाम्बा फिर आये।
एक बार फिर मेरी रमन लाम्बा से मुलाक़ात हुई और उन्होंने पूछा – “फोटो तैयार हो गयी?”
“नहीं।” मैंने शर्मिन्दगी से सिर हिलाया।
“अरे यार….” रमन लाम्बा ने मायूसी से सिर दाएँ-बाएँ हिलाया और बोले –”मुझे लगता है, आपने तस्वीर खींची ही नहीं है।”
“नहीं यार, खींची हैं, लेकिन आठ-दस स्नैप रह गए हैं। अगली बार आओगे तो शायद रील धुलवाकर, तस्वीरें निकलवा लेंगे।” मैंने रमन लाम्बा को आश्वस्त किया।
“अरे यार, अगली बार फिर बुलवाओगे।” रमन लाम्बा ने कहा।
मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“अरे यार, आप हाथ मत जोड़ो, मैं अगले रविवार को आ जाऊँगा।” और कुछ नाखुश होकर रमन लाम्बा ने उस दिन खेल-खिलाड़ी के ऑफिस से प्रस्थान किया।
अगले रविवार फिर एक बार रमन लाम्बा खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में आये।
लेकिन उस रविवार मैं खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में नहीं गया था।
सोमवार को मैं पटेलनगर पहुँचा। खेल-खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह मुझे देखते ही बोले –”यार, वो..कल रमन लाम्बा आया था। तूने उसकी फोटो खींची थीं, वो ही माँग रहा था…वो तो पैसे भी दे रहा था, मैंने मना कर दिया। अच्छा नहीं लगता।”
“फोटो तो खींची हैं, पर रील कम्पलीट कहाँ हुई ? पाँच-छह स्नैप रहते हैं।” मैंने कहा।
“तो यार, तू ऐसा कर बॉबी, रिंकू, अलका के फोटो खींचकर रील कम्पलीट कर और मेन रोड क्रॉस करके एक सरदार का स्टूडियो है। उसे मेरा नाम लेकर डेवलपिंग और प्रिंटिंग के लिए दे आ। मैंने रमन लाम्बा को अगले रविवार का पक्का वादा किया है। कई चक्कर लग गए हैं उसके।”
बॉबी, रिंकू, अलका सरदार मनोहर सिंह के बच्चों के घरेलू नाम थे। मैंने बच्चों की फोटो खींचकर रील कम्पलीट की और सरदारजी के स्टूडियो में डेवलपिंग और प्रिंटिंग के लिए दे दी। सरदारजी के यहाँ क्विक सर्विस थी। उन्होंने मंगलवार की शाम को नेगेटिव-पॉजिटिव देने का टाइम बताया।
मंगलवार को मैं शाम को हे पटेलनगर गया और मेन रोड पर, बस स्टॉप पर उतरकर, कुछ पीछे जाकर फोटो स्टूडियो पहुँचा। मुझे यकीन था कि मनोहर सिंह वहां से अभी तक फोटो नहीं ले गए होंगे। वैसे भी उन दिनों सरदार मनोहर सिंह शाम के समय पिये बिना नहीं रह पाते थे। घर पर हों या बाहर – एक-दो पैग पियें या पूरी तरह टुल्ल हों। पीना उनके लिए जीने से भी ज्यादा जरूरी काम था। कई बार वह मुझे भी अपने शगल में शामिल कर लेते थे, पर मेरा उनका साथ एक-दो पैग से ज्यादा का नहीं होता था। तीसरे पैग से पहले ही मैं कोई न कोई सटीक कारण बता कर उठ लेता था।
जब मैं स्टूडियो पहुँचा तो स्टूडियो वाले सरदार जी मुझे दूर से ही आते हुए देख लिया था। उन्होंने तुरंत ही एक लिफाफा निकालकर, काउंटर पर रख लिया। सरदार जी ने डेवलप्ड रील और सारी तस्वीरें पहले से ही एक लिफ़ाफ़े में डाल रखी थीं।
मैंने लिफाफा लेकर डेवलपिंग और प्रिंटिंग की पेमेंट की और लिफाफा लिये-लिये वेस्ट पटेलनगर के अंदरूनी क्षेत्र में पहुँचा, जहाँ राजभारती जी और सरदार मनोहर सिंह के फ्लैट थे, खेल-खिलाड़ी का ऑफिस था।
राजभारती जी और सरदार मनोहर सिंह के फ्लैट फर्स्ट फ्लोर पर थे, सीढ़ियों के दायीं ओर साथ का फ्लैट सरदार मनोहर सिंह का था, उसके बाद का, कॉर्नर का राजभारती जी का। उसके ठीक नीचे के ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट में एक तरफ भारती साहब के माता-पिता रहते थे, दूसरी तरफ राज भारती जी का सबसे छोटा भाई किशन रहता था।
आशा के विपरीत उस दिन मैंने सरदार मनोहर सिंह को अपने फ्लैट की फ्रंट टेरेस पर खड़ा देखा। उन दिनों मैं कलाई में रिस्टवाच भी बाँधता था। मैंने घड़ी में टाइम देखा। लगभग पौने सात का समय था, अँधेरा भी अब फैलने लगा था।
मुझे देखते ही ऊपर से ही सरदार मनोहर सिंह बोले –”यार, इधर आ ही रहा था तो रील और फोटो ले आता।”
“ले आया हूँ।” मैंने नीचे से ही कहा और सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।
ऊपर पहुँचकर मैंने लिफाफा सरदार मनोहर सिंह की ओर बढ़ा दिया और पूछा –”आज मंगलवार है क्या ?”
“है तो मंगलवार ही…” मनोहर सिंह हँसे –”है तो मंगलवार ही, पर हमारा मंगलवार भी, व्हिस्कीवार होता है।”
“फिर आज ड्राई डे कैसे ?”
“बस यार, आज सोच रहा हूँ। पीनी छोड़ दूँ। बड़ा क्लेश होता है घर में। आज जी कड़ा करके बैठा हूँ।”
“इरादा पक्का हो तो भाभी जी से कह दूँ – प्रसाद चढ़ाने को। दिन भी आज मंगलवार है।”
मनोहर सिंह लिफ़ाफ़े में से तस्वीर निकालकर देखते हुए हँसने लगे।
थोड़ी देर में उन्होंने सारी तस्वीरें देख लीं और बोले –”इसमें रमन लाम्बा की तस्वीरें तो हैं ही नहीं?”
“क्या बात कर रहे हो ? सात-आठ तस्वीरें खींचीं थीं उसकी तो मैंने।” मैंने कहा और झपटकर मनोहर सिंह के हाथ से सारी तस्वीरें खींच लीं और जल्दी-जल्दी देखने लगा। पहली बार मैंने दो मिनट में सारी तस्वीरें देख डालीं, पर बीच में कहीं भी रमन लाम्बा की एक भी तस्वीर नहीं दिखाई दी तो दोबारा आराम-आराम से देखा। तब भी कोई तस्वीर नहीं दिखी तो एक कोशिश तीसरी बार की, तभी राजभारती जी की आवाज़ सुनाई दी –”तू कब आया?”
“अभी…।” मैंने कहा और सारी तस्वीरें वापस लिफ़ाफे में डालकर, सरदार मनोहर सिंह और राजभारती जी, दोनों से बोला –”मैं अभी आया?”
और अगले ही पल मैं धड़धड़ाता हुआ सीढ़ियाँ उतरता चला गया। सरदार जी की फोटो स्टूडियो शॉप कहीं बंद न हो जाये, यह सोच, मैं बहुत तेज़-तेज़ क़दमों से चलता हुआ मेन रोड क्रॉस करके स्टूडियो तक पहुँचा। दमे का बचपन से मरीज़ रहा हूँ, इसलिए बुरी तरह हाँफने भी लगा था।
सरदार जी मुझे देखते ही पंजाबी लहज़े में बोले –“की होया? दौड़े-दौड़े आ रहे हो?”
“इसमें पूरी-पूरी तस्वीरें नहीं हैं सरदार जी।” मैंने कहा –”जिन तस्वीरों के लिए यह रील, जल्दी ख़त्म करके, डेवलप और प्रिंट कराई है, उनमें से एक भी इसमें नहीं है।”
“क्या बात करते हो? जितनी ठीक खिंची हैं, सबके प्रिंट निकाले हैं। हाँ, शुरू के आठ-नौ निगेटिव काले पड़े हुए थे, उनके प्रिंट हमने नहीं निकाले, निकालते भी तो कुछ आना नहीं था। काला-काला ही आना था।” सरदार जी ने कहा।
मैं तो एकदम बौखलाया हुआ था। झट से लिफ़ाफ़े से फिल्म का रोल निकाला और उसे खोलकर नीचे लटकाता चला गया।
रील के शुरू के सारे निगेटिव एकदम ट्रांसपेरेंट थे, एकदम सफ़ेद उन में प्रिंट होने पर फोटो एकदम काली ही आनी थी। फोटोग्राफी के जानकार यह फंडा बखूबी समझ सकते हैं।
“यह कैसे हो गया?” मेरी आँखों के आगे रमन लाम्बा का चेहरा तैर गया और याद आये उसके शब्द…। उसने कहा था – ‘आपको फोटोग्राफी आती तो है ना?’
जवाब में मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा था –”अरे यार, प्रोफेशनल नहीं हूँ, मगर अच्छी फोटो खींच लेता हूँ। तुम अपनी फोटो देखोगे तो उछल पड़ोगे। इतनी शानदार तो मैंने खींची ही हैं।”
तभी मेरे कानों में सरदार जी की आवाज़ सुनाई दी -“आपने शुरू में जो फोटो खींची हैं, उसके बाद कैमरा खुल गया होगा और लाइट लग गयी होगी, इसलिए शुरू की फिल्म काली पड़ गयी होगी। रोल के अंदर की फिल्म में लाइट नहीं लगी, इसीलिए बाद की सारी फिल्म सही आयी है।”
दोस्तों, जो लोग पुरानी फोटोग्राफी तकनीक से परिचित हैं, उन्हें मालूम ही होगा कि फिल्म खिंची हुई हो या बिना खिंची, अगर बिना रिवाइंड किये प्राकृतिक रोशनी या नार्मल बल्ब की रोशनी में कैमरा खोल दिया जाये तो वह बेकार हो जाती है। सारी फिल्म काली पड़ जाती है।
‘ऐसा कैसे हो गया ? सिर्फ रमन लाम्बा की तस्वीरें खराब हुई हैं। बाकी सब ठीक ठाक हैं।’ पूरी रील देखने के बाद फोटो स्टूडियो वाले सरदार जी से शिकायत का कोई मतलब ही नहीं था। रील तो पूरी एक साथ डेवलप हुई थी। सरदार जी का फॉल्ट होता तो सारी फिल्म खराब होती। सिर्फ रमन लाम्बा की तस्वीरों के ख़राब होने का कोई मतलब नहीं था।
मेरा मूड इतना खराब हुआ कि लौटकर सरदार मनोहर सिंह और राजभारती जी से मिलने नहीं गया। बस पकड़कर सीधा अपने घर चला गया।
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर, तैयार होकर, आठ बजे से पहले ही पटेलनगर पहुँच गया। मनोहर सिंह उस समय सोकर भी नहीं उठे थे। उनकी धर्मपत्नी का मूड भी बहुत खराब दिख रहा था। मैंने उनसे सरदार मनोहर सिंह के बारे में पूछ तो कहने लगीं –”सो रहे हैं, आप जगा दो।”
मैंने झिंझोड़कर जगाया तो बोले –”तू यार रात को फिर आया नहीं ?”
“हाँ, मैं सीधा घर चला गया था, यह बताओ – इतनी देर तक बिस्तर में कैसे?”
“वो यार, तेरे जाने के बाद प्रेस वाला रविंदरपाल सिंह बोतल लेकर आ गया था। ऊपर ऑफिस में बैठकर पीते रहे। टाइम का पता ही नहीं चला। रात बारह बज गए। फिर रविंदरपाल सिंह के जाने के बाद भी जल्दी नींद नहीं आयी। सोते-सोते डेढ़-दो बज गए, लाज़िम था – सुबह देर तक सोते ही रहना था।”
“तुम्हारे शराब छोड़ देने के आईडिये का क्या हुआ? वो सरदार – जो जी कड़ा करके शराब छोड़ रहा था, कहाँ चला गया?”
मनोहर सिंह हँसे। एक भद्दी सी गाली देकर प्रेस वाले का नाम लिया और बोले –”वो साला रविंदर आ गया था। बोतल भी ले आया था तो दिल कर आया। सोचा – थोड़ी सी पी लेते हैं। वो साली पीते-पीते ज्यादा हो गयी।”
ऐसा ही होता है। जब एक पीने वाले को दूसरे पीने वाले का साथ मिल जाता है।
“किशन कितने बजे तक आता है ?” मैंने बात का रूख पलटते हुए पूछा।
“नौ बजे तक आ जाता है। कभी-कभी आठ बजे भी आ जाता है। सुबह-सुबह वो सौ-सवा सौ घरों में अखबार बाँटता है, कभी-कभी अखबारी सेंटर पर अखबार देर से आते हैं तो सुबह के आने में उसका टाइम ऊपर-नीचे होता रहता है, लेकिन आने के बाद बारह बजे तक वह यहाँ ही रहता है। उसने पढ़ाई भी करनी होती है। शाम को उसने किसी दुकान पर भी काम करना होता है।” सरदार मनोहर सिंह ने किशन का सारा रूटीन बता दिया, जोकि गज़ब की व्यस्तता वाला था।
“अच्छा, आप नहा-धोकर ऊपर आ जाओ। मैं ऊपर ऑफिस में आपका इंतज़ार करता हूँ।”
“ठीक है। आता हूँ, पर वो…रमन लाम्बा की तस्वीरों का क्या हुआ?”
“आप ऊपर आओ, तभी बात करेंगे।” कहकर मैं सरदार मनोहर सिंह के फ्लैट्स से निकलकर राजभारती जी के फ्लैट की तरफ बढ़ गया।
राजभारती जी के यहाँ नाश्ते की तैयारी चल रही थी। सरोज भाभी बोलीं –”मैंने आपकी आवाज़ सुन ली थी, मनोहरी के यहाँ थे न आप ?”
“हाँ…।” मैंने स्वीकार किया।
“मैंने आपके लिए भी चाय बना ली है। साथ में आलू के परांठे खाओगे?”
मैं अनायास हे मुस्कुरा दिया तो भाभी जी तत्काल बोलीं –”इसका मतलब है खाओगे। आप बैठो, मैं अभी लाती हूँ।”
भाभी जी किचेन की तरफ बढ़ गयीं।
मैं भारती साहब के पास ही सोफे पर बैठ गया। वह नाश्ता कर रहे थे। उनकी प्लेट में दो पराठे थे। पास ही आधा किलो मक्खन से भरा मक्खन का डिब्बा रखा था, उसमें स्टील की एक चम्मच भी रखी थी।
मुझे देखते ही भारती साहब ने अपनी प्लेट के एक साबुत पराठे को मेरी तरफ घुमाया –”इतने और बने, इसी में आ जा।”
“मेरे लिए एक ही काफी है। इसी में हो जाएगा।” मैंने भारती साहब से कहा और जोर से चिल्लाकर भाभी जी से बोला –”भाभी जी, चाय दे जाओ। पराठा मैंने भारती साहब का छीन लिया है।”
भाभी जी चाय ले आयीं और बोलीं –”अभी और पराठा लाती हूँ।”
“भारती साहब के लिए लाना, मेरा कोटा इतना ही है।” मैंने कहा।
“बस…?” भाभी जी ने आश्चर्य से कहा।
“हाँ बस…।” मैंने कहा।
“इसीलिये आपकी हड्डी-हड्डी नज़र आती है। नाश्ता तगड़ा किया करो।” भाभी जी ने डाँट पिलाई।
“भाभी जी ज़रा-सा भी ज्यादा खाने से मेरी साँस फूलने लगती है, कम खाऊँ तो ठीक रहता हूँ।” मैंने कहा।
“ठीक है, रुको। पराठे पर थोड़ा मक्खन और डालती हूँ।” कहते हुए भाभी जी ने मेरे मना करते-करते भी पास ही रखे मक्खन के डिब्बे से एक चम्मच मक्खन मेरे पराठे पर डाल दिया।
राजभारती साहब के यहाँ नाश्ता करते और बातें करते मैं भूल गया कि मैंने सरदार मनोहर सिंह को ऊपर खेल-खिलाड़ी के ऑफिस पहुँचने के लिए कहा है। जब जोरदार आवाज़ कानों में पड़ी –”योगेश..।” तब मैं चौंका और भारती साहब से इज़ाज़त ले शीघ्रतापूर्वक ऊपर पहुँचा।
न केवल सरदार मनोहर सिंह खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में मौजूद थे, बल्कि उस समय तक किशन भी आ चुका था।
किशन को देखते ही उससे नज़र मिलाता, मैं बुरी तरह बिगड़ खड़ा हुआ –”तू यार पागल है क्या एकदम ? तुझे फोटो खिंचवानी थी – मुझसे कहता। मैं खींचता तेरी फोटो। बहुत अच्छी खींचता। अपने आप खींचकर तूने सारी रील खराब कर दी।”
मनोहर सिंह अवाक कि यह मैं क्या कह रहा हूँ, मगर किशन एकदम बौखला गया और घबराया हुआ हरियाणवी लहज़े में बोला –”ना..ना…मैंने कोई फोटो नहीं खींची। सच्ची…कसम से।”
“झूठ बोल रहा है तू। उस रोज़ रमन लाम्बा की फोटो खींचकर मेरे जाने के बाद क्या तूने कैमरे को हाथ नहीं लगाया था?” मैं कृत्रिम गुस्से से दहाड़कर बोला।
“वो तो…वो तो…लगाया था।” किशन रुआँसा हो गया –”वो तो मैंने रील निकालकर फिर से कैमरे में डालने की प्रैक्टिस के लिए कैमरा खोला था।”
“तो रील निकलकर दोबारा डाली?” मैंने कुछ नॉर्मल होकर पूछा।
“ना, वो मैंने कोशिश तो बहुत की, पर दाएँ रोलर में काफी सारी रील फँसी थी, मेरे से वो रील वापस नहीं घुमाई गयी तो फिर मैंने कैमरा वैसे ही वापस बंद कर दिया, पर कसम से मैंने अपनी एक भी फोटो नहीं खींची।”
“मुझे मालूम है।” मैंने शान्ति से कहा, फिर चिल्लाकर बोला –”मगर बेवकूफ, गधे, तूने रमन लाम्बा की सारी तस्वीरें खराब कर दीं।”
किशन रोने लगा और दोनों हाथों से कान पकड़कर घिघियाया –”सच्ची, योगेश जी। मैंने कुछ नहीं किया।”
“कुछ नहीं किया, मगर तूने कैमरा खोला तो था ना?” अब की बार सरदार मनोहर सिंह बोले।
“हाँ, पर वो तो मैंने योगेश जी को बोला था कि रील डालने-निकालने की मैंने प्रैक्टिस करनी है। योगेश जी चले गए तो मैंने सोचा खुद से प्रैक्टिस कर लूँ।” किशन लगभग रोते-रोते ही बोला।
सरदार मनोहर सिंह की हँसी छूट गयी। ऐसे में मेरी हँसी कैसे बंद रह जाती।
किशन की समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हुआ। थोड़ी देर बाद सरदार मनोहर सिंह ने किशन को समझाया–”बेवकूफ। कैमरे में रील पड़ी हो और फोटो खींच रखी हो तो कैमरा खोला नहीं करते।”
“क्यों…?” किशन ने सादगी से पूछा और सरदार मनोहर सिंह को फिर हँसी आ गयी।
सरदार मनोहर सिंह ने उसे समझाया, “रील अँधेरे में निकाली जाती है या डार्क रूम में लाल रंग के नाईट बल्ब की रोशनी में?”
ऐसे में एक बार फिर किशन का ‘क्यों’ मुँह बाए खड़ा हो गया तो सरदार मनोहर सिंह ने फिर से उसे समझाया, “बिना रिवाइंड किये रोशनी में कैमरा खोलने से लाइट लगने से सारी रील खराब हो जाती है। काली पड़ जाती है।”
“ये रिवाइंड क्या होता है ?” किशन ने एक बार फिर पूछ लिया।
अब सरदार मनोहर सिंह ने अपने माथे पर हाथ मारा और बोले–”अबे बेवकूफ, रील को उलटा घुमाकर वापस उसके टीन के खोल में डाला जाता है, तब रील कैमरे से निकाली जाती है।”
उस रोज़ लम्बा वार्तालाप चला, मगर मुझे नहीं लगता कि हम किशन को संतुष्ट कर पाए। क्रिकेट खेलने का उसे भी शौक था और रोज़ सुबह वह लोगों के यहाँ अखबार डालता था और अख़बार में क्रिकेट की जितनी भी ख़बरें होती थीं, सारी चाट डालता था, इसलिए क्रिकेट के बारे में उसकी जानकारी अच्छी थी। अखबार से छोटे-बड़े सभी क्रिकेट खिलाड़ियों के फोटो काटकर वह एक कॉपी में चिपकाता था, जिसे उसने अपनी क्रिकेट डायरी के रूप में बड़ा खूबसूरत बना रखा था। इसलिए तब क्रिकेट के बहुत सारे खिलाड़ियों को वह पहचानता था, पर अपनी उस डायरी को वह सम्भालकर नहीं रख सका था। एक दिन बड़ा दुखी होकर उसने बताया था कि उसकी डायरी, गलती से अखबारी रद्दी के साथ कबाड़ में चली गयी।
बहरहाल, अब हम जान चुके थे कि रमन लाम्बा की सारी तस्वीरें ‘किशन महाराज’ के ‘दिव्य प्रताप’ से खराब हो चुकी हैं, लेकिन आने वाले रविवार को रमन लाम्बा ने फिर से तस्वीरों के बारे में पूछने या तस्वीरें लेने आना था और मेरा मूड बुरी तरह खराब हो चुका था। रमन लाम्बा की नज़र में फोटोग्राफर योगेश मित्तल की धज़्ज़ियाँ उड़ने का पूरा सामान तैयार हो चुका था, इसलिए मैंने सरदार मनोहर सिंह से साफ़ कह दिया कि रविवार को मैं किसी भी सूरत में पटेलनगर आने वाला नहीं हूँ। रमन लाम्बा का सामना आप और किशन करना और उसे सच-सच बता देना कि उसकी सारी तस्वीरें किशन की गलती से खराब हो गयीं है।
सरदार मनोहर सिंह ने किशन से कहा–”अखबार वगैरह बाँटकर संडे को तू सीधा यहीं आ जाइयो। नाश्ता यहीं करियो।”
किशन ने सहमति में सर हिला दिया।
उसके बाद आप सब समझ ही सकते हैं कि रविवार बीतने का मुझे कितनी बेसब्री से इंतज़ार रहा होगा। आजकल तो मोबाइल या फोन से सम्पर्क किया और सारी चिंता खलास। तब ऐसा नहीं था।
सोमवार को मैं सुबह ही पटेलनगर पहुँच गया। सरदार मनोहर सिंह उस दिन घर पर नहीं थे। मैं भारती साहब के यहाँ गया। वो भी उस दिन नहीं थे, सुबह ही मेरठ के लिए निकल गए थे। सरदार मनोहर सिंह के अपोज़िट, नीचे से आनेवाली सीढ़ियों के दूसरी तरफ अर्थात बायीं ओर राजभारती जी से छोटे और सरदार मनोहर सिंह से बड़े सरदार महेंद्र सिंह का फ्लैट था।
मैं उनके यहाँ चला गया।
वह अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं का होलसेल-रिटेल का काम करते थे। रोज़ सुबह-सुबह चार-पाँच बजे के बीच घर से निकल जाते थे और फिर आठ-साढ़े आठ तक लौट आते थे। उस समय वह घर पर ही थे।
मुझे देखते ही सरदार महेंद्र सिंह बड़े प्यार से बोले–”आ जा, बहुत सही समय पर आया है।” फिर भाभीजी (अपनी पत्नी) को आवाज़ देकर पंजाबी अंदाज़ में बोले –”दो पराठे और ‘चा’ योगेश जी के लिए भी ले आईं।”
“दो नहीं भाभीजी, बस एक।” मैं जोर से चिल्लाकर बोला –”पराठा सिर्फ एक…।”
भाभीजी स्टील की एक थाली में आलू का पराठा और चाय लेकर आयीं तो पूछा –”दो क्यों नहीं खाने? मैं अच्छा नहीं बनाती?”
“अच्छा नहीं बनातीं तो मैं यहाँ अभी कहाँ आता भाभीजी। पता है – नीचे तक खुशबू जा रही थी।”
भाभीजी हँसी –”कहानियाँ लिखता है ना। बना ले कहानी। खा इसे। मैं एक और ले के आती हूँ।”
“नहीं भाभीजी, प्लीज। मेरा नाश्ता इससे ज्यादा नहीं होता।” मैंने कहा।
“कोई नहीं।” महेंद्र सिंह बोले –”इसे खा। भूख हो तो बेशर्म होकर एक और माँग लेइयो। अपना ही घर है।”
नाश्ता करते-करते हम बातें करते रहे। हमारा नाश्ता चल ही रहा था कि अचानक किशन ने द्वार पर झाँका –”योगेश जी हैं क्या ?” फिर मुझे देखकर बोला –”ओहो, तो नाश्ता हो रहा है ?”
“आ जा, तू भी आ जा। तू भी नाश्ता कर ले।” सरदार महेंद्र सिंह मुस्कुराकर बोले। तब अधिकांशतः ऐसे ही लोग हुआ करते थे और राजभारती जी के तो सभी भाई ऐसे ही थे और आलू के पराठे तो उन सभी के घर की ख़ास चीज़ हुआ करते थे।
“मुझे योगेशजी की आवाज़ सुनाई दी तो इधर आ गया।” किशन अपने झाँकने का कारण बताने लगा तो महेंद्र सिंह ने चुटकी ली–”अच्छा हुआ न, योगेश के साथ-साथ तेरी भी लॉटरी खुल गयी।”
नाश्ता करने के बाद मैं और किशन ऊपर खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में पहुँचे।
किशन अपनी कुर्सी पर बैठ गया, किन्तु जब सरदार मनोहर सिंह नहीं होते थे, मैं हमेशा उन्हीं की कुर्सी पर ही बैठा करता था, उसी पर बैठा।
फिर बड़े ही शांत लहज़े में मैंने किशन से पूछा–”कल…..आया था क्या रमन लाम्बा?”
“हाँ।” किशन ने कहा।
“उसे बता दिया – रील कैसे खराब हुई?”
“हाँ…।”
“क्या बताया?”
इस बात पर किशन खामोश रहा।
“क्या बताया?” मैंने दोबारा चिल्ला कर पूछा।
जवाब में किशन ने बुरा सा मुँह बनाया और बोला –”मैंने बोल दिया, रील योगेश जी से खराब हो गयी।”
“क्या….?” ऊँचे पहाड़ से एकदम गहरी खाई में गिरा मैं।
“हाँ, और क्या बोलता, अपनी बेइज्जती कराता?” किशन इस बार कुछ गुस्से से बोला।
“पर सच तो यही था कि रील तेरी वजह से खराब हुई थी।”
“तो सच बोलकर पिटना था क्या मैंने? वो मुझे पीटने लग जाता तो…?”
“पागल है क्या। वो भला तुझे क्यों पीटता? तूने कोई उससे कर्जा ले रखा था? बेवकूफ, वो तुझे हाथ भी नहीं लगाता।”
“वो ठीक है, पर मुझे अपनी बेइज्जती करानी ठीक नहीं लगी।”
“इसलिये तूने मेरी बेइज्जती करा दी? खेल-खिलाड़ी के सम्पादक की?”
“इस्स्सी ही इज्जत प्यारी थी तो तनै खुद मिलणा चाहिए था वा सै।” इस बार गुस्से में किशन का लहज़ा तकरीबन हरियाणवी हो गया, जहाँ का वह मूल निवासी था।
किशन की बात कलेजे में सूई सी चुभी।
‘हाँ, मुझे रमन लाम्बा का सामना करना चाहिए था।’ मैंने सोचा। भागना या पलायन किसी बात का हल नहीं है।
कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने किशन से पूछा –’जब तूने रील खराब होने के बारे में बताया तो कुछ कहा रमन लाम्बा ने ?”
जवाब में किशन ने अपने हरियाणवी लहज़े में जो कुछ बताया, उसका सार यह था कि रमन लाम्बा ने कहा –”मुझे मालूम था, फोटो खींचना उस छोटे से आदमी के बस के बात नहीं है और ‘याशिका कैमरे’ से तो बिलकुल भी नहीं। पर कोई बात नहीं, अपने एडिटर से कहना – दिल छोटा न करे। हो जाता है – बहुत बार ऐसा भी।”
सारी बात सुनकर मेरा दिल सचमुच छोटा सा हो गया। वो मुझसे कम उम्र का लड़का मेरे लिए लेक्चर पिला गया था।
दोस्तों, आज फोटो खींचना उतना मुश्किल काम नहीं है, पर तब कैमरों में स्पीड, एपर्चर तथा मौसम का भी ख्याल रखना पड़ता था।
उसके बाद बहुत से ऐसे मौके आये, जब फिरोज शाह कोटला में, मैं क्रिकेट मैच की कवरेज के लिए गया, लेकिन उन मैचों में रमन लाम्बा की उपस्थिति नहीं रही। मेरी उससे मुलाक़ात नहीं हुई, लेकिन एक बार फिर मिलने की हसरत बनी रही। शायद दिल के किसी कोने में यह चुभन रही हो कि उससे मिलकर उसे बताऊँ कि उसके सारे स्नैप्स किशन की वजह से खराब हुए थे।
पर फिर कभी मिलना सम्भव ही नहीं हुआ, वह भी दोबारा कभी खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में नहीं आया।
और…
आने वाले समय में रमन लाम्बा को भारत की तरफ से चार टेस्ट मैच और बत्तीस वन डे मैच खेलने का अवसर मिला। वह सारे देश में मशहूर हो गया, लेकिन मैं अवसर तलाशने की कोशिश करके भी उससे मिल नहीं पाया।
फिर एक बार अखबार में एक बहुत छोटी सी खबर के रूप में पढ़ने में आया कि रमन लाम्बा बांग्लादेश के किसी टूर्नामेंट में खेल रहा है।
तब उसकी ख़बरों में दिलचस्पी लेना मैं छोड़ चुका था। फिर एक बार संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन में पहली मंज़िल पर क्रिकेट कमेंट्रेटर सरदार जसदेव सिंह से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया -बहुत बोल्ड खिलाड़ी है रमन लाम्बा। एकनाथ सोलकर की तरह शार्ट लेग या फॉरवर्ड शार्ट लेग में बहुत अच्छी फील्डिंग करता है और बैटिंग करते हुए बिंदास खेलता है।”
मुनीरका में टॉप फ्लोर पर रहने वाले क्रिकेट कमेंट्रेटर रवि चतुर्वेदी ने एक बार चर्चा में कहा था कि फील्डिंग करते हुए रमन लाम्बा हेलमेट नहीं लगाता। तब मैंने यही कहा था – “पुराने जमाने में तो कोई भी क्रिकेटर हेलमेट नहीं लगाया करता था।”
पर तब हमारे दिमाग में ऐसा कोई ख्याल न था कि वन डे मैचों ने क्रिकेट की रंगत ही बदल दी है और खेल बहुत ज्यादा आक्रामक हो गया है। ऐसे में पत्रकारों को क्रिकेट में हेलमेट के उपयोगिता और आवश्यकता पर भी लिखना चाहिए। (तब T-20 क्रिकेट का ज़माना शुरू नहीं हुआ था।)
एक दिन अचानक अखबार में पढ़ा – ढाका प्रीमियर लीग.में 20 फरवरी 1998। बंगबंधु स्टेडियम में प्रीमियर डिवीज़न के फाइनल मैच में अबहानी क्रीड़ा चक्र की तरफ से मोहम्मदन स्पोर्टिंग क्लब के खिलाफ़ फॉरवर्ड शार्ट लेग में फील्डिंग करते हुए रमन लाम्बा के सिर में गम्भीर चोट लगी है।
पढ़कर दिल सन्न रह गया। दिल से यह दुआ निकली–”हे भगवान, उसे बचा लेना। उसे कुछ होना नहीं चाहिए। मुझे एक बार कभी न कभी, कहीं न कहीं उससे मिलना है।”
पर भगवान के अपने नियम कायदे हैं। हर एक के लिए उन्होंने जब-जब जो-जो लिखा है, उसे इंसान की चाहत और मर्ज़ी नहीं बदल सकती।
रमन लाम्बा मज़ाक में कहता था, “मैं ढाका का डॉन हूँ।”

उस मैच में रमन लाम्बा फॉरवर्ड शार्ट लेग पर फील्डिंग करते हुए, स्रोत: गूगल से साभार
मैच के दिन बांग्लादेशी लेफ़्ट आर्म स्पिनर सैफ़ुल्ला खान बॉलिंग कर रहा था।। ओवर की तीन गेंदें बची थीं।
मोहम्मदन स्पोर्टिंग क्लब का मेहराब हुसैन स्ट्राइक पर.था।
अबहानी क्रीड़ा चक्र के कप्तान ने रमन लाम्बा को फील्डिंग करने के लिए फॉरवर्ड शॉर्ट लेग पर बुलाया।
यानी बैट्समैन से एक कदम दूर.मोहम्मद अमीनुल इस्लाम कप्तानी कर रहे थे। वह उन दिनों बांग्लादेश के भी कप्तान थे। अमीनुल ने लाम्बा से हेल्मेट पहनने को कहा।
लाम्बा ने कहा, “तीन ही गेंद तो बाकी हैं, ऐसे ही खड़े रहने दे।”
मोहम्मदन स्पोर्टिंग क्लब के मेहराब हुसैन ने ओवर की चौथी गेंद खेली।
पुल मारा।
गेंद सीधे रमन लाम्बा के सिर पर जा लगी।
गेंद इतनी जोर से मारी गयी थी कि सिर पर लगने के बाद वो सीधे विकेटकीपर के ग्लव्स में पहुँच गयी।
कप्तान अमीनुल इस्लाम दौड़ कर लाम्बा के पास पहुँचे। पूछा कि वो ठीक हैं या नहीं?
लाम्बा का जवाब था –”बुल्ली, मैं तो मर गया यार।”
अमीनुल इस्लाम का प्यार का नाम बुलबुल था और लोग उन्हें शार्ट में ‘बुल्ली’ कहते थे।
देखने से लाम्बा के सिर में लगी चोट इतनी खतरनाक नहीं लग रही थी, मगर उन्हें अस्पताल ले जाया गया।
उनके सिर के अंदर खून बह रहा था। दिल्ली से एक न्यूरोसर्जन ने भी उड़ान भरी। लेकिन कुछ नहीं किया जा सका। लाम्बा कोमा में चले गए और 23 फरवरी 1998 को उनकी मौत हो गयी।
लाम्बा ने एक बहुत बड़ा सबक दिया– बचाव ज़रूरी है। सतर्कता जरूरी है। इलाज़ से भी ज़्यादा सावधानी बहुत जरूरी है। एक भी गेंद खेलनी हो तो सारे साज‑ओ-सामान धारण किये जायें। पूरी सतर्कता बरती जाए।
जिस दिन रमन लाम्बा की मौत की खबर आई – मुझे यूँ लगा जैसे कोई मेरा अपना मर गया हो। एकदम गुमसुम सा हो गया था मैं। उसके साथ का हर लम्हा बार‑बार याद आने लगा था।
उसकी सिम्पल सरल मुस्कान और सहजता आज भी याद आती है तो उस तकलीफ की कल्पना ही तन-मन झिंझोड़ देती है, जो उसने अन्तिम क्षणों में झेली होगी। दिल कहता है– उसे तो हर खिलाड़ी को शिद्दत से याद करना चाहिए। उसने अपनी जान देकर, खेलों में सुरक्षा उपकरणों के इस्तेमाल की अनिवार्यता सभी को समझा दी है।
मैं जब उसे याद करता हूँ, अक्सर आँखें भी भीग जाती हैं। क्या करूँ? ऐसा ही हूँ मैं।

तीसरे नंबर पर खेल खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह (राजभारती जी के तीसरे नम्बर के भाई )
बाएँ से सबसे आखिर में – दाएँ से पहला किशन
समाप्त
(तस्वीर तथा कुछ वर्णन गूगल से साभार)
यह संस्मरण फेसबुक पर प्रथम बार 1 सितंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था।