एक क्रिकेट खिलाड़ी थे रमन लाम्बा। उन्हें भूलना, भूल पाना मेरे लिए असम्भव सा है और जब भी मैं किसी खिलाड़ी के चोटग्रस्त होने की खबर सुनता या पढ़ता हूँ, रमन लाम्बा से हुई अधूरी सी मुलाकातें याद आ जाती हैं और याद आ जाता है – उनका ‘अरे यार’ कहना।
2 जनवरी 1960 को मेरठ में जन्मे रमन लाम्बा एक ऐसे खिलाड़ी थे, जिनकी खेल के मैदान में चोट लगने की वजह से मृत्यु हो गयी थी। यूँ तो खेल के मैदानों में बहुत से खिलाड़ी चोटिल होते रहते हैं, किंतु आम तौर पर चोट खाने वाले ठीक भी हो जाते हैं, पर रमन लाम्बा के साथ ऐसा नहीं हुआ था। वह अपने देश से बाहर बंगलादेश में एक मैच खेल रहे थे।
20 फरवरी 1998। बांग्लादेश के ढाका के बंगबंधु स्टेडियम में ढाका प्रीमियर लीग का अबहानी क्रीड़ा चक्र का फाइनल मैच मोहम्मदन स्पोर्टिंग क्लब के खिलाफ़ खेलते हुए रमन लाम्बा ऐसे चोटिल हुए कि ज़िंदगी भी दगा दे गयी।
.
पहली बार मैं रमन लाम्बा से मोरी गेट के एक पार्क में मिला था।
एक बार मुझे उन दिनों खेलों पर लेख लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार श्री योगराज थानी जी ने बताया था कि दिल्ली के बहुत सारे ‘रणजी प्लेयर’ (रणजी ट्रॉफी में खेलने वाले क्रिकेट खिलाड़ी) सुबह-सुबह मोरी गेट के एक पार्क में प्रैक्टिस कर रहे होते हैं और रविवार के दिन तो कभी-कभी बड़े-बड़े खिलाड़ी भी वहाँ नज़र आ जाते हैं।
आदरणीय योगराज थानी जी धुरंधर पत्रकार थे। खेलों की छोटी-छोटी बारीकियों पर तो नज़र रखते थे ही, खिलाड़ियों के बारे में भी उनकी मालूमात बहुत अच्छी होती थी और सबसे अच्छी तथा ख़ास बात यह थी कि पत्रकारिता क्षेत्र में नये कदम रखने वालों का मार्गदर्शन करने में कभी पीछे नहीं रहते थे।
उन दिनों खेल-खिलाड़ी में काम करने वाले पियून-पैकर-क्लर्क एकमात्र कर्मचारी किशन से मेरा अच्छा दोस्ताना था। एक दिन किशन ने मुझसे कहा –”योगेश जी, मैंने कभी किसी खिलाड़ी को नहीं देखा, मेरी बहुत इच्छा है खिलाड़ियों को देखने की। उन्हें खेलता देखने की?”
तब मैं फिरोज शाह कोटला, अम्बेडकर स्टेडियम और शिवाजी स्टेडियम में बहुत से मैच शौकिया तौर पर देख चुका था। जब मैं कलकत्ता में था, तब भी मैंने बहुत से मैच देखे थे। मेरे देखे मैचों में अधिक संख्या फुटबॉल मैचों की थी, किंतु क्रिकेट और हॉकी के भी कुछ-कुछ मैच मैं यदा-कदा देखता रहता था।
“किस खिलाड़ी को देखना चाहता है?” मैंने किशन से पूछा।
“कोई भी हो, पर क्रिकेट का हो।” किशन ने कहा।
अजीब इच्छा थी, अजीब ख्वाहिश थी, पर एक शख्स में ऐसी अजीब ख्वाहिश थी तो थी।
“क्रिकेट के ही क्यों?” मैंने पूछा –”हॉकी के खिलाड़ियों को क्यों नहीं देखना चाहता? हॉकी में तो इंडिया ओलिम्पिक में भी गोल्ड लाता है?”
इस पर किशन ने कहा, “क्रिकेट के तो सारे खिलाड़ियों को मैं जानूँ हूँ। बाकी किसी के बारे में मुझे कुछ पता नहीं।”
“अच्छा….।” मैंने माथे पर बल डाल, किशन से सवाल किया –”यह बात है तो दिल्ली के क्रिकेट खिलाड़ियों के नाम बता।”
“दिल्ली के या इंडिया के….?” किशन ने कुछ अचरज से ही पूछा।
“दिल्ली के, अगर इंडिया के भी हों तो वो दिल्ली की तरफ से, दिल्ली में ही खेलते हों।” मैंने कहा।
“दिल्ली के क्लबों से खेलने वालों का नाम भी ले सकता हूँ ?” किशन ने पूछा।
“बेशक….बशौक…।” मैंने कहा।
और किशन शुरू हो गया। उसने ऐसे-ऐसे खिलाड़ियों के नाम लिए, जो मैंने भी नहीं सुने थे। और जब मैंने उस खिलाड़ी के बारे में पूछा तो उसने पता नहीं किस-किस क्लब का नाम बताकर कहा कि यह फलाने क्लब से खेलता है, यह ढिकाने क्लब से खेलता है। क्रिकेट के बारे में किशन की जानकारी उन दिनों बड़ी जबरदस्त थी।
मैं उसका कायल हो गया और बोला –”ठीक है, किसी दिन मोरी गेट चलते हैं।”
“मोरी गेट क्यों ?” किशन ने पूछा।
“योगराज थानी जी बता रहे थे कि मोरी गेट के एक पार्क में संडे की सुबह दिल्ली के बड़े-बड़े खिलाड़ी खेलने आते हैं।” मैंने ‘बड़े-बड़े’ शब्दों पर जोर देकर कहा –”वहाँ सब खिलाड़ी बिना टिकट देखने को मिल जाएँगे।”
“हैं…?”
“हाँ…।” मैंने किशन के ‘हैं’ के असमंजस को ‘हाँ’ की मज़बूती देते हुए कहा।
“पर मोरी गेट पर तो बहुत से पार्क होंगे। कौन से पार्क में खिलाड़ी होंगे, तेरे को पता है?” किशन ने पूछा।
‘ना…।” मैने इनकार में सर हिलाया –”भाई मेरे, भगवान के दर्शन करने हैं तो भक्तों को उन्हें ढूँढने के लिए थोड़ा तो भटकना होगा। कितने पार्क होंगे वहाँ ? दस-बीस-पचास। हम सब छान मारेंगे।”
किशन हँसने लगा। और फिर उस दिन हम दोनों में तय यह हुआ कि हम रविवार के दिन सुबह सात बहे ही मोरी गेट के लिए निकल लेंगे।
दोनों के मिलने की जगह तय हुई मोतीनगर से आगे कर्मपुरा का बस स्टॉप। किशन ने मुझसे कहा कि वह सात बजे तक हर हाल में कर्मपुरा के उस बस स्टॉप पर पहुँच जाएगा, जहाँ राजा गार्डन और तिलक नगर की तरफ से आने वाली सभी बसें रुकती हैं।
किशन वादे का पक्का निकला, रविवार को जब मैं निश्चित बस स्टॉप पर पहुँचा, किशन पहले से वहाँ मौजूद था। वहाँ से हमने कश्मीरी गेट की बस पकड़ी। बस से आखिरी स्टॉप पर उतरकर, घूमते हुए पीछे पलटे। हमें ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। मोरी गेट बस स्टैंड के साथ ही वह पार्क था, जहाँ नामवर क्रिकेटर मौजूद थे।
उस दिन हमने वहाँ सुनील बालसन, कीर्ति आज़ाद, अरुणलाल तथा दिल्ली के कई अन्य क्रिकेटरों को भी देखा। मज़े की बात थी कि किशन ने अधिकाँश खिलाड़ियों की तस्वीरें देख रखी थीं, वह सबको पहचानता था। मैं तो सबसे मेल-मुलाक़ात भी करना चाहता था, पर किशन ने मुझे रोक दिया, बोला – “वो सब सीरियसली प्रैक्टिस कर रहे हैं। बात-चीत फिर कभी कर लेंगे।”.
उस रविवार के बाद भी मैं और किशन कई बार मोरी गेट के उस पार्क में गए। ये सब इंटर स्टेट बस टर्मिनल का आज जो स्वरुप खड़ा है, उससे पहले की बातें हैं।
बाद में एक बार हमने जब खिलाड़ियों से बात करनी चाही तो अरुण लाल और सुनील बालसन के अलावा किसी अन्य ने हमसे बातचीत करने में रूचि नहीं दिखलाई, इसका एक कारण शायद यह भी था कि मैं तो तब दुबला-पतला और बच्चों जैसी कद-काठी का था और किशन के बात-चीत का लहज़ा हरियाणा के अनपढ़ों जैसा था।
जो लोग मेरी बिमल चटर्जी, कुमारप्रिय, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, अनिल सलूजा, राजभारती, यशपाल वालिया, राजकुमार गुप्ता, गौरीशंकर गुप्ता, एन एस धम्मी, हरविन्दर माँकड़ आदि से जुगलबंदी के बारे में पढ़ते आये हैं, वे किशन से मेरी जुगलबंदी पर अचरज न करें। ऐसा ही हूँ मैं। कभी आप में से भी कोई मेरे ‘इस साथ’ का भागीदार हो सकता है।
तो किशन के साथ ही उसी पार्क में हम एक बार रमन लाम्बा से पहली बार मिले थे। लम्बा-सा बहुत पतला सा लड़का था वो। चेहरे पर अधिकाँश समय मुस्कान तैरती रहती थी।

उस समय वह इतना नया था कि उसका नाम किशन के लिए भी अनसुना था, मेरे लिए तो उसका नाम नितांत अज़नबी था। पर फिर भी मुझे अच्छा लगा, इसलिए अच्छा लगा, क्योंकि उसने मुझसे बात की।
“आप कहाँ से आये हो ?” उसने मुझे और किशन को यूँ ही घूमता देखकर पूछा तो जैसे मेरी लॉटरी खुल गयी। तत्काल मैंने बताया –”मैं रमेशनगर रहता हूँ, पर पटेलनगर से निकलने वाली हिंदी मैगज़ीन खेल-खिलाड़ी में काम करता हूँ।”
“खेल-खिलाड़ी तो मैं भी पढ़ता हूँ। आप वहाँ क्या काम करते हैं ?” रमन लाम्बा ने पूछा।
“मैं एडिटर हूँ खेल-खिलाड़ी का।” मैंने कहा, लेकिन जवाब में रमन लाम्बा का जो ठहाका गूँजा था, आज भी याद है। रमन लाम्बा के ठहाके को अन्यथा न लें, यदि आपलोग आज भी मुझसे मिलकर चालीस-चवालीस साल पहले के योगेश मित्तल की कल्पना करेंगे तो रमन लाम्बा के ठहाके जैसे दस ठहाके आप भी लगाएँगे।
मैं समझ गया था कि मेरे द्वारा खुद को खेल-खिलाड़ी का सम्पादक बताने पर रमन लाम्बा को विश्वास नहीं हुआ है। और यह रमन लाम्बा के अगले वाक्य से पक्का और साबित भी हो गया।
“मैं आऊँगा किसी दिन खेल-खिलाड़ी के ऑफिस में….वहीं मिलूंगा आपसे।” रमन लाम्बा ने कहा। फिर जैसे अचानक उसे ख्याल आया हो कि उसका ठहाका मुझे बुरा न लगा हो। तुरंत बोला –”अरे यार…।” और मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुस्कुराया –”आपको बुरा तो नहीं लगा?”
“बुरा…? क्यों ?” मैंने समझते-बूझते भी अनजान बनकर पूछा।
“वो यार..। मुझे हँसी आ गयी न? वैसे मैं न भी हँसू तो हँसता हुआ लगता हूँ। बुरा मत मानना – आप एडिटर होंगे। जरूर होंगे, पर किसी को भी बोलोगे तो एकदम वो यकीन नहीं करेगा।”
मैं मुस्कुरा दिया, जानता था कि रमन लाम्बा सही कह रहा है। पर उस समय मुझे यह नहीं पता था कि वह रमन लाम्बा है। उस समय मेरी नज़र में वह सिर्फ एक लम्बा सा लड़का था, जो क्रिकेट खेलता था और दिल्ली के सीनियर खिलाड़ियों के साथ भी वह क्रिकेट खेलने के लिए मोरी गेट के मैदान पर मौजूद था।
दो तीन हफ्ते बाद, शनिवार की एक शाम मैं यशपाल वालिया के साथ वेस्ट पटेलनगर गया तो राजभारती जी से मिलने के बाद खेल-खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह से भी मिला। मुझे देखते ही मनोहर सिंह बोले -“योगेश, आज सुबह रमन लाम्बा आया था, कह रहा था कि आपके एडिटर साहब से मिलना है। तू जानता है उसे?”
“नहीं…।” मैंने अस्वीकृति में सिर हिलाया –”कौन है यह रमन लाम्बा ?”
“यार अभी स्कूली और क्लब लेबल पर क्रिकेट खेलता है।”
“होगा कोई…।” मैंने सिर को झटका दिया –”जब आएगा, मिल लेंगे।”
“मिलेगा तो एक काम और करियो….। उसकी कुछ फोटो खींच लेइयो। हो सकता है – कल को बड़ा खिलाड़ी बन जाए। तेरे लिए कैमरा मैंने तैयार कर दिया है?” कहते हुए मनोहर सिंह ने मुझे एक कैमरा दिखाया, वह उस समय कैमरों के पॉपुलर ब्रांड ‘याशिका’ का इलेक्ट्रो मॉडल था। उसके साथ हैलीमेक्स की फ़्लैशलाइट थी।
“रील पड़ी हुई है इसमें …?” मैंने पूछा।
“नहीं, रील तो तू ही डालेगा।” मनोहर सिंह बोले।
“रील लाये हुए हो ?”
“हाँ..। ले आया हूँ।”
“अभी डालनी है ?”
“अभी क्या करना है। सुबह डाल लेइयो।”
“ठीक है, फिर चलता हूँ।”
“सुबह टाइम से आ जाइयो।”
” ठीक है।” मैं पटेलनगर से रुखसत हुआ।
अगले दिन सुबह नौ बजे से पहले ही वेस्ट पटेल नगर पहुँच गया। सुबह का नाश्ता राजभारती जी के यहाँ, उनके साथ ही किया। फिर सरदार मनोहर सिंह से कैमरा, फ्लैश और रील लेकर, ऊपरी मंजिल स्थित खेल खिलाड़ी के ऑफिस में पहुँच गया। किशन वहाँ पहले से ही मौजूद था।
“तू यहाँ…? आज कैसे…? आज तो रविवार है। तेरी छुट्टी नहीं होती आज के दिन?” मैंने पूछा।
“छुट्टी का क्या है, कभी कर लो। सरदार जी मना थोड़े ही करते हैं। मैं तो हर रविवार को आ जाता हूँ।”
“अच्छा…। मगर रविवार को आकर करता क्या है तू?”
“आगे के डिस्पैच की वीपी स्लिप और मनीआर्डर फार्म तैयार कर लेता हूँ। कोई और काम हो तो वो भी कर लेता हूँ। सरदार जी काम बताते हैं तो कर लेता हूँ और..।”
“और क्या?”
“कोई काम नहीं होता तो थोड़ी देर बैठकर, वापस लौट जाता हूँ। या कई बार यहीं ऑफिस में बैठ कर अपनी पढ़ाई कर लेता हूँ।”
“बढ़िया…।” मैंने किशन को शाबाशी दी। मुझे मालूम था कि वह खेल खिलाड़ी में काम करने के साथ साथ बी ए की पढ़ाई भी कर रहा है।
“क्या आप कैमरे में रील डाल रहे हो?” मुझे कैमरे का बैक डोर खोलते देख अचानक किशन ने पूछा तो मैंने रील का कार्टन बायीं ओर के खाली स्पेस में फँसाते हुए सहजता से ‘हाँ’ कह दिया।
‘हाँ’ सुनते ही किशन एकदम बोला –”रुको, एक मिनट रुको।”
और वह तेजी से मेरे निकट आ गया।
“क्या हुआ?” मैंने किशन के चेहरे को देखते हुए सवाल किया तो वह बोला –”मुझे भी कैमरे में रील डालनी सीखनी है।”
“कैमरा है तेरे पास?” मैंने पूछा।
“अभी नहीं है, पर सरकारी नौकरी लग जायेगी, तब मैं खरीदूँगा और अपने घरवालों की बहुत सारी फोटो खींचूँगा।” किशन ने कहा।
मुझे किशन का यह पॉजिटिव एटिट्युड अच्छा लगा। मैंने रील कैमरे के ब्लैंक स्पेस से निकालकर, फिर से उसके सामने दोबारा फँसाई और फिर 35 एम एम की रील के टीन के खोल के भीतर से फिल्म का कोने का सिरा खींचकर दाईं ओर स्थित बीच से फटे हुए स्पेस में फंसाया और उसे एक बार घुमाकर, कैमरे का डोर बन्द कर दिया, पर तभी किशन ने मुझे टोक दिया –”योगेश जी..। योगेश जी।”
“अब क्या है?” मैंने पूछा।
“एक बार कैमरा मुझे देना। अब के रील निकाल कर मैं कैमरे में डालूँगा। आप बताना – मैंने सही से डाली है या नहीं?”
“ठीक है।” मैंने कैमरा किशन की ओर बढ़ा दिया, परंतु किशन कैमरे का बैक डोर खोलता, उससे पहले ही नीचे की मंजिल से सरदार मनोहर सिंह की तेज आवाज गूँजी –”किशन….।”
“आया…।” किशन कैयरा मुझे थमा, सीढ़ियों की ओर लपका।
किशन को नीचे गये दो मिनट ही हुए होंगे कि एक लम्बा लड़का, अपनी ही उम्र की एक लड़की के साथ नमूदार हुआ।
उस समय मैं कैमरा थामे कुछ ऐसे ही पोज़ में था, मानों मैं फोटो खींचने ही जा रहा हूँ।
अचानक प्रकट होने वाले उस लड़के को मैं पहचान गया, वह वही था, जो मुझसे मोरी गेट के पार्क में मिला था और बोला था– ‘खेल खिलाड़ी के ऑफिस में आऊँगा।’
मैं समझ गया कि यही रमन लाम्बा होगा, पर इससे पहले कि मैं उसका ‘वेलकम’ करता या कुछ कहता, वह एकदम बोला –”अरे यार, फोटो खींची तो नहीं अभी?”
मैंने तब तक फोटो खींचनी तो दूर, खींचने के बारे में सोचा तक नहीं था, पर जैसे ही रमन लाम्बा ने यह कहा कि ‘फोटो खींची तो नहीं’ – मैंने क्लिक कर दिया और बोला –”खिंच गयी?”
“अरे यार….।” रमन लाम्बा ने साथ वाली लड़की की ओर इशारा किया –”ये मेरी बहन है, इसकी फोटो भी खींची है साथ में?”
“हाँ, साथ में है तो साथ में ही आयेगी।” मैंने कहा।
“अरे यार, पर यह फोटो आपलोग छापना मत। प्लीज़…। आपको मेरी जितनी फोटो खींचनी हैं, खींच लो, पर यह फोटो और निगेटिव मुझे दे देना।”
“ओके…।” मैंने कहा।
“श्योर न…?” उसने पूछा।
“श्योर…।” मैंने कहा।
“मेरी और फोटो खींचेंगे आप?” रमन लाम्बा ने पूछा।
“जरूर…। आप जरा अलग हटकर इधर आ जाइये।” मैंने कहा।
“अच्छी-अच्छी खींचियेगा।” रमन लाम्बा ने खेल खिलाड़ी के ऑफिस के सामने की खाली जगह में धूप में खड़े होते हुए कहा, फिर एक क्षण रुककर दोबारा बोला –”अभी मुझे बहुत ज्यादा लोग नहीं जानते, लेकिन एक दिन सारे वर्ल्ड में मेरा नाम होगा।”
“मुझे यकीन है, पर मुझे यह भी यकीन है कि आप यहाँ खेल खिलाड़ी के ऑफिस में सिर्फ फोटो खिंचाने तो नहीं आये हैं। वैसे कैसे आना हुआ है?”
“अरे यार, असल में मुझे तुम्हारी बात पर यकीन नहीं था, जो तुमने मोरी गेट के पार्क में कही थी।”
“यह कि मैं खेल खिलाड़ी का एडिटर हूँ।”
“हाँ…।” रमन लाम्बा ने ईमानदारी से स्वीकार किया, फिर बोला –”और मैं यह भी चाहता हूँ कि खेल खिलाड़ी वाले मेरे बारे में कुछ लिखें, कुछ छापें। अभी तक मेरे बारे में, अखबारों में भी एक दो लाईन से ज्यादा कभी कुछ नहीं छपा।”
“हम छापेंगे, पर थोड़ा इंतजार करना होगा।” मैंने कहा।
“अरे यार, ज्यादा इंतजार मत कराना।”
“ठीक है।” मैंने कहा, लेकिन आज स्वीकार करता हूँ, मैं अपनी जुबान का कच्चा रह गया। खेल खिलाड़ी में रहते मैंने रमन लाम्बा के बारे में कभी कुछ नहीं लिखा, शायद उसका कारण तब का घटनाक्रम था। आज अचानक रमन लाम्बा के बारे में यह सब जो लिख रहा हूँ, मेरी ओर से उसे श्रद्धांजलि ही है।

तीसरे नंबर पर खेल खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह (राजभारती जी के तीसरे नम्बर के भाई )
बाएँ से सबसे आखिर में – दाएँ से पहला किशन
(लेखक द्वारा यह संस्मरण अपनी फेसबुक वाल पर 31 अगस्त 2021 को प्रकाशित किय गया था।)
क्रमशः
शृंखला की सभी कड़ियाँ: