मैं ऐसा ही हूँ – संदीप नैयर

मैं ऐसा ही हूँ.... - संदीप नैयर | लेख

यूँ तो लगभग सभी का बचपन अलमस्ती और बेफिक्री में बीतता है, मगर मेरा कुछ अधिक ही था। मेरी बचपन और लड़कपन की बेपरवाही लापरवाही की सीमा तक थी।

अधिकांश समय मैं दिवास्वप्नों में डूबा रहता। वे दिवास्वप्न आत्ममुग्धता में सने होते। कभी स्वप्न देखता कि मैंने मुहल्ले के सभी लड़कों की पतंगें काट दी हैं। आकाश में मात्र मेरी ही विजय पताका उड़ रही है। मानो कि उसे किसी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का गौरव प्राप्त हो। कोई अन्य पतंग उसके आसपास फटकने का साहस भी न कर पा रही हो। यदि कोई पतंग उससे पेंच लड़ाने का साहस करे तो मैं अपनी पतंग को एक झटके से खींचकर ढील दूँ और अगली पतंग कटकर मीलों दूर जा गिरे।

ऐसे दिवास्वप्नों में डूबा मैं दुनियादारी के प्रति पूर्णतः लापरवाह रहता। न रूप-रंग की परवाह न रहन-सहन की फिक्र। दो जोड़ी कपड़ों को घिसता रहता। कपड़ों में रफू पर रफू चढ़ते रहते। पैरों में एक जोड़ी बाटा की चप्पल घसीटता रहता। जिसके तलवों में घिस घिस कर छेद हो जाते। शरीर मरियल था, रंग साँवला और बाल बिखरे-छितरे रहते। न बालों में तेल लगाता न कभी कंघी ही करता। मेरे रूप-रंग का लोग उपहास करते। कोई मुझे ओड़िया पिल्ला कहता तो कोई भूत। मैं उनके उपहास से विचलित होना तो दूर उन्हें हँसी में उड़ा देता। ये मूर्ख क्या जानें कि मैं कौन हूँ? मेरी फकीरी के ठाठ ये क्या जानें? मैं अपनी फकीरी में भी सम्राट था।

स्कूल से निकलकर इंजीनियरिंग कॉलेज पहुँचा। तब घर घर में इंजीनियर न हुआ करते थे। ये न था कि आँख बंदकर पत्थर फेंका तो किसी इंजीनियर को लगने की प्रोबेबिलिटी 80 प्रतिशत की हो। तब शायद दो-चार प्रतिशत ही रही हो। मैं उन दो-चार प्रतिशत में कैसे शामिल हुआ यह मेरे लिए भी एक पहेली ही था। इंजिनीरिंग पढ़ना मुझे ज़रा भी रास न आता था। मेरी रुचि साहित्य में थी, दर्शन में थी, समाजशास्त्र में थी, इतिहास में थी। मगर जीवन मेरे लिए एक निर्झर सा ही था, जिधर बहा जा रहा था, बहा जा रहा था। सोच-समझकर, प्लानिंग करके तो कुछ किया ही नहीं।

कॉलेज में भी वही लापरवाही, वही बेफिक्री का आलम। वही दो जोड़ी कपड़े, घिसे हुए जूते। वही बिखरे-छितरे बाल। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने का तो कोई होश न होता था, ख्वाब लेनिन या चे ग्वेरा बनने के होते। मेरे दिवास्वप्न तब भी बदस्तूर जारी थे। दिवास्वप्नों के सागर में क्रांति की लहरें ज़ोर मारती रहतीं। कॉमरेड होने के लिए जितना बिखरा-छितरा होना ज़रूरी था वह मुझमें पर्याप्त था। विचारों में वामपंथी दम्भ था। वाद-विवाद में बौद्धिक ठसक। पास एक एटलस की काली-कलूटी साईकल होती। उसके पैडल मारता भटकता रहता। यार-दोस्त मुझे भटकती आत्मा कहते। मैं उनकी बुर्जुआ मिडिओक्रिटी का मखौल उड़ाता फिरता।

मगर क्रांतिकारी हृदय में कहीं कोई प्रेमी भी पल रहा था जो इंकलाबी इरादों को झटककर किसी सुंदरी की सरदारी के आगे समर्पण कर देने को आतुर था। कुछ मृगनयनियों पर मेरा दिल आ गया, कुछ चंद्रमुखियों का मुझ पर। अब ज़िंदगी बदलने लगी। अब तो जहाँ कहीं आईना दिखता खुद को निहार लेता। रूप-रंग सँवारने की तमीज़ सीखने लगा। बिखरे बाल सलीकेदार हो गए। कपड़ों की जोड़ियाँ दो से चार-छह हो गयीं। पैरों में ब्रांडेड जूते हो गए। खयालों में हिलोरे लेती क्रांति की लहरें थम गईं, हुस्नो-शबाब के इंद्रजाल बुनने लगे। सलीकेदार जीवन की महत्ता समझ आने लगी। रूप-रंग, रहन-सहन व्यवस्थित हो तो जीवन भी संयमित होने लगता है। मगर कोई भी प्रेम-कहानी लम्बी न टिकी। ख्वाबों में बसी सब्ज़परी किसी में न दिखी। किसी की ज़ुल्फ़ों से बात न बनी तो किसी के पैरों से। दीवाने दिल को कोई ठौर-ठिकाना न मिला।

खैर पढ़ाई पूरी हुई। ठीक ठाक नौकरी मिल गयी। अब शादी हो जाना लाज़मी था। पत्नी ने आकर और भी सलीकेदार बनाया। हेयरस्टाइल बदलवायी। सूट-बूट से सँवारा। कलाई में महँगी ब्रांडेड घड़ी बाँधी। परफ्यूम, बॉडी स्प्रे और आफ्टरशेव लोशन की नियमितता ठहरायी। फिर फॉरेन आ गया। सादी माली हालत में ब्रिटिश पाउंड की चटक बिखरी। बड़ी मल्टीनेशनल की ऊँची पगार मिली। फिर नौकरी छोड़ व्यवसाय किया। आमदनी दुगनी से भी आगे निकल गयी। अब विलासिता भी बढ़ी। बड़ा मकान हो गया, सुख-सुविधाओं का सारा साज़ो-सामान हो गया। चमकते फर्नीचर हुए, चमचमाती गाड़ियाँ हुईं। इससे ज़्यादा कोई ख़ुदा से क्या माँगे?

मगर फिर भी कई बार दिल करता है कि लड़कपन की फकीरी में लौट चलूँ। कभी कोई रिप्पड जींस, घिसी हुडी और पुराने जूते पहने वॉक पर निकल पड़ता हूँ। पास के किसी फॉरेस्ट में जाकर अलमस्त हो जाता हूँ। किसी पेड़ की टहनी पर चढ़ बैठता हूँ। किसी नाले के पानी में छा-छप्पा-छई करने लगता हूँ। कई बार पत्नी टोकती है कि ये क्या बचपना कर रहे हो। मैं उसे बचपने और बचकानेपन का फर्क समझाता हूँ। समझाता हूँ कि पेड़ों से लटककर और मिट्टी-पानी में खेलकर शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा रहा हूँ। मगर असल इरादा तो देह की परिधि तोड़ देने का होता है। कभी मन करता है कि वही पुरानी काली-कलूटी साईकल ले आऊँ। पेड़ों के बीच उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर उन्हें सरपट दौड़ाऊँ। कभी ज़ोर से चीख पडूँ याहू – चाहे कोई मुझे जंगली कहे। सारी ऊपरी सजावट दुनिया के लिए मगर भीतर वही लड़कपन की अलमस्त आत्मा। किसी बिज़नेस मीटिंग में बेपरवाह हो जाऊँ। क्लाइंट को प्रसन्न करने की जगह दिल की सच्ची बात कहूँ। मगर मैं यह भी जानता हूँ कि सारे आडम्बर करता हुआ भी भीतर मैं बिखरा-छितरा और सरल-सादा ही हूँ। अब भी भीतर कहीं कोई कॉमरेड बाहर की दुनिया की बुर्जुआ मिडिओक्रिटी का मखौल ही उड़ाता रहता है।

फ़टी कमीज़ नुची आस्तीन कुछ तो है,
गरीब इस दशा में भी हसीन कुछ तो है।
महँगे कपड़े पहनकर शहर नंगा है,
हमारे गाँव में मोटा-महीन कुछ तो है।


(यह लेख साहिंद में अक्टूबर 15 2021 को प्रकाशित हुआ था।)


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Author

  • संदीप नैयर

    'समरसिद्धा' जैसा प्रसिद्ध ऐतिहासिक गल्प लिखने के बाद जब संदीप नैयर इरॉटिक रोमांस 'डार्क नाइट' लिखा तो पाठकों को यकीन दिलाना मुश्किल था कि दोनों ही उपन्यास एक ही लेखक की कलम का कमाल हैं। विषयवस्तु, लेखन शैली और भाषा की यही विविधता संदीप को वर्तमान दौर के अन्य हिंदी के लेखकों से अलग करती है। पाठकों और आलोचकों दोनों ही द्वारा समान रूप से सराहे जाने वाले संदीप पिछले बीस वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं मगर यह उनका अपनी मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति प्रेम ही है कि वे हिंदी साहित्य के विकास और विस्तार में निरंतर जुटे रहते हैं।

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