पुस्तक के विषय में:
मौत का विलाप लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक का एक रचना संकलन है जिसमें उनका एक लघु उपन्यास मौत का विलाप और 8 अन्य कहानियाँ संकलित हैं। इस संकलन की खास बात यह है इसमें सुरेंद्र मोहन पाठक की लिखी प्रथम कहानी सत्तावन साल पुराना आदमी भी संकलित की गई है।
इस संकलन में निम्न रचनाएँ मौजूद है:
- मौत का विलाप
- घड़ी की गवाही
- 57 साल पुराना आदमी
- आँख का तारा
- मौत का साया
- ताश के पत्ते
- ट्रेन में लाश
- नैकलेस की चोरी
- जुर्म का इकबाल
पुस्तक लिंक:
अमेज़न | साहित्य विमर्श प्रकाशन
पुस्तक अंश
अमृता शेरगिल मार्ग के उस इलाके में आधी रात को वह चीख यूँ गूँजी जैसे मौत विलाप कर रही हो। आवाज किसी औरत की थी और यह दहशत और दर्द से लबरेज थी।
वह इलाका ऐसा था जहाँ अधिकतर कलाकार, लेखक और कवि जैसे जीव आबाद थे। वहाँ गिटार बजाते हिप्पीनुमा लोगों का, काफी हाउस में बैठ कर घंटों कविता पाठ करते लोगों का और सड़क पर ही सामान्य जन-जीवन का चित्रण करने में तल्लीन कलाकारों का नजारा आम बात थी।
एक प्रकार से अमृता शेरगिल मार्ग राजनगर के कलाकारों और साहित्यकारों का और कला और साहित्य के प्रेमियों का गढ़ था। वहाँ ऐसे बहुत लोग बसते थे जो आने वाले दिनों में पिकासो और रेम्ब्रांड को मात कर देने का या टैगोर और मिल्टन को पीट देने का अरमान रखते थे। ऐसे माहौल में गूँजी उस जवाबी चीख के वहाँ कई मतलब लगाए जा सकते थे – सिवाय उस मतलब के जो कि हकीकतन था – शायद कहीं सारी रात चलने वाली चरस पार्टी में कोई नवयुवती आपे से बाहर हो गई थी, शायद कोई मॉडल अपने कलाकार से लड़ पड़ी थी, शायद कोई हिप्पी बाला खामखाह ही नशे में चीख रही थी और शायद कुरीजो फिर अपनी बीवी को पीट रहा था। कुरीजो एक लंबा चौड़ा गोवानी था जो कि उस इलाके के सबसे बड़े लैंडलार्ड, साहबे जायदाद, लक्खी राम चौधरी का पालतू दादा था। अगर चीखने वाली कुरीजो की बीवी मारिया थी तो यह कोई चिंता व्यक्त करने योग्य बात नहीं थी क्योंकि विशालकाय मारिया अपने मर्द से पिटने में भी शान समझती थी और उसकी इस हरकत को उसकी मर्दानगी का दस्तावेज मानती थी। आरंभ में लोग मारिया की आतंकभरी चीखों से परेशान होते थे लेकिन अब वो समझ गए थे कि ऐसी चीखें मारिया आतंक में नहीं आनंद के अतिरेक में निकालती थी।
लेकिन शनिवार की उस रात को उपरोक्त में से कोई बात नहीं थी। वह चीख जिसने भी सुनी उसने सबसे पहले निःसंकोच यही फैसला किया कि चीखने वाली मारिया नहीं थी।
उस चीख को सुनने वालों में से एक धीरज खन्ना भी था जो कि उस वक्त लक्खी राम चौधरी की ही एक इमारत की दूसरी मंजिल पर स्थित, उन दिनों पेरिस गए हुए अपने दोस्त के स्टूडियो में एक कैनवस पेंट करने की तैयारी में ही जुटा हुआ था। उस पेंटिंग को वह विदेश में किसी कंपीटीशन में भेजने वाला था। इसलिए वह उस पर बहुत मेहनत से चित्र बनाना चाहता था। स्टूडियो की छत के साथ लटकी इतनी ट्यूब लाइट्स वहाँ जल रही थीं कि वहाँ दिन का सा उजाला लग रहा था। वह एक लगभग छ: फुट का, भूरे बालों, भूरी दाढ़ी और भूरी आँखों वाला कोई तीस साल की उम्र का खूबसूरत नौजवान था। उस इलाके के लोगों की निगाह में वह केवल एक लगभग भूखा मरता कलाकार था जो वहाँ कलाकारों के उस इलाके में इसलिए रहता था क्योंकि वहाँ किराया सस्ता था। लेकिन हकीकत कोई इक्का-दुक्का ही जानता था कि वह करोड़पति बाप का बेटा था और राजनगर के फैशनेबल इलाके मुगल बाग में स्थित अत्याधुनिक स्काई स्क्रैपर में उसका एक आलीशान पेंटहाउस अपार्टमेंट था।
चीख धीरज के कानों में पड़ी। उसने झुँझलाकर बाहर सड़क की तरफ खुलती खिड़की की तरफ देखा। शोर-शराबे का वह आदी था। लेकिन उस चीख ने एकाएक उसका मूड उखाड़ दिया था। अभी उसने ब्रुश भी नहीं संभाला था कि वह व्यवधान आ गया था।
धीरज से थोड़ा परे स्टूडियो के दरवाजे के पास एक निहायत खूबसूरत लेकिन सादा लिबास वाली, बिना मेकअप की शक्ल सूरत वाली और खुले बालों वाली युवती मौजूद थी जो कि उस कैनवस के लिए धीरज की मॉडल थी और जिसे कि वह उस वक्त पेंट करने की शुरुआत करने जा रहा था।
चीख सुनकर युवती के चेहरे पर शिकन तक न आई।
“कपड़े कहाँ उतारूँ?” – युवती बोली।
“कहीं भी नहीं।” – धीरज बिना उसकी तरफ देखे यूँ बोला जैसे बड़बड़ा रहा हो।
“मैंने कभी मॉडलिंग नहीं की लेकिन मैंने सुना हुआ है कि आर्टिस्ट लोग सबसे पहले मॉडल को कपड़े उतारने का ही हुक्म देते हैं।”
“जिस पेशे में तुम हो उसमें कपड़े उतारना तुम्हारे लिए क्या बड़ी बात है?”
“कोई बड़ी बात नहीं लेकिन मैंने कभी किसी आर्टिस्ट का मॉडल बनने के लिए कपड़े नहीं उतारे।”
“क्या फर्क है?”
“कपड़े उतारने में कोई फर्क नहीं। वैसे बहुत फर्क है। ग्राहक के लिए कपड़े उतारना और बात होती है। उसने अपने पैसों के बदले में मेरे जिस्म को झंझोड़ना होता है। तुम मेरे कपड़े उतरवा कर शायद मेरे करीब भी नहीं फटकोगे। वैसे” – वह एक क्षण ठिठक कर बोली – “मैं तुम्हारी दोनों खिदमतें भी कर सकती हूँ। एक पंथ दो काज। क्या खयाल है?”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“कला।”
“क्या कहने! जरूर यह नाम तुमने अभी हाथ के हाथ गढ़ा है।”
“हाँ” – उसने बड़ी सादगी से कबूल किया – “असल में मेरा नाम सीता है।”
“और तुम धंधा करती हो। आधी रात को सड़क पर खड़ी होकर ग्राहक तलाश करती हो।”
“हाँ।” – वह बड़ी दिलेरी से बोली – “और तुम्हें मैंने तलाश नहीं किया था। तुमने मुझे तलाश किया था।”
“दुरुस्त।” – धीरज एक क्षण ठिठका और फिर बोला – “देखो कला उर्फ सीता! तुम्हारी जानकारी के लिए मैं कई दिनों से पेंट करने के लिए किसी नए सब्जेक्ट की तलाश में था। लेकिन मुझे नया कुछ नहीं सूझ रहा था। मैंने तुम्हें नीचे सड़क पर खड़ा देखा तो मुझे सब्जेक्ट सूझ गया। मैं तुम्हें यहाँ ले आया। मैं जानता हूँ तुम कैसी लड़की हो लेकिन मुझे तुम्हारे खूबसूरत जिस्म से कोई सरोकार नहीं। लेकिन तुम्हारे वक्त की मैं वो कीमत अदा करने को तैयार हूँ जो तुम्हें जिस्म बेचकर हासिल होगी। बदले में तुमने वहाँ सामने ऊँचे प्लेटफार्म पर खड़ा होना है और अपने चेहरे पर वही भाव पैदा करके दिखाने हैं जो मैंने नीचे सड़क पर तुम्हारे चेहरे पर देखे थे। मायूसी के। परेशानी के। दयनीयता के। आधी रात तक भी ग्राहक न मिलने के, अफसोस के। कर सकोगी ऐसा?”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“जब मैं तुम्हें नहीं मिला था, उस वक्त तुम्हारे मन में क्या था? सच बताना सीता।”
“तुम मुझे कला कहकर ही पुकारो तो ठीक रहेगा।”
“ओके, कला।”
“उस वक्त मेरे मन में वही कुछ था जिसका तुमने अभी जिक्र किया। मायूसी, परेशानी, दयनीयता, दुनिया जहान से गिला, अपने आप से गिला। अपने इस नामुराद धन्धे से गिला।”
“तुमने मुझे ग्राहक समझा था?”
“और क्या समझती?”
“फिर तो तुम्हारी जान में जान आयी होगी। कुछ गिला-शिकवा दूर हुआ होगा तुम्हारा।”
“हाँ।”
“लेकिन मुझे तुम्हारे चेहरे पर वही भाव चाहिए जो मेरे तुम्हारे पास पहुँचने से पहले तुम्हारे चेहरे पर थे। ठीक?”
“ठीक।”
तभी बाहर से उस औरत के चीखने की आवाज आई। तीखी आतंक भरी, हृदय विदारक चीख।
“पता नहीं क्या हो रहा है बाहर।” – धीरज झुँझला कर बोला – “वैसे तो यहाँ की ऐसी चीख-पुकार का मैं आदी हूँ लेकिन आज तो हद ही हो गई है।”
कला भी कान लगाकर उस चीख को सुन रही थी। इस बार वह चीख से पहले की तरह निर्लिप्त नहीं दिखाई दे रही थी। धीरज ने अपनी चमड़े की जैकेट में से अपना पाइप निकाला, उस में तंबाकू भरा और फिर उसे सुलगाया। वह कुछ क्षण बड़ी विचारपूर्ण मुद्रा बनाए पाइप के लंबे-लंबे कश लगाता रहा और फिर बोला – “दो महीने हो गए हैं मुझे यहाँ डेरा डाले हुए। यहाँ मैं जिस नए सब्जेक्ट की तलाश में आया था, वह मुझे आज मिला।”
“तुम जताना क्या चाहते हो?”
“मैं मजबूरी, गरीबी और अभाव का चित्रण करना चाहता हूँ। यहाँ मुझे ऐसा सब्जेक्ट मिलने की ज्यादा उम्मीद थी इसलिए मैं यहाँ आकर रहा। यह इलाका अमृता शेरगिल जैसी विश्व प्रसिद्ध कलाकार के नाम से जाना जाता है। यहाँ बड़े-बड़े गुणी, कवि, लेखक और कलाकार मौजूद हैं, ऐसे टेलेंट वाले लोग जो कद्र हो जाने पर कल सारी दुनिया में मशहूर हो सकते हैं लेकिन तुमने देखा ही है कि कैसा बोलबाला है यहाँ विफलता और अभाव का? हमारी सरकार गरीबी हटाने का नारा लगाती है लेकिन यहाँ एक बार कदम रखने पर तो लगता है कि यहाँ की गरीबी भगवान भी नहीं हटा सकता। मैंने यहाँ की गरीबी को कैनवस पर उतारने के कई तरीके सोचे, जैसे खाने की तलाश में कूड़ा कुरेदता भूखा बच्चा, नाली में मुँह मारता हड्डियों के ढाँचे जैसा कुत्ता, हेरोइन के नशे का आदी, सड़क पर दम तोड़ता हिप्पी और पता नहीं क्या-क्या, लेकिन किसी भी सब्जेक्ट ने मुझे मुतमइन नहीं किया, फिर आज रात इत्तफाक से मैंने तुम्हें देखा तो अनायास ही मेरे मन ने गवाही दी कि मेरी तलाश मुकम्मल हो गई थी। जहाँ तुम्हारे चेहरे पर मायूसी, परेशानी, दयनीयता और अफसोस की झलक थी, वहाँ तुम्हारी आँखों में हर हाल में हालत से जूझने की दिलेरी भी थी। तुम्हारी दयनीयता में भी स्वाभिमान की झलक थी।”
“मैं एक मामूली और कमजोर कालगर्ल हूँ।” – वह धीरे से बोली।
“मामूली हो सकती हो लेकिन कमजोर नहीं। तुम्हारी कोई मजबूरी तुम्हें इस पेशे में घसीट लाई हो सकती है लेकिन उस मजबूरी ने तुम्हारा मनोबल नहीं तोड़ा है, हर हाल में जिंदा रहने की तुम्हारी ख्वाहिश की चमक को कुंद नहीं किया है। अपने इसी आब्ज़र्वैशन को अगर मैं कैनवस पर उतार पाया तो मेरी पेंटिंग अमर हो जाएगी।”
तभी नीचे तीसरी बार एक औरत की चीख गूँजी, साथ ही इस बार एक कातर, फरियाद भरा स्वर भी धीरज को सुनाई दिया – “बचाओ! बचाओ! भगवान के लिए कोई मुझे बचाओ, कोई मुझे बचाओ।”
झुँझलाकर धीरज खिड़की के पास पहुँचा। उसने उसके दोनों पल्लों को पूरा खोलकर बाहर झाँका। वह औरत को झिड़क कर खामोश हो जाने को कहने का इरादा रखता था। लेकिन बाहर निगाह पड़ते ही उसकी जुबान से ऐसा कुछ नहीं निकला। बल्कि उसके नेत्र फैल गए और वह मुँह बाए बाहर देखने लगा।
नीचे सड़क के सिरे पर उसे वह औरत दिखाई दी। वह फुटपाथ पर घुटनों के बल इस प्रकार बैठी हुई थी कि उसके हाथ सामने फैले हुए थे और उसकी पीठ और कंधे पिछली दीवार के साथ लगे हुए थे। उसके सामने उसके सिर पर एक आदमी खड़ा था जो फासले से एक काला साया ही मालूम हो रहा था।
सड़क पर तो उस वक्त उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था, लेकिन आस-पास के मकानों की खिड़कियों में से बेशुमार सिर बाहर झाँक रहे थे।
धीरज के देखते-देखते उस आदमी का हाथ ऊपर उठा, एक लैंप पोस्ट पर जलते बल्ब की रोशनी उसके हाथ में थमे चाकू के फल पर प्रतिबिंबित हुई और चाकू बिजली की तरह औरत के शरीर पर छाती या पेट में कहीं टकराया। आततायी का चाकू वाला हाथ फिर उठा और फिर गिरा। फिर उठा और फिर गिरा।
एक आखिरी चीख से वातावरण गूँजा और फिर सन्नाटा।
खिड़कियों में मौजूद लोग बुत बने वह नजारा देख रहे थे।
सिर्फ ऐसा एक जना बुत न बना रह सका।
धीरज!
वह एकाएक खिड़की के पास से हटा और फिर बगोले की तरह वहाँ से भागा। उसके पीछे कला स्तब्ध खड़ी रही। फिर एकाएक वह हिचकियाँ लेकर रोने लगी।
पलक झपकते धीरज इमारत से बाहर नीचे सड़क पर था।
“खबरदार!” – वह गला फाड़कर चिल्लाता हुआ सामने दौड़ा – “खबरदार!”
लेकिन आदमी वहाँ से खिसक चुका था। औरत दोहरी हो कर नीचे फुटपाथ पर लुढ़क गई थी और उसकी एक कनपटी गटर के गंदे पानी में पड़ी थी।
धीरज करीब पहुँचा। यह देखकर वह सन्नाटे में आ गया कि वह मुश्किल से बीस साल की युवती थी।
अपने ही खून के तालाब में डूबा उसका जिस्म एक बार मछली की तरह तड़पा और फिर शांत हो गया।
धीरज स्तब्ध खड़ा कान लगा कर सुनने लगा। अब तो किसी अगल-बगल की गली में से आततायी के कदमों की आहट तक नहीं आ रही थी। धीरज ने अभी अपने स्टूडियो वाली इमारत से बाहर कदम भी नहीं रखा था कि वह भाग खड़ा हुआ था।
धीरज उस युवती के पास घुटनों के बल बैठ गया। सबसे पहले उसने युवती के चेहरे को गटर से परे किया। उसने देखा कि उसकी आँखें पथरा चुकी थीं। जीवन का कोई अवशेष उनमें बाकी नहीं था। उसने धीरे से उसकी आँखें बंद की और उसे फुटपाथ पर तनिक सीधा करके लिटा दिया। तब उसकी निगाह अपने हाथों पर पड़ी। वे खून से रंग गए थे। उसने देखा कि युवती के जिस्म पर चाकू के बेशुमार वार हुए थे। उसकी पहली चीख से लेकर धीरज के वहाँ पहुँचने तक उसके आततायी ने उसे कसाई की तरह काट कर रख दिया था।
धीरज को अपने आप पर गुस्सा आने लगा। अगर वह पहली ही चीख पर नीचे आ जाता तो वह बेचारी शायद यूँ बुरी तरह से जिबह न हुई होती।
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यह लड़की कौन थी? इसका कत्ल किसने किया था? यह कत्ल क्यों हुआ था?
ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर और ऐसी ही कुछ अपराध कथाएँ आपको इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेंगी। अगर आपको यह अंश पसंद आया है और आप इस पुस्तक को पढ़ना चाहते हैं तो आप इसे नीचे दिए गए लिंक्स से मँगवा सकते हैं।
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लेखक परिचय
सुरेन्द्र मोहन पाठक का जन्म 19 फरवरी, 1940 को पंजाब के खेमकरण में हुआ था। विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने भारतीय दूरभाष उद्योग में नौकरी कर ली। युवावस्था तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लेखकों को पढ़ने के साथ उन्होंने मारियो पूजो और जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों का अनुवाद शुरू किया। इसके बाद मौलिक लेखन करने लगे। सन 1959 में, आपकी अपनी कृति, प्रथम कहानी ’57 साल पुराना आदमी’ मनोहर कहानियाँ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। आपका पहला उपन्यास ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’, सन 1963 में ‘नीलम जासूस’ नामक पत्रिका में छपा था। सुरेन्द्र मोहन पाठक के प्रसिद्ध उपन्यास असफल अभियान और खाली वार थे, जिन्होंने पाठक जी को प्रसिद्धि के सबसे ऊँचे शिखर पर पहुँचा दिया। इसके पश्चात उन्होंने अभी तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनका पैंसठ लाख की डकैती नामक उपन्यास अंग्रेज़ी में भी छपा और उसकी लाखों प्रतियाँ बिकने की ख़बर चर्चा में रही। उनकी अब तक 306 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
उनसे smpmysterywriter@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
अमेज़न में मौजूद लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक के अन्य रचनाएँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (30-03-2023) को "रामनवमी : श्रीराम जन्मोत्सव" (चर्चा अंक 4651) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा अंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।