कहानी: खूनी चंडालन – देवेन्द्र प्रसाद

खूनी चंडालन - देवेन्द्र प्रसाद | कहानी

1

मेरी साँसे चढ़ी हुई थी। मैं बेतहाशा भागे जा रहा था। चारों तरफ घनघोर अँधेरा छाया हुआ था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस दिशा में भागूँ। सूखी लंबी घास की सरसराहट गूँजने लगीं। झींगुर भी पीछे नहीं रहे। नदी के तट की ओर से आ रही मेढकों की टर्र-टर्राहट में झींगुरों की आवाजें धीमे और अजीब स्वर में गूँजने लगीं।

नदी पर बने पुराने लकड़ी के पुल को पार कर मैंने किसी गाँव की सीमा में प्रवेश कर लिया था। गाँव की बाहरी सीमा पर टूटी-फूटी पुरानी बेजान झोपड़ी साँझ के प्रकाश में धुँधली सी दिख रही थी। चारों और घनघोर सन्नाटा था। मेरी पैरों की आवाज से सन्नाटा भंग होने लगा था। मेरा मन हुआ कि उस झोपड़ी में जाकर शरण ली जाए और किसी तरह उस चंडालन से पीछा छुड़ाया जाए।

मैं एक पल के लिए उस जगह पर खड़ा हुआ और फिर मैंने अपनी नजरें उस सुनसान इलाके में चारों तरफ घुमाकर वहाँ का जायजा लिया। वहाँ मेरे अलावा कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने उस झोपड़ी में रात गुजारना बेहतर समझा। मेरे कदम उस उस टूटी झोपड़ी की तरफ बढ़ चले। झोपड़ी पुरानी होने की वजह से उसका दरवाजा शायद सड़ चुका था। मेरे हाथ लगाते ही वह मिट्टी के ढेर की तरह भरभराकर ढह गया।

साँय… साँय… करता हुआ चमगादड़ों का एक झुंड फड़फड़ाता हुआ मेरे आस पास गोल-गोल चक्कर काटने लगा। मैंने उन्हें भगाने  की कोशिश की लेकिन मेरी यह कोशिश नाकामयाब हो रही थी। तभी मेरे कानों में सूखे पत्तों के चरचराने की आवाज आयी। मेरी दृष्टि स्वतः ही उस दिशा में घूम गयी। मैंने देखा कि कुछ फुट की दूरी पर ही वह चंडालन दबे पाँव इस दिशा में आ रही थी। उसे देखते ही मेरी मुँह से फिर से चीख निकल गयी।

मेरी वह आवाज इतनी तेज थी कि वह वीराना मेरी चीख की प्रतिध्वनियों से गूँज उठा। मैंने अपने सर पर पैर रख गाँव की अंदरूनी सीमा की तरफ भाग पड़ा। मैं लगातार भागता रहा। मुझे इस बात का एहसास हो चुका था कि आज की रात मेरी ज़िंदगी की आखिरी रात थी और अब मेरा जीवित रहना नामुमकिन है। मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था। मुझे अब अपनी गलती का एहसास हो गया था कि मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था। मुझे गाँव वाले की बात मान लेनी चाहिए थी।

मुझे डेढ़ घंटे पहले की बात याद आ गयी।


2

मेरा नाम संजीव पैन्यूली है और अभी 4 महीने पहले ही मेरी पहली पोस्टिंग देहरादून नामक जगह पर हुई थी। मैं वहाँ बिजली विभाग में तकनीशियन के पद पर कार्यरत था। चार महीने बाद पहली दफा मुझे अपने गाँव लखवाड़ जाने का मौका मिला था। मेरा गाँव जौनसार-बावर में पड़ता था। मैं बहुत खुश था क्योंकि मैं बहुत दिनों बाद आज गाँव जाने वाला था और मुझे आसानी से 4 दिनों की छुट्टी मिल गयी थी।

लखवाड़ देहरादून से 75 किलोमीटर की दूरी पर ही था। मैंने घड़ी में देखा तो रात के साढ़े दस बज रहे थे। खाना बनाकर खाने और बर्तन धोने में मुझे कुछ वक़्त लग गया था जिसकी वजह से इतना वक़्त हो गया था। खैर, अपनी मोटर साइकिल थी तो मुझे समय की उतनी परवाह नहीं थी। मैंने अपनी पल्सर ली और गाँव के लिए निकल पड़ा। मौसम सुहाना हो रखा था। ठंड बस शुरू हुई थी और कोहरा फैलने लगा था।

मुझे आज ही ऑफिस में किसी ने बताया था कि मेरी गाँव जाने के लिए कालसी नामक जगह के पास यमुना नदी पर बहुत बड़ा सेतु बना था और उस पर दुपहिया वाहन आसानी से आवागमन कर सकती थी। मैंने अपनी मोटर साइकिल उस तरफ ही घुमा ली। पुल कोहरे में डूबा हुआ लग रहा था। आज अमावस थी और साथ ही पुल पर रोशनी का कोई बंदोबस्त भी नहीं था। कोहरा, अँधेरी रात के साथ जुगलबंदी करके माहौल को डरावना बना रहा था। मैं वहाँ पर रुक गया। मैंने सुट्टा लगाया और फिर ठंड को भगाने के लिए दो घूँट लगाये। फिर मैं मुस्कराया और मैंने किसी तरह अपने मन से इन डरावने ख्यालों को झटका और रास्ते पर ध्यान देने लगा।

मैं उस सेतु पर प्रवेश करने वाला ही था कि तभी एक आदमी पता नहीं अचानक कहाँ से आ गया और मेरी मोटर साइकिल को रोकते हुए बोला, “अरे ठहरो! कहाँ जा रहे हो इस वक़्त?”

“अरे मैं अपने गाँव जा रहा हूँ लेकिन तुम कौन हो?”, मैं बोला।

उसने मेरी बात सुनते ही मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “ भाई जी, क्या तुम इस जगह नये हो या तुम्हें पता नहीं?”

मैं बोला, “तुम कहना क्या चाहते हो?”

इस बार उसने अजीब बात कही, “क्या तुम्हें अपनी ज़िंदगी प्यारी नहीं?”

मैं गुस्से से बोला, “यह क्या अनाप-शनाप बोले जा रहे हो? देखो मुझे देर हो रही है और मुझे गाँव पहुँचना है। चलो हटो, मुझे जाने दो।”

मेरा इतना कहना था कि उसने मेरी मोटर साइकिल की चाभी घुमाकर बंद कर दी। मैं कुछ बोलता उससे पहले ही बोल पड़ा, “भाई जी इस सेतु का उद्घाटन नहीं हुआ है इसलिए रात को इस रास्ते से तुम नहीं जा सकते?”

“देखो, मुझे गुस्सा ना दिलाओ, मुझे भी इस बात की खबर है कि दुपहिया वाहन के लिए यह नियम नहीं है और वे लोग आते जाते हैं यहाँ से।”

“बिलकुल वे लोग आते-जाते हैं लेकिन…!”

“लेकिन क्या जल्दी बोलो मुझे जाना भी है।”

“लेकिन तुम रात के इस वक़्त नहीं जा सकते नहीं तो वो तुम्हें मार डालेगी, वो चंडालन किसी को नहीं छोड़ती?”

मैंने इस बार उसे अपनी आँखें तरेरते हुए कहा, “कौन चंडालन? तुम किसकी बात कर रहे हो?”

“लगता है तुम वाकई नये हो और इस सेतु के बारे में कुछ नहीं पता? तो सुनो मैं तुम्हें उसके बारे में बताता हूँ। इस सेतु पर किसी वजह से कुछ समय के लिए रोक लगा दी गयी है। फिलहाल निर्माण कार्य पूरी तरह से बंद है जबकि केवल साइड की सुरक्षा दीवार बनानी ही बाकी है। इसलिए अभी इस सेतु का उद्घाटन भी नहीं हुआ है और लोगों ने इस पर चोरी छिपकर आवागमन भी शुरू कर दिया है जो कि गलत है। वैसे भी यहाँ कहते है कि हर पुल पूरे होने के बाद तब तक अधूरा ही माना जाता है जब तक किसी मनुष्य की बलि उस चंडालन को नहीं दे जाती। ऐसा ना करने पर वो चंडालन रुष्ट हो जाती है और फिर अनगिनत लोगों की जान लेती रहती है। किसी एक खास जगह पर बिना किसी कारण दुर्घटनाएँ आम हो जाती हैं। उन दुर्घटनाओं की कोई वजह तलाशने से भी नहीं मिलती हैं। ऐसा ही इधर भी है। इसलिए मेरी बात मानो रात को इस वक़्त इस सेतु से जाना अपनी मौत को दावत देने से कम नहीं है।”

उसकी बात सुनते ही मैं पहले जोर से हँसा और जब मेरी हँसी शांत हो गयी तो मैं उससे बोला, “ग्रामीण इलाकों में ​अशिक्षा और जागरुकता की कमी के चलते लोग आज भी अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। यही कारण है कि पुराने समय से चला आ रही रूढ़ियाँ उतनी ही जीवंत हैं जितनी पहले हुआ करती थी। देखो मैं पढ़ा लिखा और एक समझदार युवक हूँ। मैं इन ऊल जुलूल बातों को नहीं मानता और ना ही इन पर विश्वास करता हूँ। यदि हर सेतु के निर्माण में एक इंसान की बलि दी जाने लगे तो तुम्हारे हिसाब से दुनिया में लाखों लोग रोज इसी वजह से मरते होंगे। अब चलो हटो! जाने दो मुझे। अपनी चंडालन को कह देना कि मैं जा रहा हूँ अगर उसमें दम है तो रोक के दिखाए।”

यह कहते हुए मैंने उसे अपने हाथों से धकेल दिया और वह एक तरफ गिर पड़ा। मैंने अपनी मोटर साइकिल की चाभी घुमा दी और उसे स्टार्ट कर के आगे बढ़ गया।


3

अभी कुछ दूर चला ही था कि मुझे मौसम में अचानक परिवर्तन सा महसूस हुआ। ठंड शायद बढ़ सी गयी थी। लगा शायद यह नीचे यमुना नदी के वजह से था। तभी मेरी नजर सेतु के बीचों बीच पड़ी। पुल को कोहरे की चादर ने ढँक सा दिया था। फिर कोहरे में मुझे लगा जैसे एक औरत अपने एक हाथ में धारदार हथियार को थामे और दूसरे हाथ में एक कटोरा पकड़े हुई थी। उसे इस तरह से देख मेरे दिल में भय घर कर गया। मुझे अपनी बाइक रोकना भी याद नहीं रहा और अब मैं उसके इतने नजदीक पहुँच चुका था कि अगले ही पल उससे टकराने वाला था। उसका खड़ग चला और मेरी आँखें बंद हो गयी। मुझे लगा अब मेरे प्राण चले जाएँगे।

लेकिन यह तो चमत्कार ही हो गया। मैं उसके शरीर से आर-पार हो गया था। मेरे लिए यह विश्वास करना मुश्किल था। मैंने पीछे पलटकर देखा तो वहाँ कोई नहीं था।

तभी अचानक मेरी बाइक फिसली और मैं पुल पर गिर गया। मेरी मोटर साइकिल उस पुल से फिसलती हुई यमुना नदी में जा गिरी। वो तो शुक्र था कि मेरे हाथों में कहीं से निर्माणाधीन सरिया आ गया और मैं यमुना नदी में समाने से बच गया। मैंने किसी तरह खुद को वापस पुल पर खींचा और अपनी हाँफती साँसों को काबू करने की कोशिश करने लगा। तभी एक बार फिर सर्द लहर मेरे शरीर में दौड़ गयी।

मैंने नजरे उठाकर देखा तो वह चंडालन अब बिलकुल मेरे सामने थी। उसने अपना धारदार हथियार ऊपर उठाया और चीखी, “तुझे चेतावनी भिजवायी थी न लेकिन बावजूद तूने उसके मुझे ललकारा। अब तुझे इस चंडालन को अपनी बलि देनी ही होगी। तेरी मौत अब इस सेतु के लिए बहुत जरूरी हो गयी है।”

उसने अपना खड़ग उठाया और मुझ पर एक और वार किया। मैं तेजी से एक तरफ को लुढ़कर कर बचा। एक जोर से आवाज हुई। शायद खड़ग पुल पर मौजूद किसी लोहे की चीज से टकराया था। उस आवाज से मेरे बदन में सिहरन दौड़ गयी। मुझे विश्वास हो गया था कि वह इंसान बिलकुल सही कह रहा था।

उस वक्त मुझे भी नहीं पता था कि मेरे अंदर कैसी इतनी फुर्ती आ गयी थी। मैं अपनी जगह से उठा और अपने प्राण बचाने के लिए गिरते पड़ते पुल के दूसरी तरफ बेतहाशा भागे जा रहा था।

पीछे से उस चंडालन का अट्टहास तेज होता जा रहा था।

“भाग! देखती हूँ कितना भाग पाता है!”, आखिरकार वह चीखी।


4

अब डेढ़ घंटे बाद…

झोपड़ी से निकलकर भागते-भागते मैं अब किसी गाँव में आ गया था। आस पास कुछ घर दिखाई देने लगे थे। मैंने झट से एक घर के दरवाजे को पीटना शुरू कर दिया। उस घर से किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं पलटा और सामने वाले घर का दरवाजा पीटने के लिए आगे बढ़ा ही था कि तभी मेरे कदम उसी जगह पर जम गए। पंखों की फड़फड़ाहट हुई थी और मेरी नजर उस घर की छत पर चली गयी। मैंने देखा कि सामने वाले घर की छत पर सात उल्लू एक कतार में बैठे हुए थे। वह मुझे ऐसे घूरे जा रहा थे। उनकी आँखों में दिखते क्रोध को मैं महसूस कर पा रहा था। न जाने मुझे क्यों लगा कि मेरा यहाँ आना उन्हें अच्छा नहीं लगा।

मैंने खुद को दृढ़ किया और उन्हें नजरंदाज करते हुए उस घर के दरवाजे को पीटना शुरू कर दिया। मेरा ऐसा करते ही वह सारे उल्लू अजीब सी आवाज करते हुए उस छत से उड़ गए और उस दिशा की तरफ चले गए जिस तरफ से मैं आया था।

मेरे दरवाजे पीटने का कोई असर होता नहीं दिख रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे घर वाले मुरदों के साथ शर्त लगाकर सो रहे थे। या फिर … मेरे मन में एक खयाल आया.. ऐसा ख्याल जिसे मैं सोचना नहीं चाहता था। फिर भी वो खयाल अब किसी कील की भाँति मेरे मन में पेवस्त होता चला गया। ‘या फिर वो जानते थे कि मैं उस चंडालन का शिकार हूँ और वो इस पचड़े पर नहीं पड़ना चाहते थे।’

मेरे माथे पर पसीना चुचुहाने लगा था। पर फिर जब वापस से वातावरण सर्द होने लगा तो मैंने नजर उठाकर गाँव की ओर आती सड़क को देखा।

मैं उस तरफ से आ रही सड़क पर देखा तो चौंक कर रहा गया, वह चंडालन बलखाती हुई सी मेरी तरफ ही आ रही थी। वो सातों उल्लू उसके इर्द गिर्द ऐसे उड़ रहे थे जैसे वह उसके सैनिक हों। तीन उल्लू उसके दायें तरफ थे, तीन बाएँ तरफ और एक बड़ा उल्लू उसके सिर के ऊपर ऐसे उड़ रहा था जैसे उसके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा हो।

वह चंडालन भी एकदम निश्चिंत थी। कुछ ऐसे जैसे उसे पता था कि उसने अपने शिकार को किसी मकड़ी की तरह अपने जाल में फँसा लिया हो। मैं अपनी धड़कनों का शोर अब साफ साफ सुन सकता था। मेरे हाथ पाँव काँपने लगे थे। घड़ी के हर बढ़ते पल के साथ मेरी धड़कनों की रफ्तार बढ़ती जा रही थी।

मैं भी अब इस चंडालन के हाथों मरने ही वाला था। मुझे अब मरने से कोई बचा नहीं सकता था। पलक झपकते ही वह चंडालन मेरे सामने खड़ी थी। मैं दोबारा भागने को हुआ तो उसके इर्द गिर्द मौजूद उल्लुओं ने मुझे घेर लिया। वह अपनी चोंच से मुझे पर वार करने लगे। मैं उन्हें हटाने की कोशिश करता रहा लेकिन जैसे उन पर कोई जुनून सवार था। मेरी हाथों, मेरे कंधों, मेरे सिर पर उनके वार तब तक होते रहे जब तक कि मेरे पैरों ने मेरा साथ न छोड़ दिया और मैं धरती पर कटे वृक्ष सा गिर पड़ा। मैं जमीन पर था और वह हँसे जा रही थी।

उसकी कर्कश हँसी मेरे कानों में अब चुभने लगी थी। डर के मारे मेरे हाथ पाँव अब फूल गए थे। मेरे अंदर ताकत नहीं थी कि मैं दुबारा अपने पाँव पर खड़ा हो सकूँ। ऐसे में फिर भागना तो दूर कि बात थी। वह चंडालन धीरे-धीरे नीचे झुकी और उसने मेरे चेहरे को अपने खुरदुरे हाथों से उठाया। उसके मुँह से लार टपक कर मेरे चेहरे पर गिर रही थी।

उसने अपना सिर झुकाया और मेरे चेहरे के करीब आकर उसने झट से अपनी लंबी जीभ मुँह से बाहर निकाल दी। वह अपने जीभ से मेरे चेहरे को चाटने लगी। उसकी जीभ से कोई चिपचिपा तरल पदार्थ निकल रहा था जो कि मेरे पूरे चेहरे पर अब चिपक गया था।

अगले ही पल उसने अपना मुँह खोला और एक और आश्चर्य मेरी आँखों के सामने था। उसका मुँह पहले अँधेरी रात जैसे स्याह था जिसके बीच वह लाल जीभ किसी चपटे कीड़े से हिल रही थी पर अब उस स्याह मुँह में नुकीले दाँत धीरे धीरे उभरने लगे थे। अब उसका चेहरा एक डेढ़ इंच लंबे पैने दाँतों से भरा हुआ था।

“नहीं…. sss … कोई बचाओ मुझेssss!”

मैं जोर से चीखा और मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे कि वह नुकीले दाँत मेरे गर्दन पर चुभने लगे थे। हर गुजरते पल के साथ मैं शून्य में विलीन होता जा रहा था। कुछ देर बाद उसने मेरा चेहरा छोड़ दिया जो कि जमीन से टकराया। मेरी आँखें अब मुँदने लगी थी।

मेरी बंद आँखों ने जो आखिरी दृश्य देखा वो चंडालन के खून से लिसड़ा चेहरा था। पेट भर मेरा खून पीने के बाद वह अब वह मेरी गर्दन छोड़ चुकी थी जो कि उसके हाथ ने अब तक थाम रखी थी।

मेरा खून बहा जा रहा था। वह एक और बार मेरे तरफ को झुकी और उसने फिर से मेरी गर्दन को थोड़ा सा उठाया। अब मेरी गर्दन से बहती एक एक बूँद खून को वह उस कटोरे में इकट्ठा करने लगी उसके पास मौजूद था। फिर जब खून आना बंद हो गया तो उसने मेरी मेरी गर्दन को छोड़ दिया और आखिरकार मेरी आँखें बंद हो गयीं।

5

मुझे लोगों का शोर सुनाई दे रहा था। मैंने किसी तरह अपनी आँखें खोली लेकिन मुझे तकलीफ सी हुई। चारों तरफ बहुत तेज उजाला था। उस उजाले की वजह से मेरी आँखें चौंधिया रही थी। मिचमिचाते हुए किसी तरह आँखें खोल ही दी तो मुझे अपने आसपास बहुत से लोगों का जमावड़ा दिखा। सभी मुझे घेर कर खड़े थे। मैंने अपने हाथ पैर को हिलाने की कोशिश की तो लगा जैसे वह हिल नहीं पा रहे थे। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा था। मैं डरते हुए बोला, “म… मेरे हाथ पाँव क्यों नहीं हिल रहे? क्या मैं म…मर गया हूँ?”

मेरे इतना कहने के बाद भी किसी ने मेरा जवाब देना मुनासिब नहीं समझा तो मैंने अपनी कोशिश जारी रखी।

काफी कोशिशों के बाद मैं न केवल हाथ पाँव हिलाने में कामयाब रहा बल्कि किसी तरफ खड़ा भी हो गया। मैंने खड़े होते ही कहा, “अरे मैं जीवित हूँ, मुझे कुछ नहीं हुआ। मेरी मदद करो।”

पर उनके तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैंने उनका ध्यानाकर्षण करने की काफी कोशिश की लेकिन मेरे सारे प्रयास व्यर्थ रहे। वो लोग तो जैसे मुझे नजरंदाज करने का मन बना चुके थे। जमीन की ओर ही कुछ देखे जा रहे थे।

मेरी नजर उनकी नज़रों का अनुसरण करते हुए धरती पर पड़ी तो मेरे होश फाख्ता हो गए।

नीचे जमीन पर मेरी लाश पड़ी थी। मेरा सिर फट गया था और खून मेरे सिर के इर्द गिर्द इकट्ठा था। टाँगों के इर्द गिर्द भी काफी खून था। मेरे सिर पर हमेशा की तरह हेलमेट नहीं था। मेरी मृत खुली हुई आँखें जैसे मुझे ही देखकर मेरा उपहास उड़ा रही थी। तो मेरी मृत्यु क्या यहाँ हुई थी? तो फिर वो सब क्या था जो मैंने देखा था?

तभी मेरे कानों में एक आवाज आयी, “लो भाई चंडालन ने इस अमावस की रात को फिर ले ली एक और बलि। ना जाने कब उस चंडालन की इच्छा तृप्त होगी और यह नरसंहार रुकेगा? ना जाने कब उस अधूरे सेतु का काम पूरा होगा?”

“गलती खुद करते हैं नाम मेरा लगाते हैं”, तभी एक आवाज मेरे कानों में पड़ी।

इस आवाज को तो मैं पहचानता था। मैंने तेजी से पलटकर देखा तो चंडालन मेरे सामने खड़ी थी और मुस्करा रही थी।

“क्यूँ मारा मुझे! मैं चीखा!”

“क्या कहा! मैंने मारा! सच में!”, वह मुस्कुरायी और उसने लाश की तरफ इशारा किया।

मैंने देखा। हेलमेट विहीन लाश, जींस के जेब में दिखती बोतल जो गिरकर टूट गयी थी और उसके काँच से मेरा पैर कट गया था और खून बहा था। साथ ही थी जींस की दूसरे जेब में मौजूद वह स्पेशल सिगरेट जो मैंने पुल के किनारे पी थी। मैं समझ रहा था कि क्या हुआ था।

“पर वो सब!!”, मैं फिर भी कहना चाहा।

“कहा न! गलती खुद करते हो और नाम मेरा लगाते हो!” वो बोली और वहाँ से चल दी।

मैं भी उसके पीछे पीछे चल पड़ा। वहाँ रहकर अब मैं ही क्या करता।

समाप्त

लेखक परिचय

देवेन्द्र प्रसाद

देवेन्द्र प्रसाद एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं।

इनकी अब तक आठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘खौफ… कदमों की आहट’, ‘रहस्यमयी सफर’, ‘अभिशप्त रूपकुंड’, ‘लौट आया नरपिशाच’ इनकी कुछ रचनाएँ हैं।

परलौकिक घटनाओं के इर्द गिर्द अपनी कहानियों को बुनने में उन्हें महारत हासिल है। प्रतिलिपि और कहानियाँ नामक प्लेटफार्म में ये असंख्य कहानियाँ प्रकाशित कर चुके हैं। वहीं कुकू और पॉकेट एफ एम जैसे एप्लीकेशन में इनकी कहानियों के ऑडियो संस्करण आ चुके हैं।

अलग अलग जगहों की यात्रा करना और वहाँ से अपने पाठकों के लिए कहानियाँ लाना उन्हें पसंद है।

सम्पर्क:

फेसबुक | इन्स्टाग्राम प्रतिलिपि कुकू एफ एम | पॉकेट एफ एम | ई-मेल: authordevprasad@gmail.com


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

About एक बुक जर्नल

एक बुक जर्नल साहित्य को समर्पित एक वेब पत्रिका है जिसका मकसद साहित्य की सभी विधाओं की रचनाओं का बिना किसी भेद भाव के प्रोत्साहन करना है। यह प्रोत्साहन उनके ऊपर पाठकीय टिप्पणी, उनकी जानकारी इत्यादि साझा कर किया जाता है। आप भी अपने लेख हमें भेज कर इसमें सहयोग दे सकते हैं।

View all posts by एक बुक जर्नल →

4 Comments on “कहानी: खूनी चंडालन – देवेन्द्र प्रसाद”

  1. बहुत ही शानदार कहानी। बहुत दिनों बाद मैंने कोई ऐसी कहानी पढ़ी जिसमें हॉरर, थ्रिलर और शादी हुई लेखनी थी। नहीं तो आजकल हॉरर के नाम पर लोग टाइटल बड़े बड़े लिख देते हैं और अंदर दर्शन छोटे होते हैं। परंतु ये कहानी इसलिए भी खास रही कि शुरू से अंत तक पाठक को कहीं भटकने नहीं देती। साथ ही कहानी का जिस प्रकार से अंत होता है की पात्र जीवित नहीं है उसे खुद बाद में एहसास हुआ, ये वाला एंगल बहुत प्रभावित करता है। मैं इस प्लेटफॉर्म का शुक्रगुजार हूं कि इस तरह के छुपे लेखक को लाते रहें और हमें बेहतरीन कहानियों का लुत्फ दिलाते रहें। बहुत बहुत धन्यवाद।।।

  2. काफी समय के बाद कोई रुचिकर कहानी पढ़ने को मिली। मुझे इस कहानी में 2 बातें बेहद पसंद आई:-पहली ये की शुरुआत से अंत तक कहानी को बढ़िया पिरोया गया है और दूसरा ये कि इस कहानी का अंत बिल्कुल ही सोच से परे था। मैं आपकी और भी कहानी पढ़ने को व्याकुल हूं। कृप्या लिंक दीजिए।

    1. धन्यवाद प्रियंका जी। वेबसाईट पर आप अन्य कहानियाँ भी पढ़ सकती हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *